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| सामाजिकता और वैज्ञानिकता को एकदसरे से पृथक् रखकर केवल वैज्ञानिकता का समर्थन करना खास पश्चिमी दृष्टि है। एक ही यन्त्र की खोज में विज्ञान की दृष्टि से तो बडी सिद्धि है परन्तु स्वास्थ्य और पर्यावरण के लिये घोर हानि होती है तो उसका किस प्रकार मूल्यांकन करना चाहिये ? इस प्रश्न का उत्तर सरल नहीं है। | | सामाजिकता और वैज्ञानिकता को एकदसरे से पृथक् रखकर केवल वैज्ञानिकता का समर्थन करना खास पश्चिमी दृष्टि है। एक ही यन्त्र की खोज में विज्ञान की दृष्टि से तो बडी सिद्धि है परन्तु स्वास्थ्य और पर्यावरण के लिये घोर हानि होती है तो उसका किस प्रकार मूल्यांकन करना चाहिये ? इस प्रश्न का उत्तर सरल नहीं है। |
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| + | उदाहरण के लिये घर घर में रसोई में माइक्रोवेव का प्रयोग होता है । कभी भी खाना गरम मिलता है इतनी सुविधा इसमें है परन्तु स्वास्थ्य के लिये यह अकल्प्य मात्रा में हानिकारक है। इस यन्त्र की खोज करनेवाला यह तथ्य जानता है तो भी इसे बनाता है। बाजार में व्यापारी आकर्षक विज्ञापन देकर प्रचारित करता है। उसके हानिकारक तथ्यों को छिपाता है, बताता नहीं है। खरीद करनेवाला सुविधा का विचार करता है और लेता है। वैज्ञानिक दृष्टि से परखने पर हानिकारक तथ्य भी समझ में आते हैं। तो भी खरीदने वाला खरीदता है और उसका उपयोग करता है। हानिकारक होने पर भी खरीदता है क्योंकि उसका मन दुर्बल है। इस सम्पूर्ण घटना को हम क्या कहेंगे |
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| + | क्या ऐसे यन्त्र की खोज करनेवाले को नई खोज हेतु पुरस्कृत किया जायेगा ? क्या उसे उसका पेटण्ट मिलेगा और आर्थिक लाभ मिलेगा ? क्या इसका विज्ञापन बताने वाले को विज्ञापन कला के श्रेष्ठ नमूने का पुरस्कार मिलेगा ? या वैज्ञानिक, व्यापारी और विज्ञापन बनानेवाले को स्वास्थ्य और पर्यावरण की हानि करने हेतु दण्डित किया जायेगा ? या पहले पुरस्कार और बाद में दण्ड ऐसी दोनों बातें होंगी ? |
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| + | जीवन के सभी क्षेत्रों में ऐसा घमासान आज मचा है। औषधि, अन्न, सुविधा के साधन, दैनन्दिन उपयोग की वस्तुयें आदि सभी खोजों में वैज्ञानिकता के नाम पर प्रशंसा प्राप्त हो रही है परन्तु उनसे होने वाली हानि को अनदेखा किया जा रहा है । हानिके बारे में स्वतन्त्र विचार किया जाता है। चिन्ता तो खूब जताई जाती है और उपाय भी बताये जाते हैं। उपायों को लेकर क्रियान्वयन किया जाता है परन्तु स्थिति में सुधार होता नहीं है क्योंकि जिस कारण से समस्या निर्माण हुई है उसे दर करने की कल्पना तक नहीं की जाती । समस्या का कारण विज्ञान के क्षेत्र की सिद्धि है जिस का गौरव किया जाता है । |
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| + | एलोपथी की औषधियाँ, संकर अनाज, रासायणिक खाद, अजननक्षम बीज (टर्निमेटेड सीड) रसोई में उपयोग में आनेवाले यन्त्र, सर्व प्रकार के अन्नसंरक्षक (फूड प्रिझर्वेटिव), अण्वास्त्र, वातानुकूलन आदि की यही कहानी है । एकांगी और खण्ड खण्ड में चिन्तन करने का, शिक्षायोजना करने का, अनुसन्धान करने का यह परिणाम है। यह सब करना सिखाने वाली शिक्षा को श्रेष्ठ शिक्षा नहीं कहा जाता। |
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| + | ५. पश्चिम में मन की शिक्षा का सर्वथा अभाव है। इसलिये उत्तेजना, तनाव, अशान्ति, अधीरता, आक्रोश आदि की मात्रा वातावरण में भी बहुत है और मनुष्य के व्यवहार में भी अत्यधिक है। इसका एक परिणाम मनोविकारजन्य रोगों में होने वाली वृद्धि है। मधुमेह, उच्चरक्तचाप, कर्करोग और हृदयविकार पश्चिमने विश्व को दी हुई भेंट है। अब पश्चिम में इन बिमारियों की औषधियों की भी खोज हो रही है। बिमारी भी उनकी और खोजें भी उनकी । परन्तु विश्व उनके उपहार स्वरूप बिमारियों से परेशान है और उनकी औषधियों के खोजों की प्रशंसा कर रहा है, उससे अभिभूत हो रहा है। बलिहारी यह है कि मनोविकारजन्य बिमारियों का जो अत्यन्त कारगर उपाय मन को शान्त करना और सज्जन बनाना है। परन्तु उस एक मूलगामी उपाय को छोडकर शारीरिक स्तर के अनेकानेक उपाय किये जाते हैं। ये सारी बिमारियाँ तो असाध्य हो ही गई हैं। उन्हें असाध्य ही माना जाता है। मूलकारण दूर नहीं करना और निरर्थक और अनर्थक उपाय करते रहना, परेशान भी होते रहना, बिमारियों के सूचकांक तैयार करना, इन बिमारियों को लेकर विश्व के देशों को तलनात्मक स्थिति दर्शानवाले आँकडे तैयार करना, स्वास्थ्यलक्षी सूचकांक तैयार करना - ऐसे फल नहीं परन्तु फल के छिलके खाने का उद्यम सर्वत्र चल रहा है, विज्ञान के क्षेत्र में प्रगति हो रही है, विकास हो रहा है। |
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| + | इसे दुर्बुद्धि कहें, विकृत बुद्धि कहें या निर्बुद्धि यह तय करना कठिन है। |
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| + | परन्तु ऐसी शिक्षा से स्वयं मुक्त होकर अमेरिका को भी मुक्त करने का सेवाकीय पुरुषार्थ तो भारत को करना ही होगा। |
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| + | मन की शिक्षा के अभाव में व्यक्तिगत स्तर पर अनाचार से प्रारम्भ होकर लूट, शोषण, प्रदूषण और आतंकवाद तक उसका विस्तार होता है। जो शिक्षा इन दुष्कृत्यों को जन्म देती है, अथवा इन्हें रोक नहीं सकती ऐसी शिक्षा को श्रेष्ठ कैसे कहा जा सकता है ? |
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| + | ६. अर्थात् शिक्षा में सर्वत्र मन को सज्जन बनाने की, व्यक्ति को चरित्रवान बनाने की शिक्षा का अन्तर्भाव होने की अनिवार्यता है यह बात पश्चिम को आग्रहपूर्वक बताने की आवश्यकता है। अनुभूति का क्षेत्र पश्चिम में पूर्ण रूप से अनुपस्थित है। इस कारण से पश्चिम के अध्ययन और अनुसन्धान का स्तर बुद्धि प्रामाण्य तक ही पहुँचता है। सब कुछ केवल तर्क पर आधारित है। परन्तु पश्चिम की इस विषय में अपरिहार्य कठिनाई है । जिस प्रकार जन्मान्ध व्यक्ति को रंगों का, जन्म से बधिर व्यक्ति को वाणी का या सूंघने की शक्ति बिना लिये जन्मे व्यक्ति को गन्ध का अनुभव कल्पना में भी नहीं होता उस प्रकार जिसे अनुभूति जैसा कुछ होता है इसकी कल्पना तक नहीं होती उसके साथ अनुभूति के प्रमाण की चर्चा तक नहीं हो सकती। परन्तु इसका परिणाम यह होता है कि पश्चिम का शास्त्र न तर्कातीत होता है न शाश्वत । बुद्धि के स्तर के अनुसार शास्त्र रचे जाते हैं, कुछ समय तक प्रतिष्ठित और प्रचलित होते हैं, फिर कोई आता है और नये शास्त्र की रचना होती है । थिअरी बदलती रहती हैं। परिवर्तन भारत में भी होता है परन्तु वह केवल परिवर्तनशील बाहरी बातों का होता है, शाश्वत तत्त्वों का नहीं । पश्चिम में शाश्वत और परिवर्तनीय ऐसे दो आयाम हैं ही नहीं, सब कुछ परिवर्तनीय है। हमने कभी हमारी दृष्टि से पश्चिम को देखा ही नहीं है इसलिये उसका अधूरापन हमें समझ में नहीं आता । |
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| + | पश्चिम की स्थिति ऐसी है कि अनुभूति की शिक्षा का अनुभव करने हेतु भी उसे भारत में जन्म लेना पडेगा । पुनर्जन्म में, भाग्य में, जन्मजन्मान्तर में और आत्मतत्त्व की सत्ता में विश्वास करना पडेगा। भारत में जन्म नहीं होता तब तक भारत की चिरंजीविता को विचार में लेकर ज्ञानक्षेत्र के सिद्धान्तों को मानना पड़ेगा। |
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| + | ७. पश्चिम में शिक्षा बाजार के अधीन है क्योंकि उनकी जीवनशैली अर्थनिष्ठ है। भारत में एक अर्थनिष्ठा को उपालम्भ देने वाला सुभाषित है - <blockquote>यस्यास्ति वित्तं स नरः कुलीनः </blockquote><blockquote>सः पण्डितः सः श्रुतवान गुणज्ञः । </blockquote><blockquote>स एव वक्ता स च दर्शनीयः </blockquote><blockquote>सर्वे गुणाः काञ्चनमाश्रयन्ते ।। </blockquote>अर्थात् |
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| + | जिसके पास धन है वही व्यक्ति कुलीन है, वही ज्ञानी है, वही गुणों को जानने वाला है, वही वक्ता है, वही सुन्दर है क्योंकि सभी गुणकांचन का आश्रय करके ही रहते हैं। |
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| + | पश्चिम का अनुभव करके ही इस सुभाषित की रचना कदाचित हुई होगी। |
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| + | परन्तु जीवन जब अर्थकन्द्री व्यवस्थावाला हो जाता है और सारी उत्तम बातें उसके अधीन हो जाती है तब समाजजीवन में कितने भीषण संकट निर्माण होते हैं इसका अनुभव तो विश्व कर रहा है केवल कारण नहीं जानता। भारत का ही दायित्व है कि इस मूल कारण को विश्व तथा पश्चिम के समक्ष स्पष्ट करे। |
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| + | ८. पश्चिम में चर्च, राज्य, विज्ञान और प्रजा में परस्पर सामंजस्य नहीं है। चर्च की और विज्ञान की जीवनदृष्टि एकदूसरे से भिन्न हैं । चर्च की साम्प्रदायिक है, विज्ञान की भौतिक । राज्य कानून से चलता है, समाज करार व्यवस्था से । व्यक्ति और समाज के हित भी एकदूसरे से टकराते हैं। चर्च का विश्व आदम, हवा, पापपुण्य, ईश्वर और शैतान माफी और मुक्ति की कल्पना ओं से भरा हुआ है। विज्ञान का इलैक्ट्रोन, न्यूट्रोन, प्रोटोन और विविध प्रकार के संयोजनों की प्रक्रियाओं, गुरुत्वाकर्षणका तथा सापेक्षता का, उत्क्रान्ति का और एकरेखीय गति का सिद्धान्त लेकर कार्यरत है । राज्य सर्वत्र अधिसत्ता चाहता है और व्यक्ति व्यक्ति से बना समाज कामनाओं की पूर्ति । ऐसे अपनी अपनी दुनिया में मस्त, एकदूसरे को समझने की, समन्वय करने की स्वीकार करने की परवाह नहीं करने वाली प्रजा का राष्ट्र कैसे बन सकता है ? ब्रिटीशों के सिखाने से भारत के शिक्षित शिरोमणी कहते थे कि 'वी आर अ नेशन इन मेकिंग - हम अभी राष्ट्र बनने की प्रक्रिया में से गुजर रहे हैं। परन्तु पश्चिम की ओर देखकर लगता है कि उन्हें तो राष्ट्र की संकल्पना की गन्ध तक नहीं है। भारत में तो अबोध शिशु भी पूर्वजन्मों के पुण्यों के परिणामस्वरूप राष्ट्रीयता का संस्कार लिये हुए होता है और वहाँ पूरी की पूरी प्रजा राष्ट्र संकल्पना से अनभिज्ञ है। ऐसी स्थिति में भारत पश्चिम की चिन्ता करे यह अपेक्षित है। परन्तु यह चिन्ता एक शिक्षक जैसी अथवा वैद्य जैसी होनी चाहिये । रुग्ण की चिकित्सा करते समय वैद्य रुग्ण के धन का, सत्ता का , उससे मिलने वाले लाभ का विचार नहीं करता, न सत्ता या धन से दबता या डरता है, वह रु ग्ण की बात नहीं मानता, अपनी बुद्धि पर विश्वास कर दृढतापूर्वक चिकित्सा करता है। एक शिक्षक अपने विद्यार्थी की अथवा उसके अभिभावक की सत्ता या धन नहीं देखता अपितु विद्यार्थी की बुद्धि, व्यवहार, भावना के अनुसार पात्रता देखता है और शिक्षायोजना करता है । उसी प्रकार पश्चिम का बल, सत्ता, अहंकार, चमकदमक आदि से प्रभावित हुए बिना, दबे बिना, सत्य और धर्म का, करुणा और दया का आश्रय लेकर पश्चिम के लिये शिक्षा योजना बनानी चाहिये। |