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धार्मिक खगोलशाख्ियों के द्वारा किये गये अवलोकन मुख्यतः उनकी पाण्डुलिपियों में प्राप्त होते हैं, फलतः उनकी जानकारी स्थानीय लोगों के साथ व्यापक संवाद आयोजन कर के ही प्राप्त की जा सकती है। इसीलिए बनारस के यंत्रों का सावधानी पूर्वक परीक्षण करना आवश्यक है। ऐसे अवलोकन प्राप्त होने पर भविष्य में उनका उपयोग करने में हम सक्षम बन सकते हैं ।
 
धार्मिक खगोलशाख्ियों के द्वारा किये गये अवलोकन मुख्यतः उनकी पाण्डुलिपियों में प्राप्त होते हैं, फलतः उनकी जानकारी स्थानीय लोगों के साथ व्यापक संवाद आयोजन कर के ही प्राप्त की जा सकती है। इसीलिए बनारस के यंत्रों का सावधानी पूर्वक परीक्षण करना आवश्यक है। ऐसे अवलोकन प्राप्त होने पर भविष्य में उनका उपयोग करने में हम सक्षम बन सकते हैं ।
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एक सामान्य मान्यता बन गई है कि धार्मिक खगोलशाख्ियों की अवगणना की जाए और कहा जाए कि उनका सर्व ज्ञान केवल ग्रहणों के भविष्य कथन में केन्द्रित है। वास्तव में हमारे खगोलशास्त्र में ग्रहणगणना करना कोई साधारण बात नहीं है। यदि ब्राह्मण गणना की संक्षिप्त पद्धति से सुपरिचित हैं अथवा जिससे यह प्रक्रिया एकदम सरल बन जाती है ऐसी कोई पद्धति उन्हें अवगत है तो उनकी इन पद्धतियों के विषय में छानबीन करना आवश्यक हो जाता है। यह सब इसलिए आवश्यक है कि इसके सम्बन्ध में हमारी पद्धतियाँ अत्यन्त अटपटी और उबाऊ हैं। यह भी ज्ञात हुआ कि ब्राह्मण धूमकेतुओं के पुनः वापिस आने के स्थानों की गणना के भी जानकार थे। यह सब (यंत्रशास्त्र और तत्त्वज्ञान के समग्र सिद्धान्तों सहित) अत्यन्त कठिन और अटपटा कार्य है। यदि वे इस कार्य को करने में समर्थ रहे हैं तो (मेरे अभिप्राय में) उन्हें खगोलशास्त्र को उसके चरम विकास तक पहुँचाने विषयक किसी विशेष प्रमाण की आवश्यकता नहीं रहती ।
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एक सामान्य मान्यता बन गई है कि धार्मिक खगोलशाख्ियों की अवगणना की जाए और कहा जाए कि उनका सर्व ज्ञान केवल ग्रहणों के भविष्य कथन में केन्द्रित है। वास्तव में हमारे खगोलशास्त्र में ग्रहणगणना करना कोई साधारण बात नहीं है। यदि ब्राह्मण गणना की संक्षिप्त पद्धति से सुपरिचित हैं अथवा जिससे यह प्रक्रिया एकदम सरल बन जाती है ऐसी कोई पद्धति उन्हें अवगत है तो उनकी इन पद्धतियों के विषय में छानबीन करना आवश्यक हो जाता है। यह सब अतः आवश्यक है कि इसके सम्बन्ध में हमारी पद्धतियाँ अत्यन्त अटपटी और उबाऊ हैं। यह भी ज्ञात हुआ कि ब्राह्मण धूमकेतुओं के पुनः वापिस आने के स्थानों की गणना के भी जानकार थे। यह सब (यंत्रशास्त्र और तत्त्वज्ञान के समग्र सिद्धान्तों सहित) अत्यन्त कठिन और अटपटा कार्य है। यदि वे इस कार्य को करने में समर्थ रहे हैं तो (मेरे अभिप्राय में) उन्हें खगोलशास्त्र को उसके चरम विकास तक पहुँचाने विषयक किसी विशेष प्रमाण की आवश्यकता नहीं रहती ।
    
सामान्य रूप से ऐसी जानकारी प्राप्त हुई है कि ब्राह्मण उनकी ग्रहण गणना हमारी तरह खगोलीय कोष्ठकों द्वारा न कर, नियमों की सहायता से करते हैं। अब ये नियम हमारे कोष्ठकों जितने ही सही हैं अथवा नहीं हैं, यदि वे सही नहीं हैं तो वे कदाचित खाल्डियनों के “सरोस' चक्र अर्थात्‌ २२३ चान्द्र मास अथवा 'निरोस चक्र' अर्थात्‌ ६०० वर्षों के चक्र के अनुसार - क्रियान्विति की पद्धति होनी चाहिए, जो ग्रहण के सन्निकटस्थ समय के अनुमान में उपयोगी रही होगी । यदि वे हमारे जितने ही सही रहे हों अथवा लगभग सही हों तो यह मानना पड़ेगा कि वे अत्यन्त विशिष्ट प्रकार की बीजगणितीय गणनाओं के जानकार होने चाहिए। इतना ही नहीं उनकी पारम्परिक अपूर्णांक के सिद्धान्त की समझ अच्छी होनी चाहिए। क्यों कि उस आवर्तीय आसादन हेतु उसकी आवश्यकता पड़ती है। इस विषय में मैं अधिक दृढ़ हूँ, क्यों कि मैंने सुना है कि ब्राह्मणों के पास ग्रहणों की गणना करने के अलग अलग नियम हैं और इन नियमों में अपेक्षाकृत जितनी शुद्धता की आवश्यकता है उसकी तुलना में वे कम अटपटे हैं। यह तथ्य बीजगणितीय सूत्रों द्वारा निष्कर्षित आसादन के साथ पूर्णतः सुसंगत है, इससे भी अधिक न्यूटन के श्रेणी सिद्धान्त के साथ घनिष्ठ परिचय व्यक्त करता है। यह यथार्थ प्रथम दृष्टि से असंभव दिखाई देता है परन्तु जब हम इस तथ्य को पुनः याद करें या ब्राह्मणों के पास कतिपय अरबी ग्रन्थ भी हैं और अरबियों ने बीजगणित में बहुत अच्छी प्रगति की है तो यह यथार्थ हमें पूर्णतः सुसंगत लगेगा । हमें यह भी कहा गया था कि उनके पास धनात्मक समीकरण हल करने की संपूर्ण पद्धति भी थी। इस प्रकार उनके पास डायोफन्टास की तेरह पुस्तकें थीं। जिनमें से प्रथम सात विनष्ट हो चुकी थीं और शेष छः में विषय का विश्लेषण किया गया है, जिससे हम सुपरिचित हैं। अतएव यह असंभव नहीं है कि ब्राह्मण भी बीजगणित के विषय में हमारी तुलना में अधिक अच्छी समझ रखते थे।
 
सामान्य रूप से ऐसी जानकारी प्राप्त हुई है कि ब्राह्मण उनकी ग्रहण गणना हमारी तरह खगोलीय कोष्ठकों द्वारा न कर, नियमों की सहायता से करते हैं। अब ये नियम हमारे कोष्ठकों जितने ही सही हैं अथवा नहीं हैं, यदि वे सही नहीं हैं तो वे कदाचित खाल्डियनों के “सरोस' चक्र अर्थात्‌ २२३ चान्द्र मास अथवा 'निरोस चक्र' अर्थात्‌ ६०० वर्षों के चक्र के अनुसार - क्रियान्विति की पद्धति होनी चाहिए, जो ग्रहण के सन्निकटस्थ समय के अनुमान में उपयोगी रही होगी । यदि वे हमारे जितने ही सही रहे हों अथवा लगभग सही हों तो यह मानना पड़ेगा कि वे अत्यन्त विशिष्ट प्रकार की बीजगणितीय गणनाओं के जानकार होने चाहिए। इतना ही नहीं उनकी पारम्परिक अपूर्णांक के सिद्धान्त की समझ अच्छी होनी चाहिए। क्यों कि उस आवर्तीय आसादन हेतु उसकी आवश्यकता पड़ती है। इस विषय में मैं अधिक दृढ़ हूँ, क्यों कि मैंने सुना है कि ब्राह्मणों के पास ग्रहणों की गणना करने के अलग अलग नियम हैं और इन नियमों में अपेक्षाकृत जितनी शुद्धता की आवश्यकता है उसकी तुलना में वे कम अटपटे हैं। यह तथ्य बीजगणितीय सूत्रों द्वारा निष्कर्षित आसादन के साथ पूर्णतः सुसंगत है, इससे भी अधिक न्यूटन के श्रेणी सिद्धान्त के साथ घनिष्ठ परिचय व्यक्त करता है। यह यथार्थ प्रथम दृष्टि से असंभव दिखाई देता है परन्तु जब हम इस तथ्य को पुनः याद करें या ब्राह्मणों के पास कतिपय अरबी ग्रन्थ भी हैं और अरबियों ने बीजगणित में बहुत अच्छी प्रगति की है तो यह यथार्थ हमें पूर्णतः सुसंगत लगेगा । हमें यह भी कहा गया था कि उनके पास धनात्मक समीकरण हल करने की संपूर्ण पद्धति भी थी। इस प्रकार उनके पास डायोफन्टास की तेरह पुस्तकें थीं। जिनमें से प्रथम सात विनष्ट हो चुकी थीं और शेष छः में विषय का विश्लेषण किया गया है, जिससे हम सुपरिचित हैं। अतएव यह असंभव नहीं है कि ब्राह्मण भी बीजगणित के विषय में हमारी तुलना में अधिक अच्छी समझ रखते थे।

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