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विश्व के सन्दर्भ में प्रस्तुत होने के लिये यह आवश्यक है कि भारत शिक्षा विषयक अपने मापदण्ड निश्चित कर ले । स्वाभाविक ही ये मापदण्ड अपनी जीवनदृष्टि के अनुसार ही होंगे । भारत एक बार विश्वास कर ले कि अपनी जीवनदृष्टि के अनुसार चलने वाली शिक्षा ही विश्व का कल्याण करने वाली है। इस दृष्टि से हमें विश्व को बताना होगा कि..  
 
विश्व के सन्दर्भ में प्रस्तुत होने के लिये यह आवश्यक है कि भारत शिक्षा विषयक अपने मापदण्ड निश्चित कर ले । स्वाभाविक ही ये मापदण्ड अपनी जीवनदृष्टि के अनुसार ही होंगे । भारत एक बार विश्वास कर ले कि अपनी जीवनदृष्टि के अनुसार चलने वाली शिक्षा ही विश्व का कल्याण करने वाली है। इस दृष्टि से हमें विश्व को बताना होगा कि..  
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१. जो शिक्षा मनुष्य को दूसरों का विचार करना नहीं सिखाती वह उसके अपने लिये भी हानिकारक ही होती है। अपने ही स्वार्थ का विचार करने वाला मानवता का भी अपराधी होता है और सृष्टि का, और सृष्टि चूँकि परमात्माने बनाई है इसलिये परमात्मा
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१. जो शिक्षा मनुष्य को दूसरों का विचार करना नहीं सिखाती वह उसके अपने लिये भी हानिकारक ही होती है। अपने ही स्वार्थ का विचार करने वाला मानवता का भी अपराधी होता है और सृष्टि का, और सृष्टि चूँकि परमात्माने बनाई है इसलिये परमात्मा का भी।
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२. जो शिक्षा जीवन के केवल भौतिक पक्ष का ही विचार करना सिखाती है वह अत्यन्त अधूरी है। मनुष्य के जीवन में भौतिक समृद्धि का भी महत्त्व है परन्तु वह एकमात्र प्राप्तव्य वस्तु नहीं है। मनुष्य का अन्तःकरण केवल भौतिक पदार्थों से सन्तुष्ट नहीं होता। अन्तःकरण को सन्तुष्ट और प्रसन्न रखने के लिये पश्चिम की शिक्षा में आमूल परिवर्तन की आवश्यकता है।
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३. किसी भी देश की शिक्षा को सही सिद्ध होने के लिये वैश्विक मापदंडों का स्वीकार करना होता है । वैश्विक मापदण्डों में सर्वप्रथम होगा सबका सुख और सबका हित । सब में समस्त ब्रह्मांड के चराचर सर्व पदार्थों, प्राणीमात्र और मनुष्यों का समावेश होता है । अपने सामर्थ्य के अनुसार कृति में, भावना में, विचार में, वाणी में, उद्देश्यों में व्यक्ति या देश समस्त ब्रह्माण्ड के अविरोधी होना अपेक्षित है। वह जितनी मात्रा में अविरोधी है उतनी मात्रा में सही और श्रेष्ठ है। अमेरिका, इंग्लैण्ड, भारत, चीन, जापान, ऑस्ट्रेलिया - कोई भी देश अन्यों का अविरोधी होकर ही अपना हित और सुख चाह सकता है । अपने हित और सुख को साधने के साथ साथ वह अन्यों का भी हित और सुख साधने में सहयोगी बनता है तो और भी अच्छा है। भर्तृहरि का निम्नलिखित सुभाषित केवल व्यक्तियों को ही नहीं तो राष्ट्रों को भी लागू होता
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एते सत्पुरुषा परार्थघटका स्वार्थन्परित्यज्य ये
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सामान्यास्तु परार्थमुद्यमभृता स्वार्थाऽविरोधेन य ।।
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तेऽमी मानुषराक्षसा परहित स्वार्थाय निध्नन्ति ये
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ये निघ्नन्ति निरर्थक परहितं ते के न जानी महे ।।
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अर्थात्
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एक तो सत्पुरुष होते हैं जो अपने स्वार्थ को छोडकर दूसरों का विचार करते हैं। दूसरे सामान्य पुरुष होते हैं जो अपने स्वार्थ के अविरोधी रहकर दूसरों का विचार करते हैं। तीसरे ऐसे पुरुष होते हैं जो अपने स्वार्थ के लिये दूसरों का अहित करते हैं। ये तीन तो समझ में आते हैं परन्तु चौथे ऐसे मनुष्य होते हैं जो बिना किसी कारण से दूसरों के हित का नाश करते हैं । उन्हें क्या कहना यह हमारी समझ में नहीं आता।
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जिस देश की शिक्षा दूसरे राष्ट्रों का अहित करने हेतु अपने राज्य और प्रजा को समर्थ बनाती है उसे श्रेष्ठ तो क्या, सही भी नहीं कहा जा सकता। ऐसे देश की शिक्षा को, शिक्षादर्शन को भारत से बहुत कुछ सीखने की आवश्यकता है। ऐसे देशों को ही भर्तृहरि ने राक्षस की संज्ञा दी है और गीता ने आसुरी सम्पद् युक्त देशों की । हमें गीता के आधार पर उनका मूल्यांकन करने में संकोच नहीं करना चाहिये । उनकी शिक्षा में और जिस जीवनदृष्टि के आधार पर उनकी शिक्षा का विकास हुआ है उस जीवनदृष्टि में एकसौ अस्सी अंश परिवर्तन करने की आवश्यकता है यह स्पष्टतापूर्वक, आग्रहपूर्वक और दृढतापूर्वक बताना चाहिये।
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४. जो शिक्षा चरित्रनिर्माण को विषयों के अध्ययन का आधार नहीं बनाती वह निरर्थक ही नहीं तो अनर्थक है। विश्वविद्यालय भौतिक विज्ञान, तन्त्रज्ञान, खगोल, व्यापार आदि विषयों में सर्वश्रेष्ठ अध्ययन और अनुसन्धान कर रहे हैं परन्तु ऐसे विद्वान लोग व्यक्तिगत रूप से और प्रजा के रूप में पंचमहाभूतों का, प्राणियों का, गरीबों का, खियों का नाश करने वाले हैं, क्षुद्र लालसाओं से ग्रस्त हैं और सर्वसामान्य लोगों के स्वास्थ्य का नाश करनेवाले हैं तो उन विश्वविद्यालयों को श्रेष्ठ नहीं कहा जा सकता। उदाहरण के लिये भौतिक विज्ञान के क्षेत्र में ऐसे किसी रसायण की खोज हुई जिसका उपयोग कर बने शस्त्र आसपास के दोसो कीलोमीटर के क्षेत्र का वातावरण जहरीला बना देते हैं तो वह अनर्थ है। ऐसे रसायण की खोज हो भी जाय तो उसे दुर्घटना समझकर उसका नाश कर देना चाहिये । ऐसे रसायण की विनाशक शक्ति को ध्यान में रखकर ही खोज करना तो अमानवीय ही है। ऐसे वैज्ञानिक की खोज की, अनुसन्धान की क्षमता की कदर करते हुए भी उसे वैज्ञानिक के रूप में काम करने की अनुमति नहीं मिलनी चाहिये।
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सामाजिकता और वैज्ञानिकता को एकदसरे से पृथक् रखकर केवल वैज्ञानिकता का समर्थन करना खास पश्चिमी दृष्टि है। एक ही यन्त्र की खोज में विज्ञान की दृष्टि से तो बडी सिद्धि है परन्तु स्वास्थ्य और पर्यावरण के लिये घोर हानि होती है तो उसका किस प्रकार मूल्यांकन करना चाहिये ? इस प्रश्न का उत्तर सरल नहीं है।
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