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| उत्तर प्रदेश में गंगा-यमुना के संगम पर स्थित प्रयाग प्रसिद्ध तीर्थ है। अपने असाधारण महात्म्य के कारण इसे तीर्थराज कहा जाता है। गुप्त-सलिला सरस्वती का भी संगम होने के कारण इसे त्रिवेणी संगम भी कहते हैं। प्रयाग में प्रति बारहवें वर्ष कुम्भ, प्रति छठे वर्ष अर्द्ध कुम्भ और प्रतिवर्ष माघ मेला लगता है। इन मेलों में करोड़ों श्रद्धालु और साधु-संत पर्वस्नान करने आते हैं। प्रयाग क्षेत्र में प्रजापति ने यज्ञ किया था जिससे इसे प्रयाग नाम प्राप्त हुआ। भरद्वाज मुनि का प्रसिद्ध गरुकुल प्रयाग में ही था। वन जाते हुए श्रीराम, सीता और लक्ष्मण उस आश्रम में ठहरे थे। तुलसीकृत रामचरित मानस के अनुसार वहीं पर मुनि याज्ञवल्क्य ने भरद्वाज मुनि को रामकथा सुनायी थी। समुद्रगुप्त के वर्णन का एक उत्कृष्ट शिलास्तम्भ प्रयाग में पाया गया है। यहीं वह अक्षयवट है जिसके बारे में मान्यता है कि वह प्रलयकाल में भी नष्ट नहीं होता। इसी विश्वास और श्रद्धा को तोड़ने के लिए आक्रांता मुसलमानों विशेषत: जहांगीर ने उसे नष्ट करने के बहुत प्रयत्न किये, किन्तु वह वटवृक्ष आज भी वहाँ खड़ा है। | | उत्तर प्रदेश में गंगा-यमुना के संगम पर स्थित प्रयाग प्रसिद्ध तीर्थ है। अपने असाधारण महात्म्य के कारण इसे तीर्थराज कहा जाता है। गुप्त-सलिला सरस्वती का भी संगम होने के कारण इसे त्रिवेणी संगम भी कहते हैं। प्रयाग में प्रति बारहवें वर्ष कुम्भ, प्रति छठे वर्ष अर्द्ध कुम्भ और प्रतिवर्ष माघ मेला लगता है। इन मेलों में करोड़ों श्रद्धालु और साधु-संत पर्वस्नान करने आते हैं। प्रयाग क्षेत्र में प्रजापति ने यज्ञ किया था जिससे इसे प्रयाग नाम प्राप्त हुआ। भरद्वाज मुनि का प्रसिद्ध गरुकुल प्रयाग में ही था। वन जाते हुए श्रीराम, सीता और लक्ष्मण उस आश्रम में ठहरे थे। तुलसीकृत रामचरित मानस के अनुसार वहीं पर मुनि याज्ञवल्क्य ने भरद्वाज मुनि को रामकथा सुनायी थी। समुद्रगुप्त के वर्णन का एक उत्कृष्ट शिलास्तम्भ प्रयाग में पाया गया है। यहीं वह अक्षयवट है जिसके बारे में मान्यता है कि वह प्रलयकाल में भी नष्ट नहीं होता। इसी विश्वास और श्रद्धा को तोड़ने के लिए आक्रांता मुसलमानों विशेषत: जहांगीर ने उसे नष्ट करने के बहुत प्रयत्न किये, किन्तु वह वटवृक्ष आज भी वहाँ खड़ा है। |
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− | ==== <big>पाटिलिपुत्र</big> ==== | + | ==== <big>पाटलिपुत्र</big> ==== |
− | बिहार का सुप्रसिद्ध प्राचीन ऐतिहासिक नगर, जो अनेक साम्राज्यों और राजवंशों की राजधानी रहा, आजकल पटना नाम से प्रसिद्ध है। प्राचीन समय में इसे पाटिलिपुत्र या पाटलीपुत्र के अतिरिक्त कुसुमपुर, पुष्पपुर या कुसुमध्वज नामों से भी जाना जाता था। यह गंगा और शोणभद्र नदियों के संगम पर बसा है। ईसा से सैकड़ों वर्ष पूर्व बुद्ध के अनुयायी अजातशत्रु नामक राजा ने इस नगर का निर्माण करवाया था। स्वयं बुद्ध ने इसके उत्कर्ष की भविष्यवाणी की थी। यह दीर्घकाल तक मगध साम्राज्य की राजधानी रहा और इसने नन्द,मौर्य, शुग और गुप्त वंशों के महान् साम्राज्यों का उत्थान-पतन देखा। सिख पन्थ के दसवें गुरु श्री गोविन्द सिंह का जन्म पटना में ही हुआ था। स्वतंत्र भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ० राजेन्द्र प्रसाद की भी यह कर्मभूमि रहा है। | + | बिहार का सुप्रसिद्ध प्राचीन ऐतिहासिक नगर, जो अनेक साम्राज्यों और राजवंशों की राजधानी रहा, आजकल पटना नाम से प्रसिद्ध है। प्राचीन समय में इसे पाटलिपुत्र या पाटलीपुत्र के अतिरिक्त कुसुमपुर, पुष्पपुर या कुसुमध्वज नामों से भी जाना जाता था। यह गंगा और शोणभद्र नदियों के संगम पर बसा है। ईसा से सैकड़ों वर्ष पूर्व बुद्ध के अनुयायी अजातशत्रु नामक राजा ने इस नगर का निर्माण करवाया था। स्वयं बुद्ध ने इसके उत्कर्ष की भविष्यवाणी की थी। यह दीर्घकाल तक मगध साम्राज्य की राजधानी रहा और इसने नन्द,मौर्य, शुग और गुप्त वंशों के महान् साम्राज्यों का उत्थान-पतन देखा। सिख पन्थ के दसवें गुरु श्री गोविन्द सिंह का जन्म पटना में ही हुआ था। स्वतंत्र भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ० राजेन्द्र प्रसाद की भी यह कर्मभूमि रहा है। |
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| ==== <big>विजयनगर</big> ==== | | ==== <big>विजयनगर</big> ==== |
| महान् विजयनगर साम्राज्य की स्थापना विद्यारण्य स्वामी (माधवाचार्य) के मार्गदर्शन में हरिहर और बुक़राय नामक दो वीर बंधुओं ने की थी, जिसकी यह राजधानी उन्होंने युगाब्द 4437 (सन् 1336) में बसायी। अपने गुरु विद्यारण्य स्वामी के नाम पर उन्होंने इसे विद्यानगर नाम दिया था। किन्तु बाद में यह विजय नगर से ही प्रसिद्ध हुआ। यह ऐतिहासिक नगर दक्षिण भारत में तुंगभद्रा नदी के तट पर बसा है। वेदमूलक हिन्दू धर्म तथा संस्कृति की सुरक्षा और संवर्धन विजयनगर साम्राज्य का उद्देश्य था। 'विजयनगरम्' में साम्राज्य- संस्थापक संगमवंश के पश्चात् सालुववंश और तुलुवबंश जैसे प्रतापी राजवंशों का भी आधिपत्य रहा। तुलुववंश के वीर पुरुष कृष्णदेवराय ने विजयनगर साम्राज्य का पर्याप्त उत्कर्ष किया और मुसलमानों द्वारा ध्वस्त किये गये मन्दिरों का जीर्णोद्वार किया। विजयनगर का साम्राज्य युगाब्द 4437 से 4666 (ई० 1336 से 1565) तक उत्कर्ष पर रहा। उसके विदेशों से भी दौत्य—सम्बन्ध थे। | | महान् विजयनगर साम्राज्य की स्थापना विद्यारण्य स्वामी (माधवाचार्य) के मार्गदर्शन में हरिहर और बुक़राय नामक दो वीर बंधुओं ने की थी, जिसकी यह राजधानी उन्होंने युगाब्द 4437 (सन् 1336) में बसायी। अपने गुरु विद्यारण्य स्वामी के नाम पर उन्होंने इसे विद्यानगर नाम दिया था। किन्तु बाद में यह विजय नगर से ही प्रसिद्ध हुआ। यह ऐतिहासिक नगर दक्षिण भारत में तुंगभद्रा नदी के तट पर बसा है। वेदमूलक हिन्दू धर्म तथा संस्कृति की सुरक्षा और संवर्धन विजयनगर साम्राज्य का उद्देश्य था। 'विजयनगरम्' में साम्राज्य- संस्थापक संगमवंश के पश्चात् सालुववंश और तुलुवबंश जैसे प्रतापी राजवंशों का भी आधिपत्य रहा। तुलुववंश के वीर पुरुष कृष्णदेवराय ने विजयनगर साम्राज्य का पर्याप्त उत्कर्ष किया और मुसलमानों द्वारा ध्वस्त किये गये मन्दिरों का जीर्णोद्वार किया। विजयनगर का साम्राज्य युगाब्द 4437 से 4666 (ई० 1336 से 1565) तक उत्कर्ष पर रहा। उसके विदेशों से भी दौत्य—सम्बन्ध थे। |
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− | ==== इन्द्रप्रस्थ ==== | + | ==== <big>इन्द्रप्रस्थ</big> ==== |
| महाभारत में उल्लिखित यह नगर वर्तमान दिल्ली के समीप था, जिसे पाण्डवों ने बसाया था। कहा जाता है कि पहले यहाँ खाण्डव नामक बीहड़ वन था, जिसे काटकर इन्द्रप्रस्थ का निर्माण कराया गया। हस्तिनापुर का राज्य स्वयं लेने के लिए दुर्योधन के हठ और छल-प्रपंच के कारण कुरुवंश के राज्य का विभाजन कर पाण्डवों को यह बीहड़ प्रदेश दिया गया था। किन्तु मय दानव की अदभुत स्थापत्यकला ने इन्द्रप्रस्थ को अकल्पनीय भव्यता प्रदान कर दी। युधिष्ठिर ने यहीं राजसूय यज्ञ किया था। इसने अनेक उतार-चढ़ाव देखे। | | महाभारत में उल्लिखित यह नगर वर्तमान दिल्ली के समीप था, जिसे पाण्डवों ने बसाया था। कहा जाता है कि पहले यहाँ खाण्डव नामक बीहड़ वन था, जिसे काटकर इन्द्रप्रस्थ का निर्माण कराया गया। हस्तिनापुर का राज्य स्वयं लेने के लिए दुर्योधन के हठ और छल-प्रपंच के कारण कुरुवंश के राज्य का विभाजन कर पाण्डवों को यह बीहड़ प्रदेश दिया गया था। किन्तु मय दानव की अदभुत स्थापत्यकला ने इन्द्रप्रस्थ को अकल्पनीय भव्यता प्रदान कर दी। युधिष्ठिर ने यहीं राजसूय यज्ञ किया था। इसने अनेक उतार-चढ़ाव देखे। |
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| ==== <big>चाणक्य</big> ==== | | ==== <big>चाणक्य</big> ==== |
− | आचार्य चाणक्य सम्राट चन्द्रगुप्त सम्राट्चन्द्रगुप्त मौर्य के गुरु थे और साम्राज्य को स्थिरता प्रदान करने के लिए कुछ समय तक महामंत्री भी रहे। तक्षशिला के राजनीतिविद् चाणक्य को विष्णुगुप्त और कौटिल्य नामों से भी जाना जाता है। इन्होंने मगध के नन्दवंशी अत्याचारी राजा के अन्याय तथा कुशासन से क्रूद्ध होकर उसे अपदस्थ किया और धनानंद के हाथ गये हुए राज्य का उद्धार कर चन्द्रगुप्त को मगध के सिंहासन पर आरूढ़ किया। वीर युवक चन्द्रगुप्त को सहायता और मार्गदर्शन देकर चाणक्य ने भारत के पश्चिमी राज्यों पर हुए यवन आक्रमण का प्रतिकार किया। गुरु-शिष्य ने विशाल साम्राज्य का निर्माण कर उसमें उत्तम शासन की व्यवस्था की तथा ग्रीक सेनापति सेल्यूकस को पराजित करके भारत की नैसर्गिक सीमा हिन्दूकुश पर्वत तक साम्राज्य का विस्तार किया। चाणक्य ने चन्द्रगुप्त के प्रशासकीय उपयोग के लिए (कौटिलीय) 'अर्थशास्त्र' नामक ग्रंथ की रचना की जो तत्कालीन राजनीति, अर्थनीति, सुरक्षा एवं युद्ध-नीति, विदेश-नीति, कृषि, पशुपालन, भूसम्पदा एवं उद्योगनीति, विधि, समाज-नीति तथा धर्मनीति पर प्रकाश डालने वाला महत्वपूर्णग्रंथहै। | + | आचार्य चाणक्य सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य के गुरु थे और साम्राज्य को स्थिरता प्रदान करने के लिए कुछ समय तक महामंत्री भी रहे। तक्षशिला के राजनीतिविद् चाणक्य को विष्णुगुप्त और कौटिल्य नामों से भी जाना जाता है। इन्होंने मगध के नन्दवंशी अत्याचारी राजा के अन्याय तथा कुशासन से क्रूद्ध होकर उसे अपदस्थ किया और धनानंद के हाथ गये हुए राज्य का उद्धार कर चन्द्रगुप्त को मगध के सिंहासन पर आरूढ़ किया। वीर युवक चन्द्रगुप्त को सहायता और मार्गदर्शन देकर चाणक्य ने भारत के पश्चिमी राज्यों पर हुए यवन आक्रमण का प्रतिकार किया। गुरु-शिष्य ने विशाल साम्राज्य का निर्माण कर उसमें उत्तम शासन की व्यवस्था की तथा ग्रीक सेनापति सेल्यूकस को पराजित करके भारत की नैसर्गिक सीमा हिन्दूकुश पर्वत तक साम्राज्य का विस्तार किया। चाणक्य ने चन्द्रगुप्त के प्रशासकीय उपयोग के लिए (कौटिलीय) 'अर्थशास्त्र' नामक ग्रंथ की रचना की जो तत्कालीन राजनीति, अर्थनीति, सुरक्षा एवं युद्ध-नीति, विदेश-नीति, कृषि, पशुपालन, भूसम्पदा एवं उद्योगनीति, विधि, समाज-नीति तथा धर्मनीति पर प्रकाश डालने वाला महत्वपूर्ण ग्रंथ है। |
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− | '''<big>चन्द्रगुप्तमौर्य [युगाब्द 1568-1602 (ई०पू० 1534-1500) तक सिंहासनारूढ़]</big>'''
| + | ==== <big>चन्द्रगुप्त मौर्य</big> ==== |
| + | मौर्य वंश के महान् साम्राज्य के संस्थापक [युगाब्द 1568-1602 (ई०पू० 1534-1500) तक सिंहासनारूढ़], जिन्होंने चाणक्य जैसे गुरु के मार्गदर्शन में एक ओर मगध में नंद वंश के बल-वैभव से उन्मत्त राजा धननंद को परास्त किया और दूसरी ओर भारत के पश्चिमोत्तर में यवन आक्रमण का प्रतिकार कर यवनों को पराभूत किया। चन्द्रगुप्त ने मगध राज्य को इतना विस्तृत किया कि वह पश्चिमोत्तर में भारत की नैसर्गिक सीमा हिन्दूकुश पर्वत तक जा पहुँचा और दक्षिण का बहुत बड़ा भाग भी उसके अन्तर्गत आ गया। देश में इतना बड़ा साम्राज्य शताब्दियों से नहीं बना था। इससे राजनीतिक एकता के साथ-साथ देश की सांस्कृतिक एकता भी पुष्ट हुई और विदेशों में भी भारतवर्ष का प्रभाव-विस्तार हुआ। यूरोपीय इतिहासकारों के अनुसार यवन राजदूत मेगास्थनीज चन्द्रगुप्त मौर्य के समय में पाटलिपुत्र भेजा गया था। |
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− | मौर्य वंश के महान् साम्राज्य के संस्थापक, जिन्होंने चाणक्य जैसे गुरु के मार्गदर्शन में एक ओर मगध में नंद वंश के बल-वैभव सेउन्मत्त राजा धननंद को परास्तकिया और दूसरी ओर भारत के पश्चिमोत्तर में यवन आक्रमण का प्रतिकार कर यवनों को पराभूत किया। चन्द्रगुप्त ने मगध राज्य को इतना विस्तृत किया कि वहपश्चिमोत्तर में भारत की नैसर्गिक सीमा हिन्दूकुश पर्वत तक जा पहुँचा औरदक्षिण का बहुत बड़ा भाग भीउसके अन्तर्गतआ गया। देश मेंइतना बड़ासाम्राज्य शताब्दियों से नहीं बना था। इससे राजनीतिक एकता के साथ-साथ देश की सांस्कृतिक एकता भी पुष्ट हुई और विदेशों में भी भारतवर्ष का प्रभाव-विस्तार हुआ। यूरोपीय इतिहासकारों के अनुसार यवन राजदूत मेगास्थनीज चन्द्रगुप्त मौर्य के समय में पाटलिपुत्र भेजा गया था।
| + | ==== <big>विक्रमादित्य</big> ==== |
| + | शक आक्रान्ताओं से पराजित अवन्ती-नरेश के वीर पुत्र विक्रम [युगाब्द 3020 (ई०पू० 82) में सिंहासनारूढ़] ने निर्वासित स्थिति में ही युद्धविद्या सीखी, सैन्य संगठन किया और अपने पराक्रम से परकीय शक राजाओं को परास्त कर अवन्तिका राज्य को मुक्त कराया। शकों को परास्त करने के कारण ही उन्हें शकारि विक्रमादित्य कहा जाता है। शकों पर विजय की स्मृति के रूप में ही विक्रम संवत् का प्रवर्तन हुआ जो आज भी भारत में प्रचलित है। प्रजा-हितैषी सद्गुणसम्पन्न राजा के रूप में विक्रमादित्य की इतनी ख्याति हुई कि उनसे संबंधित कितनी ही कहानियाँ आज तक प्रचलित हैं। |
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− | '''<big>विक्रमादित्य [युगाब्द 3020 (ई०पू० 82) में सिंहासनारूढ़]</big>'''
| + | ==== <big>शालिवाहन</big> ==== |
| + | प्राचीन भारत का एक प्रसिद्ध राजवंश, जो सातवाहन अथवा शालिवाहन नाम से जाना जाता है और जिसका आधिपत्य कुष्णा-गोदावरी के मध्य था। इस महान् राजवंश में तीस प्रमुख राजा हुए, जिनमें गौतमीपुत्र और शालिवाहन [युगाब्द 3179 (ई० 78) में सिंहासनारूढ़] विशेष प्रसिद्ध हैं। मूलत: इनकी राजधानी आन्ध्र प्रदेश के गुण्टूर जिले में धनकटक (धरणीकोट) नगर में थी। इन्होंने महाराष्ट्र पर छाये हुए विदेशी शक क्षत्रप को पराजित किया और गोदावरी के तट पर प्रतिष्ठानपुर (पैठण) में नयी राजधानी बनायी। शकों पर पुलुमायी शालिवाहन की विजय की स्मृति शालिवाहन शक संवत् के रूप में आज भी भारत में विद्यमान है। |
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− | शक आक्रान्ताओं से पराजित अवन्ती-नरेश के वीर पुत्र विक्रम ने निर्वासित स्थिति में ही युद्धविद्या सीखी, सैन्य संगठन किया और अपने पराक्रम से परकीय शक राजाओं को परास्त कर अवन्तिका राज्य को मुक्त कराया। शकों को परास्त करने के कारण ही उन्हें शकारि विक्रमादित्य कहा जाता है। शकों पर विजय की स्मृति के रूप में ही विक्रम संवत् का प्रवर्तन हुआ जो आज भी भारत में प्रचलित है। प्रजा-हितैषी सद्गुणसम्पन्न राजा के रूप में विक्रमादित्य की इतनी ख्याति हुई कि उनसे संबंधित कितनी ही कहानियाँ आज तक प्रचलित हैं।
| + | ==== <big>समुद्रगुप्त</big> ==== |
| + | सुप्रसिद्ध गुप्तवंशीय सम्राट [युगाब्द 2782 (ई०पू० 320) में सिंहासनारूढ़] जिन्होंने अपने पराक्रम और सैन्य-अभियानों से गुप्त-साम्राज्य का पर्याप्त विस्तार किया। प्रयाग के स्तम्भ-लेख के अनुसार समुद्रगुप्त ने सम्पूर्ण भारत स्वायत्त किया था। भारत से बाहर के देशों से भी उनका सम्बन्ध था। समुद्रगुप्त के महान् पराक्रम और उदारता का वर्णन ईरान के एक प्राचीन अभिलेख में प्राप्त हुआ है, जिससे उनके दिग्विजय के विस्तार का अनुमान लगाया जा सकता है। दिग्विजय सम्पन्न करने के पश्चात् समुद्रगुप्त ने अश्वमेध यज्ञ किया था। जिन लोकोत्तर व्यक्तित्व सम्पन्न राजाओं के कारण गुप्तवंश का शासनकाल भारतीय इतिहास का स्वर्णयुग कहलाया, उनमें सम्राट समुद्रगुप्त का नाम सर्वोपरि है। वसुबन्धु नामक सुप्रसिद्ध बौद्ध विद्वान को समुद्रगुप्त का आश्रय प्राप्त था। |
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− | '''<big>शालिवाहन [युगाब्द 3179 (ई० 78) में सिंहासनारूढ़]</big>'''
| + | ==== <big>हर्षवर्द्धन</big> ==== |
| + | कलियुग की 38 वीं (ईसा की सातवीं) शताब्दी के महान भारतीय सम्राट, जिन्होंने सम्पूर्ण उत्तर भारत को हूणों के वर्चस्व से मुक्त कर एकछत्र राज्य के अन्तर्गत संगठित किया। ये स्थानेश्वर-नरेश प्रभाकरवर्द्धन के पुत्र थे और बड़े भाई राज्यवर्द्धन की मृत्यु के बाद राजा बने। गुप्त साम्राज्य के अंत से छिन्न-भिन्न हुए भारत में फिर एक विशाल साम्राज्य की स्थापना कर उन्होंने कान्यकुब्ज (कन्नौज) को अपनी राजधानी बनाया और देश को पुन: एकता के सूत्र में बाँधने का यशस्वी कार्य सम्पादित किया। चीनी यात्री युवान् (ह्वेनत्सांग) हर्ष के शासनकाल में भारत आया था। हर्ष प्रति पाँचवें वर्ष प्रयाग में एक विशाल सम्मेलन कर सर्वस्व दान करते थे और सभी सम्प्रदायों के देवताओं का सम्मान करते थे। वे श्रेष्ठ लेखक भी थे और साहित्यकारों का आदर करते थे। उन्होंने 'नागानन्द','रत्नावली' और'प्रियदर्शिका' नामक ग्रंथों की रचना की। संस्कृत के सुप्रसिद्ध कवि बाणभट्ट हर्ष के सखा और राज-सभा के रत्न थे। |
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− | प्राचीन भारत का एक प्रसिद्ध राजवंश,जो सातवाहन अथवा शालिवाहन नाम से जाना जाता है और जिसका आधिपत्य कुष्णा-गोदावरी के मध्य था। इस महान् राजवंश में तीस प्रमुख राजा हुए,जिनमेंगौतमीपुत्र और शालिवाहन विशेष प्रसिद्ध हैं। मूलत: इनकी राजधानी आन्ध्र प्रदेश के गुण्टूरजिलेमें धनकटक(धरणीकोट) नगरमें थी। इन्होंने महाराष्ट्रपर छायेहुएविदेशी शक क्षत्रप को पराजित किया और गोदावरी के तट पर प्रतिष्ठानपुर (पैठण) में नयी राजधानी बनायी। शकों पर पुलुमायी शालिवाहन की विजय की स्मृति शालिवाहन शक संवत् के रूप में आज भी भारत में विद्यमान है।
| + | ==== <big>शैलेन्द्र</big> ==== |
| + | उत्कल प्रदेश के पुरी जिले के अन्तर्गत बाणपुर राजवंश के राजा शैलेन्द्र कलियुगाब्द 38वीं (ई० सातवीं) शताब्दी के एक महाप्रतापी सम्राट हुये हैं, जिन्होंने भारत के बाहर बर्मा और सुवर्ण द्वीप (मलयेशिया, इण्डोनेशिया आदि द्वीप-समूह) तक अपने साम्राज्य का विस्तार किया। सात सौ वर्षों तक शैलेन्द्रवंशीय राजाओं ने हिन्दू धर्म और संस्कृति के संरक्षण और संवर्धन का कार्य किया, विशेष रूप से सुवर्णद्वीप में। युगाब्द 38वीं (ई० सातवीं) शताब्दी में शैलेन्द्र वंश का अधिराज्य बर्मा में स्थापित हुआ और 38 वीं शती के आरम्भ में सुवर्ण द्वीप में। जावा और सुमात्रा में इनके बनवाये मन्दिर अभी तक विद्यमान हैं। भारतीय नौ-वाणिज्य को भी इन शैलेन्द्रवंशीय राजाओं ने पर्याप्त विकसित किया। |
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− | '''<big>समुद्रगुप्त [युगाब्द 2782 (ई०पू० 320) में सिंहासनारूढ़]</big>'''
| + | ==== <big>बाप्पा रावल</big> ==== |
− | | + | राजस्थान में गुहिलोत राजवंश के संस्थापक बाप्पा रावल स्वधर्म के प्रखर अभियानी तथा अरबों को परास्त करने वाले प्रतापी-पराक्रमी राजा हुए हैं। उदयपुर के निकट एक छोटे से राज्य नागहृद (नागदा) के अधिपति पद से आरम्भ कर ये चित्तौड़ के अधिपति बने। युगाब्द 39वीं (ई० आठवीं) शताब्दी में अरबों के आक्रमण भारत पर होने लगे थे। बाप्पा रावल ने स्वदेश में तो उनकी पराजित किया ही, आगे अरब तक बढ़कर शत्रुओं का दमन भी किया। दीर्घकाल तक राज्य-शासन करके तथा आक्रमणकारी अरबों को अनेक बार पराभूत कर बाप्पा रावल ने अपने पुत्र को राज्य प्रदान किया और स्वयं शिवोपासक यति बने। |
− | सुप्रसिद्ध गुप्तवंशीय सम्राट् जिन्होंने अपने पराक्रम और सैन्य-अभियानों से गुप्त-साम्राज्य का पर्याप्त विस्तार किया। प्रयाग के स्तम्भ-लेख के अनुसार समुद्रगुप्त ने सम्पूर्ण भारत स्वायत्त किया था। भारत से बाहर के देशों से भी उनका सम्बन्ध था। समुद्रगुप्त के महान् पराक्रम और उदारता का वर्णन ईरान के एक प्राचीन अभिलेख में प्राप्त हुआ है, जिससे उनके दिग्विजय के विस्तार का अनुमान लगाया जा सकता है। दिग्विजय सम्पन्न करने के पश्चात् समुद्रगुप्त ने अश्वमेध यज्ञ किया था। जिन लोकोत्तर व्यक्तित्व सम्पन्न राजाओं के कारण गुप्तवंश का शासनकाल भारतीय इतिहास का स्वर्णयुग कहलाया, उनमें सम्राट् समुद्रगुप्त का नाम सर्वोपरि है। वसुबन्धु नामक सुप्रसिद्ध बौद्ध विद्वान् को समुद्रगुप्त का आश्रय प्राप्त था।
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− | '''<big>हर्षवर्द्धन</big>'''
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− | कलियुग की 38 वीं (ईसा की सातवीं) शताब्दी के महान् भारतीय सम्राट्,जिन्होंने सम्पूर्ण उत्तर भारत को हूणों के वर्चस्व से मुक्त कर एकछत्र राज्य के अन्तर्गत संगठित किया। ये स्थानेश्वर-नरेश प्रभाकरवर्द्धन के पुत्र थे और बड़े भाई राज्यवर्द्धन की मृत्यु के बाद राजा बने। गुप्त साम्राज्य के अंत से छिन्न-भिन्न हुए भारत में फिर एक विशाल साम्राज्य की स्थापना कर उन्होंने कान्यकुब्ज (कन्नौज) को अपनी राजधानी बनाया और देश को पुन: एकता के सूत्र में बाँधने का यशस्वी कार्य सम्पादित किया। चीनी यात्री युवान् (ह्वेनत्सांग) हर्ष के शासनकाल में भारत आया था। हर्ष प्रति पाँचवें वर्ष प्रयाग में एक विशाल सम्मेलन कर सर्वस्व दान करते थे और सभी सम्प्रदायों के देवताओं का सम्मान करते थे। वे श्रेष्ठ लेखक भी थे और साहित्यकारों का आदर करते थे। उन्होंने 'नागानन्द','रत्नावली' और'प्रियदर्शिका' नामक ग्रंथों की रचना की। संस्कृत के सुप्रसिद्ध कवि बाणभट्ट हर्ष के सखा और राज-सभा के रत्न थे।
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− | '''<big>शैलेन्द्र</big>'''
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− | उत्कल प्रदेश केपुरी जिले के अन्तर्गत बाणपुर राजवंश के राजा शैलेन्द्र कलियुगाब्द 38वीं (ई० सातवीं) शताब्दी के एक महाप्रतापी सम्राट्हुए हैं, जिन्होंने भारत के बाहर बर्मा और सुवर्ण द्वीप (मलयेशिया, इण्डोनेशिया आदि द्वीप-समूह) तक अपने साम्राज्य का विस्तार किया। सात सौ वर्षों तक शैलेन्द्रवंशीय राजाओं ने हिन्दू धर्म और संस्कृति के संरक्षण और संवर्धन का कार्य किया, विशेष रूप से सुवर्णद्वीप में। युगाब्द 38वीं (ई० सातवीं) शताब्दी में शैलेन्द्र वंश का अधिराज्य बर्मा में स्थापित हुआ और 38 वीं शती के आरम्भ में सुवर्ण द्वीप में। जावा और सुमात्रा में इनके बनवाये मन्दिर अभी तक विद्यमान हैं। भारतीय नौ-वाणिज्य को भी इन शैलेन्द्रवंशीय राजाओं ने पर्याप्त विकसित किया।
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− | '''<big>बाण्या रावल</big>'''
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− | राजस्थान में गुहिलोत राजवंश के संस्थापक बाप्पा रावल स्वधर्म के प्रखर अभियानी तथा अरबों को परास्त करने वाले प्रतापी-पराक्रमी राजा हुए हैं। उदयपुर के निकट एक छोटे से राज्य नागहृद (नागदा) के अधिपति पद से आरम्भ कर ये चित्तौड़ के अधिपति बने। युगाब्द 39वीं (ई० आठवीं) शताब्दी में अरबों के आक्रमण भारत पर होने लगे थे। बाप्पा रावल ने स्वदेश में तो उनकी पराजित किया ही,आगे अरब तक बढ़कर शत्रुओं कादमन भी किया। दीर्घकाल तक राज्य-शासन करके तथा आक्रमणकारी अरबों को अनेक बार पराभूत कर बाप्पा रावल ने अपने पुत्र को राज्य प्रदान किया और स्वयं शिवोपासक यति बने। | |
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