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संस्कृत के श्रेष्ठतम कवि और नाटककार कालिदास राजा विक्रमादित्य के समकालीन थे। कुछ विद्वान इन्हें ईसा से कुछ वर्ष पूर्व का तथा कुछ गुप्त-काल का मानते हैं। किंवदन्ती है कि इनका विवाह एक विदुषी राजकुमारी से करा दिया गया था, जिसने इन्हें मूर्ख कहकर अपमानित किया। अपमान के दंश ने उनके हृदय में संकल्प जगा दिया। कालिदास सरस्वती की कठिन साधना में जुटगये और काव्यकला में महानतम स्थान पर पहुँचकर ही शान्ति की साँस ली। इनके चारकाव्य तथा तीन नाटक प्रसिद्ध हैं। काव्य हैं : रघुवंश, कुमारसम्भव, मेघदूत और ऋतुसंहार। नाटक हैं: अभिज्ञान शाकुन्तलम्, विक्रमोर्वशीयम् और मालविकाग्निमित्रम्। अभिज्ञान शाकुन्तलम् नाटक पढ़कर प्रसिद्ध जर्मन कवि गेटे भाव-विभोर हो गया था। कालिदास ने अपनी रचनाओं में भारतीय संस्कृति की रसभीनी अभिव्यक्ति की है। इनकी रचनाओं में प्रेम के ललित औरउदात्त रूप उत्कृष्ट कलात्मकता से प्रस्तुत हुए हैं। उपमा अलंकार में कालिदास की कोई तुलना नहीं।  
 
संस्कृत के श्रेष्ठतम कवि और नाटककार कालिदास राजा विक्रमादित्य के समकालीन थे। कुछ विद्वान इन्हें ईसा से कुछ वर्ष पूर्व का तथा कुछ गुप्त-काल का मानते हैं। किंवदन्ती है कि इनका विवाह एक विदुषी राजकुमारी से करा दिया गया था, जिसने इन्हें मूर्ख कहकर अपमानित किया। अपमान के दंश ने उनके हृदय में संकल्प जगा दिया। कालिदास सरस्वती की कठिन साधना में जुटगये और काव्यकला में महानतम स्थान पर पहुँचकर ही शान्ति की साँस ली। इनके चारकाव्य तथा तीन नाटक प्रसिद्ध हैं। काव्य हैं : रघुवंश, कुमारसम्भव, मेघदूत और ऋतुसंहार। नाटक हैं: अभिज्ञान शाकुन्तलम्, विक्रमोर्वशीयम् और मालविकाग्निमित्रम्। अभिज्ञान शाकुन्तलम् नाटक पढ़कर प्रसिद्ध जर्मन कवि गेटे भाव-विभोर हो गया था। कालिदास ने अपनी रचनाओं में भारतीय संस्कृति की रसभीनी अभिव्यक्ति की है। इनकी रचनाओं में प्रेम के ललित औरउदात्त रूप उत्कृष्ट कलात्मकता से प्रस्तुत हुए हैं। उपमा अलंकार में कालिदास की कोई तुलना नहीं।  
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'''<big>भोज</big>'''
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==== <big>भोज</big> ====
 
   
एक राजा जिन्होंने स्वप्न देखा था कि उन्होंने अपने शत्रुओं का उच्छिष्ठ खाया है तथा उनके शत्रुओं ने उन्हें राज्य तथा स्त्रियों से वंचित कर दिया है। उन्होंने इससे अत्यंत प्रभावित होकर गृहत्याग किया और साधना द्वारा ब्रह्मनिर्वाण प्राप्त किया। मालवा के परमारवंशी राजा भोज भी प्रसिद्ध हुए हैं जो स्वयं बहुविद्याविशारद थे और विद्वानों को प्रश्रय देने के लिए उनकी बड़ी ख्याति थी। योगदर्शन पर भोजवृत्ति नाम से प्रसिद्ध टीकाग्रंथ के अतिरिक्त ज्योतिष, साहित्य, संगीत, अश्वशास्त्र आदि अनेक विषयों पर भोज के नाम से जो ग्रंथ उपलब्ध हैं, वे राजा भोज की ही कृतियाँ मानी जाती हैं। कुछ अन्य पौराणिक व्यक्तियों के भी भोज नाम से उल्लेख मिलते हैं।  
 
एक राजा जिन्होंने स्वप्न देखा था कि उन्होंने अपने शत्रुओं का उच्छिष्ठ खाया है तथा उनके शत्रुओं ने उन्हें राज्य तथा स्त्रियों से वंचित कर दिया है। उन्होंने इससे अत्यंत प्रभावित होकर गृहत्याग किया और साधना द्वारा ब्रह्मनिर्वाण प्राप्त किया। मालवा के परमारवंशी राजा भोज भी प्रसिद्ध हुए हैं जो स्वयं बहुविद्याविशारद थे और विद्वानों को प्रश्रय देने के लिए उनकी बड़ी ख्याति थी। योगदर्शन पर भोजवृत्ति नाम से प्रसिद्ध टीकाग्रंथ के अतिरिक्त ज्योतिष, साहित्य, संगीत, अश्वशास्त्र आदि अनेक विषयों पर भोज के नाम से जो ग्रंथ उपलब्ध हैं, वे राजा भोज की ही कृतियाँ मानी जाती हैं। कुछ अन्य पौराणिक व्यक्तियों के भी भोज नाम से उल्लेख मिलते हैं।  
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'''<big>जकणाचार्य</big>'''
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==== <big>जकणाचार्य</big> ====
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कर्नाटक के प्रसिद्ध शिल्पी। इन्होंने कर्नाटक के प्रसिद्ध हलेबीड़, बेलूर, सोमनाथपुर आदि मन्दिरों का निर्माण किया। शिल्पशास्त्र की 'होयसल शैली' इन्हीं की देन है। 
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कर्नाटक के प्रसिद्ध शिल्पी। इन्होंने कर्नाटक के प्रसिद्ध हलेबीड़, बेलूर, सोमनाथपुर आदि मन्दिरों का निर्माण किया। शिल्पशास्त्र की 'होयसल शैली' इन्हीं की देन है। सूरदासकलियुग की 47वीं (ई० 16वीं) शताब्दी मेंहुए, भक्तिकाल के सर्वश्रेष्ठकृष्णभक्त महाकवि। ये अष्टछाप (आठउच्चकोटि के कृष्णभक्त कवियों का समूह) के कवि थे। इन्होंने श्रीकृष्ण की लीलाओं का— विशेष रूप से बाल-लीलाओं और प्रेमलीलाओं का भक्ति-विह्वल भाव से वर्णन किया है। ये श्री वल्लभाचार्य के शिष्य थे और वृन्दावन में श्रीनाथ जी के समक्ष प्रतिदिन एक नया पद (भजन) बनाकर गाते थे। अंधे होते हुए भी इन्होंने अपने आराध्य श्रीकृष्ण की लीलाओं का अत्यंत सूक्ष्म एवं मनोवैज्ञानिक वर्णन किया है। इसी कारण विद्वानों की मान्यता है कि वे जन्मांध नहीं रहेहोंगे। बाद मेंही किसी कारणवशउनकी दृष्टिहानि हुई होगी,क्योंकि जिसने कोई भी रूप कभी देखा ही न हो वह उसका इतना सजीव वर्णन नहीं कर सकता। इनका काव्य संगीत गुण से युक्त है। 'सूरसागर' इनका उत्कृष्ट ग्रंथ है। यह ब्रजभाषा में रचे पदों का विशाल संग्रह है।  
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==== <big>सूरदास</big> ====
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सूरदास कलियुग की 47वीं (ई० 16वीं) शताब्दी में हुए, भक्तिकाल के सर्वश्रेष्ठ कृष्णभक्त महाकवि। ये अष्टछाप (आठउच्चकोटि के कृष्णभक्त कवियों का समूह) के कवि थे। इन्होंने श्रीकृष्ण की लीलाओं का विशेष रूप से बाल-लीलाओं और प्रेमलीलाओं का भक्ति-विह्वल भाव से वर्णन किया है। ये श्री वल्लभाचार्य के शिष्य थे और वृन्दावन में श्रीनाथ जी के समक्ष प्रतिदिन एक नया पद (भजन) बनाकर गाते थे। अंधे होते हुए भी इन्होंने अपने आराध्य श्रीकृष्ण की लीलाओं का अत्यंत सूक्ष्म एवं मनोवैज्ञानिक वर्णन किया है। इसी कारण विद्वानों की मान्यता है कि वे जन्मांध नहीं रहे होंगे। बाद में ही किसी कारणवश उनकी दृष्टि हानि हुई होगी, क्योंकि जिसने कोई भी रूप कभी देखा ही न हो वह उसका इतना सजीव वर्णन नहीं कर सकता। इनका काव्य संगीत गुण से युक्त है। 'सूरसागर' इनका उत्कृष्ट ग्रंथ है। यह ब्रजभाषा में रचे पदों का विशाल संग्रह है।  
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'''<big>त्यागराज</big>'''
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==== <big>त्यागराज</big> ====
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कर्नाटक संगीत के प्रख्यातगायक एवं निष्ठावान् रामभक्त त्यागराज का जन्म युगाब्द 4868 (ई० 1767) में तमिलनाडु के तंजौर जिले में तिरुवायूर में हुआ था। त्यागराज ने लौकिक मनुष्य के स्तुतिगान से इंकार किया और अपने उपास्य की समृति में पंचरत्न कीर्तन रचे तथा गाये। उनके गीत तेलुगू में रचे गये हैं। अस्सी वर्ष की आयु में उनकी मृत्यु हुई। उनकी समाधि पर तिरुवायूर में प्रति पाँचवे वर्ष त्यागराज-आराधना नाम से संगीतोत्सव आयोजित किया जाता है जिसमें देश के बड़े-बड़े संगीतकार भाग लेते हैं और त्यागराज के कीर्तनों का गायन करते हैं।
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कर्नाटक संगीत के प्रख्यातगायक एवं निष्ठावान् रामभक्त त्यागराज का जन्म युगाब्द 4868 (ई० 1767) में तमिलनाडु के तंजौर जिले में तिरुवायूर में हुआ था। त्यागराज ने लौकिक मनुष्य के स्तुतिगान से इंकार किया और अपने उपास्य की समृति में पंचरत्न कीर्तन रचे तथा गाये। उनके गीत तेलुगूमें रचे गये हैं। अस्सी वर्ष की आयु मेंउनकी मृत्युहुई। उनकी समाधि पर तिरुवायूर में प्रति पाँचवे वर्ष त्यागराज—आराधना नाम से संगीतोत्सव आयोजित किया जाता है जिसमें देश के बड़े-बड़े संगीतकार भाग लेते हैं और त्यागराज के कीर्तनों का गायन करते हैं।  
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==== <big>रसखान</big> ====
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सुप्रसिद्ध कृष्णभक्त कवि। इनका पूरा नाम सैयद इब्राहीम ‘रसखान' था [युगाब्द 4659-4719(1558-1618 ई०)]। ये दिल्ली के पठान सरदार थे। इनका देश की राष्ट्रीय परम्परा से अटूट नाता था। इन्होंने भगवान श्रीकृष्ण के अलौकिक प्रेम के रंग में रंगकर ब्रजभाषा में भक्ति रस के कवित्त-सवैयों की रचना की। वृन्दावन में गोस्वामी विट्ठलनाथ ने इन्हें पुष्टिमार्ग की दीक्षा दी। इनकी रचनाओं में कृष्णभक्ति की सहज और निर्मल अभिव्यक्ति पूर्ण आन्तरिकता और मार्मिकता से हुई है। 'प्रेम-वाटिका' और 'सुजान रसखान' इनके प्रसिद्ध काव्य-संग्रह हैं।  
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'''<big>रसखान [युगाब्द 4659-4719(1558-1618 ई०)]</big>'''
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==== <big>महान चित्रकार एवं कलाकार</big> ====
 
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सुप्रसिद्ध कृष्णभक्त कवि। इनका पूरा नाम सैयद इब्राहीम ‘रसखान' था। ये दिल्ली के पठान सरदार थे। इनका देश की राष्ट्रीय परम्परा से अटूट नाता था। इन्होंने भगवान श्रीकृष्ण के अलौकिक प्रेम के रंग में रंगकर ब्रजभाषा में भक्ति रस के कवित्त-सवैयों की रचना की। वृन्दावन मेंगोस्वामी विट्ठलनाथने इन्हेंपुष्टिमार्ग की दीक्षा दी। इनकी रचनाओंमें कृष्णभक्ति की सहज और निर्मल अभिव्यक्ति पूर्ण आन्तरिकता और मार्मिकता से हुई है। 'प्रेम-वाटिका' और 'सुजान रसखान' इनके प्रसिद्ध काव्य-संग्रह हैं।
   
[[File:7.PNG|center|thumb]]
 
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<blockquote>'''<big>रविवर्मा भातखण्डे भाग्यचन्द्रः स भूपतिः। कलावन्तश्च विख्याता स्मरणीया निरन्तरम् ॥ २१  ॥</big>'''</blockquote>
 
<blockquote>'''<big>रविवर्मा भातखण्डे भाग्यचन्द्रः स भूपतिः। कलावन्तश्च विख्याता स्मरणीया निरन्तरम् ॥ २१  ॥</big>'''</blockquote>
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'''<big>रविवर्मा [युगाब्द 4949-5006 (ई० 1848-1905)]</big>'''
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==== <big>रविवर्मा</big> ====
 
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केरल में जन्मे सुप्रसिद्ध चित्रकार [युगाब्द 4949-5006 (ई० 1848-1905)] इन्होंने लगभग 30 वर्ष भारतीय चित्रकला की साधना में लगाये। इनके चित्रों में से अधिकांश पौराणिक विषयों के हैं। कुछ राजा-महाराजाओं के व्यक्ति-चित्र भी हैं। इनकी चित्रकला-शैली में भारतीय तथा यूरोपीय शैलियों का सम्मिश्रण है।  
केरल में जन्मे सुप्रसिद्ध चित्रकार। इन्होंने लगभग 30 वर्ष भारतीय चित्रकला की साधना में लगाये। इनके चित्रों में से अधिकांश पौराणिक विषयों के हैं। कुछराजा-महाराजाओं के व्यक्ति-चित्र भी हैं। इनकी चित्रकला-शैली में भारतीय तथा यूरोपीय शैलियों का सम्मिश्रण है।  
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'''<big>भातखण्डे</big>'''
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युगाब्द 51वींशताब्दी (ईसा की 20वीं शती) में भारतीय संगीत केपुनरुद्धार कामहान्कार्य करने वाले मनीषियों में एक प्रमुख व्यक्तित्व, श्री भातखण्डे, व्यवसाय से अधिवक्ता थे। उनका जन्म महाराष्ट्र में हुआ था और वे बम्बई में सॉलिसिटर के रूप में कार्य करते थे। प्रारम्भ से ही संगीत में रुचि थी। मनरंग घराने के मुहम्मद अली खाँऔर अन्य संगीताचार्योंसे संगीत सीख कर उन्होंने अपना अधिकांश जीवन भारतीय संगीत में अनुसन्धान-कार्य और उसके प्रचार-प्रसार में लगा दिया। 'लक्ष्य मंजरी' और 'अभिनव राग मंजरी' उनकी बहुमूल्य कृतियाँहैं तथा लखनऊ *N का 'भातखण्डे संगीत विद्यापीठ' उनके योगदान का स्मरण दिलाता हुआ खड़ा है।  
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==== <big>भातखण्डे</big> ====
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युगाब्द 51वींशताब्दी (ईसा की 20वीं शती) में भारतीय संगीत के पुनरुद्धार का महान्कार्य करने वाले मनीषियों में एक प्रमुख व्यक्तित्व, श्री भातखण्डे, व्यवसाय से अधिवक्ता थे। उनका जन्म महाराष्ट्र में हुआ था और वे बम्बई में सॉलिसिटर के रूप में कार्य करते थे। प्रारम्भ से ही संगीत में रुचि थी। मनरंग घराने के मुहम्मद अली खाँ और अन्य संगीताचार्यों से संगीत सीख कर उन्होंने अपना अधिकांश जीवन भारतीय संगीत में अनुसन्धान-कार्य और उसके प्रचार-प्रसार में लगा दिया। 'लक्ष्य मंजरी' और 'अभिनव राग मंजरी' उनकी बहुमूल्य कृतियाँ हैं तथा लखनऊ का 'भातखण्डे संगीत विद्यापीठ' उनके योगदान का स्मरण दिलाता हुआ खड़ा है।  
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'''<big>भाग्यचन्द्र</big>'''
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==== <big>भाग्यचन्द्र</big> ====
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मणिपुर के ललित कलाउन्नायक राजा, जिनका मणिपुर में भारतीय संस्कृति के प्रचार-प्रसार में असाधारण योगदान रहा है। कृष्ण-कथाओं पर आधारित मणिपुरी नृत्य का विकास इनकी ही देन है।
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मणिपुर के ललितकलाउन्नायक राजा,जिनका मणिपुर में भारतीय संस्कृति के प्रचार-प्रसार में असाधारण योगदान रहा है। कृष्ण-कथाओं पर आधारित मणिपुरी नृत्य का विकास इनकी ही देन है।
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=== महान व्यक्ति जिन्होंने भारतीय संस्कृति का रक्षण एवं विस्तार किया  ===
 
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<blockquote>'''<big>अगस्त्यः कम्बुकौण्डिन्यौ राजेन्द्रश्चोलवं शजः । अशोकः पुष्यमित्रश्च खारवेलः सुनीतिमान् । २२  ॥</big>'''</blockquote>
 
<blockquote>'''<big>अगस्त्यः कम्बुकौण्डिन्यौ राजेन्द्रश्चोलवं शजः । अशोकः पुष्यमित्रश्च खारवेलः सुनीतिमान् । २२  ॥</big>'''</blockquote>
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'''<big>अगस्त्य</big>'''
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==== <big>अगस्त्य</big> ====
 
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एक वैदिक ऋषि, जिनका उल्लेख ऋग्वेद में एकाधिक स्थानों पर मिलता है। इनके कर्तृत्व के सूचक तीन महत्वपूर्ण कार्य हैं- वातापि राक्षस का संहार, विन्ध्याचल की बाढ़ को रोकना तथा समुद्र आचमन। ये विन्ध्याचल लांघकर दक्षिण की ओर गये थे और आर्य सभ्यता का दक्षिण भारत में विस्तार किया था। बृहत्तर भारत में भी भारतीय संस्कृति और सभ्यता के प्रसार का महत्वपूर्ण कार्य इन्होंने सम्पन्न किया। दक्षिण-पूर्व एशिया के द्वीपों में अगस्त्य की मूर्ति की अर्चना आज भी की जाती है।  
एक वैदिक ऋषि,जिनका उल्लेखऋग्वेद में एकाधिक स्थानों पर मिलता है। इनके कर्तृत्व के सूचक तीन महत्वपूर्ण कार्य हैं-वातापि राक्षस का संहार,विन्ध्याचल की बाढ़को रोकना तथा समुद्र आचमन। ये विन्ध्याचल लांघकर दक्षिण की ओर गये थे और आर्य सभ्यता का दक्षिण भारत में विस्तार किया था। बृहत्तर भारत में भी भारतीय संस्कृति और सभ्यता के प्रसार का महत्वपूर्ण कार्य इन्होंने सम्पन्न किया। दक्षिण-पूर्व एशिया के द्वीपों में अगस्त्य की मूर्ति की अर्चना आज भी की जाती है।  
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'''<big>कम्बु</big>'''
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आधुनिक कम्बोडिया का प्राचीन नाम कम्बुज था। यह नाम कम्बु नामक महापुरुष के कारण रखा गया था। कम्बु मूलत: भारतवर्ष के निवासी राजा थे जिन्होंने पूर्व दिशा में दिग्विजय अभियान कर एक अरण्यमय प्रदेश में प्रवेश किया,वहाँ के नागपूजक राजा को परास्त करउसकी कन्यासे विवाहकिया और उस प्रदेश का उद्धार किया। कम्बुज साम्राज्य का प्रारम्भ कलियुग की 32वीं अर्थात् ईसा की पहली शताब्दी के श्रुतवर्मा नामक सम्राट् से हुआ। श्रुतवर्मा और उसके परवर्ती राजाओं ने कम्बुज साम्राज्य में हिन्दूधर्म तथा संस्कृति की पताका फहरायी। बाद में युगाब्द 38वीं से46वीं (ईसा की 7वीं से 15वीं) शताब्दी तक शैलेन्द्र वंश के राजाओंने कम्बुज पर शासन किया।
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'''<big>कौण्डिन्य</big>'''
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दक्षिण भारतवासी वीर पुरुष, जिन्होंने कलियुग की 32वीं (ईसा की प्रथम) शताब्दी में समुद्र-मार्ग से पूर्व की ओर जाकर महान् साम्राज्य की स्थापना की,जिसे (चीनी भाषा में) फूनान साम्राज्य के नाम से जाना जाता है और जिसमें कम्बोडिया, अनाम, स्याम, मलाया, इण्डो—चायना इत्यादि पौर्वात्य प्रदेशों का अन्तर्भाव था। युगाब्द 35वीं (ई० चौथी) शताब्दी में दक्षिण भारत से कौण्डिन्य नाम का ही एक दूसरा वीर पुरुष फूनान साम्राज्य में गया था, जिसने हिन्दू धर्म तथा संस्कृति के पुनरुत्थान का अविस्मरणीय कार्य किया। कौण्डिन्य साम्राज्य के संस्थापक प्रथम कौण्डिन्य के राजवंश (सोमवंश) में चन्द्रवर्मा,जयवर्मा,रुद्रवर्मा इत्यादि महान् राजा हुए। फूनान के हिन्दूसाम्राज्य की ओर से पूर्व के अन्य राज्यों में दूतमण्डल भेजे जाते थे। इसी वंश के युगाब्द 36वीं (ई० पाँचवी) शताब्दी के शासक कौण्डिन्य जयवर्मा ने शाक्य नागसेन नामक भिक्षु को धर्म-प्रचारार्थ चीन भेजा था।
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'''<big>राजेन्द्रचोल</big>'''
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दक्षिण भारत के सुप्रसिद्धचोल वंश के पराक्रमी शासक,जिन्होंने चोल साम्राज्य का विस्तार समुद्रपारतक कर मलायाद्वीप पर अधिकार करलिया।युगाब्द 42वीं (ई०11वीं) शताब्दी के इस पराक्रमी राजा नेदक्षिण-पूर्व एशिया के द्वीपों (मलाया,सुमात्रा,जावा) को जीतकर वहाँभारतीय संस्कृति का प्रचार किया। इससे पूर्व वहाँ भारत से ही गये हुएशैलेन्द्र वंश का शासन था जिसके शिथिल पड़ने पर वह कार्य राजेन्द्र ने संभाल लिया। राजेन्द्र पराक्रमी शासक राजराज के पुत्र थे। उन्होंने अपने पिता के साम्राज्य का दूर-दूर तक विस्तार किया। उनकी नौसेना बहुत शक्तिशाली थी। राजेन्द्र चोल ने अपने लगभग तीस वर्ष के सफलशासन में धर्म,साहित्य औरकला को बहुत प्रोत्साहन दिया। उन्होंने अनेक भव्य मन्दिरों का निर्माण भी कराया।
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'''<big>अशोक [युगाब्द 1630 (ई० पू०1472)में सिंहासनारूढ़]</big>'''
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==== <big>कम्बु</big> ====
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आधुनिक कम्बोडिया का प्राचीन नाम कम्बुज था। यह नाम कम्बु नामक महापुरुष के कारण रखा गया था। कम्बु मूलत: भारतवर्ष के निवासी राजा थे जिन्होंने पूर्व दिशा में दिग्विजय अभियान कर एक अरण्यमय प्रदेश में प्रवेश किया, वहाँ के नागपूजक राजा को परास्त कर उसकी कन्या से विवाह किया और उस प्रदेश का उद्धार किया। कम्बुज साम्राज्य का प्रारम्भ कलियुग की 32वीं अर्थात् ईसा की पहली शताब्दी के श्रुतवर्मा नामक सम्राट से हुआ। श्रुतवर्मा और उसके परवर्ती राजाओं ने कम्बुज साम्राज्य में हिन्दूधर्म तथा संस्कृति की पताका फहरायी। बाद में युगाब्द 38वीं से 46वीं (ईसा की 7वीं से 15वीं) शताब्दी तक शैलेन्द्र वंश के राजाओं ने कम्बुज पर शासन किया।
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सम्राट्चन्द्रगुप्त मौर्य के पौत्र तथा बिम्बसारकेपुत्र सम्राट् अशोक काशासनकाल पाश्चात्य इतिहासकार कलियुग की 28वीं (ईसा-पूर्व तीसरी) शताब्दी बताते हैं जबकि भारतीय परम्परा में यह उससे 1100 वर्ष पूर्व युगाब्द 17वीं शती माना जाता है। शासन के प्रारम्भ में अशोक ने साम्राज्य-विस्तार की नीति अपनायी। अशोकका साम्राज्यप्राय: सम्पूर्ण भारत पर औरपश्चिमोत्तर में हिन्दूकुश एवं ईरान की सीमा तक था। कलिंग के भीषण युद्ध में विजयी होने पर भी, भयंकर नरसंहार देखकर अशोक का हृदय-परिवर्तन हुआ। तत्पश्चात् अशोक ने शस्त्र और हिंसा पर आधारितदिग्विजय की नीति छोड़कर धर्म-विजय की नीति अपनायी। उन्होंने बौद्ध धर्म ग्रहण कर अपने साम्राज्य के सभी साधनों को लोकमंगल के कार्यों में लगाया। धर्म-विजय की प्राप्ति के लिए अशोक ने पर्वत-शिलाओं,प्रस्तर-स्तम्भोंऔरगुहाओंमें धर्मप्रेरकवाक्यअंकितकराये,प्रचारक-संघ का गठन किया तथा धर्मचक्र-प्रवर्तन हेतु विदेशों में प्रचारक भेजे।
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==== <big>कौण्डिन्य</big> ====
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दक्षिण भारतवासी वीर पुरुष, जिन्होंने कलियुग की 32वीं (ईसा की प्रथम) शताब्दी में समुद्र-मार्ग से पूर्व की ओर जाकर महान् साम्राज्य की स्थापना की,जिसे (चीनी भाषा में) फूनान साम्राज्य के नाम से जाना जाता है और जिसमें कम्बोडिया, अनाम, स्याम, मलाया, इण्डो-चायना इत्यादि पौर्वात्य प्रदेशों का अन्तर्भाव था। युगाब्द 35वीं (ई० चौथी) शताब्दी में दक्षिण भारत से कौण्डिन्य नाम का ही एक दूसरा वीर पुरुष फूनान साम्राज्य में गया था, जिसने हिन्दू धर्म तथा संस्कृति के पुनरुत्थान का अविस्मरणीय कार्य किया। कौण्डिन्य साम्राज्य के संस्थापक प्रथम कौण्डिन्य के राजवंश (सोमवंश) में चन्द्रवर्मा, जयवर्मा, रुद्रवर्मा इत्यादि महान् राजा हुए। फूनान के हिन्दू साम्राज्य की ओर से पूर्व के अन्य राज्यों में दूतमण्डल भेजे जाते थे। इसी वंश के युगाब्द 36वीं (ई० पाँचवी) शताब्दी के शासक कौण्डिन्य जयवर्मा ने शाक्य नागसेन नामक भिक्षु को धर्म-प्रचारार्थ चीन भेजा था।
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<big>'''पुष्यमित्र [युगाब्द 1884 (ई० पू० 1218) में सिंहासनारूढ़]'''</big>  
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==== <big>राजेन्द्र चोल</big> ====
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दक्षिण भारत के सुप्रसिद्ध चोल वंश के पराक्रमी शासक, जिन्होंने चोल साम्राज्य का विस्तार समुद्रपार तक कर मलायाद्वीप पर अधिकार कर लिया।युगाब्द 42वीं (ई०11वीं) शताब्दी के इस पराक्रमी राजा ने दक्षिण-पूर्व एशिया के द्वीपों (मलाया, सुमात्रा, जावा) को जीतकर वहाँ भारतीय संस्कृति का प्रचार किया। इससे पूर्व वहाँ भारत से ही गये हुए शैलेन्द्र वंश का शासन था जिसके शिथिल पड़ने पर वह कार्य राजेन्द्र ने संभाल लिया। राजेन्द्र पराक्रमी शासक राजराज के पुत्र थे। उन्होंने अपने पिता के साम्राज्य का दूर-दूर तक विस्तार किया। उनकी नौसेना बहुत शक्तिशाली थी। राजेन्द्र चोल ने अपने लगभग तीस वर्ष के सफल शासन में धर्म, साहित्य और कला को बहुत प्रोत्साहन दिया। उन्होंने अनेक भव्य मन्दिरों का निर्माण भी कराया।
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मौर्यों के बाद मगध में शुग वंश का राज्य प्रतिष्ठित करने वाले एक प्रतापी राजा। इन्होंने अन्तिम मौर्य राजा बृहद्रथ का वध कर मगध का सिंहासन प्राप्त किया, क्योंकि बृहद्रथ की अहिंसा-नीति सेनापति पुष्यमित्र शुग को देश की सीमाओं को आक्रान्त कर रहे विदेशियों के विरुद्ध सैनिक अभियान की अनुमतिदेनेमें सर्वथाबाधक थी। पुष्यमित्र ने पश्चिमी सीमान्त तक दिग्विजय कर यवनों को बाहर खदेड़ा और सिन्धु नदी के तट पर अश्वमेध यज्ञ किया। इन्होंने वैदिक धर्म की पुन:प्रतिष्ठा का महान् कार्य सम्पादित किया। पाटलिपुत्र में भी पुष्यमित्र ने भारी अश्वमेध यज्ञ किया। इनके दो अश्वमेध यज्ञ करने का उल्लेख अयोध्या के शिलालेख में मिलता है। भारतीय काल-गणना में पुष्यमित्र का समय कलियुग की 19वीं शताब्दी (ईसा से 1298 वर्ष पूर्व) माना जाताहै,किन्तु पाश्चात्य इतिहासकारों ने यह ईसा से दो शती पूर्व बताया है। इनके पुत्र अग्निमित्र का वृत्तान्त कालिदास के 'मालविकाग्निमित्रम्' नाटक में आया है।
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==== <big>अशोक</big> ====
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सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य के पौत्र तथा बिम्बसार के पुत्र सम्राट अशोक का शासनकाल पाश्चात्य इतिहासकार कलियुग की 28वीं (ईसा-पूर्व तीसरी) शताब्दी बताते हैं जबकि भारतीय परम्परा में यह उससे 1100 वर्ष पूर्व युगाब्द 17वीं शती माना जाता है। शासन के प्रारम्भ में अशोक ने साम्राज्य-विस्तार की नीति अपनायी। अशोक का साम्राज्य प्राय: सम्पूर्ण भारत पर और पश्चिमोत्तर में हिन्दूकुश एवं ईरान की सीमा तक था। कलिंग के भीषण युद्ध में विजयी होने पर भी, भयंकर नरसंहार देखकर अशोक का हृदय-परिवर्तन हुआ। तत्पश्चात् अशोक ने शस्त्र और हिंसा पर आधारित दिग्विजय की नीति छोड़कर धर्म-विजय की नीति अपनायी। उन्होंने बौद्ध धर्म ग्रहण कर अपने साम्राज्य के सभी साधनों को लोकमंगल के कार्यों में लगाया। धर्म-विजय की प्राप्ति के लिए अशोक ने पर्वत-शिलाओं, प्रस्तर-स्तम्भों और गुहाओं में धर्मप्रेरक वाक्य अंकित कराये, प्रचारक-संघ का गठन किया तथा धर्मचक्र-प्रवर्तन हेतु विदेशों में प्रचारक भेजे।
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'''<big>खारवेल</big>'''
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==== <big>पुष्यमित्र</big> ====
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मौर्यों के बाद मगध में शुंग वंश का राज्य प्रतिष्ठित करने वाले एक प्रतापी राजा [युगाब्द 1884 (ई० पू० 1218) में सिंहासनारूढ़] । इन्होंने अन्तिम मौर्य राजा बृहद्रथ का वध कर मगध का सिंहासन प्राप्त किया, क्योंकि बृहद्रथ की अहिंसा-नीति सेनापति पुष्यमित्र शुंग को देश की सीमाओं को आक्रान्त कर रहे विदेशियों के विरुद्ध सैनिक अभियान की अनुमति देनेमें सर्वथा बाधक थी। पुष्यमित्र ने पश्चिमी सीमान्त तक दिग्विजय कर यवनों को बाहर खदेड़ा और सिन्धु नदी के तट पर अश्वमेध यज्ञ किया। इन्होंने वैदिक धर्म की पुन:प्रतिष्ठा का महान कार्य सम्पादित किया। पाटलिपुत्र में भी पुष्यमित्र ने भारी अश्वमेध यज्ञ किया। इनके दो अश्वमेध यज्ञ करने का उल्लेख अयोध्या के शिलालेख में मिलता है। भारतीय काल-गणना में पुष्यमित्र का समय कलियुग की 19वीं शताब्दी (ईसा से 1298 वर्ष पूर्व) माना जाताहै,किन्तु पाश्चात्य इतिहासकारों ने यह ईसा से दो शती पूर्व बताया है। इनके पुत्र अग्निमित्र का वृत्तान्त कालिदास के 'मालविकाग्निमित्रम्' नाटक में आया है।
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उत्कल प्रदेश के चेदि या चेत वंश के प्रतापी राजा,जिन्होंनेसमकालीन अनेक शत्रुराजाओं कोपरास्त करने के बादमगधराजपुष्यमित्र शुग से युद्ध प्रारम्भ किया,किन्तुउसी समय यवनराज दिमित्र के मध्यदेश पर आक्रमण की राष्ट्रीय विपत्ति को पहचानकर सम्राट्पुष्यमित्र से सन्धि की और दिमित्र को परास्त किया। राजा खारवेल ने सातवाहन और उत्तरापथ के यवनों को परास्त करने के बाद अपने राज्य में जैन महासम्मेलन किया, जिसमें इन्हें'खेमराजा' और ' धर्मराजा' की उपाधियाँ प्रदान की गयीं। जैन मतावलम्बी राजा खारवेल के शिलालेख भुवनेश्वर के निकट खंडगिरि और उदयगिरि में पाये गये हैं।
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==== <big>खारवेल</big> ====
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उत्कल प्रदेश के चेदि या चेत वंश के प्रतापी राजा, जिन्होंने समकालीन अनेक शत्रु राजाओं को परास्त करने के बाद मगधराज पुष्यमित्र शुंग से युद्ध प्रारम्भ किया, किन्तु उसी समय यवनराज दिमित्र के मध्यदेश पर आक्रमण की राष्ट्रीय विपत्ति को पहचानकर सम्राट पुष्यमित्र से सन्धि की और दिमित्र को परास्त किया। राजा खारवेल ने सातवाहन और उत्तरापथ के यवनों को परास्त करने के बाद अपने राज्य में जैन महासम्मेलन किया, जिसमें इन्हें 'खेमराजा' और 'धर्मराजा' की उपाधियाँ प्रदान की गयीं। जैन मतावलम्बी राजा खारवेल के शिलालेख भुवनेश्वर के निकट खंडगिरि और उदयगिरि में पाये गये हैं।
    
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<blockquote>'''<big>चाणक्यचन्द्रगुप्तौ च विक्रम: शालिवाहन: । समुद्रगुप्त: श्रीहर्ष: शैलेन्द्रो बप्परावल: ॥23 ॥</big>''' </blockquote>'''<big>चाणक्य</big>'''
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<blockquote>'''<big>चाणक्यचन्द्रगुप्तौ च विक्रम: शालिवाहन: । समुद्रगुप्त: श्रीहर्ष: शैलेन्द्रो बप्परावल: ॥23 ॥</big>''' </blockquote>
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आचार्य चाणक्य सम्राट्चन्द्रगुप्त मौर्य के गुरु थे और साम्राज्य को स्थिरता प्रदान करने के लिए कुछ समय तक महामंत्री भी रहे। तक्षशिला के राजनीतिविद् चाणक्य को विष्णुगुप्त और कौटिल्य नामों से भी जाना जाता है। इन्होंने मगध के नन्दवंशी अत्याचारी राजा के अन्याय तथा कुशासन से क्रूद्ध होकर उसे अपदस्थ किया और धनानंद के हाथ गये हुए राज्य का उद्धार कर चन्द्रगुप्त को मगध के सिंहासन पर आरूढ़ किया। वीर युवक चन्द्रगुप्त को सहायता और मार्गदर्शन देकर चाणक्य ने भारत के पश्चिमी राज्यों पर हुए यवन आक्रमण का प्रतिकार किया। गुरु-शिष्य ने विशाल साम्राज्य का निर्माण कर उसमें उत्तम शासन की व्यवस्था की तथा ग्रीक सेनापति सेल्यूकस को पराजित करके भारत की नैसर्गिक सीमा हिन्दूकुश पर्वत तक साम्राज्य का विस्तार किया। चाणक्य ने चन्द्रगुप्त के प्रशासकीय उपयोग के लिए (कौटिलीय) 'अर्थशास्त्र' नामक ग्रंथ की रचना की जो तत्कालीन राजनीति, अर्थनीति, सुरक्षा एवं युद्ध-नीति, विदेश-नीति, कृषि, पशुपालन, भूसम्पदा एवं उद्योगनीति, विधि, समाज-नीति तथा धर्मनीति पर प्रकाश डालने वाला महत्वपूर्णग्रंथहै।  
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==== <big>चाणक्य</big> ====
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आचार्य चाणक्य सम्राट चन्द्रगुप्त  सम्राट्चन्द्रगुप्त मौर्य के गुरु थे और साम्राज्य को स्थिरता प्रदान करने के लिए कुछ समय तक महामंत्री भी रहे। तक्षशिला के राजनीतिविद् चाणक्य को विष्णुगुप्त और कौटिल्य नामों से भी जाना जाता है। इन्होंने मगध के नन्दवंशी अत्याचारी राजा के अन्याय तथा कुशासन से क्रूद्ध होकर उसे अपदस्थ किया और धनानंद के हाथ गये हुए राज्य का उद्धार कर चन्द्रगुप्त को मगध के सिंहासन पर आरूढ़ किया। वीर युवक चन्द्रगुप्त को सहायता और मार्गदर्शन देकर चाणक्य ने भारत के पश्चिमी राज्यों पर हुए यवन आक्रमण का प्रतिकार किया। गुरु-शिष्य ने विशाल साम्राज्य का निर्माण कर उसमें उत्तम शासन की व्यवस्था की तथा ग्रीक सेनापति सेल्यूकस को पराजित करके भारत की नैसर्गिक सीमा हिन्दूकुश पर्वत तक साम्राज्य का विस्तार किया। चाणक्य ने चन्द्रगुप्त के प्रशासकीय उपयोग के लिए (कौटिलीय) 'अर्थशास्त्र' नामक ग्रंथ की रचना की जो तत्कालीन राजनीति, अर्थनीति, सुरक्षा एवं युद्ध-नीति, विदेश-नीति, कृषि, पशुपालन, भूसम्पदा एवं उद्योगनीति, विधि, समाज-नीति तथा धर्मनीति पर प्रकाश डालने वाला महत्वपूर्णग्रंथहै।  
    
'''<big>चन्द्रगुप्तमौर्य [युगाब्द 1568-1602 (ई०पू० 1534-1500) तक सिंहासनारूढ़]</big>'''  
 
'''<big>चन्द्रगुप्तमौर्य [युगाब्द 1568-1602 (ई०पू० 1534-1500) तक सिंहासनारूढ़]</big>'''  

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