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==== ७. श्रद्धा और विश्वास ====
 
==== ७. श्रद्धा और विश्वास ====
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१. श्रद्धा, विश्वास और पश्चिम का विचार करते हैं तब लगता है कि उन्होंने अपनी ज्ञानयात्रा हेतु आवश्यक अन्न पानी का ही त्याग कर दिया है और भूख और प्यास से पीडित होने की नौबत उन पर आ पडी है । अथवा अपने ज्ञानभवन को बिना आधार के खडा किया है जिससे उसके कभी भी धराशायी होने की सम्भावना सदैव बनी रहती है।
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इसका एक सीधा सादा कारण यह है कि पश्चिम का सारा व्यवहार दूसरों पर अविश्वास के आधार पर ही शुरू होता है । उसके सारे कानून मनुष्य अच्छा नहीं है, वह दूसरों को धोखा ही देगा ऐसा मानकर वह धोखा न दे सके इसके प्रावधान हेतु बने हैं।
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३. कदाचित ऐसी दृष्टि उसे अपनी उत्पत्ति के साथ ही प्राप्त हुई होगी। आदम और हवा स्वर्ग के बगीचे में रहते थे। प्रभुने उन्हें ज्ञान के वृक्ष का फल खाने हेतु मना किया था। आदम तो खाने के लिये इच्छुक नहीं था परन्तु हवा ने उसे ललचाया, भरमाया, उकसाया और फल खाने के लिये विवश किया । यह पाप हुआ जिसके परिणाम स्वरूप दोनो को स्वर्ग से निष्कासित होकर पृथ्वी पर आना पडा। यहीं से अर्थात् पृथ्वी पर आगमन के क्षण से ही विश्वासघात का अनुभव जुडा हुआ है। इसलिये नित्य सावधानी उनके व्यवहार का अंग बन गई है।
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४. यही बात श्रद्दा की है। पश्चिम को किसी में श्रद्धा नहीं है, न तत्त्व में, न व्यक्ति में, न विचार में । उसे बस लालसा है, अहंकार है, मद है । ऐसा होने के कारण उसने अपने आपके लिये अनेक संकट निर्माण किये हैं जिससे वह परेशान होता है परन्तु परेशानी का कारण जानता नहीं।
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श्रद्दा और विश्वास नहीं होने के कारण वह हमेशा आशंका से ग्रस्त रहता है । आश्वस्ति और सुरक्षा का अनुभव नहीं करता । परिणामस्वरूप उसका मन हमेशा उचका सा रहता है। चैन की नींद उसके नसीब नहीं होती। ऐसे उचके मन से विचारों की स्थिरता भी प्राप्त नहीं होती।
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अपने निकटतम व्यक्ति से भी उसे सुरक्षा की आवश्यकता रहती है। अपने स्वार्थ की सुरक्षा हेतु वह सभी बातों पर एकाधिकार चाहता है। ज्ञान के क्षेत्र में भी वह ऐसा ही अधिकार चाहता है। इसीमें से पेटण्ट का कानून आया है ।
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अविश्वास से पैदा हुई सुरक्षा की भावना, सुरक्षा हेतु कानून, लाभ हेतु करार के साथ साथ एकाधिकार के लिये शोषण और हिंसा । यही पश्चिम का जीवनव्यवहार है। वह प्रकृति का शोषण करता है, प्राणियों का शोषण करता है और मनुष्यों का भी शोषण करता है । स्वयं असुरक्षित है इसलिये दूसरों को भी असुरक्षित कर देता है, दूसरों की रक्षा तो वह क्या करेगा।
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पश्चिम का मनुष्य भयभीत है और भयावह भी है। भयभीत है इसलिये भयावह है। उससे सबको भय है क्योंकि अपने क्षणिक सुख के लिये भी वह किसी का भी किसी भी हद तक नाश कर सकता है।
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इसके चलते वह हमेशा तनावग्रस्त रहता है । तनाव से निराशा, हताशा, उत्तेजना, पागलपन और आत्महत्या तक वह जाता है। वह आत्मघाती वृत्ति पश्चिमी मानस का हिस्सा है। आत्मघाती वृत्ति का दूसरा आयाम अन्यों का भी घात है। इस कारण से मनोचिकित्सक, पागलखाने, जेल और आत्महत्या का अनुपात पश्चिम में अन्य देशों की तुलना में अधिक है।
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१०. अपने अहंकार और षड्रिपुओं पर विजय प्राप्त करने का उसे विचार तक नहीं आता, और अपने आपको छोडकर कोई उसे अपना नहीं लगता। ऐसी स्थिति में उसकी बुद्धि, शुद्ध निश्चयात्मिका और विशाल नहीं हो सकती। ऐसी बुद्धि को लेकर वह विमर्श करता है। अध्ययन करता है, अनुसन्धान करता है। उसका अध्ययन खण्डखण्ड में होगा। इसमें क्या आश्चर्य है ? वह समग्रता में चीजों को देख ही नहीं सकता।
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११. इस स्थिति में श्रद्दा को वह बुद्धि से कम आँकता है और निम्न दर्जा देता है । इसके अनुकरण में भारत के बौद्धिक भी कम बुद्धि वाले श्रद्धावान होते हैं । जिनमें बुद्धि है वे श्रद्धा से कुछ भी कैसे स्वीकार कर सकते हैं ऐसा कहते हैं। परन्तु वे भूल जाते हैं कि व्यक्तित्व की पंचकोशात्मक व्याख्या में श्रद्धा को विज्ञानमय कोश का अर्थात् बुद्धि का शिर कहा है। श्रद्धा बुद्धि का आधार है उससे कम नहीं है । उनका विरोध तो है ही नहीं। श्रद्धा के अभाव में बुद्धि भटक जाती है । भटकी हुई बुद्धि से किस प्रकार का अध्ययन और अनुसन्धान सम्भव है ?
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१२. भारतने अपने चिन्तन को पहले से ही ठीक किया है। केवल चिन्तन को ही नहीं तो व्यवहार को भी सही आधार दिया है। श्रद्धा और विश्वास का महत्त्व दर्शाते हुए भारत की मनीषा कहती है कि श्रद्धा और विश्वास शंकर और पार्वती के समान एक-दूसरे से अभिन्न हैं। श्रद्धा और विश्वास के बिना सिद्ध लोग भी अपने अन्तःकरण में स्थित ईश्वर को नहीं देख सकते। ऐसे श्रद्धा और विश्वास के बिना भारत का बौद्धिक विमर्श शुरू ही नहीं होता है।
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१३. उसी प्रकार से परस्पर व्यवहार का आधारभूत सूत्र आत्मीयता को बनाया । आत्मीयता के चलते व्यक्ति दूसरे को धोखा नहीं देता। उसके लाभ की, भले की, हित की चिन्ता करता है। दूसरे पर विश्वास या अविश्वास दिखाने से पहले स्वंय विश्वसनीय होने का प्रयास करता है जिसके बदले में उसे विश्वास और विश्वसनीयता प्राप्त होती है। परस्पर विश्वास से सुख, सौमनस्य, आश्वस्ति, शान्ति प्राप्त होना स्वाभाविक है। मन अच्छा बनने से विकास की सम्भावनायें बनती हैं।
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१४. अपने पूर्वजों के प्रति, गुरु के प्रति, मातापिता के प्रति, ज्ञानियों और तपस्वियों के प्रति, सज्जनों के प्रति, श्रद्धा का भाव रखना सहज है। श्रद्धायुक्त अन्तःकरण उस अन्तःकरण के स्वामी की सम्पत्ति है, जिनके प्रति श्रद्धा है उसके लिये श्रद्धेयता सम्पत्ति है और श्रद्धा के लायक होना उसके लिये साधना है। इस प्रकार श्रद्धा दोनों को उन्नत बनाती है।
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१५. आत्मीयता से जो तादात्म्य बनता है उससे प्रकृति में स्थित पदार्थ अपना अन्तरंग रहस्य प्रकट करते हैं। प्रयोगशाला में प्रयोग करने पर जो ज्ञान प्राप्त होता है उससे कहीं अधिक यह ज्ञान अधिकृत माना जाना चाहिये । परन्तु पश्चिम को अनुभूति का कुछ पता नहीं होने के कारण और श्रद्धा और विश्वास नहीं
    
==References==
 
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