यदि ऐसा ही चलता रहा तो

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भारत रोगग्रस्त होने के कारण

१, सन् १६०० में ईस्ट इण्डिया कम्पनी भारत में आई । उसके स्वरूप में एक संकट समुद्र के उस पार से भारत पर आया था । वह गर्जना करते हुए, हाथ में तलवार लेकर, मारो काटो, नष्ट कर दो, जीत लो ऐसा ललकार करते हुए नहीं आया था । वह रणमैदान में युद्ध करके जीतने के लिये नहीं आया था । वह अपने ही प्रकार का संकट था । भारत के लिए सर्वथा अपरिचित ऐसा संकट था ।

२. वह जंगली था परन्तु जंगली दिखाई नहीं देता था | असभ्य था परन्तु असभ्य दिखाई नहीं देता था । उसकी बोली भारत के लिये अपरिचित थी परन्तु आवाज और हावभाव से वह सभ्य लगती थी । वह आगन्तुक बन कर आया था । उसका छद्मवेश न पहचानते हुए भारत ने उसे आश्रय दिया । वह आश्रय माँग रहा था । भारत ने उसे भिक्षा दी । वह अतिथि था, भारत ने उसका आतिथ्य किया ।

३. भारत में आगमन के बाद लगभग एक सौ वर्ष तक वह दीन और नम्र ही बना रहा राजाओं के सम्मुख झुकता ही रहा । शिवाजी महाराज जैसे कुछ लोगोंं ने उसकी धूर्तता पहचानी भी थी और उसे दूर भी रखा था। परन्तु जिस प्रराक लड्डू में मिला विष खाते समय जीभ को तो मिष्ट ही लगता है परन्तु शरीर में जाकर प्रभाव दिखाता है उस प्रकार वह संकट उपर से समझ में नहीं आता था परन्तु अन्दर अन्दर अपना प्रभाव जमा रहा था |

४. जिस प्रकार एक साथ विष खाने पर व्यक्ति मर जाता है परन्तु कण कण विष खाकर मरता नहीं है अपितु विषैला बन जाता है । अंग्रेज नामक संकट, जो ईस्ट इण्डिया कम्पनी के रूप में आया था वह भारत के देह को विषैला बना रहा था । शरीर के संविधान को बदल रहा था ।

५. यह संकट बहुत धीरे धीरे छा रहा था । वह केवल बर्तन पर धूल की परत चढ जाती है वैसा बाहरी स्वरूप से नहीं छा रहा था । जिस प्रकार लोहे को जंग लगकर उसका धीरे धीरे क्षरण होता है वैसा नहीं था अपितु जिस प्रकार तामसी आहार जीभ को अच्छा लगता है परन्तु उसका रस बनकर रक्त में मिल जाता है तब वह संस्कार बन जाता है और अन्तःकरण का संविधान बदलने लगता है वैसा था |

६. यह आश्चर्य की बात अवश्य है कि भारत जैसे अनुभवी, बुद्धिमान, व्यवहारदृक्ष चतुर देश को इस संकट का भी असली स्वरूप समझ में क्यों नहीं आया । नहीं समझने का दोष संकट का नहीं है । वह तो जैसा था वैसा ही था । स्वार्थवश जो करना चाहिये वही वह करता था । पराई भूमि में जिस प्रकार से अपना स्थान जमाया जा सकता है वही वह कर रहा था । पहचानना तो भारत को ही चाहिये था।

७. कुछ लोग भारत में असंख्य छोटे छोटे राज्य थे और अन्दर अन्दर वे लड़ते झगड़ते थे, उन्हें राष्ट्रीय दृष्टि नहीं थी इसलिये राष्ट्रीय संकट के समय भी एक नहीं हुए इसलिये अंग्रेज अपने उद्देश्य में यशस्वी हो गये ऐसा खुलासा देते हैं । परन्तु यह भी स्मरण में रखना चाहिये कि छोटे छोटे राज्य होना कोई इसी समय की घटना नहीं थी । युरगों से भारत इसी प्रकार से विकेन्द्रित रूप में शासन चलाता रहा है तो भी राष्ट्र के रूप में एक ही रहा है । अतः जिस प्रकार अंग्रेजों का दोष नहीं माना जाता उस प्रकार भारत का भी असंगठित होने में तो दोष नहीं ढूँढा जा सकता ।

८. अंग्रेजों ने अपने स्वभाव के अनुसार जो कर सकते थे वह किया और भारत अपने स्वभाव और स्थिति के अनुसार उनके साथ व्यवहार किया और उसका परिणाम जो हो सकता था वही हुआ, भारत को अंग्रेजीयत नामक रोग लग गया जो आज तक दुः्साध्य बन कर ही भारत में अपनी जड़ जमाये हुए है । उस समय के हमारे पूर्वजों को कोसते रहने से रोग दूर होने वाला नहीं है केवल आत्मग्लानि बढ़ने वाली है इसलिये उसमें न उलझकर रोगमुक्त होने में हमारी शक्ति का विनियोग करने की आवश्यकता है । कारण यह भी है कि अपने ही लोगोंं में दोष ढूंढ़ते रहना भी अंग्रेजीयत नामक रोग का ही लक्षण है ।

९. भारत में पदार्पण करने के लगभग देढ सौ वर्ष बाद सन १७५७ में प्लासी के युद्ध के विजय के बाद अंग्रेजों की सत्ता राज्यों पर भी कायम होने लगी | परन्तु हमें यह बात समझने की आवश्यकता है कि शासन करना उनकी प्रथम वरीयता नहीं थी । वे धन की खोज में आये थे । वे येन केन प्रकारेण धन चाहते थे । लूट करने में उन्हें परहेज नहीं था । उस समय सात सागरों में लूट करनेवालों का ही बोलबाला था । उनके लिये लूट करना कोई अस्वाभाविक बात नहीं थी । अतः भारत में भी धन की लूट करना उन का उद्देश्य था । यह प्रथम वरीयता थी। परन्तु सीधा सीधा लूटना एक ही बार सम्भव होता है इसलिये उसे व्यापार का रूप दिया गया । व्यापारी कम्पनी के रूप में वे भारत में आये । व्यापार भी एक बहाना था, कम्पनी भी एक छद्मवेश था।

१०. लूट करने के लिये राज्य स्थापित करने से सहूलियत होती है ऐसा विश्वास होने पर उन्होंने राज्य भी हस्तगत करने का प्रारम्भ किया । सन १७५७ से उसमें उन्हें यश मिलता गया और एक सौ वर्ष तक यह प्रक्रिया चली । सन्‌ १८५७ में उन्हें विजय तो मिली परन्तु कम्पनी ने बहुत मार खाई थी । परिणाम स्वरूप सन्‌ १८५८ से ब्रिटीश सरकार का शासन स्थापित हो गया । सन १८५८ से सन्‌ १९४७ तक भारत में ब्रिटीशों का साप्राज्यवादी शासन रहा ।

अंग्रेजों के उद्देश्य

११. अतः अंग्रेजों की प्रथम वरीयता लूट करना, लूट दीर्घ काल तक निरन्तर रूप से कर सकें इस हेतु से व्यापार करना और व्यापार के सारे अवरोध दूर करने हेतु राज्य हस्तगत करना तीसरे क्रम में आता है । इसके साथ ही सुलभ थे इसलिये और दो उद्देश्य जुड गये । एक था यूरोपीकरण और दूसरा था ईसाईकरण । अतः उनके उद्देश्यों का क्रम कुछ इस प्रकार बनता है - १, लूट करना, २. व्यापार करना, ३. राज्य करना, ४. युरोपीकरण करना और ५. ईसाईकरण करना |

१२. भारत का यूरोपीकरण करने के लिये उन्होंने शिक्षा का माध्यम अपनाया और ईसाईकरण के लिये “सेवा' का । शिक्षा के लिये विद्यालय स्थापित किये, सेवा के लिये मिशन बनाये । इनमें यूरोपीकरण ही सबसे घातक सिद्ध हुआ । शिक्षा ही सबसे प्रभावी माध्यम सिद्ध हुई । इसलिये रोगमुक्त होने के लिये हमें शिक्षा के धार्मिककरण का और धार्मिक शिक्षा के माध्यम से भारत के धार्मिककरण का प्रयास पूर्ण शक्ति के साथ करना चाहिये ।

१३. भारत में अंग्रेज आये और स्थापित हो गये इसके लिये हम उस समय के पूर्वजों को दोष देते हैं परन्तु आज हम उनसे भी अधिक दोषपूर्ण व्यवहार कर रहे हैं। अंग्रेजीयत का रोग हमारे सम्पूर्ण राष्ट्रशरीर में व्याप्त हो गया है । हमारे सारे लक्षण रोगी के ही हैं । और यदि उपाय नहीं किया तो रोगी की जो स्थिति और गति होती है वही हमारी भी होगी ।

१४, यूरोपीकरण का पहला असर हमारी राज्यव्यवस्था में दिखाई देता है । आदिकाल से भारत में राजाओं का शासन था । राज्यव्यवस्था का पूरा एक शास्त्र था । शासकों की शिक्षा का पूरा तन्त्र था । शासकों की योग्यता और पात्रता की परीक्षा करने का आग्रह था और शासक यदि योग्य नहीं रहा तो उसे दूर करना भी स्वाभाविक माना जाता था । स्वतन्त्रता प्राप्त हुई तब भी भारत में पाँच सौ से अधिक राज्य थे और राजा थे । हमने किस आधार पर हमारे देश के शासन की wa की और किस आधार पर राज्यों का विलीनीकरण किया और किसने भारत लोकतान्त्रिक देश होना चाहिये ऐसा कहा इसका हमें पता तक नहीं चला । भारत में जिस अर्थ में 'लोकतन्त्र' संज्ञा का प्रयोग होता है वह तो “डेमोक्रसी' का नहीं है । “धर्म' को जिस प्रकार *रिलीजन' कहकर अनवस्था निर्माण की जा रही है वही हाल लोकतन्त्र का भी हो रहा है। एक शासक को शीलशास्त्र सम्पन्न होना चाहिये यह स्वाभाविक अपेक्षा है । आज किस ममन्त्री से, किस राष्ट्राध्यक्ष से यह अपेक्षा रखी जाती है ? राजनीति और राजकीय दाँवपेंच में सिंह और लोमडी जितना अन्तर है परन्तु उस अन्तर को तो समाप्तकर दिया गया है ।

१५, यदि राज्य चलाने का यह यूरोपी तरीका नहीं बदला तो आगे क्या परिणाम होंगे ? देश में आज दलीय राजनीति हो रही है, आगे दलों में व्यक्तिपरक राजनीति होगी । दलगत स्वार्थों के आधार पर संविधान में परिवर्तन होता है । यह तो आज की स्थिति है । आगे व्यक्तिगत स्वार्थ हेतु संविधान में परिवर्तन होगा । देश में किसी प्रकार की व्यवस्था नहीं रहेगी, सुरक्षा नहीं रहेगी, सुख भी नहीं रहेगा । “डेमोक्रसी' के रूप में “ऑटोक्रसी' होगी ।

१६, परन्तु व्यवस्था. और सुरक्षा नहीं होने के परिणामस्वरूप जिसकी. लाठी उसकी भैंस, जैसी अवस्था हो ही जायेगी । किसी को भी अनुशासन में रखने वाला कोई नहीं रहेगा तो मारना और मरना ऐसे दो ही तो विकल्प बच जायेंगे । पुलीस, न्यायालय, वकील, अफसर आदि का रूप धारणकर अत्याचार ही तो होंगे । इसलिये हमें राज्यव्यवस्था का पुनर्विचार करना होगा ।

१७. अंग्रेज व्यापारी कम्पनी के रूप में आये थे । भारत का जो यूरोपीकरण हुआ उसके परिणाम स्वरूप वर्तमान भारत की व्यापारी कम्पनियाँ ईस्ट ईण्डिया कम्पनी जैसी ही बन गईं । अंग्रेजी कम्पनी कम से कम पराये देशों में लूट चलाती थी, वर्तमान भारत की कम्पनियाँ अपने ही देशवासियों को लूटने का काम करती हैं। समस्त प्रजा को पराधीन, नौकरी करनेवाली, चार पैसे कमाने के लिये दिनभर झूझने वाली बना देना लूट और शोषण नहीं तो क्या है ? और ऐसा करने के लिये राज्य का उपयोग साधन के रूप में ही हो रहा है । आज भारत में एक के स्थान पर असंख्य ईस्ट इंण्डिया कम्पनियाँ हैं ऐसा कहने में क्या अतिशयोक्ति है ?

१८. व्यापार की और शासन करने की इस पद्धति को उचित और मान्य सिद्ध करने के लिये अर्थशास्त्र और राजशास्त्र बना है और विश्वविद्यालयों में पढाया जा रहा है । पैसे के बिना चुनाव नहीं जीते जाते और पैसे के बिना विश्वविद्यालय नहीं चलते । पैसे के बिना विश्वविद्यालयों को मान्यता ही नहीं मिलती । ऐसी अर्थनिष्ठा ने धर्मनिष्ठा का स्थान ले लिया है ।

१९. जब समाज धर्मनिष्ठा को छोड़कर अर्थनिष्ठ बन जाता है तब सर्वप्रकार से संस्कारों का नाश होकर दुर्गति होती है । आज भारत दुर्गति की ओर धँस रहा है । उस दुर्गति से भारत को बचाना शिक्षा के धार्मिककरण से ही सम्भव है ।

२०. हमने देखा कि ब्रिटीशों के क्रमशः पाँच उद्देश्यों में युरोपीकरण सबसे घातक है । यह उद्देश्य सिद्ध हुआ है शिक्षा के माध्यम से । इसलिये हमें शिक्षा पर ही अपना ध्यान केन्द्रित करना चाहिये । दुर्भाग्य से आज भारत की मुख्य धारा की शिक्षा यूरोपीय ही है । भारत की सरकार ने सीमित क्षेत्र के लिये जो यूरोपीय शिक्षा थी उसका सार्वत्रिकरण किया । इससे व्यापारीकरण भी सार्वत्रिक हो गया । शिक्षा का भी व्यापारीकरण हो गया । दूसरों का उद्धार करनेवाली, मुक्त करनेवाली शिक्षा स्वयं बन्धनग्रस्त हो गई, बुरी तरह से फँस गई ।

साम्यवाद का संकट

२१. यूरोपीकरण का एक आयाम है साम्यवाद का संकट | संकल्पनात्मक शब्दों के अंग्रेजी और धार्मिक भाषाओं में परस्पर अनुवाद का परिणाम होता है शब्दों के अर्थ के बारे में सम्ध्रम और विपरीतता । साम्यवाद ने धर्म को अफीम बताया, सेकुलर को धर्मनिरपेक्ष कहा. और धर्मको भावात्मकता का रूप देकर धर्म निरपेक्षता को बौद्धिक बताया । इससे निधर्मिकता और अधार्मिकता की प्रतिष्ठा हुई । संस्कृति को धर्म से अलग कर उसका. राजनीतिकरण किया । 'राजनीति' *पोलीटीक्स' का अनुवाद है। परन्तु धर्म और रिलीजन, संस्कृति और कल्चर, राष्ट्र और नेशन की तरह राजनीति और पोलीटीक्स का भी घोटाला ही है । राजनीति बहुत ही विधायक अर्थवाला शब्द है, उसकी प्रतिष्ठा है, शासक और प्रशासक - मुख्य रूप से प्रशासक - राजनीतिनिपुण होना चाहिये परन्तु जिस रूप में आज पोलीटीक्स अर्थात् राजनीति को समझा जाता है और व्यवहार में लाया जाता है वह अर्थ है शठता और धूर्तता जिसका लक्ष्य है येनकेन प्रकारेण स्वार्थसिद्धि । साम्यवाद ने दैनन्दिन व्यवहार में संस्कृति के नाम पर स्वार्थ सिद्धि हेतु शठता और धूर्तता को मान्यता दे दी । अब, पोलीटीक्स नहीं चाहिये परन्तु संस्कृति चाहिये । शठता और धूर्तता स्वार्थसिद्धि के साधन के रूप में प्रयुक्त होते हैं तो आपत्ति नहीं ।

२२. अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के नाम पर कला, संगीत, साहित्य, मनोरंजन आदि के क्षेत्र में मूल्यों पर आघात करना साम्यवादी तरीका है। राम ने सीता को अन्याय किया कहकर पुरुष जाति के स्त्रीजाति पर अन्याय को मुखर बनाना, देवी देवताओं के अश्लील चित्र बनाना, स्त्रियो को लिव इन रिलेशनशीप तक पहुँचा देना, मनोविकृतियाँ पैदा करनेवाले टीवी धारावाहिक बनाना, वेदों की. निन््दा करना, यूरोपीकरण का साम्यवादी तरीका है । समानता के नाम पर ख्त्रीयों को पुरुषों के, गरीबों को आमीरों के, प्रजा को शासकों के, शूट्रों को ब्राह्मणों के, विद्यार्थियों को शिक्षकों के और सन्तानों को मातापिता के विरुद्ध भडकाकर वर्गविग्रह निर्माण करना, आशांति फैलाना और समाज को तोडना यूरोपीकरण का साम्यवादी तरीका है । आधुनिकता के नाम पर सर्व प्रकार के रीतिरिवाजों की निन््दा करना, उनका अपहास करना, उनको अआवैज्ञानिक बताना, अपनी भाषा, वेशभूषा, समारोहों को यूरोपीय बनाना, अनुशासन, आज्ञापालकता, नियमपालन, संस्कारिता, शिष्टता आदि छोड़कर नई पीढी आधुनिक बन सकती है ऐसा प्रचार करना यह संस्कारिता नष्ट करने का साम्यवादी तरीका है । इतिहास के अध्ययन का नाम लेकर हमारे पूर्वजों को काल्पनिक पात्र बताना, पुराणों तथा रामायण, महाभारत, उपनिषद आदि को प्रमाण नहीं मानना, हमारी सारी व्यवस्थायें, विशेष रूप से समाजव्यवस्था पिछडेपन की, अर्थव्यवस्था शोषण की, धर्मव्यवस्था पोंगापन और भोंदुगीरी की ही निशानी है। हमारे शासक विलासी और व्यभिचारी थे, ब्राह्मण सामाजिक अन्याय का प्रतीक थे कहकर राज्यव्यवस्था को गाली देना, ज्ञानव्यवस्था को निकृष्ट बताना 'ज्ञानात्मक' तोड़फोड़ का साम्यवादी तरीके है । इस प्रकार से यूरोपीकरण का तोडफोड के तन्त्र आज भी चल रहा है। इसका सबसे प्रभावी माध्यम शिक्षा है, सबसे कामयाब केन्द्र विश्वविद्यालय है ।

२३. किसी भी श्रेणी में छोटों और बडों के सम्बन्ध और व्यवहार के तरीके एकदूसरे से पूर्ण रूप से विरोधी होने पर भी जिस शब्दावली का प्रयोग होता है वह समाज है । उदाहरण के लिये भारत में कहा जाता है कि उपभोग के मामले में छोटों का अधिकार प्रथम है, सुरक्षा के मामले में परिचर्या करने वालों का अधिकार पहले है, कष्ट सहने में बडों का क्रम प्रथम है । साम्यवाद भी कहता है कि देश की सम्पत्ति पर कामगारों का अधिकार प्रथम है, समाज में गरीबों का अधिकार पहले है । दोनों की भाषा समान ही है परन्तु भारत में बडों का कर्तव्य है जबकि साम्यवाद में बडे होना, अमीर होना सत्तावान होना, ब्राह्मण होना ही अपराध है । भारत में बडों का कर्तव्य प्रथम है परन्तु वे आदर के पात्र है । साम्यवाद में बडों का आदर करना पिछड़ापन है । बडे कभी कर्तव्य मानेंगे ही नहीं इसलिये छोटों ने उनसे छीन लेना चाहिये । छीनना भी अधिकार है ।

२४. मजेदार बात यह है कि छोटे छीन छीन कर बडे हो जायेंगे तो अपने आप ही अपराधी हो जायेंगे और छीने जाने योग्य हो जायेंगे । अर्थात्‌ वर्गविग्रह का कोई अन्त नहीं है । वर्ग समाप्त नहीं होने देना, साथ ही वर्गविग्रह समाप्त नहीं होने देना साम्यवादी “संस्कृति” है । यह यूरोपीकरण का सामाजिक आयाम है ।

२५. हमने अपने स्वयं के लिये विचित्र समस्या निर्माण कर ली है । विदेशी शत्रु के आक्रमण के सामने लडने के लिये हमारे पास सेना है । विदेशी जासूसों को पकडने के लिये हमारे पास जासूसी तन्त्र है । देश में भी जो आतंकवादी हैं उन्हें पकडने के लिये सेना और पुलीस है । गुंडों को पकडने और सजा करने के लिये पुलीस और न्यायालय है । किसी भी प्रकार के सामाजिक और आर्थिक अपराधों के लिये पुलीस और न्यायालय है । परन्तु धर्म और संस्कृति के क्षेत्र में सुरक्षा का कोई प्रावधान नहीं है । कानूनी अर्थ में जो सामाजिकता है, नैतिकता है उसकी ही रक्षा का प्रावधान है । सांस्कृतिक दृष्टि से जो सामाजिकता है उसकी रक्षा के लिये कोई व्यवस्था नहीं है । धर्म, संस्कृति और ज्ञान ही यदि सुरक्षित नहीं है तो और कौन सी बात सुरक्षित रह सकती है । धर्म, संस्कृति और ज्ञान की रक्षा करना राष्ट्रीय कर्तव्य है ऐसा सरकार को लगता ही नहीं है । धर्म जिनका कार्यक्षेत्र है उन्हें इस मुद्दे की ठीक से समझ नहीं है । यह इसलिये कहना प्राप्त है क्योंकि वे प्रजा को धर्मप्रवण बनाने का तो प्रयास करते हैं परन्तु अर्थक्षेत्र, ज्ञानक्षेत्र और राज्यक्षेत्र की धर्मविमुखता को अपने कार्यक्षेत्र में समाविष्ट नहीं करते । जीवन के इन तीनों महात्त्वपूर्ण क्षेत्रों में यूरोपीकरण के शिकार बने लोगोंं को वास्तव में धर्मप्रवण कैसे बनाया जा सकता है ?

२६. ज्ञानक्षेत्रकी स्थिति तो अत्यन्त दारुण है । राष्ट्रजीवन की सर्व प्रकार की समस्याओं को सुलझाने का जिनका दायित्व है वे स्वयं यूरोपीय ज्ञान से ग्रस्त हुए हैं । ब्रिटीशों का उद्देश्य भी यही था । इस ज्ञानक्षेत्र की मुक्ति अब सरकार के लिये कठिन मामला बन गई है । अध्यापक स्वयं बेचारे बन गये हैं । धार्मिक ज्ञानधारा में अवगाहन करनेवाले लोग मुक्त कराने वाले ज्ञान की बात तो करते हैं परन्तु ज्ञान को मुक्त करने की आवश्यकता नहीं मानते हैं । यह विषय भी उनके विचारक्षेत्र में नहीं है ।

२७. शिक्षा को यूरोपीकरण के प्रभाव से मुक्त करने का कितना महत्त्व है इसका ठीक से आकलन करना भी छोटे बडे सब के लिये कठिन हो रहा है । इस शिक्षा का प्रभाव ही ऐसा है कि सर्वसामान्य लोगोंं को समस्या समस्या ही नहीं लगती है जबकि ब्रिटीशों के शेष सारे कारनामों - लूट, व्यापारीकरण, राज्यव्यवस्था और ईसाईकरण - से बचने का उपाय ही शिक्षा के यूरोपीकरण को निरस्त कर धार्मिककरण करना है । हर प्रकार से हम शिक्षा के धार्मिककरण के मुद्दे पर ही आ पहुँचते हैं ।