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२. जो शिक्षा जीवन के केवल भौतिक पक्ष का ही विचार करना सिखाती है वह अत्यन्त अधूरी है। मनुष्य के जीवन में भौतिक समृद्धि का भी महत्त्व है परन्तु वह एकमात्र प्राप्तव्य वस्तु नहीं है। मनुष्य का अन्तःकरण केवल भौतिक पदार्थों से सन्तुष्ट नहीं होता। अन्तःकरण को सन्तुष्ट और प्रसन्न रखने के लिये पश्चिम की शिक्षा में आमूल परिवर्तन की आवश्यकता है।  
 
२. जो शिक्षा जीवन के केवल भौतिक पक्ष का ही विचार करना सिखाती है वह अत्यन्त अधूरी है। मनुष्य के जीवन में भौतिक समृद्धि का भी महत्त्व है परन्तु वह एकमात्र प्राप्तव्य वस्तु नहीं है। मनुष्य का अन्तःकरण केवल भौतिक पदार्थों से सन्तुष्ट नहीं होता। अन्तःकरण को सन्तुष्ट और प्रसन्न रखने के लिये पश्चिम की शिक्षा में आमूल परिवर्तन की आवश्यकता है।  
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३. किसी भी देश की शिक्षा को सही सिद्ध होने के लिये वैश्विक मापदंडों का स्वीकार करना होता है । वैश्विक मापदण्डों में सर्वप्रथम होगा सबका सुख और सबका हित । सब में समस्त ब्रह्मांड के चराचर सर्व पदार्थों, प्राणीमात्र और मनुष्यों का समावेश होता है । अपने सामर्थ्य के अनुसार कृति में, भावना में, विचार में, वाणी में, उद्देश्यों में व्यक्ति या देश समस्त ब्रह्माण्ड के अविरोधी होना अपेक्षित है। वह जितनी मात्रा में अविरोधी है उतनी मात्रा में सही और श्रेष्ठ है। अमेरिका, इंग्लैण्ड, भारत, चीन, जापान, ऑस्ट्रेलिया - कोई भी देश अन्यों का अविरोधी होकर ही अपना हित और सुख चाह सकता है । अपने हित और सुख को साधने के साथ साथ वह अन्यों का भी हित और सुख साधने में सहयोगी बनता है तो और भी अच्छा है। भर्तृहरि का निम्नलिखित सुभाषित केवल व्यक्तियों को ही नहीं तो राष्ट्रों को भी लागू होता
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३. किसी भी देश की शिक्षा को सही सिद्ध होने के लिये वैश्विक मापदंडों का स्वीकार करना होता है । वैश्विक मापदण्डों में सर्वप्रथम होगा सबका सुख और सबका हित । सब में समस्त ब्रह्मांड के चराचर सर्व पदार्थों, प्राणीमात्र और मनुष्यों का समावेश होता है । अपने सामर्थ्य के अनुसार कृति में, भावना में, विचार में, वाणी में, उद्देश्यों में व्यक्ति या देश समस्त ब्रह्माण्ड के अविरोधी होना अपेक्षित है। वह जितनी मात्रा में अविरोधी है उतनी मात्रा में सही और श्रेष्ठ है। अमेरिका, इंग्लैण्ड, भारत, चीन, जापान, ऑस्ट्रेलिया - कोई भी देश अन्यों का अविरोधी होकर ही अपना हित और सुख चाह सकता है । अपने हित और सुख को साधने के साथ साथ वह अन्यों का भी हित और सुख साधने में सहयोगी बनता है तो और भी अच्छा है। भर्तृहरि का निम्नलिखित सुभाषित केवल व्यक्तियों को ही नहीं तो राष्ट्रों को भी लागू होता<blockquote>एते सत्पुरुषा परार्थघटका स्वार्थन्परित्यज्य ये</blockquote><blockquote>सामान्यास्तु परार्थमुद्यमभृता स्वार्थाऽविरोधेन य ।।</blockquote><blockquote>तेऽमी मानुषराक्षसा परहित स्वार्थाय निध्नन्ति ये</blockquote><blockquote>ये निघ्नन्ति निरर्थक परहितं ते के न जानी महे ।।</blockquote>अर्थात्
 
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एते सत्पुरुषा परार्थघटका स्वार्थन्परित्यज्य ये
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सामान्यास्तु परार्थमुद्यमभृता स्वार्थाऽविरोधेन य ।।  
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तेऽमी मानुषराक्षसा परहित स्वार्थाय निध्नन्ति ये  
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ये निघ्नन्ति निरर्थक परहितं ते के न जानी महे ।।  
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अर्थात्
      
एक तो सत्पुरुष होते हैं जो अपने स्वार्थ को छोडकर दूसरों का विचार करते हैं। दूसरे सामान्य पुरुष होते हैं जो अपने स्वार्थ के अविरोधी रहकर दूसरों का विचार करते हैं। तीसरे ऐसे पुरुष होते हैं जो अपने स्वार्थ के लिये दूसरों का अहित करते हैं। ये तीन तो समझ में आते हैं परन्तु चौथे ऐसे मनुष्य होते हैं जो बिना किसी कारण से दूसरों के हित का नाश करते हैं । उन्हें क्या कहना यह हमारी समझ में नहीं आता।
 
एक तो सत्पुरुष होते हैं जो अपने स्वार्थ को छोडकर दूसरों का विचार करते हैं। दूसरे सामान्य पुरुष होते हैं जो अपने स्वार्थ के अविरोधी रहकर दूसरों का विचार करते हैं। तीसरे ऐसे पुरुष होते हैं जो अपने स्वार्थ के लिये दूसरों का अहित करते हैं। ये तीन तो समझ में आते हैं परन्तु चौथे ऐसे मनुष्य होते हैं जो बिना किसी कारण से दूसरों के हित का नाश करते हैं । उन्हें क्या कहना यह हमारी समझ में नहीं आता।
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