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मनुष्य के इस जन्म का जीवन गर्भाधान से शुरू होता है<ref>धार्मिक शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप (धार्मिक शिक्षा ग्रन्थमाला १): पर्व ५, प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे</ref>।
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मनुष्य के इस जन्म का जीवन गर्भाधान से आरम्भ होता है<ref>धार्मिक शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप (धार्मिक शिक्षा ग्रन्थमाला १): पर्व ५, प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे</ref>।
    
''... नवविवाहित दम्पति पितृऋण से उकऋरण होने के लिये सन्तान''
 
''... नवविवाहित दम्पति पितृऋण से उकऋरण होने के लिये सन्तान''
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''@ | जीवन की शुरूआत की यह कथा रोमांचक है । इस. की इच्छा करते हैं । उनकी योग्यता के अनुसार पूर्व जन्म''
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''@ | जीवन की आरम्भआत की यह कथा रोमांचक है । इस. की इच्छा करते हैं । उनकी योग्यता के अनुसार पूर्व जन्म''
    
''घटना को भारत की मनीषा ने इतना महत्त्वपूर्ण माना है कि... के संस्कारों से युक्त उनके संभोग के समय स्त्रीबीज और''
 
''घटना को भारत की मनीषा ने इतना महत्त्वपूर्ण माना है कि... के संस्कारों से युक्त उनके संभोग के समय स्त्रीबीज और''
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''विस्तार से वर्णन किया गया है । सभी शास्त्रों का समन्वय... यह क्रिया शारीरिक से आत्मिक सभी स्तरों पर एक साथ''
 
''विस्तार से वर्णन किया गया है । सभी शास्त्रों का समन्वय... यह क्रिया शारीरिक से आत्मिक सभी स्तरों पर एक साथ''
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''करने पर हमें अधिजनन अर्थात्‌ जन्म के सम्बन्ध में शास्त्र... होती है । इस क्षण से इस जन्म का जीवन शुरू होता है ।''
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''करने पर हमें अधिजनन अर्थात्‌ जन्म के सम्बन्ध में शास्त्र... होती है । इस क्षण से इस जन्म का जीवन आरम्भ होता है ।''
    
''प्राप्त होता है। योग, ज्योतिष, धर्मशास्त्र, संगोपनशास्त्र गर्भाधान से पूर्व होनेवाले मातापिता उचित पूर्वतैयारी''
 
''प्राप्त होता है। योग, ज्योतिष, धर्मशास्त्र, संगोपनशास्त्र गर्भाधान से पूर्व होनेवाले मातापिता उचित पूर्वतैयारी''
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''उपयोगी सिद्ध होगा । यहाँ हम उस शास्त्र की चर्चा न करके... आकांक्षा और कल्पना में वे जितना स्पष्ट और निश्चित होते''
 
''उपयोगी सिद्ध होगा । यहाँ हम उस शास्त्र की चर्चा न करके... आकांक्षा और कल्पना में वे जितना स्पष्ट और निश्चित होते''
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''इस जन्म का जीवन कैसे शुरू होता है और कैसे विकसित... हैं उतना ही वे उसके अनुरूप जीव को निमन्त्रित करने में''
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''इस जन्म का जीवन कैसे आरम्भ होता है और कैसे विकसित... हैं उतना ही वे उसके अनुरूप जीव को निमन्त्रित करने में''
    
''होता जाता है, इसकी ही चर्चा करेंगे । यशस्वी होते हैं । चाह के साथ साथ वे शरीरशुद्धि और''
 
''होता जाता है, इसकी ही चर्चा करेंगे । यशस्वी होते हैं । चाह के साथ साथ वे शरीरशुद्धि और''
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== गर्भावस्‍था ==
 
== गर्भावस्‍था ==
जीवन की यात्रा शुरू हुई । यह यात्रा माता के साथ साथ और माता के सहारे चलती है। ये प्रारम्भ के दिन अत्यन्त संस्कारक्षम होते हैं। उसका शारीरिक पिण्ड तो अभी बना नहीं है। अभी तो वह कलल, बुद्बुद, भ्रूण जैसी अवस्थाओं में से गुजरकर चार मास में गर्भ बनता है। इसलिये सीखने के उसके करण सक्रिय होने की सम्भावना नहीं है। उसके अन्तःकरण में भी अभी शेष तीन तो अक्रिय हैं, अप्रकट हैं परन्तु चित्त सर्वाधित सक्रिय है। वह तो गर्भाधान से ही सक्रिय है। उसकी सक्रियता सर्वाधिक है। भावी जीवन में कभी भी उसका चित्त इतना सक्रिय और संस्कारक्षम कभी नहीं रहेगा जितना अभी है। इसलिये वह संस्कार ग्रहण करता ही रहता है । बाहर के जगत में उसके आसपास जो हो रहा है उसके संस्कार वह माता के माध्यम से ग्रहण करता है। माता के खानपान, वेशभूषा, दिनचर्या, विचार, भावनायें, दृष्टिकोण, मनःस्थिति आदि को वह संस्कारों के रूप में ग्रहण करता रहता है और अपने पूर्वजन्म के संस्कारों का जो पुंज उसके पास है उसके साथ इन प्राप्त संस्कारों का संयोजन होता रहता है। इससे उसका चरित्र बनता है। संस्कारों के इन दो आयामों के साथ गर्भाधान के समय में प्राप्त आनुवंशिक संस्कारों का पुंज भी है। अतः पूर्वजन्म के, आनुवंशिक और माता के माध्यम से होने वाले जगत के संस्कारों का संयोजन होते होते उसका चरित्र विकसित होता है। पूर्वजन्म से और आनुवंशिक संस्कारों का स्वरूप तो निश्चित हो ही गया है। अब माता के माध्यम से होने वाले जगत‌ के संस्कारों का ही विषय शेष है । इसलिये शास्त्र तथा परम्परा दोनों कहते हैं कि गर्भस्थ शिशु के लिये माता को अपने आहारविहार की तथा आसपास के लोगों को माता की शारीरिक और मानसिक सुरक्षा की अत्यधिक चिन्ता करनी चाहिये । गर्भअवस्था माता पर ही निर्भर है और जीवन के इस प्रथम चरण में वह माता से ही संस्कार ग्रहण करता है इसलिये कहा गया है , “माता प्रथमो गुरु: - माता प्रथम गुरु है । जैसा गुरु वैसा विद्यार्थी । भावी जीवन की विकास की सारी सम्भावनायें अनुकूल आहारविहार से खिल भी सकती है और प्रतिकूल आहारविहार से कुण्ठित भी हो सकती हैं।
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जीवन की यात्रा आरम्भ हुई । यह यात्रा माता के साथ साथ और माता के सहारे चलती है। ये प्रारम्भ के दिन अत्यन्त संस्कारक्षम होते हैं। उसका शारीरिक पिण्ड तो अभी बना नहीं है। अभी तो वह कलल, बुद्बुद, भ्रूण जैसी अवस्थाओं में से गुजरकर चार मास में गर्भ बनता है। इसलिये सीखने के उसके करण सक्रिय होने की सम्भावना नहीं है। उसके अन्तःकरण में भी अभी शेष तीन तो अक्रिय हैं, अप्रकट हैं परन्तु चित्त सर्वाधित सक्रिय है। वह तो गर्भाधान से ही सक्रिय है। उसकी सक्रियता सर्वाधिक है। भावी जीवन में कभी भी उसका चित्त इतना सक्रिय और संस्कारक्षम कभी नहीं रहेगा जितना अभी है। इसलिये वह संस्कार ग्रहण करता ही रहता है । बाहर के जगत में उसके आसपास जो हो रहा है उसके संस्कार वह माता के माध्यम से ग्रहण करता है। माता के खानपान, वेशभूषा, दिनचर्या, विचार, भावनायें, दृष्टिकोण, मनःस्थिति आदि को वह संस्कारों के रूप में ग्रहण करता रहता है और अपने पूर्वजन्म के संस्कारों का जो पुंज उसके पास है उसके साथ इन प्राप्त संस्कारों का संयोजन होता रहता है। इससे उसका चरित्र बनता है। संस्कारों के इन दो आयामों के साथ गर्भाधान के समय में प्राप्त आनुवंशिक संस्कारों का पुंज भी है। अतः पूर्वजन्म के, आनुवंशिक और माता के माध्यम से होने वाले जगत के संस्कारों का संयोजन होते होते उसका चरित्र विकसित होता है। पूर्वजन्म से और आनुवंशिक संस्कारों का स्वरूप तो निश्चित हो ही गया है। अब माता के माध्यम से होने वाले जगत‌ के संस्कारों का ही विषय शेष है । इसलिये शास्त्र तथा परम्परा दोनों कहते हैं कि गर्भस्थ शिशु के लिये माता को अपने आहारविहार की तथा आसपास के लोगों को माता की शारीरिक और मानसिक सुरक्षा की अत्यधिक चिन्ता करनी चाहिये । गर्भअवस्था माता पर ही निर्भर है और जीवन के इस प्रथम चरण में वह माता से ही संस्कार ग्रहण करता है इसलिये कहा गया है , “माता प्रथमो गुरु: - माता प्रथम गुरु है । जैसा गुरु वैसा विद्यार्थी । भावी जीवन की विकास की सारी सम्भावनायें अनुकूल आहारविहार से खिल भी सकती है और प्रतिकूल आहारविहार से कुण्ठित भी हो सकती हैं।
    
गर्भावस्‍था के नौ मास के दौरान पुंसवन और सीमन्तोन्नयन नामक दो संस्कार भी किये जाते हैं। ये भी विकास के लिये अनुकूल हैं। गर्भावस्‍था के संस्कारों के विषय में भी शास्त्रों में और लोक में बहुत कहा गया है। इन संस्कारों के उदाहरण प्राचीन काल के भी मिलते है और अर्वाचीन के भी, भारत के भी मिलते हैं और अन्य देशों के भी। विश्व के सभी जानकार और समझदार लोग तो इस तथ्य से अनभिज्ञ नहीं है परन्तु इसकी शिक्षा की गम्भीरतापूर्वक व्यवस्था नहीं करेंगे तब तक होनेवाले माता पिता आज्ञानी रहेंगे ही। इसका परिणाम भावी पर भी होगा।
 
गर्भावस्‍था के नौ मास के दौरान पुंसवन और सीमन्तोन्नयन नामक दो संस्कार भी किये जाते हैं। ये भी विकास के लिये अनुकूल हैं। गर्भावस्‍था के संस्कारों के विषय में भी शास्त्रों में और लोक में बहुत कहा गया है। इन संस्कारों के उदाहरण प्राचीन काल के भी मिलते है और अर्वाचीन के भी, भारत के भी मिलते हैं और अन्य देशों के भी। विश्व के सभी जानकार और समझदार लोग तो इस तथ्य से अनभिज्ञ नहीं है परन्तु इसकी शिक्षा की गम्भीरतापूर्वक व्यवस्था नहीं करेंगे तब तक होनेवाले माता पिता आज्ञानी रहेंगे ही। इसका परिणाम भावी पर भी होगा।
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# जन्म सामान्य प्रसूति से होता है कि सीझर से यह बहुत मायने रखता है । सीझर से होता है तब जन्म लेने के और जन्म देने के प्रत्यक्ष अनुभव से शिशु और माता दोनों वंचित रह जाते हैं जिसका उनके सम्बन्ध पर परिणाम होता है। इसलिये सीझर न करना पड़े इसकी सावधानी सगर्भावस्‍था में रखनी चाहिये । इस दृष्टि से व्यायाम का महत्त्व है ।
 
# जन्म सामान्य प्रसूति से होता है कि सीझर से यह बहुत मायने रखता है । सीझर से होता है तब जन्म लेने के और जन्म देने के प्रत्यक्ष अनुभव से शिशु और माता दोनों वंचित रह जाते हैं जिसका उनके सम्बन्ध पर परिणाम होता है। इसलिये सीझर न करना पड़े इसकी सावधानी सगर्भावस्‍था में रखनी चाहिये । इस दृष्टि से व्यायाम का महत्त्व है ।
 
# जन्म के समय ज्ञानेन्द्रियाँ अतिशय कोमल होती हैं। अब तक वे माता के गर्भाशय में सुरक्षित थीं । अब वे अचानक बाहर के विश्व में आ गई हैं जहाँ वातावरण सर्वथा विपरीत है । उन्हें तेज गंध, तीखी और कर्कश आवाज, अपरिचित व्यक्तियों के दर्शन, कठोर स्पर्श आदि से परेशानी होती है । उनकी संवेदन ग्रहण करने की क्षमता का क्षरण हो जाता है, लोकभाषा में कहें तो वे भोथरी बन जाती हैं ।  
 
# जन्म के समय ज्ञानेन्द्रियाँ अतिशय कोमल होती हैं। अब तक वे माता के गर्भाशय में सुरक्षित थीं । अब वे अचानक बाहर के विश्व में आ गई हैं जहाँ वातावरण सर्वथा विपरीत है । उन्हें तेज गंध, तीखी और कर्कश आवाज, अपरिचित व्यक्तियों के दर्शन, कठोर स्पर्श आदि से परेशानी होती है । उनकी संवेदन ग्रहण करने की क्षमता का क्षरण हो जाता है, लोकभाषा में कहें तो वे भोथरी बन जाती हैं ।  
# भावी जीवन में ज्ञानेन्द्रियों की सहायता से बाह्य जगत्‌ के जो अनुभव और ज्ञान प्राप्त करना है उसमें बहुत बड़े अवरोध निर्माण हो जाते हैं । इस मुद्दे का विचार कर ही घर में, घर के परिजनों के मध्य, विशेष रूप से बनाये गये कक्ष में, सुन्दर वातावरण में सुखप्रसूति का महत्त्व बताया गया है। यह कैसे होगा इसका विस्तृत वर्णन किया गया है क्योंकि आनेवाला शिशु राष्ट्र की, संस्कृति की, कुल की और मातापिता की मूल्यवान सम्पत्ति है । इस जगत्‌ में उसका आगमन सविशेष सम्मान और सुरक्षापूर्वक होना चाहिये । यह क्षण जीवन में एक ही बार आता है, इसे चूकना नहीं चाहिये । जन्म के बाद दसदिन तक उसे कड़ी सुरक्षा की आवश्यकता होती है । प्रकाश, ध्वनि, स्पर्श, गन्ध, दृश्य आदि ज्ञानेन्द्रियों के विषय में सजगता बरती जाती है । शिशु के कक्ष में किसी को प्रवेश की अनुमति नहीं होती, न शिशु को कक्ष के बाहर लाया जाता है । बाहर के वातावरण के साथ समायोजन करने के लिये जितना समय चाहिये उतना दिया जाता है । गर्भाधान, गर्भावस्‍था और जन्म की अवस्थायें ऐसी हैं जिनमें दो पीढ़ियों का जीवन शारीरिक दृष्टि से भी असम्पृक्त होकर ही विकसित होता है । स्थूल और सूक्ष्म दोनों शरीर एकदूसरे से जुड़े हैं, सारे अनुभव साँझे हैं, शिशु माता के जीवन का अंग ही है । इसलिय जन्म होने तक वह स्वतन्त्र व्यक्ति नहीं माना जाता है । व्यक्ति की आयु का हिसाब जन्म से ही शुरू होता है क्योंकि जन्म के बाद ही वह स्वतन्त्र होकर जीवनयात्रा शुरू करता है ।
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# भावी जीवन में ज्ञानेन्द्रियों की सहायता से बाह्य जगत्‌ के जो अनुभव और ज्ञान प्राप्त करना है उसमें बहुत बड़े अवरोध निर्माण हो जाते हैं । इस मुद्दे का विचार कर ही घर में, घर के परिजनों के मध्य, विशेष रूप से बनाये गये कक्ष में, सुन्दर वातावरण में सुखप्रसूति का महत्त्व बताया गया है। यह कैसे होगा इसका विस्तृत वर्णन किया गया है क्योंकि आनेवाला शिशु राष्ट्र की, संस्कृति की, कुल की और मातापिता की मूल्यवान सम्पत्ति है । इस जगत्‌ में उसका आगमन सविशेष सम्मान और सुरक्षापूर्वक होना चाहिये । यह क्षण जीवन में एक ही बार आता है, इसे चूकना नहीं चाहिये । जन्म के बाद दसदिन तक उसे कड़ी सुरक्षा की आवश्यकता होती है । प्रकाश, ध्वनि, स्पर्श, गन्ध, दृश्य आदि ज्ञानेन्द्रियों के विषय में सजगता बरती जाती है । शिशु के कक्ष में किसी को प्रवेश की अनुमति नहीं होती, न शिशु को कक्ष के बाहर लाया जाता है । बाहर के वातावरण के साथ समायोजन करने के लिये जितना समय चाहिये उतना दिया जाता है । गर्भाधान, गर्भावस्‍था और जन्म की अवस्थायें ऐसी हैं जिनमें दो पीढ़ियों का जीवन शारीरिक दृष्टि से भी असम्पृक्त होकर ही विकसित होता है । स्थूल और सूक्ष्म दोनों शरीर एकदूसरे से जुड़े हैं, सारे अनुभव साँझे हैं, शिशु माता के जीवन का अंग ही है । इसलिय जन्म होने तक वह स्वतन्त्र व्यक्ति नहीं माना जाता है । व्यक्ति की आयु का हिसाब जन्म से ही आरम्भ होता है क्योंकि जन्म के बाद ही वह स्वतन्त्र होकर जीवनयात्रा आरम्भ करता है ।
 
# स्वतन्त्र जीवन की प्रथम अवस्था है शिशुअवस्था । इस अवस्था की औसत आयु होती है जन्म से पाँच वर्ष की । गर्भावस्‍था के आधार पर यह पाँच सात मास तक अधिक भी हो सकती है परन्तु औसत पाँच वर्ष ही माना जाता है । इस अवस्था की शिक्षा नींव की शिक्षा है । इस अवस्था में भी प्रमुखता चित्त की ही है, परन्तु ज्ञानार्जन के अन्य करण भी सक्रिय होने लगते हैं । हम क्रमशः इस अवस्था की शिक्षा का विचार करे ।
 
# स्वतन्त्र जीवन की प्रथम अवस्था है शिशुअवस्था । इस अवस्था की औसत आयु होती है जन्म से पाँच वर्ष की । गर्भावस्‍था के आधार पर यह पाँच सात मास तक अधिक भी हो सकती है परन्तु औसत पाँच वर्ष ही माना जाता है । इस अवस्था की शिक्षा नींव की शिक्षा है । इस अवस्था में भी प्रमुखता चित्त की ही है, परन्तु ज्ञानार्जन के अन्य करण भी सक्रिय होने लगते हैं । हम क्रमशः इस अवस्था की शिक्षा का विचार करे ।
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शिशु के विकास हेतु सबसे बड़ी आवश्यकता है माता के हाथ से भोजन । यह एक प्रतीक है जो कहता है कि शिशु की सबसे बड़ी आवश्यकता है प्रेम । लाड और प्यार उसके साथ व्यवहार की प्रथम शर्त है । उसके साथ कठोर व्यवहार, डाँट, ताने, वक़वाणी, दण्डवर्जित हैं । किसी बात का निषेध, किसी कार्य में अवरोध, जबरदस्ती वर्जित हैं । उल्टे उसका कहना मानना, उसकी आज्ञा का पालन करना, उसके अनुकूल बनना आवश्यकता है । यह बड़ों की परीक्षा है । जो इस परीक्षा में उत्तीर्ण होते हैं उन्हें अच्छी सन्तानों के मातापिता बनने का भाग्य प्राप्त होता है।
 
शिशु के विकास हेतु सबसे बड़ी आवश्यकता है माता के हाथ से भोजन । यह एक प्रतीक है जो कहता है कि शिशु की सबसे बड़ी आवश्यकता है प्रेम । लाड और प्यार उसके साथ व्यवहार की प्रथम शर्त है । उसके साथ कठोर व्यवहार, डाँट, ताने, वक़वाणी, दण्डवर्जित हैं । किसी बात का निषेध, किसी कार्य में अवरोध, जबरदस्ती वर्जित हैं । उल्टे उसका कहना मानना, उसकी आज्ञा का पालन करना, उसके अनुकूल बनना आवश्यकता है । यह बड़ों की परीक्षा है । जो इस परीक्षा में उत्तीर्ण होते हैं उन्हें अच्छी सन्तानों के मातापिता बनने का भाग्य प्राप्त होता है।
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इस प्रकार मनुष्य की आजीवन शिक्षा का प्रथम चरण घर में होता है । पाँच वर्ष के बाद विद्यालय में जाकर उसका अध्ययन शुरू होता है उसके लिये यह मूल्यवान पूर्वतैयारी है । यह पढाई यदि ठीक नहीं हुई तो आगे के अध्ययन के लिये बाधा निर्माण होती है । इसलिये कहा गया है कि कुट्म्ब ही प्रथम पाठशाला है । इस पाठशाला का कोई विकल्प नहीं है । इसी प्रकार प्रथम गुरु माता का भी कोई विकल्प नहीं है। जिन्हें इस शिक्षक से शिशुअवस्था में अच्छी शिक्षा मिलती है वे भाग्यवान हैं । अन्यथा पाँच वर्ष तो किसी भी प्रकार से बीत ही जाते हैं और व्यक्ति अशिक्षित रह जाता है । इसकी भरपाई भी आगे जाकर नहीं हो सकती ।
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इस प्रकार मनुष्य की आजीवन शिक्षा का प्रथम चरण घर में होता है । पाँच वर्ष के बाद विद्यालय में जाकर उसका अध्ययन आरम्भ होता है उसके लिये यह मूल्यवान पूर्वतैयारी है । यह पढाई यदि ठीक नहीं हुई तो आगे के अध्ययन के लिये बाधा निर्माण होती है । इसलिये कहा गया है कि कुट्म्ब ही प्रथम पाठशाला है । इस पाठशाला का कोई विकल्प नहीं है । इसी प्रकार प्रथम गुरु माता का भी कोई विकल्प नहीं है। जिन्हें इस शिक्षक से शिशुअवस्था में अच्छी शिक्षा मिलती है वे भाग्यवान हैं । अन्यथा पाँच वर्ष तो किसी भी प्रकार से बीत ही जाते हैं और व्यक्ति अशिक्षित रह जाता है । इसकी भरपाई भी आगे जाकर नहीं हो सकती ।
    
==References==
 
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