सामान्य रूप से ऐसी जानकारी प्राप्त हुई है कि ब्राह्मण उनकी ग्रहण गणना हमारी तरह खगोलीय कोष्ठकों द्वारा न कर, नियमों की सहायता से करते हैं। अब ये नियम हमारे कोष्ठकों जितने ही सही हैं अथवा नहीं हैं, यदि वे सही नहीं हैं तो वे कदाचित खाल्डियनों के “सरोस' चक्र अर्थात् २२३ चान्द्र मास अथवा 'निरोस चक्र' अर्थात् ६०० वर्षों के चक्र के अनुसार - क्रियान्विति की पद्धति होनी चाहिए, जो ग्रहण के सन्निकटस्थ समय के अनुमान में उपयोगी रही होगी । यदि वे हमारे जितने ही सही रहे हों अथवा लगभग सही हों तो यह मानना पड़ेगा कि वे अत्यन्त विशिष्ट प्रकार की बीजगणितीय गणनाओं के जानकार होने चाहिए। इतना ही नहीं उनकी पारम्परिक अपूर्णांक के सिद्धान्त की समझ अच्छी होनी चाहिए। क्यों कि उस आवर्तीय आसादन हेतु उसकी आवश्यकता पड़ती है। इस विषय में मैं अधिक दृढ़ हूँ, क्यों कि मैंने सुना है कि ब्राह्मणों के पास ग्रहणों की गणना करने के अलग अलग नियम हैं और इन नियमों में अपेक्षाकृत जितनी शुद्धता की आवश्यकता है उसकी तुलना में वे कम अटपटे हैं। यह तथ्य बीजगणितीय सूत्रों द्वारा निष्कर्षित आसादन के साथ पूर्णतः सुसंगत है, इससे भी अधिक न्यूटन के श्रेणी सिद्धान्त के साथ घनिष्ठ परिचय व्यक्त करता है। यह यथार्थ प्रथम दृष्टि से असंभव दिखाई देता है परन्तु जब हम इस तथ्य को पुनः याद करें या ब्राह्मणों के पास कतिपय अरबी ग्रन्थ भी हैं और अरबियों ने बीजगणित में बहुत अच्छी प्रगति की है तो यह यथार्थ हमें पूर्णतः सुसंगत लगेगा । हमें यह भी कहा गया था कि उनके पास धनात्मक समीकरण हल करने की संपूर्ण पद्धति भी थी। इस प्रकार उनके पास डायोफन्टास की तेरह पुस्तकें थीं। जिनमें से प्रथम सात विनष्ट हो चुकी थीं और शेष छः में विषय का विश्लेषण किया गया है, जिससे हम सुपरिचित हैं। अतएव यह असंभव नहीं है कि ब्राह्मण भी बीजगणित के विषय में हमारी तुलना में अधिक अच्छी समझ रखते थे। | सामान्य रूप से ऐसी जानकारी प्राप्त हुई है कि ब्राह्मण उनकी ग्रहण गणना हमारी तरह खगोलीय कोष्ठकों द्वारा न कर, नियमों की सहायता से करते हैं। अब ये नियम हमारे कोष्ठकों जितने ही सही हैं अथवा नहीं हैं, यदि वे सही नहीं हैं तो वे कदाचित खाल्डियनों के “सरोस' चक्र अर्थात् २२३ चान्द्र मास अथवा 'निरोस चक्र' अर्थात् ६०० वर्षों के चक्र के अनुसार - क्रियान्विति की पद्धति होनी चाहिए, जो ग्रहण के सन्निकटस्थ समय के अनुमान में उपयोगी रही होगी । यदि वे हमारे जितने ही सही रहे हों अथवा लगभग सही हों तो यह मानना पड़ेगा कि वे अत्यन्त विशिष्ट प्रकार की बीजगणितीय गणनाओं के जानकार होने चाहिए। इतना ही नहीं उनकी पारम्परिक अपूर्णांक के सिद्धान्त की समझ अच्छी होनी चाहिए। क्यों कि उस आवर्तीय आसादन हेतु उसकी आवश्यकता पड़ती है। इस विषय में मैं अधिक दृढ़ हूँ, क्यों कि मैंने सुना है कि ब्राह्मणों के पास ग्रहणों की गणना करने के अलग अलग नियम हैं और इन नियमों में अपेक्षाकृत जितनी शुद्धता की आवश्यकता है उसकी तुलना में वे कम अटपटे हैं। यह तथ्य बीजगणितीय सूत्रों द्वारा निष्कर्षित आसादन के साथ पूर्णतः सुसंगत है, इससे भी अधिक न्यूटन के श्रेणी सिद्धान्त के साथ घनिष्ठ परिचय व्यक्त करता है। यह यथार्थ प्रथम दृष्टि से असंभव दिखाई देता है परन्तु जब हम इस तथ्य को पुनः याद करें या ब्राह्मणों के पास कतिपय अरबी ग्रन्थ भी हैं और अरबियों ने बीजगणित में बहुत अच्छी प्रगति की है तो यह यथार्थ हमें पूर्णतः सुसंगत लगेगा । हमें यह भी कहा गया था कि उनके पास धनात्मक समीकरण हल करने की संपूर्ण पद्धति भी थी। इस प्रकार उनके पास डायोफन्टास की तेरह पुस्तकें थीं। जिनमें से प्रथम सात विनष्ट हो चुकी थीं और शेष छः में विषय का विश्लेषण किया गया है, जिससे हम सुपरिचित हैं। अतएव यह असंभव नहीं है कि ब्राह्मण भी बीजगणित के विषय में हमारी तुलना में अधिक अच्छी समझ रखते थे। |