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* एक तबका यूरो अमरिकी फिलॉसॉफरों का है। इस तत्वज्ञान के अनुसार किसी सर्वशक्तिमान ने पाँच दिन में इस सृष्टि का निर्माण  किया और छठे दिन मानव का निर्माण कर मानव से कहा कि 'यह चर-अचर सृष्टि तुम्हारे उपभोग के लिये है'। यूरो अमरिकी समाज पर फ्रांसिस बेकन और रेने देकार्ते इन दो फिलॉसॉफरों की फिलोसोफी का गहरा प्रभाव है। इन का तत्वज्ञान कहता है कि प्रकृति मानव की दासी है। इसे कस कर अपनी जकड में रखना चाहिये। मानव जम कर इस का शोषण कर सके इसी लिये इस का निर्माण हुआ है। इस लिये प्रकृति का मानव को जम कर (टू द हिल्ट) शोषण करना चाहिये।
 
* एक तबका यूरो अमरिकी फिलॉसॉफरों का है। इस तत्वज्ञान के अनुसार किसी सर्वशक्तिमान ने पाँच दिन में इस सृष्टि का निर्माण  किया और छठे दिन मानव का निर्माण कर मानव से कहा कि 'यह चर-अचर सृष्टि तुम्हारे उपभोग के लिये है'। यूरो अमरिकी समाज पर फ्रांसिस बेकन और रेने देकार्ते इन दो फिलॉसॉफरों की फिलोसोफी का गहरा प्रभाव है। इन का तत्वज्ञान कहता है कि प्रकृति मानव की दासी है। इसे कस कर अपनी जकड में रखना चाहिये। मानव जम कर इस का शोषण कर सके इसी लिये इस का निर्माण हुआ है। इस लिये प्रकृति का मानव को जम कर (टू द हिल्ट) शोषण करना चाहिये।
 
* दूसरा तबका है यूरो-अमरिकी साईंटिस्टों का। यूरो-अमरिकी साईंटिस्टों और उन का अनुसरण करने वाले भारत समेत विश्व के सभी साईंटिस्टों की विश्वदृष्टि का आधार '''डार्विन की 'विकास वाद' और मिलर की 'जड़ से रासायनिक प्रक्रिया से जीव निर्माण'''' की परिकल्पनाएं ही हैं। मानव इन रासायनिक प्रक्रियाओं के पुलिंदों में सर्वश्रेष्ठ है। इस लिये इसे अपने स्वार्थ के लिये अन्य रासायनिक प्रक्रियाएं नष्ट करने का पूरा अधिकार है।
 
* दूसरा तबका है यूरो-अमरिकी साईंटिस्टों का। यूरो-अमरिकी साईंटिस्टों और उन का अनुसरण करने वाले भारत समेत विश्व के सभी साईंटिस्टों की विश्वदृष्टि का आधार '''डार्विन की 'विकास वाद' और मिलर की 'जड़ से रासायनिक प्रक्रिया से जीव निर्माण'''' की परिकल्पनाएं ही हैं। मानव इन रासायनिक प्रक्रियाओं के पुलिंदों में सर्वश्रेष्ठ है। इस लिये इसे अपने स्वार्थ के लिये अन्य रासायनिक प्रक्रियाएं नष्ट करने का पूरा अधिकार है।
यद्दपि आधुनिक साईंस ईसाईयत के कई गंभीर सिद्धांतों के विरोध में है, लेकिन फिर भी मोटा-मोटी दोनों तबकों का तत्वज्ञान एक ही है। इस लिये जीवन का प्रतिमान भी एक ही है। मजहब या रिलीजन, फिलॉसॉफरों की फिलोसोफी और साईंटिस्टों, तीनों के प्रभाव के कारण जो अभारतीय जीवन दृष्टि बनीं है उस के तीन मुख्य पहलू हैं:
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यद्दपि आधुनिक साईंस ईसाईयत के कई गंभीर सिद्धांतों के विरोध में है, लेकिन तथापि मोटा-मोटी दोनों तबकों का तत्वज्ञान एक ही है। इस लिये जीवन का प्रतिमान भी एक ही है। मजहब या रिलीजन, फिलॉसॉफरों की फिलोसोफी और साईंटिस्टों, तीनों के प्रभाव के कारण जो अभारतीय जीवन दृष्टि बनीं है उस के तीन मुख्य पहलू हैं:
 
#व्यक्तिवादिता : सारी सृष्टि केवल मेरे उपभोग के लिये बनीं है।
 
#व्यक्तिवादिता : सारी सृष्टि केवल मेरे उपभोग के लिये बनीं है।
 
# जड़वादिता : सृष्टि में सब जड़ ही है। चेतनावान कुछ भी नहीं है।
 
# जड़वादिता : सृष्टि में सब जड़ ही है। चेतनावान कुछ भी नहीं है।
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भारतीय विचार में अपनी बुद्धि का उपयोग करने को कहा है। आद्य जगद्गुरू शंकराचार्य कहते हैं{{Citation needed}} कि वेद उपनिषद भी चिल्ला चिल्लाकर कहें की अंगारे से हाथ नही जलेंगे तो भी मै नही मानूंगा, क्योंकि मेरा प्रत्यक्ष अनुभव भिन्न है।
 
भारतीय विचार में अपनी बुद्धि का उपयोग करने को कहा है। आद्य जगद्गुरू शंकराचार्य कहते हैं{{Citation needed}} कि वेद उपनिषद भी चिल्ला चिल्लाकर कहें की अंगारे से हाथ नही जलेंगे तो भी मै नही मानूंगा, क्योंकि मेरा प्रत्यक्ष अनुभव भिन्न है।
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पूरा उपदेश देने के बाद श्रीमद्भगवद्गीता में १८ वें अध्याय के ६३ वें श्लोक में श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते है<ref>श्रीमद्भगवद्गीता 18.63 </ref> <blockquote>‘यथेच्छि्स तत: कुरू’। 18.63।  </blockquote><blockquote>अर्थात् अब जो तुम्हें ठीक लगे वही करो।</blockquote>स्वामी विवेकानंदजी के शिकागो सर्वधर्मपरिषद में हुए संक्षिप्त और फिर भी विश्वविजयी भाषण में यही कहा गया है। उन्होंने बचपन से जो श्लोक वह कहते आये थे वही उद्धृत किया था। वह था<ref>शिवमहिम्न: स्तोत्र</ref>: <blockquote>रुचीनां वैचित्र्याद् ऋजुकुटिलनाबापथजुषां। </blockquote><blockquote>नृणामेको गम्य: त्वमसि पयसामर्णव इव।।</blockquote>भावार्थ : समाज में प्रत्येक व्यक्ति को परमात्मा ने बुद्धि का वरदान दिया हुआ है। प्रत्येक की बुद्धि भिन्न होती ही है। किसी की बुद्धि में ॠजुता होगी किसी की बुद्धि में कुटिलता होगी। ऐसी विविधता से सत्य की ओर देखने से हर व्यक्ति की सत्य की समझ अलग अलग होगी। हर व्यक्ति का सत्य की ओर आगे बढने का मार्ग भी भिन्न होगा। कोई सीधे मार्ग से तो कोई टेढेमेढे मार्ग से लेकिन सत्य की ओर ही बढ रहा है।  
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पूरा उपदेश देने के बाद श्रीमद्भगवद्गीता में १८ वें अध्याय के ६३ वें श्लोक में श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते है<ref>श्रीमद्भगवद्गीता 18.63 </ref> <blockquote>‘यथेच्छि्स तत: कुरू’। 18.63।  </blockquote><blockquote>अर्थात् अब जो तुम्हें ठीक लगे वही करो।</blockquote>स्वामी विवेकानंदजी के शिकागो सर्वधर्मपरिषद में हुए संक्षिप्त और तथापि विश्वविजयी भाषण में यही कहा गया है। उन्होंने बचपन से जो श्लोक वह कहते आये थे वही उद्धृत किया था। वह था<ref>शिवमहिम्न: स्तोत्र</ref>: <blockquote>रुचीनां वैचित्र्याद् ऋजुकुटिलनाबापथजुषां। </blockquote><blockquote>नृणामेको गम्य: त्वमसि पयसामर्णव इव।।</blockquote>भावार्थ : समाज में प्रत्येक व्यक्ति को परमात्मा ने बुद्धि का वरदान दिया हुआ है। प्रत्येक की बुद्धि भिन्न होती ही है। किसी की बुद्धि में ॠजुता होगी किसी की बुद्धि में कुटिलता होगी। ऐसी विविधता से सत्य की ओर देखने से हर व्यक्ति की सत्य की समझ अलग अलग होगी। हर व्यक्ति का सत्य की ओर आगे बढने का मार्ग भी भिन्न होगा। कोई सीधे मार्ग से तो कोई टेढेमेढे मार्ग से लेकिन सत्य की ओर ही बढ रहा है।  
 
ऐसी हमारी केवल मान्यता नही है वरन् ऐसी हमारी श्रद्धा है {{Citation needed}}। <blockquote>आकाशात् पतितंतोयं यथा गच्छति सागरं।</blockquote><blockquote>सर्वदेव नमस्कारं केशवं प्रतिगच्छति।</blockquote>जिस प्रकार बारिश का पानी धरती पर गिरता है। लेकिन भिन्न भिन्न मार्गों से वह समुद्र की ओर ही जाता है उसी प्रकार से शुद्ध भावना से आप किसी भी दैवी शक्ति को नमस्कार करें वह परमात्मा को प्राप्त होगा।
 
ऐसी हमारी केवल मान्यता नही है वरन् ऐसी हमारी श्रद्धा है {{Citation needed}}। <blockquote>आकाशात् पतितंतोयं यथा गच्छति सागरं।</blockquote><blockquote>सर्वदेव नमस्कारं केशवं प्रतिगच्छति।</blockquote>जिस प्रकार बारिश का पानी धरती पर गिरता है। लेकिन भिन्न भिन्न मार्गों से वह समुद्र की ओर ही जाता है उसी प्रकार से शुद्ध भावना से आप किसी भी दैवी शक्ति को नमस्कार करें वह परमात्मा को प्राप्त होगा।
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विज्ञान की व्याख्या जो श्रीमद्भगवद्गीता में मिलती है उसके अनुसार<ref>श्रीमद भगवद गीता 7.4</ref> -     <blockquote>भूमिरापोऽनलो वायुः खं मनो बुद्धिरेव च।</blockquote><blockquote>अहङ्कार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा।।7.4।।</blockquote><blockquote>अर्थ: तेज, वायु पृथ्वी, जल, आकाश यह पाँच महाभूत तथा मन बुद्धि और अहंकार मिलकर 8 तत्वों से प्रकृति बनी है। याने प्रकृति का हर अस्तित्व बना है।</blockquote> इस अष्टधा प्रकृति के माध्यम से परमात्मा या ब्रह्म को जानने की प्रक्रिया ही विज्ञान है। अर्थात् ब्रह्म को जानने की प्रक्रिया ही विज्ञान है। ब्रह्म को जानने के लिये पहले अष्टधा प्रकृति को जानना होगा। वर्तमान साईंस केवल उपर्युक्त आठ तत्वों में से पाँच याने पंचमहाभौतिक तत्वों के अस्तित्त्व को स्वीकार करता है। इस दृष्टि से वर्तमान सायंस भारतीय विज्ञान का एक हिस्सा है। गणित की भाषा में वह एक सबसेट है।      
 
विज्ञान की व्याख्या जो श्रीमद्भगवद्गीता में मिलती है उसके अनुसार<ref>श्रीमद भगवद गीता 7.4</ref> -     <blockquote>भूमिरापोऽनलो वायुः खं मनो बुद्धिरेव च।</blockquote><blockquote>अहङ्कार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा।।7.4।।</blockquote><blockquote>अर्थ: तेज, वायु पृथ्वी, जल, आकाश यह पाँच महाभूत तथा मन बुद्धि और अहंकार मिलकर 8 तत्वों से प्रकृति बनी है। याने प्रकृति का हर अस्तित्व बना है।</blockquote> इस अष्टधा प्रकृति के माध्यम से परमात्मा या ब्रह्म को जानने की प्रक्रिया ही विज्ञान है। अर्थात् ब्रह्म को जानने की प्रक्रिया ही विज्ञान है। ब्रह्म को जानने के लिये पहले अष्टधा प्रकृति को जानना होगा। वर्तमान साईंस केवल उपर्युक्त आठ तत्वों में से पाँच याने पंचमहाभौतिक तत्वों के अस्तित्त्व को स्वीकार करता है। इस दृष्टि से वर्तमान सायंस भारतीय विज्ञान का एक हिस्सा है। गणित की भाषा में वह एक सबसेट है।      
 
इसी प्रकार से अध्याय ३, श्लोक ४२ में बताया गया है<ref name=":0" />:     <blockquote>इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्य: परं मन।</blockquote><blockquote>मनसस्तु परा बुद्धिर्यो बुध्दे: परतस्तु स: ॥ 3-42 ॥ </blockquote><blockquote>अर्थात् इंद्रियों से मन सूक्ष्म है। मन से बुद्धि सूक्ष्म है। और आत्म तत्व तो बुद्धि से भी कहीं अधिक सूक्ष्म है। </blockquote>जिस प्रकार से अत्यंत सूक्ष्म भौतिक कणों याने नैनो कणों का मापन हमारी सामान्य मापन पट्टी से नहीं हो सकता उसी प्रकार से मन जो पंचमहाभूतों से याने पंचमहाभूतों के सूक्ष्म कणों से भी अत्यंत सूक्ष्म है उसका मापन भौतिक सूक्ष्मतादर्शक से भी नहीं किया जा सकता। इसलिये मन और बुद्धि के व्यापार जानने के लिये मन और बुद्धि का ही सहारा लिया जा सकता है। इस का श्रेष्ठ साधन 'अष्टांग योग' है। आगे हम विज्ञान शब्द का वर्तमान साईंस के अर्थ से ही प्रयोग करेंगे।      
 
इसी प्रकार से अध्याय ३, श्लोक ४२ में बताया गया है<ref name=":0" />:     <blockquote>इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्य: परं मन।</blockquote><blockquote>मनसस्तु परा बुद्धिर्यो बुध्दे: परतस्तु स: ॥ 3-42 ॥ </blockquote><blockquote>अर्थात् इंद्रियों से मन सूक्ष्म है। मन से बुद्धि सूक्ष्म है। और आत्म तत्व तो बुद्धि से भी कहीं अधिक सूक्ष्म है। </blockquote>जिस प्रकार से अत्यंत सूक्ष्म भौतिक कणों याने नैनो कणों का मापन हमारी सामान्य मापन पट्टी से नहीं हो सकता उसी प्रकार से मन जो पंचमहाभूतों से याने पंचमहाभूतों के सूक्ष्म कणों से भी अत्यंत सूक्ष्म है उसका मापन भौतिक सूक्ष्मतादर्शक से भी नहीं किया जा सकता। इसलिये मन और बुद्धि के व्यापार जानने के लिये मन और बुद्धि का ही सहारा लिया जा सकता है। इस का श्रेष्ठ साधन 'अष्टांग योग' है। आगे हम विज्ञान शब्द का वर्तमान साईंस के अर्थ से ही प्रयोग करेंगे।      
# मानव जीवन का लक्ष्य यदि परमात्मपद प्राप्ति है तो विज्ञान और तन्त्रज्ञान  के विकास और उपयोग का लक्ष्य भी परमात्मपद प्राप्ति ही रहेगा। अन्य नहीं। और मोक्षप्राप्ति का या परमात्मपदप्राप्ति का मार्ग तो ‘सर्वे भवन्तु सुखिन:’ ही है। कुछ लोग कहेंगे कि मोक्ष मानव जीवन का लक्ष्य नहीं है। मानव जीवन का लक्ष्य सुख है। फिर भी व्यक्ति समाज का और सृष्टि का अविभाज्य हिस्सा होने से जब तक सुख समाजव्याप्त और सृष्टिव्याप्त नहीं होता व्यक्ति भी सुख से नहीं जी सकता। विज्ञान और तन्त्रज्ञान का उपयोग ‘सर्वे भवन्तु सुखिन:’ के लिये करने से ही व्यक्तिगत सुख की आश्वस्ति मिल सकेगी।      
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# मानव जीवन का लक्ष्य यदि परमात्मपद प्राप्ति है तो विज्ञान और तन्त्रज्ञान  के विकास और उपयोग का लक्ष्य भी परमात्मपद प्राप्ति ही रहेगा। अन्य नहीं। और मोक्षप्राप्ति का या परमात्मपदप्राप्ति का मार्ग तो ‘सर्वे भवन्तु सुखिन:’ ही है। कुछ लोग कहेंगे कि मोक्ष मानव जीवन का लक्ष्य नहीं है। मानव जीवन का लक्ष्य सुख है। तथापि व्यक्ति समाज का और सृष्टि का अविभाज्य हिस्सा होने से जब तक सुख समाजव्याप्त और सृष्टिव्याप्त नहीं होता व्यक्ति भी सुख से नहीं जी सकता। विज्ञान और तन्त्रज्ञान का उपयोग ‘सर्वे भवन्तु सुखिन:’ के लिये करने से ही व्यक्तिगत सुख की आश्वस्ति मिल सकेगी।      
 
# ‘प्रकृति के नियम’ ही विज्ञान है। विज्ञान के व्यवहार में उपयोग को ही तन्त्रज्ञान  कहते हैं। विज्ञान वैश्विक होता है। तन्त्रज्ञान  नहीं। तन्त्रज्ञान स्थानिक प्राकृतिक संसाधनों के आधारपर चयन करने या विकास करने की बात है।      
 
# ‘प्रकृति के नियम’ ही विज्ञान है। विज्ञान के व्यवहार में उपयोग को ही तन्त्रज्ञान  कहते हैं। विज्ञान वैश्विक होता है। तन्त्रज्ञान  नहीं। तन्त्रज्ञान स्थानिक प्राकृतिक संसाधनों के आधारपर चयन करने या विकास करने की बात है।      
 
# विज्ञान या तन्त्रज्ञान यह अपने आप में न तो उपकारी होते है और ना ही विनाशकारी। इनका उपयोग करनेवाले मनुष्य की सुर या दुष्ट प्रवृत्ति उसे उपकारक या विनाशकारी बनाती है। इसलिये सृष्टि के अस्तित्वों याने जीव और जड़ जगत के लिये हानिकारक कोई तन्त्रज्ञान दुष्ट स्वभाव के मनुष्य को मिलना दुनिया के लिये घातक होता है।      
 
# विज्ञान या तन्त्रज्ञान यह अपने आप में न तो उपकारी होते है और ना ही विनाशकारी। इनका उपयोग करनेवाले मनुष्य की सुर या दुष्ट प्रवृत्ति उसे उपकारक या विनाशकारी बनाती है। इसलिये सृष्टि के अस्तित्वों याने जीव और जड़ जगत के लिये हानिकारक कोई तन्त्रज्ञान दुष्ट स्वभाव के मनुष्य को मिलना दुनिया के लिये घातक होता है।      
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# मोक्षप्राप्ति या सुख दोनों ही मन के विषय हैं। सुख की प्राप्ति या मोक्ष ये मन की अवस्थापर निर्भर होते हैं। तन्त्रज्ञान या सुविधाओं पर नहीं।      
 
# मोक्षप्राप्ति या सुख दोनों ही मन के विषय हैं। सुख की प्राप्ति या मोक्ष ये मन की अवस्थापर निर्भर होते हैं। तन्त्रज्ञान या सुविधाओं पर नहीं।      
 
# परिवर्तन ही दुनिया का स्वभाव है। प्रकृति में भी परिवर्तन होते रहते हैं। प्रकृति के परिवर्तनों के साथ समायोजन कर ही तन्त्रज्ञान का विकास और उपयोग होना चाहिये।      
 
# परिवर्तन ही दुनिया का स्वभाव है। प्रकृति में भी परिवर्तन होते रहते हैं। प्रकृति के परिवर्तनों के साथ समायोजन कर ही तन्त्रज्ञान का विकास और उपयोग होना चाहिये।      
# सृष्टि में केवल मनुष्य को प्रकृति को बिगाड़ने की, प्रकृति सुसंगत फिर भी अधिक श्रेष्ठ जीने की और सृष्टि के बिगडे सन्तुलन को ठीक करने की याने मन, बुद्धि और स्मृति की शक्तियाँ मिली हैं। इसी कारण प्रकृति का सन्तुलन  बनाए रखने की जिम्मेदारी भी मनुष्य की ही बनती है।      
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# सृष्टि में केवल मनुष्य को प्रकृति को बिगाड़ने की, प्रकृति सुसंगत तथापि अधिक श्रेष्ठ जीने की और सृष्टि के बिगडे सन्तुलन को ठीक करने की याने मन, बुद्धि और स्मृति की शक्तियाँ मिली हैं। इसी कारण प्रकृति का सन्तुलन  बनाए रखने की जिम्मेदारी भी मनुष्य की ही बनती है।      
 
# आहार, निद्रा, भय और मैथुन ये चार प्राणिक आवेग मनुष्यों और पशुओं में दोनों में एक जैसे ही होते हैं। मनुष्य की आवश्यकताओं का निर्धारण प्राणिक आवेग करते हैं। लेकिन मनुष्य का मन इच्छाएँ भी करता हैं। प्राणिक आवेगों की तृप्ति की सीमा होती है। लेकिन इच्छाओं की और इस कारण से तृप्ति की कोई सीमा नहीं होती। लेकिन प्रकृति के संसाधन मर्यादित होते हैं। इस विसंगति को दूर करने का एकमात्र उपाय ‘उपभोग संयम’ ही है। उपभोग संयम की शिक्षा के अभाव में हर नया तन्त्रज्ञान प्राकृतिक संसाधनों का उपभोग बढाकर पर्यावरणीय समस्याओं में वृद्धि करता है।      
 
# आहार, निद्रा, भय और मैथुन ये चार प्राणिक आवेग मनुष्यों और पशुओं में दोनों में एक जैसे ही होते हैं। मनुष्य की आवश्यकताओं का निर्धारण प्राणिक आवेग करते हैं। लेकिन मनुष्य का मन इच्छाएँ भी करता हैं। प्राणिक आवेगों की तृप्ति की सीमा होती है। लेकिन इच्छाओं की और इस कारण से तृप्ति की कोई सीमा नहीं होती। लेकिन प्रकृति के संसाधन मर्यादित होते हैं। इस विसंगति को दूर करने का एकमात्र उपाय ‘उपभोग संयम’ ही है। उपभोग संयम की शिक्षा के अभाव में हर नया तन्त्रज्ञान प्राकृतिक संसाधनों का उपभोग बढाकर पर्यावरणीय समस्याओं में वृद्धि करता है।      
 
# किसी भी समाज में ९०-९५ प्रतिशत लोग सामान्य प्रतिभा के होते हैं। केवल ५ -१० प्रतिशत लोग ही विशेष प्रतिभा के धनी होते हैं। इन्हें श्रीमद्भगवद्गीता में ‘श्रेष्ठ’ कहा गया है। शेष ९०-९५ प्रतिशत सामान्य लोग इन श्रेष्ठ जनों का अनुसरण करते हैं। सामान्य लोगोंं को वैज्ञानिक दृष्टिकोण से कोई लेना देना नहीं होता। वे तो सामान्य ज्ञान के आधारपर अपने हित या अहित का विचार करते हैं। जब उन्हें ऐसा समझने में कठिनाई होती है वे श्रेष्ठ मनुष्यों की ओर मार्गदर्शन के लिये देखते हैं। इसीलिये वैज्ञानिक दृष्टि इन ५ -१० प्रतिशत श्रेष्ठ जनों के लिये आवश्यक होती है। ऐसे लोगोंं की वैज्ञानिक दृष्टि की गलत समझ ही तन्त्रज्ञान  के दुरूपयोग से उपजी समस्याओं के मूल में है।      
 
# किसी भी समाज में ९०-९५ प्रतिशत लोग सामान्य प्रतिभा के होते हैं। केवल ५ -१० प्रतिशत लोग ही विशेष प्रतिभा के धनी होते हैं। इन्हें श्रीमद्भगवद्गीता में ‘श्रेष्ठ’ कहा गया है। शेष ९०-९५ प्रतिशत सामान्य लोग इन श्रेष्ठ जनों का अनुसरण करते हैं। सामान्य लोगोंं को वैज्ञानिक दृष्टिकोण से कोई लेना देना नहीं होता। वे तो सामान्य ज्ञान के आधारपर अपने हित या अहित का विचार करते हैं। जब उन्हें ऐसा समझने में कठिनाई होती है वे श्रेष्ठ मनुष्यों की ओर मार्गदर्शन के लिये देखते हैं। इसीलिये वैज्ञानिक दृष्टि इन ५ -१० प्रतिशत श्रेष्ठ जनों के लिये आवश्यक होती है। ऐसे लोगोंं की वैज्ञानिक दृष्टि की गलत समझ ही तन्त्रज्ञान  के दुरूपयोग से उपजी समस्याओं के मूल में है।      
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# सामाजिकता को हानि पहुँचानेवाला तन्त्रज्ञान अमान्य है। परस्पर मिलने से, साथ में समय बिताने से, एक दूसरे के सुख दु:ख में सहभागी होने से सामाजिकता में वृद्धि होती है। इनकी संभावनाएँ कम करनेवाले तन्त्रज्ञान अस्वीकार्य हैं। जीवन को अनावश्यक गति देनेवाले, समाज को पगढीला बनाकर संस्कृति को नष्ट करनेवाले तंत्रज्ञानों का सार्वत्रिकीकरण वर्ज्य है।      
 
# सामाजिकता को हानि पहुँचानेवाला तन्त्रज्ञान अमान्य है। परस्पर मिलने से, साथ में समय बिताने से, एक दूसरे के सुख दु:ख में सहभागी होने से सामाजिकता में वृद्धि होती है। इनकी संभावनाएँ कम करनेवाले तन्त्रज्ञान अस्वीकार्य हैं। जीवन को अनावश्यक गति देनेवाले, समाज को पगढीला बनाकर संस्कृति को नष्ट करनेवाले तंत्रज्ञानों का सार्वत्रिकीकरण वर्ज्य है।      
 
# गति और मति का संबंध व्यस्त होता है। जब मनुष्य का शरीर गतिमान होता है तो उसकी मति मंदगति से चलती है। और जब मनुष्य शांत या मंद गति से जा रहा होता है तब उसकी मति तेज चलती है। यह सामान्य ज्ञान की बात है। वर्तमान तंत्रज्ञान ने जीवन को बेशुमार गति देकर उसे सामान्य मनुष्य के लिये असहनीय बना दिया है। वह आधुनिक तन्त्रज्ञान के साथ समायोजन करने में असमर्थ होने के कारण तन्त्रज्ञान के पीछे छातीफाड़ गति से भी भाग नहीं पा रहा। वह मजबूर है घसीटे जाने के लिये।      
 
# गति और मति का संबंध व्यस्त होता है। जब मनुष्य का शरीर गतिमान होता है तो उसकी मति मंदगति से चलती है। और जब मनुष्य शांत या मंद गति से जा रहा होता है तब उसकी मति तेज चलती है। यह सामान्य ज्ञान की बात है। वर्तमान तंत्रज्ञान ने जीवन को बेशुमार गति देकर उसे सामान्य मनुष्य के लिये असहनीय बना दिया है। वह आधुनिक तन्त्रज्ञान के साथ समायोजन करने में असमर्थ होने के कारण तन्त्रज्ञान के पीछे छातीफाड़ गति से भी भाग नहीं पा रहा। वह मजबूर है घसीटे जाने के लिये।      
# जैविक तंत्रज्ञान अनैतिक है। जैविक तन्त्रज्ञान सूक्ष्म तन्त्रज्ञान है। सूक्ष्म का अर्थ है अधिक बलवान। अधिक व्यापक। इन का चार या दस पीढियों के बाद की पीढियों पर क्या परिणाम होगा यह समझना इनका विकास करनेवालों के लिये संभव ही नहीं है। फिर भी कुछ प्रयोगों के आधार पर प्रतिजैविकों को मनुष्य के लिये योग्य होने की घोषणा अनैतिक ही है। एक ही पीढी में तेजी से परिवर्तन करनेवाले जैविक तन्त्रज्ञान प्रकृति में जो सहज परस्परावलंबन है उस की किसी कडी को हानि पहुँचाते हैं। लाखों की संख्या में जो जीवजातियाँ हैं उन के इस परस्परावलंबन को पूरी तरह से समझना असंभव है। फिर भी इस का झूठा दावा कर जैविक परिवर्तन करने के तन्त्रज्ञान वर्तमान में बाजार व्याप रहे हैं। ऐसे तन्त्रज्ञान सर्वथा अमान्य हैं।      
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# जैविक तंत्रज्ञान अनैतिक है। जैविक तन्त्रज्ञान सूक्ष्म तन्त्रज्ञान है। सूक्ष्म का अर्थ है अधिक बलवान। अधिक व्यापक। इन का चार या दस पीढियों के बाद की पीढियों पर क्या परिणाम होगा यह समझना इनका विकास करनेवालों के लिये संभव ही नहीं है। तथापि कुछ प्रयोगों के आधार पर प्रतिजैविकों को मनुष्य के लिये योग्य होने की घोषणा अनैतिक ही है। एक ही पीढी में तेजी से परिवर्तन करनेवाले जैविक तन्त्रज्ञान प्रकृति में जो सहज परस्परावलंबन है उस की किसी कडी को हानि पहुँचाते हैं। लाखों की संख्या में जो जीवजातियाँ हैं उन के इस परस्परावलंबन को पूरी तरह से समझना असंभव है। तथापि इस का झूठा दावा कर जैविक परिवर्तन करने के तन्त्रज्ञान वर्तमान में बाजार व्याप रहे हैं। ऐसे तन्त्रज्ञान सर्वथा अमान्य हैं।      
 
# इसी तरह से नैनो तन्त्रज्ञान भी सूक्ष्म तन्त्रज्ञान है। इनका भी चराचर के ऊपर क्या और कैसा सूक्ष्म प्रभाव होगा इसकी जानकारी नहीं होती। लाखों जीवजातियों के ऊपर इनका होनेवाला सूक्ष्म प्रभाव जानना असंभव है।      
 
# इसी तरह से नैनो तन्त्रज्ञान भी सूक्ष्म तन्त्रज्ञान है। इनका भी चराचर के ऊपर क्या और कैसा सूक्ष्म प्रभाव होगा इसकी जानकारी नहीं होती। लाखों जीवजातियों के ऊपर इनका होनेवाला सूक्ष्म प्रभाव जानना असंभव है।      
 
== अध्ययन और अनुसंधान के क्षेत्र में प्रमाण का अधिष्ठान ==
 
== अध्ययन और अनुसंधान के क्षेत्र में प्रमाण का अधिष्ठान ==

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