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==== ६. स्वतंत्रता ====
 
==== ६. स्वतंत्रता ====
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# स्वतन्त्रता विश्व का स्वाभाविक, सार्वत्रिक, सार्वकालिक सिद्धान्त है । किसी को भी स्वतन्त्र रहने का जन्मसिद्ध अधिकार है । परतन्त्र रहना, किसी को परतन्त्र बनाना, परतन्त्र रहने के लिये बाध्य करना अपराध है । यह एक मूलभूत मूल्य है ।
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# परमात्मा सर्वतन्त्र स्वतन्त्र है। स्वतन्त्र व्यक्ति का वर्णन कर्तुमकर्तुमन्यथा कर्तुं समर्थः अर्थात् करने, नहीं करने, भिन्नतापूर्वक करने के लिये समर्थ व्यक्ति को स्वतन्त्र कहते हैं। परमात्मा इस सृष्टि के रूप में व्यक्त हुआ है। उसने अपना अंश उनमें स्थापित किया है परन्तु मनुष्य को तो उसने अपने प्रतिरूप में बनाया है और अपनी सर्वशक्ति प्रदान की है।
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# अतः सृष्टि में छोटी बडी सभी हस्तियों को अपनी स्वतन्त्र सत्ता है । इस स्वतन्त्रता का स्वीकार करना, सम्मान करना और आवश्यकता पड़ने पर रक्षण करना मनुष्य का कर्तव्य है। किसी की स्वतन्त्रता नष्ट कर उसका शोषण करने का किसी को अधिकार नहीं है । पश्चिम आज वही कर रहा है और भारत ने हमेशा ऐसा नहीं करने का ही व्यवहार अपनाया है।
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# मनुष्य के अलावा अन्य सभी पदार्थ, प्राणी, वनस्पति की स्वतन्त्रता सीमित है। यह सीमा परमात्मा ने स्वयं निश्चित की है। उदाहरण के लिये पंचमहाभूतों में प्राणशक्ति, विचारशक्ति, विवेकशक्ति आदि नहीं होती। परन्तु अपनी सीमित स्वतन्त्रता के अनुसार उनका जो स्वभाव बनता है उसी के अनुसार वे व्यवहार करते हैं । उनके स्वभाव के विपरीत वे स्वयं व्यवहार नहीं करते परन्तु उनके लिये विपरीत व्यवहार करने की बाध्यता निर्माण की जाती है तब उनकी स्वतन्त्रता नष्ट होती है और वे दुःखी होते हैं । उनके दुःख की तरंगे वातावरण में प्रसृत होती हैं तब वातावरण भी दुःख का अनुभव करवाने वाला बनता है।
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# मनुष्य को विचार, वाणी, भावना, बुद्धि, संस्कार क्षमता अनुभूति आदि की असीम स्वतन्त्रता प्राप्त हुई है। इसके चलते उसका सामर्थ्य भी बहुत है। इस सामर्थ्य से उसे सबकी स्वतन्त्रता की हानि नहीं करनी चाहिये, उल्टे रक्षा करनी चाहिये ऐसा उसके लिये विधान है।
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# मनुष्य कितने प्रकार से सृष्टि की स्वतन्त्रता का नाश करता है ? सिंह, बाघ आदि प्राणियों को मुक्त विहार अच्छा लगता है। उन्हें पिंजड़े में बन्द करना उनकी स्वतन्त्रता का नाश है। इनका तथा खरगोश, हिरन, हाथी जैसे प्राणियों का शौक के लिये, आहार के लिये शिकार करना उनकी स्वतन्त्रता का तो क्या जीवन का ही नाश है इसलिये हिंसा भी है। प्रदर्शन के लिये, शृंगार के लिये, शौक के लिये तितली, मोर, तोता आदि पशुपक्षियों को पालतू बनाकर पिंजड़े में बन्द करना उनकी स्वतन्त्रता का नाश है।
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# कुक्कुटयुद्ध, साँढयुद्ध, महिषयुद्ध आदि मनोरंजन के लिये उन्हें लडाना उनकी स्वतन्त्रता का नाश है इसलिये हिंसा है। मक्खी, मच्छर, कीडों, मकोडों को बेतहाशा मारना उनके जीवन के अधिकार को नष्ट करना है। फूलों को कली हो तब तोडना, कच्चे फलों को तोडना, रास्ते चौडे करने हेतु वृक्षों को काटना, शोभा के लिये वृक्षों को बोनसाई करना उनकी स्वतन्त्र सत्ता का अपमान है।
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# इसी प्रकार से मनुष्य सृष्टि की स्वतन्त्रता को बाधित करता है। परन्तु क्या वह मनुष्य को छोडता है ? नहीं, वह दूसरे मनुष्य को अपना दास बनाना चाहता है, अपने अधीन बनाना चाहता है, उससे अपना काम करवाना चाहता है। परन्तु जब हर मनुष्य दूसरे मनुष्य को अपने अधीन बनाना चाहता है तब संघर्ष निर्माण होता है । एक वर्ग दूसरे वर्ग को, एक राष्ट्र दूसरे राष्ट्र को अपने अधीन बनाना चाहता है तब युद्ध होते हैं। विश्व का इतिहास ऐसे युद्धों के कथानकों से भरा हुआ है। अपनी स्वतन्त्रता की रक्षा और दूसरों की स्वतन्त्रता का नाश यही दुनिया का दस्तूर बना हुआ है।
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# परन्तु भारत इसमें अपवाद है। अपनी स्वतन्त्रता की रक्षा तो वह चाहता है और प्राणार्पण से करता भी है। साथ ही दूसरों की स्वतन्त्रता को हानि नहीं पहुँचाना यह भी भारत की रीत है । इसलिये इतिहास में भारत ने अपनी स्वतन्त्रता की रक्षा हेतु तो युद्ध किये परन्तु किसी पर आक्रमण नहीं किया। वह जीतना चाहता है, परन्तु किसी को पराजित करना नहीं चाहता। इसलिये विश्व में किसी को भारत से भय नहीं है।
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# स्वतन्त्रता का अर्थ है अपने तन्त्र से अर्थात् अपनी व्यवस्था से रहना, अपनी जिम्मेदारी से अपनी सारी वयवस्थायें करना । परन्तु व्यवहार में तो ऐसा प्रतीत होता है कि मनुष्य स्वतन्त्र रह नहीं सकता। उसे अपना जीवन चलाने के लिये सृष्टि के अनेक पदार्थों पर निर्भर रहना पडता है, इतना ही नहीं तो अन्य मनुष्यों से भी अनेक प्रकार की सहायता की आवश्यकता पडती है । ऐसी स्थिति में हर मनुष्य की स्वतन्त्रता की रक्षा कैसे होगी ?
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# भारत ने इसे व्यवहार्य बनाने के लिये अनेक नीति निर्देश निश्चित किये हैं। उदाहरण के लिये सृष्टि के साथ का व्यवहार प्रेम, कृतज्ञता, शोषण नहीं अपितु दोहन और रक्षण के आधार पर व्यवस्थित किया जाता है। एक मनुष्य दूसरे का सहयोग स्नेह, वात्सल्य, सख्य, दया, आदर, श्रद्धा आदि के आधार पर करता है तभी स्वतन्त्रता की रक्षा होती है। अन्यथा वह विवशता बन जाती है। विवशता से, भय से, लोभ लालच से किसी का काम करना गुलामी है।
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# एक राष्ट्र अपने स्वभाव के अनुसार अपनी व्यवस्थायें बनाता है और स्वतन्त्रता पूर्वक रहता है। परन्तु विश्व में ऐसे कई राष्ट्र हैं जो दूसरे राष्ट्रों की स्वतन्त्रता का नाश करने पर तुले रहते हैं । इस कारण से होने वाले आक्रमणों और युद्धों के वर्णनों से इतिहास के पृष्ठ भरे पडे है।
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# स्वतन्त्रता के अनेक आयाम हैं। एक है राजकीय स्वतन्त्रता। व्यक्तियों, समाजों, राष्ट्रों के लिये आर्थिक, साम्प्रदायिक, सामाजिक, शासनिक ऐसे अनेक प्रकार हैं। आज भारत में व्यक्तियों की भी आर्थिक स्वतन्त्रता छिन गई है और विश्व में भारत की स्वतन्त्रता दाँव पर लगी हुई है। कहने को तो भारत सार्वभौम प्रजासत्ताक स्वतन्त्र राष्ट्र है परन्तु सम्पूर्ण राष्ट्र यूरोअमेरिकी तन्त्र से चलता है, उसके प्रभाव से ग्रस्त है।
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# शासन, प्रशासन, संविधान, शिक्षा, अर्थव्यवस्था, समाजव्यवस्था, न्यायव्यवस्था, कानून, उद्योगतन्त्र सबके सब यूरोअमेरिकी तन्त्र से ही चल रहे हैं । यह हमारे स्वभाव से, सिद्धान्त से और परम्परा से विरुद्ध है तो भी चल रहा है।
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# जब से इस देश पर ब्रिटीशों का आधिपत्य हो गया तब से भारत के सारे तन्त्र बदलने लगे और बदलते बदलते पूर्ण बदल गये । ब्रिटीश भारत से गये तो भी उनके सारे तन्त्र यहाँ रह गये हैं । शरीर और आत्मा भारत के और मन और बुद्धि यूरोप के ऐसी स्थिति है।
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# भारत को भारत बनने के लिये इस मानसिक और बौद्धिक गुलामी से मुक्त होने की आवश्यकता है। इस मुक्ति के लिये उसे भारी परिश्रम करना होगा। परन्तु जब तक भारत मुक्त नहीं होता तब तक विश्व को मार्ग कैसे दिखायेगा ? विश्व के कल्याण हेतु भी भारत की मुक्ति आवश्यक है।
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# १७. भारत को अपनी स्वतन्त्रता के लिये शिक्षा और धर्म से प्रारम्भ करना होगा। भारत स्वभाव से अर्थनिष्ठ नहीं, धर्मनिष्ठ देश है। इस तथ्य को भुलाकर वह आज अर्थनिष्ठ बन गया है। धर्म सब का आधार होने के कारण ही उसे धर्मनिष्ठा की चिन्ता प्रथम करनी होगी। धर्मनिष्ठा को पक्का करते ही शेष बातें ठीक होने लगेंगी।
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# १८. भारत की स्वतन्त्रता के लिये दसरा साधन है शिक्षा । शिक्षा धर्म सिखाती है। धर्म को प्रतिष्ठित करने का वह प्रभावी साधन है। आज भारत की शिक्षा धर्म पर नहीं अपितु राजनीति और अर्थ पर आधारित बन गई है । राष्ट्र को स्वतन्त्र बनाने वाले इन दोनों घटकों की दुःस्थिति होने के कारण ही सारे संकट निर्माण
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# १९. पश्चिम स्वतन्त्रता का सही अर्थ नहीं जानता। वह जैसा भी जानता है उसमें भी उसकी नीयत अच्छी नहीं है। वह अपने लिये तो स्वतन्त्रता चाहता है। परन्तु दूसरों की स्वतन्त्रता : छीनकर उन्हें अपना दास बनाना चाहता है। ऐसा अन्याय वह हमेशा करता है, किंबहुना उसे वह गलत मानता भी नहीं है। उसे सही बात समझाना भारत स्वतन्त्र होगा तभी हो पायेगा।
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# २०. भारत को स्वतन्त्र बनाना अब शासन के बस की बात नहीं रही। यह कार्य धार्मिक, सामाजिक, सांस्कृतिक संगठनों के नेतृत्व में भारतीय प्रजा ही कर सकती है। धर्माचार्य और शिक्षक इसमें महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं।
    
==References==
 
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