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असमिया के महान कवि, धर्मसुधारक और प्रसिद्ध वैष्णव सन्त, जिन्होंने समाज को चारित्रिक अध:पतन से उबारने के लिए कृष्णभक्ति संबंधी अनेक ग्रंथ रचे, भागवत धर्म का प्रचार किया, सम्पूर्ण असम में सत्राधिकार की व्यवस्था की और नामधर स्थापित किये [युगाब्द4550-4669(1449-1568 ई०)] । इनकी अधिकांश रचनाएँ भागवत पुराण पर आधारित हैं। 'कीर्तन घोषा' इनकी सर्वोत्कृष्ट कृति है। असमिया साहित्य के प्रसिद्ध नाट्यरूप 'अंकीया नाटक' के प्रारम्भकर्ता भी शंकरदेव हैं। असमिया जनजीवन और संस्कृति को वैष्णव भक्ति या भागवत धर्म में ढालने का श्रेय शंकरदेव को ही है।   
 
असमिया के महान कवि, धर्मसुधारक और प्रसिद्ध वैष्णव सन्त, जिन्होंने समाज को चारित्रिक अध:पतन से उबारने के लिए कृष्णभक्ति संबंधी अनेक ग्रंथ रचे, भागवत धर्म का प्रचार किया, सम्पूर्ण असम में सत्राधिकार की व्यवस्था की और नामधर स्थापित किये [युगाब्द4550-4669(1449-1568 ई०)] । इनकी अधिकांश रचनाएँ भागवत पुराण पर आधारित हैं। 'कीर्तन घोषा' इनकी सर्वोत्कृष्ट कृति है। असमिया साहित्य के प्रसिद्ध नाट्यरूप 'अंकीया नाटक' के प्रारम्भकर्ता भी शंकरदेव हैं। असमिया जनजीवन और संस्कृति को वैष्णव भक्ति या भागवत धर्म में ढालने का श्रेय शंकरदेव को ही है।   
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==== '''<big>सायणाचार्य और माधवाचार्य</big>''' ====
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==== <big>सायणाचार्य और माधवाचार्य</big> ====
 
कलियुग की 44वीं—45वीं (ई० तेरहवीं-चौदहवीं) शताब्दी के भारत के इतिहास के दो महान व्यक्तित्व, जो सगे भाई थे, और जिन्होंने विद्या एवं पाण्डित्य के क्षेत्र के अतिरिक्त राजनीति के कर्मक्षेत्र में अपूर्व योगदान कर स्वधर्म और स्वराष्ट्र-रक्षण का कार्य किया। दोनों भाई शस्त्रों और शास्त्रों में निष्णात थे। सायणाचार्य ने चारों वेदों पर भाष्य लिखे हैं। उनके भाष्य वेदाध्ययन-परम्परा की सुरक्षा के लिए बहुत महत्वपूर्ण और नितान्त सामयिक आधार सिद्ध हुए। माधवाचार्य ने 'पंचदशी' नामक ग्रंथ लिखा, जो वेदान्त शास्त्र का सर्वमान्य ग्रंथ बना। मुस्लिम आक्रमणों से देश और धर्म की रक्षा के लिए हरिहर और बुक्कराय नामक दो वीर क्षत्रियों का मार्गदर्शन करते हुए विजयनगर साम्राज्य की स्थापना करवाकर माधवाचार्य ने कुछ समय प्रधानमंत्री के नाते राज्य को व्यवस्थित किया और फिर वह दायित्व अनुज सायणाचार्य को सौंपकर स्वयं संन्यास ले लिया तथा विद्यारण्य स्वामी के नाम से श्रृंगेरी पीठ के शंकराचार्य हुए।   
 
कलियुग की 44वीं—45वीं (ई० तेरहवीं-चौदहवीं) शताब्दी के भारत के इतिहास के दो महान व्यक्तित्व, जो सगे भाई थे, और जिन्होंने विद्या एवं पाण्डित्य के क्षेत्र के अतिरिक्त राजनीति के कर्मक्षेत्र में अपूर्व योगदान कर स्वधर्म और स्वराष्ट्र-रक्षण का कार्य किया। दोनों भाई शस्त्रों और शास्त्रों में निष्णात थे। सायणाचार्य ने चारों वेदों पर भाष्य लिखे हैं। उनके भाष्य वेदाध्ययन-परम्परा की सुरक्षा के लिए बहुत महत्वपूर्ण और नितान्त सामयिक आधार सिद्ध हुए। माधवाचार्य ने 'पंचदशी' नामक ग्रंथ लिखा, जो वेदान्त शास्त्र का सर्वमान्य ग्रंथ बना। मुस्लिम आक्रमणों से देश और धर्म की रक्षा के लिए हरिहर और बुक्कराय नामक दो वीर क्षत्रियों का मार्गदर्शन करते हुए विजयनगर साम्राज्य की स्थापना करवाकर माधवाचार्य ने कुछ समय प्रधानमंत्री के नाते राज्य को व्यवस्थित किया और फिर वह दायित्व अनुज सायणाचार्य को सौंपकर स्वयं संन्यास ले लिया तथा विद्यारण्य स्वामी के नाम से श्रृंगेरी पीठ के शंकराचार्य हुए।   
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==== '''<big>संत ज्ञानेश्वर</big>''' ====
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==== <big>संत ज्ञानेश्वर</big> ====
 
महाराष्ट्र के श्रेष्ठ संत और मराठी भाषा के कविकुलशेखर। संत ज्ञानेश्वर के पिता विट्ठल पंत एक बार संन्यास-दीक्षा ग्रहण कर लेने के बाद गुरु आज्ञा से पुन: गृहस्थाश्रम में प्रविष्ट हुए थे, जिसमें उन्हें परिवार सहित सामाजिक बहिष्कार झेलना पड़ा था [युगाब्द 4376-4397(ई० 1275-1296)]। किन्तु उनकी चारों संतानों ने असाधारण सिद्धियाँ प्राप्त कीं। चारों में सबसे बड़े भाई निवृत्तिनाथ एक नाथपंथी योगी से दीक्षित होकर सिद्ध योगी हो गये। ज्ञानेश्वर ने इन्हीं ज्येष्ठ भ्राता से योग दीक्षा प्राप्त की। इन दोनों भाइयों की यौगिक सिद्धियों के चमत्कार महाराष्ट्र में घर-घर की चर्चा का विषय बन गये। उनके लघु भ्राता-भगिनी ने भी आध्यात्मिक उच्चता प्राप्त कर ली। संत ज्ञानेश्वर के प्रयत्नों के फलस्वरूप समाज में वर्णाश्रम व्यवस्था में आ गये दोषों के प्रक्षालन का कार्य हुआ, हिन्दू समाज में समता की प्रस्थापना का स्वर तीव्र हुआ और भक्ति के लचीले सूत्र में बँधकर हिन्दू धर्म एवं समाज मत-मतान्तरों में बिखर जाने से बच सका। संत ज्ञानेश्वर ने अल्पायु में ही भावार्थ दीपिका (ज्ञानेश्वरी), अमृतानुभव, हरिपाठ के अभंग, चांगदेव पैंसठी और सैकड़ों फुटकर अभंगों की सरस रचना की। भावार्थ दीपिका (ज्ञानेश्वरी) श्रीमद्भगवद्गीता की काव्यमयी टीका है। ज्ञानेश्वर का यह ग्रंथ भारतीय संस्कृति तथा धार्मिक एवं भक्ति-साहित्य को उनकी अद्वितीय देन है। श्रीमद्भगवद्गीता के भक्तियुक्त कर्मयोग द्वारा ज्ञानेश्वर ने दुर्गति में फंसे तत्सामयिक हिन्दू समाज का उपचार किया। उन्होंने वारकरी सम्प्रदाय (महाराष्ट्र का भक्तिधर्म या भागवत सम्प्रदाय) को सुदृढ़ कर अवैदिक मतों को परास्त किया।   
 
महाराष्ट्र के श्रेष्ठ संत और मराठी भाषा के कविकुलशेखर। संत ज्ञानेश्वर के पिता विट्ठल पंत एक बार संन्यास-दीक्षा ग्रहण कर लेने के बाद गुरु आज्ञा से पुन: गृहस्थाश्रम में प्रविष्ट हुए थे, जिसमें उन्हें परिवार सहित सामाजिक बहिष्कार झेलना पड़ा था [युगाब्द 4376-4397(ई० 1275-1296)]। किन्तु उनकी चारों संतानों ने असाधारण सिद्धियाँ प्राप्त कीं। चारों में सबसे बड़े भाई निवृत्तिनाथ एक नाथपंथी योगी से दीक्षित होकर सिद्ध योगी हो गये। ज्ञानेश्वर ने इन्हीं ज्येष्ठ भ्राता से योग दीक्षा प्राप्त की। इन दोनों भाइयों की यौगिक सिद्धियों के चमत्कार महाराष्ट्र में घर-घर की चर्चा का विषय बन गये। उनके लघु भ्राता-भगिनी ने भी आध्यात्मिक उच्चता प्राप्त कर ली। संत ज्ञानेश्वर के प्रयत्नों के फलस्वरूप समाज में वर्णाश्रम व्यवस्था में आ गये दोषों के प्रक्षालन का कार्य हुआ, हिन्दू समाज में समता की प्रस्थापना का स्वर तीव्र हुआ और भक्ति के लचीले सूत्र में बँधकर हिन्दू धर्म एवं समाज मत-मतान्तरों में बिखर जाने से बच सका। संत ज्ञानेश्वर ने अल्पायु में ही भावार्थ दीपिका (ज्ञानेश्वरी), अमृतानुभव, हरिपाठ के अभंग, चांगदेव पैंसठी और सैकड़ों फुटकर अभंगों की सरस रचना की। भावार्थ दीपिका (ज्ञानेश्वरी) श्रीमद्भगवद्गीता की काव्यमयी टीका है। ज्ञानेश्वर का यह ग्रंथ भारतीय संस्कृति तथा धार्मिक एवं भक्ति-साहित्य को उनकी अद्वितीय देन है। श्रीमद्भगवद्गीता के भक्तियुक्त कर्मयोग द्वारा ज्ञानेश्वर ने दुर्गति में फंसे तत्सामयिक हिन्दू समाज का उपचार किया। उन्होंने वारकरी सम्प्रदाय (महाराष्ट्र का भक्तिधर्म या भागवत सम्प्रदाय) को सुदृढ़ कर अवैदिक मतों को परास्त किया।   
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==== '''<big>संत तुकाराम</big>''' ====
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==== <big>संत तुकाराम</big> ====
 
महाराष्ट्र के संत-शिरोमणि,जिनका जन्म विट्ठल भक्तों के घराने में हुआ [युगाब्द 4709-4751(ई०1608-1650)]। ये जाति के कुनबी थे, पर व्यवसाय किराये की दुकान चलाने का करते थे। गृहस्थ होते हुए भी विरक्त थे। परिवार-जनों के अकाल ही काल-कवलित हो जाने और सांसारिक जीवन में सुख-प्राप्ति की आशा के निरर्थक हो जाने के पश्चात् उन्हें तीव्र वैराग्य होगया और वे ध्यान-साधना में प्रवृत्त हुए। बाबाजी चैतन्य नामक सिद्धपुरुष ने उन्हें "राम कृष्ण हरि" मंत्र दिया और संत नामदेव ने स्वप्न में दर्शन देकर काव्य-रचना की प्रेरणा दी। उन्होंने 5000 से भी अधिक मधुर अभंग रचे जो महाराष्ट्र के जन-जन की जिह्वा पर सदैव विराजमान रहते हैं। इन अभंगों में उन्होंने अपने को विभिन्न भूमिकाओं में रखकर अपने आराध्य विट्ठल के प्रति निर्मल भक्ति-भावना व्यक्त की है। तुकाराम ने सांघिक प्रार्थना का महत्व समझा और उसका प्रचलन किया। उनके रचित सुभाषित जीवन को सुगठित एवं स्वस्थ बनाने की प्रेरणा देते हैं। लोकभाषा पर उनका असामान्य अधिकार था। सगुणवैष्णवी भक्ति के प्रचारक संत तुकाराम ने अपनी अभंगवाणी की सुधावृष्टि से लोकचित्त को भावुकता और आस्था से भर दिया।   
 
महाराष्ट्र के संत-शिरोमणि,जिनका जन्म विट्ठल भक्तों के घराने में हुआ [युगाब्द 4709-4751(ई०1608-1650)]। ये जाति के कुनबी थे, पर व्यवसाय किराये की दुकान चलाने का करते थे। गृहस्थ होते हुए भी विरक्त थे। परिवार-जनों के अकाल ही काल-कवलित हो जाने और सांसारिक जीवन में सुख-प्राप्ति की आशा के निरर्थक हो जाने के पश्चात् उन्हें तीव्र वैराग्य होगया और वे ध्यान-साधना में प्रवृत्त हुए। बाबाजी चैतन्य नामक सिद्धपुरुष ने उन्हें "राम कृष्ण हरि" मंत्र दिया और संत नामदेव ने स्वप्न में दर्शन देकर काव्य-रचना की प्रेरणा दी। उन्होंने 5000 से भी अधिक मधुर अभंग रचे जो महाराष्ट्र के जन-जन की जिह्वा पर सदैव विराजमान रहते हैं। इन अभंगों में उन्होंने अपने को विभिन्न भूमिकाओं में रखकर अपने आराध्य विट्ठल के प्रति निर्मल भक्ति-भावना व्यक्त की है। तुकाराम ने सांघिक प्रार्थना का महत्व समझा और उसका प्रचलन किया। उनके रचित सुभाषित जीवन को सुगठित एवं स्वस्थ बनाने की प्रेरणा देते हैं। लोकभाषा पर उनका असामान्य अधिकार था। सगुणवैष्णवी भक्ति के प्रचारक संत तुकाराम ने अपनी अभंगवाणी की सुधावृष्टि से लोकचित्त को भावुकता और आस्था से भर दिया।   
  

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