Changes

Jump to navigation Jump to search
m
indenting
Line 1: Line 1:  
............. page-267 .............
 
............. page-267 .............
   −
=== Text to be added ===
+
=== भारत रोगग्रस्त होने के कारण ===
   −
............. page-268 .............
+
१, सन् १६०० में ईस्ट इण्डिया कम्पनी भारत में आई । उसके स्वरूप में एक संकट समुद्र के उस पार से भारत पर आया था । वह गर्जना करते हुए, हाथ में तलवार लेकर, मारो काटो, नष्ट कर दो, जीत लो ऐसा ललकार करते हुए नहीं आया था । वह रणमैदान में युद्ध करके जीतने के लिये नहीं आया था । वह अपने ही प्रकार का संकट था । भारत के लिए सर्वथा अपरिचित ऐसा संकट था । 
   −
हुए इसलिये अंग्रेज अपने उद्देश्य में यशस्वी हो गये ऐसा खुलासा देते हैं । परन्तु यह भी स्मरण में रखना चाहिये कि छोटे छोटे राज्य होना कोई इसी समय की घटना नहीं थी । युरगों से भारत इसी प्रकार से विकेन्द्रित रूप में शासन चलाता रहा है तो भी राष्ट्र के रूप में एक ही रहा है । अतः जिस प्रकार अंग्रेजों का दोष नहीं माना जाता उस प्रकार भारत का भी असंगठित होने में तो दोष नहीं ढूँढा जा सकता ।
+
२. वह जंगली था परन्तु जंगली दिखाई नहीं देता था | असभ्य था परन्तु असभ्य दिखाई नहीं देता था । उसकी बोली भारत के लिये अपरिचित थी परन्तु आवाज और हावभाव से वह सभ्य लगती थी । वह आगन्तुक बन कर आया था । उसका छद्मवेश न पहचानते हुए भारत ने उसे आश्रय दिया । वह आश्रय माँग रहा था । भारत ने उसे भिक्षा दी । वह अतिथि था, भारत ने उसका आतिथ्य किया ।
 +
 
 +
३. भारत में आगमन के बाद लगभग एक सौ वर्ष तक वह दीन और नम्र ही बना रहा राजाओं के सम्मुख झुकता ही रहा । शिवाजी महाराज जैसे कुछ लोगों ने उसकी धूर्तता पहचानी भी थी और उसे दूर भी रखा था। परन्तु जिस प्रराक लड्डू में मिला विष खाते समय जीभ को तो मिष्ट ही लगता है परन्तु शरीर में जाकर प्रभाव दिखाता है उस प्रकार वह संकट उपर से समझ में नहीं आता था परन्तु अन्दर अन्दर अपना प्रभाव जमा रहा था |
 +
 
 +
४. जिस प्रकार एक साथ विष खाने पर व्यक्ति मर जाता है परन्तु कण कण विष खाकर मरता नहीं है अपितु विषैला बन जाता है । अंग्रेज नामक संकट, जो ईस्ट इण्डिया कम्पनी के रूप में आया था वह भारत के देह को विषैला बना रहा था । शरीर के संविधान को बदल रहा था ।
 +
 
 +
५. यह संकट बहुत धीरे धीरे छा रहा था । वह केवल बर्तन पर धूल की परत चढ जाती है वैसा बाहरी स्वरूप से नहीं छा रहा था । जिस प्रकार लोहे को जंग लगकर उसका धीरे धीरे क्षरण होता है वैसा नहीं था अपितु जिस प्रकार तामसी आहार जीभ को अच्छा लगता है परन्तु उसका रस बनकर रक्त में मिल जाता है तब वह संस्कार बन जाता है और अन्तःकरण का संविधान बदलने लगता है वैसा था |
 +
 
 +
६. यह आश्चर्य की बात अवश्य है कि भारत जैसे अनुभवी, बुद्धिमान, व्यवहारदृक्ष चतुर देश को इस संकट का भी असली स्वरूप समझ में क्यों नहीं आया । नहीं समझने का दोष संकट का नहीं है । वह तो जैसा था वैसा ही था । स्वार्थवश जो करना चाहिये वही वह करता था । पराई भूमि में जिस प्रकार से अपना स्थान जमाया जा सकता है वही वह कर रहा था । पहचानना तो भारत को ही चाहिये था।
 +
 
 +
७. कुछ लोग भारत में असंख्य छोटे छोटे राज्य थे और अन्दर अन्दर वे लड़ते झगड़ते थे, उन्हें राष्ट्रीय दृष्टि नहीं थी इसलिये राष्ट्रीय संकट के समय भी एक नहीं हुए इसलिये अंग्रेज अपने उद्देश्य में यशस्वी हो गये ऐसा खुलासा देते हैं । परन्तु यह भी स्मरण में रखना चाहिये कि छोटे छोटे राज्य होना कोई इसी समय की घटना नहीं थी । युरगों से भारत इसी प्रकार से विकेन्द्रित रूप में शासन चलाता रहा है तो भी राष्ट्र के रूप में एक ही रहा है । अतः जिस प्रकार अंग्रेजों का दोष नहीं माना जाता उस प्रकार भारत का भी असंगठित होने में तो दोष नहीं ढूँढा जा सकता ।
    
८. अंग्रेजों ने अपने स्वभाव के अनुसार जो कर सकते थे वह किया और भारत अपने स्वभाव और स्थिति के अनुसार उनके साथ व्यवहार किया और उसका परिणाम जो हो सकता था वही हुआ, भारत को अंग्रेजीयत नामक रोग लग गया जो आज तक दुः्साध्य बन कर ही भारत में अपनी जड जमाये हुए है । उस समय के हमारे पूर्वजों को कोसते रहने से रोग दूर होने वाला नहीं है केवल आत्मग्लानि बढ़ने वाली है इसलिये उसमें न उलझकर रोगमुक्त होने में हमारी शक्ति का विनियोग करने की आवश्यकता है । कारण यह भी है कि अपने ही लोगों में दोष ढूंढ़ते रहना भी अंग्रेजीयत नामक रोग का ही लक्षण है ।
 
८. अंग्रेजों ने अपने स्वभाव के अनुसार जो कर सकते थे वह किया और भारत अपने स्वभाव और स्थिति के अनुसार उनके साथ व्यवहार किया और उसका परिणाम जो हो सकता था वही हुआ, भारत को अंग्रेजीयत नामक रोग लग गया जो आज तक दुः्साध्य बन कर ही भारत में अपनी जड जमाये हुए है । उस समय के हमारे पूर्वजों को कोसते रहने से रोग दूर होने वाला नहीं है केवल आत्मग्लानि बढ़ने वाली है इसलिये उसमें न उलझकर रोगमुक्त होने में हमारी शक्ति का विनियोग करने की आवश्यकता है । कारण यह भी है कि अपने ही लोगों में दोष ढूंढ़ते रहना भी अंग्रेजीयत नामक रोग का ही लक्षण है ।
216

edits

Navigation menu