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# जन्म सामान्य प्रसूति से होता है कि सीझर से यह बहुत मायने रखता है । सीझर से होता है तब जन्म लेने के और जन्म देने के प्रत्यक्ष अनुभव से शिशु और माता दोनों वंचित रह जाते हैं जिसका उनके सम्बन्ध पर परिणाम होता है। इसलिये सीझर न करना पड़े इसकी सावधानी सगर्भावस्‍था में रखनी चाहिये । इस दृष्टि से व्यायाम का महत्त्व है ।
 
# जन्म सामान्य प्रसूति से होता है कि सीझर से यह बहुत मायने रखता है । सीझर से होता है तब जन्म लेने के और जन्म देने के प्रत्यक्ष अनुभव से शिशु और माता दोनों वंचित रह जाते हैं जिसका उनके सम्बन्ध पर परिणाम होता है। इसलिये सीझर न करना पड़े इसकी सावधानी सगर्भावस्‍था में रखनी चाहिये । इस दृष्टि से व्यायाम का महत्त्व है ।
 
# जन्म के समय ज्ञानेन्द्रियाँ अतिशय कोमल होती हैं। अब तक वे माता के गर्भाशय में सुरक्षित थीं । अब वे अचानक बाहर के विश्व में आ गई हैं जहाँ वातावरण सर्वथा विपरीत है । उन्हें तेज गंध, तीखी और कर्कश आवाज, अपरिचित व्यक्तियों के दर्शन, कठोर स्पर्श आदि से परेशानी होती है । उनकी संवेदन ग्रहण करने की क्षमता का क्षरण हो जाता है, लोकभाषा में कहें तो वे भोथरी बन जाती हैं ।  
 
# जन्म के समय ज्ञानेन्द्रियाँ अतिशय कोमल होती हैं। अब तक वे माता के गर्भाशय में सुरक्षित थीं । अब वे अचानक बाहर के विश्व में आ गई हैं जहाँ वातावरण सर्वथा विपरीत है । उन्हें तेज गंध, तीखी और कर्कश आवाज, अपरिचित व्यक्तियों के दर्शन, कठोर स्पर्श आदि से परेशानी होती है । उनकी संवेदन ग्रहण करने की क्षमता का क्षरण हो जाता है, लोकभाषा में कहें तो वे भोथरी बन जाती हैं ।  
# भावी जीवन में ज्ञानेन्द्रियों की सहायता से बाह्य जगत‌ के जो अनुभव और ज्ञान प्राप्त करना है उसमें बहुत बड़े अवरोध निर्माण हो जाते हैं । इस मुद्दे का विचार कर ही घर में, घर के परिजनों के मध्य, विशेष रूप से बनाये गये कक्ष में, सुन्दर वातावरण में सुखप्रसूति का महत्त्व बताया गया है। यह कैसे होगा इसका विस्तृत वर्णन किया गया है क्योंकि आनेवाला शिशु राष्ट्र की, संस्कृति की, कुल की और मातापिता की मूल्यवान सम्पत्ति है । इस जगत‌ में उसका आगमन सविशेष सम्मान और सुरक्षापूर्वक होना चाहिये । यह क्षण जीवन में एक ही बार आता है, इसे चूकना नहीं चाहिये । जन्म के बाद दसदिन तक उसे कड़ी सुरक्षा की आवश्यकता होती है । प्रकाश, ध्वनि, स्पर्श, गन्ध, दृश्य आदि ज्ञानेन्द्रियों के विषय में सजगता बरती जाती है । शिशु के कक्ष में किसी को प्रवेश की अनुमति नहीं होती, न शिशु को कक्ष के बाहर लाया जाता है । बाहर के वातावरण के साथ समायोजन करने के लिये जितना समय चाहिये उतना दिया जाता है । गर्भाधान, गर्भावस्‍था और जन्म की अवस्थायें ऐसी हैं जिनमें दो पीढ़ियों का जीवन शारीरिक दृष्टि से भी असम्पृक्त होकर ही विकसित होता है । स्थूल और सूक्ष्म दोनों शरीर एकदूसरे से जुड़े हैं, सारे अनुभव साँझे हैं, शिशु माता के जीवन का अंग ही है । इसलिय जन्म होने तक वह स्वतन्त्र व्यक्ति नहीं माना जाता है । व्यक्ति की आयु का हिसाब जन्म से ही शुरू होता है क्योंकि जन्म के बाद ही वह स्वतन्त्र होकर जीवनयात्रा शुरू करता है ।
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# भावी जीवन में ज्ञानेन्द्रियों की सहायता से बाह्य जगत्‌ के जो अनुभव और ज्ञान प्राप्त करना है उसमें बहुत बड़े अवरोध निर्माण हो जाते हैं । इस मुद्दे का विचार कर ही घर में, घर के परिजनों के मध्य, विशेष रूप से बनाये गये कक्ष में, सुन्दर वातावरण में सुखप्रसूति का महत्त्व बताया गया है। यह कैसे होगा इसका विस्तृत वर्णन किया गया है क्योंकि आनेवाला शिशु राष्ट्र की, संस्कृति की, कुल की और मातापिता की मूल्यवान सम्पत्ति है । इस जगत्‌ में उसका आगमन सविशेष सम्मान और सुरक्षापूर्वक होना चाहिये । यह क्षण जीवन में एक ही बार आता है, इसे चूकना नहीं चाहिये । जन्म के बाद दसदिन तक उसे कड़ी सुरक्षा की आवश्यकता होती है । प्रकाश, ध्वनि, स्पर्श, गन्ध, दृश्य आदि ज्ञानेन्द्रियों के विषय में सजगता बरती जाती है । शिशु के कक्ष में किसी को प्रवेश की अनुमति नहीं होती, न शिशु को कक्ष के बाहर लाया जाता है । बाहर के वातावरण के साथ समायोजन करने के लिये जितना समय चाहिये उतना दिया जाता है । गर्भाधान, गर्भावस्‍था और जन्म की अवस्थायें ऐसी हैं जिनमें दो पीढ़ियों का जीवन शारीरिक दृष्टि से भी असम्पृक्त होकर ही विकसित होता है । स्थूल और सूक्ष्म दोनों शरीर एकदूसरे से जुड़े हैं, सारे अनुभव साँझे हैं, शिशु माता के जीवन का अंग ही है । इसलिय जन्म होने तक वह स्वतन्त्र व्यक्ति नहीं माना जाता है । व्यक्ति की आयु का हिसाब जन्म से ही शुरू होता है क्योंकि जन्म के बाद ही वह स्वतन्त्र होकर जीवनयात्रा शुरू करता है ।
 
# स्वतन्त्र जीवन की प्रथम अवस्था है शिशुअवस्था । इस अवस्था की औसत आयु होती है जन्म से पाँच वर्ष की । गर्भावस्‍था के आधार पर यह पाँच सात मास तक अधिक भी हो सकती है परन्तु औसत पाँच वर्ष ही माना जाता है । इस अवस्था की शिक्षा नींव की शिक्षा है । इस अवस्था में भी प्रमुखता चित्त की ही है, परन्तु ज्ञानार्जन के अन्य करण भी सक्रिय होने लगते हैं । हम क्रमशः इस अवस्था की शिक्षा का विचार करे ।
 
# स्वतन्त्र जीवन की प्रथम अवस्था है शिशुअवस्था । इस अवस्था की औसत आयु होती है जन्म से पाँच वर्ष की । गर्भावस्‍था के आधार पर यह पाँच सात मास तक अधिक भी हो सकती है परन्तु औसत पाँच वर्ष ही माना जाता है । इस अवस्था की शिक्षा नींव की शिक्षा है । इस अवस्था में भी प्रमुखता चित्त की ही है, परन्तु ज्ञानार्जन के अन्य करण भी सक्रिय होने लगते हैं । हम क्रमशः इस अवस्था की शिक्षा का विचार करे ।
    
== शुभ अनुभवों की अनिवार्यता ==
 
== शुभ अनुभवों की अनिवार्यता ==
इस अवस्था में चित्त तो सक्रिय होता ही है, साथ ही ज्ञानेन्द्रियाँ भी सक्रिय होकर अनुभव प्राप्त करती हैं । शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध के उसके अनुभव शुभ होना आवश्यक है । उसी प्रकार चित्त पर पड़नेवाले संस्कार भी शुभ होना आवश्यक है । जीवन में सुन्दर असुन्दर, शुभ और अशुभ दोनों अनुभव होते हैं । दोनों ग्रहण करने के अवसर आते ही हैं । दोनों को सहना भी पड़ता है । परन्तु प्रारंभ के अनुभव सुन्दर और शुभ होना इसलिये आवश्यक है क्योंकि इससे उसका जीवनविषयक दृष्टिकोण सकारात्मक बनता है । जीवन और जगत‌ अच्छे हैं यह उसके विचार और व्यवहार का आधार बनता है । इस दृष्टि से उसका खानपान, उसके खानेपीने के पात्र, उसका बिस्तर, उसके कपड़े, आभूषण और खिलौने आदि का चयन ज्ञानेन्द्रियों की अनुभवक्षमता को ध्यान में रखकर करने चाहिये । सूती या रेशमी वस्त्र, देशी गाय के घी-दूध-मक्खन, लकड़ी के खिलौने, सोने-चाँदी और रत्नों के आभूषण आदि का प्रावधान करना चाहिये । उसी प्रकार मधुर संगीत, उत्तम दृश्य, मधुर गन्ध आदि का भी अनुभव आवश्यक है । ज्ञानेन्द्रियाँ ज्ञानार्जन प्रक्रिया में महत्त्वपूर्ण स्थान रखती हैं । साथ ही बाह्य जगत‌ के साथ जुड़ने का ये एकमात्र माध्यम हैं । जगत का परिचय और ज्ञानार्जन की क्षमता दोनों दृष्टि से इन अनुभवों का विचार करना चाहिये ।
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इस अवस्था में चित्त तो सक्रिय होता ही है, साथ ही ज्ञानेन्द्रियाँ भी सक्रिय होकर अनुभव प्राप्त करती हैं । शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध के उसके अनुभव शुभ होना आवश्यक है । उसी प्रकार चित्त पर पड़नेवाले संस्कार भी शुभ होना आवश्यक है । जीवन में सुन्दर असुन्दर, शुभ और अशुभ दोनों अनुभव होते हैं । दोनों ग्रहण करने के अवसर आते ही हैं । दोनों को सहना भी पड़ता है । परन्तु प्रारंभ के अनुभव सुन्दर और शुभ होना इसलिये आवश्यक है क्योंकि इससे उसका जीवनविषयक दृष्टिकोण सकारात्मक बनता है । जीवन और जगत्‌ अच्छे हैं यह उसके विचार और व्यवहार का आधार बनता है । इस दृष्टि से उसका खानपान, उसके खानेपीने के पात्र, उसका बिस्तर, उसके कपड़े, आभूषण और खिलौने आदि का चयन ज्ञानेन्द्रियों की अनुभवक्षमता को ध्यान में रखकर करने चाहिये । सूती या रेशमी वस्त्र, देशी गाय के घी-दूध-मक्खन, लकड़ी के खिलौने, सोने-चाँदी और रत्नों के आभूषण आदि का प्रावधान करना चाहिये । उसी प्रकार मधुर संगीत, उत्तम दृश्य, मधुर गन्ध आदि का भी अनुभव आवश्यक है । ज्ञानेन्द्रियाँ ज्ञानार्जन प्रक्रिया में महत्त्वपूर्ण स्थान रखती हैं । साथ ही बाह्य जगत्‌ के साथ जुड़ने का ये एकमात्र माध्यम हैं । जगत का परिचय और ज्ञानार्जन की क्षमता दोनों दृष्टि से इन अनुभवों का विचार करना चाहिये ।
    
उसके मानसिक अनुभव मन से नहीं अपितु चित्त से ग्रहण किये जाते हैं। उसे भाषा की आवश्यकता नहीं होती । आसपास के लोगों के मनोभाव, विचारप्रक्रिया, एकदूसरे के प्रति व्यवहार शिशु के प्रति भाव आदि को वह यथावत्‌ ग्रहण करता है, ग्रहण करने में वह कोई चूक नहीं करता। इस अवस्था में उसके साथ के वार्तालाप, कहानी, लोरी, टी.वी. के दृश्य आदि से वह प्रेरणा ग्रहण करता है। उसका मनसिक पिण्ड बनाने में इन सबका योगदान होता है। इस अवस्था में कठोरता का, निषेध का, अस्वीकार का अनुभव उचित नहीं होता। इसलिये शिशु को किसी बातकी मनाही करने, डाँटने, दण्ड देने का निषेध है। उसे स्वीकृति चाहिये। इस मामले में बड़ों की बहुत गलतियाँ होती हैं। ये गलतियाँ अज्ञान और असावधानी के कारण होती हैं परन्तु उनका दुष्परिणाम शिशु पर होता है ।
 
उसके मानसिक अनुभव मन से नहीं अपितु चित्त से ग्रहण किये जाते हैं। उसे भाषा की आवश्यकता नहीं होती । आसपास के लोगों के मनोभाव, विचारप्रक्रिया, एकदूसरे के प्रति व्यवहार शिशु के प्रति भाव आदि को वह यथावत्‌ ग्रहण करता है, ग्रहण करने में वह कोई चूक नहीं करता। इस अवस्था में उसके साथ के वार्तालाप, कहानी, लोरी, टी.वी. के दृश्य आदि से वह प्रेरणा ग्रहण करता है। उसका मनसिक पिण्ड बनाने में इन सबका योगदान होता है। इस अवस्था में कठोरता का, निषेध का, अस्वीकार का अनुभव उचित नहीं होता। इसलिये शिशु को किसी बातकी मनाही करने, डाँटने, दण्ड देने का निषेध है। उसे स्वीकृति चाहिये। इस मामले में बड़ों की बहुत गलतियाँ होती हैं। ये गलतियाँ अज्ञान और असावधानी के कारण होती हैं परन्तु उनका दुष्परिणाम शिशु पर होता है ।
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== काम करने की आवश्यकता ==
 
== काम करने की आवश्यकता ==
इस सुभाषित का स्मरण करें
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इस सुभाषित का स्मरण करें<ref>'''''भर्तृहरिरचित नीतिशतकम्, श्लोक १२''''' </ref>: <blockquote>साहित्यसंगीतकलाविहीनः साक्षात्पशुः पुच्छविषाणहीनः </blockquote><blockquote>तृणं न खादन्नपि जीवमानस्तद्भागधेयं परमं पशूनाम् ॥12॥</blockquote><blockquote>अर्थात्‌ साहित्य, संगीत और कला जिसे अवगत नहीं । ऐसा मनुष्य पूँछ और सींग से रहित पशु जैसा है। वह घास खाये बिना ही जीवित रहता है इसे पशुओं का बहुत भाग्य समझना चाहिये ।</blockquote>साहित्य और संगीत की चर्चा हमने ऊपर की । अब कला का विचार करना चाहिये । भाषा और संगीत वाक्‌ कर्मन्द्रिय से जुडे विषय हैं उस प्रकार कला का सम्बन्ध हाथ नामक कर्मेन्द्रिय से है । मनुष्य को हाथ काम करने के लिये ही प्राप्त हुए हैं । काम करने के संस्कार शिशु को प्रारंभ से ही मिलने चाहिए । शिशु यह करना भी चाहता है। उसे अवसर मिलना चाहिये । वस्तु को पकड़ने, तोड़ने और फैंकने से उसका प्रारम्भ होता है । पानी में, रेत में, मिट्टी में खेलने से हाथ का अभ्यास होता है । घर के बर्तन, डिब्बे, अन्य सामान आदि को इधर से उधर रखने से, डिब्बे भरने और खाली करने से, बर्तन रखने से, आसन, चाद, बिस्तर बिछाने और समटने से, कपड़े धोने से हाथ नामक कर्मेन्द्रिय का विकास होता है । अन्य लाभ तो मूल्यवान हैं ही । तीन वर्ष की आयु के बाद तह करना, काटना, चूरा करना, गूँधना, कूटना, छीलना, मरोड़ना, खींचना, झेलना आदि अनेक कामों का अविरत अभ्यास होना चाहिये । रंग, आकृति, नकाशी आदि का अनुभव आवश्यक है । सूई धागे का प्रयोग, मोती पिरोना, मिट्टी के खिलौने बनाना, गेरु से रंगना आदि असंख्य काम करने के अवसर उसे मिलने चाहिये । हाथ को कुशल कारीगर बनाना यही ध्येय है । हाथ से काम करते आना भौतिक समृद्धि का स्रोत भी है। इस प्रकार से कर्मन्द्रियाँ भी ज्ञानार्जन की दिशा में प्रगति करने का बडा माध्यम है ।
 
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साहित्यसंगीत कलाविहीन:
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साक्षात्पशु पुच्छविषाण हीनः
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qa न खादन्नपि जीवमान:ः
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तदूभागधेय॑ परम पशुनामू ।।
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अर्थात्‌
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साहित्य, संगीत और कला जिसे अवगत नहीं । ऐसा
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मनुष्य पूँढ और सींग से रहित पशु जैसा है। वह घास
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खाये बिना ही जीवित रहता है इसे पशुओं का महदू भाग्य
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समझना चाहिये ।
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साहित्य और संगीत की चर्चा हमने ऊपर की । अब
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कला का विचार करना चाहिये । भाषा और संगीत वाक्‌
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कर्मन्द्रिय से जुडे विषय हैं उस प्रकार कला का सम्बन्ध
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हाथ नामक कर्मेन्द्रिय से है । मनुष्य को हाथ काम करने के
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लिये ही प्राप्त हुए हैं । काम करने के संस्कार शिशु को
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प्रासम्भ से ही मिलने चाहिए । शिशु यह करना भी चाहता
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है । उसे अवसर मिलना चाहिये । व्स्त
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को पकड़ने, तोड़ने और फैंकने से उसका प्रारम्भ होता है ।
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पानी में, रेत में, मिट्टी में खेलने से हाथ का अभ्यास होता
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है । घर के बर्तन, डिब्बे, अन्य सामान आदि को इधर से
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उधर रखने से, डिब्बे भरने और खाली करने से, बर्तन
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रखने से, आसन, ad, चह्दर, बिस्तर बिछाने और समटने
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से, कपड़े धोने से हाथ नामक कर्मेन्दट्रिय का विकास होता
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है । अन्य लाभ तो मूल्यवान हैं ही । तीन वर्ष की आयु के
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बाद तह करना, काटना, चूरा करना, गूँधना, कूटना,
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Hed HE, छीलना, मरोड़ना, खींचना, झेलना आदि
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अनेक कामों का अविरत अभ्यास होना चाहिये । रंग,
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आकृति, नकाशी आदि का अनुभव आवश्यक है । सूई
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धागे का प्रयोग, मोती पिरोना, मिट्टी के खिलौने बनाना,
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गेरु से रंगना आदि असंख्य काम करने के अवसर उसे
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मिलने चाहिये । हाथ को कुशल कारीगर बनाना यही ध्येय
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है । हाथ से काम करते आना भौतिक समृद्धि का स्रोत भी
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है।
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इस प्रकार से कर्मन्द्रियाँ भी ज्ञानार्जन की दिशा में
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प्रगति करने का बडा माध्यम है ।
      
== सद्गुण और सदाचार ==
 
== सद्गुण और सदाचार ==
 
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# घर के लोगों का चरित्र जैसा होगा वैसा ही बालक का भी बनेगा । घर के लोग दुश्वरित्र हों और बालक को सदूगुणी बनाने का विशेष कार्यक्रम बनाया जाय तो वह यशस्वी नहीं होता ।
१, घर के लोगों का चरित्र जैसा होगा वैसा ही
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# संयोगवश दुश्चरित्र मातापिता के घर में भी पूर्वजन्म के अच्छे संस्कार लेकर शिशु ने जन्म लिया है तो उसके सच्चरित्र बनने की सम्भावना बनती है ।
 
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# सद्गुणी और सदाचारी मातापिता को अपने शिशु को चरित्रवान बनाने हेतु प्रथम आहारविहार की ओर ध्यान देना चाहिये । सात्विक आहारविहार से सद्गुर्णों की रक्षा होती है ।
बालक का भी बनेगा । घर के लोग दुश्वरित्र हों और बालक
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# अच्छी कहानियाँ, लोरियाँ, गीत, चित्र आदि सहायक बन सकते हैं ।
 
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# स्तोत्र, मन्त्र, श्लोक, सुभाषित अधिकतम मात्रा में कण्ठस्थ करने की यह उचित आयु है। तत्काल वाणीशुद्धि के रूप में और बड़ी आयु में मनःशुद्धि के लिये इसका उपयोग हो सकता है ।  
को सदूगुणी बनाने का विशेष कार्यक्रम बनाया जाय तो वह
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# दान देना, पशु पक्षी को खिलाना, वृक्ष को पानी देना आदि सदाचार के काम प्रत्यक्ष करना भी आवश्यक है।
 
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# इस प्रकार सद्गुण और सदाचार हेतु अनेक उपाय किये जा सकते हैं परन्तु मातापिता के पुण्य, उनका स्वयं का चरित्र और शिशु के पूर्वजन्म के संस्कार ही शिशु को सदगुणी और सदाचारी बनाते हैं ।  
यशस्वी नहीं होता ।
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२. संयोगवश दुश्चरित्र मातापिता के घर में भी
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पूर्वजन्म के अच्छे संस्कार लेकर शिशु ने जन्म लिया है तो
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उसके सच्चरित्र बनने की सम्भावना बनती है ।
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३. सद्गुणी और सदाचारी मातापिता को अपने शिशु
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को चरित्रवान बनाने हेतु प्रथम आहारविहार की ओर ध्यान
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देना चाहिये । सात्तिक आहारविहार से सद्गुर्णों की रक्षा
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होती है ।
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४. अच्छी कहानियाँ, लोरियाँ, गीत, चित्र आदि
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सहायक बन सकते हैं ।
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५. स्तोत्र, मन्त्र, श्लोक, सुभाषित अधिकतम मात्रा
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भारतीय शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप
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में कण्ठस्थ करने की यह उचित आयु है। तत्काल
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वाणीशुद्धि के रूप में और बड़ी आयु में मनःशुद्धि के लिये
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इसका उपयोग हो सकता है ।
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६. दान देना, पशु पक्षी को खिलाना, वृक्ष को पानी
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देना आदि सदाचार के काम प्रत्यक्ष करना भी आवश्यक
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है।
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इस प्रकार सद्गुण और सदाचार हेतु अनेक उपाय
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किये जा सकते हैं परन्तु मातापिता के पुण्य, उनका स्वयं
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का चरित्र और शिशु के पूर्वजन्म के संस्कार ही शिशु को
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सदूगुणी और सदाचारी बनाते हैं ।
      
== मातृहस्तेन भोजनम्‌ ==
 
== मातृहस्तेन भोजनम्‌ ==
शिशु के विकास हेतु सबसे बड़ी आवश्यकता है
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शिशु के विकास हेतु सबसे बड़ी आवश्यकता है माता के हाथ से भोजन । यह एक प्रतीक है जो कहता है कि शिशु की सबसे बड़ी आवश्यकता है प्रेम । लाड और प्यार उसके साथ व्यवहार की प्रथम शर्त है । उसके साथ कठोर व्यवहार, डाँट, ताने, वक़वाणी, दण्डवर्जित हैं । किसी बात का निषेध, किसी कार्य में अवरोध, जबरदस्ती वर्जित हैं । उल्टे उसका कहना मानना, उसकी आज्ञा का पालन करना, उसके अनुकूल बनना आवश्यकता है । यह बड़ों की परीक्षा है । जो इस परीक्षा में उत्तीर्ण होते हैं उन्हें अच्छी सन्तानों के मातापिता बनने का भाग्य प्राप्त होता है।
 
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माता के हाथ से भोजन । यह एक प्रतीक है जो कहता है
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कि शिशु की सबसे बड़ी आवश्यकता है प्रेम । लाड और
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प्यार उसके साथ व्यवहार की प्रथम शर्त है । उसके साथ
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कठोर व्यवहार, डाँट, ताने, वक़वाणी, दण्डवर्जित हैं ।
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किसी बात का निषेध, किसी कार्य में अवरोध, जबरदस्ती
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वर्जित हैं । उल्टे उसका कहना मानना, उसकी आज्ञा का
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पालन करना, उसके अनुकूल बनना आवश्यकता है । यह
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बड़ों की परीक्षा है । जो इस परीक्षा में उत्तीर्ण होते हैं उन्हें
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अच्छी सन्तानों के मातापिता बनने का भाग्य प्राप्त होता
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है।
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इस प्रकार मनुष्य की आजीवन शिक्षा का प्रथम चरण
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घर में होता है । पाँच वर्ष के बाद विद्यालय में जाकर
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उसका अध्ययन शुरू होता है उसके लिये यह मूल्यवान
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पूर्वतैयारी है । यह पढाई यदि ठीक नहीं हुई तो आगे के
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अध्ययन के लिये बाधा निर्माण होती है । इसलिये कहा
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गया है कि कुट्म्ब ही प्रथम पाठशाला है । इस पाठशाला
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का कोई विकल्प नहीं है । इसी प्रकार प्रथम गुरु माता का
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भी कोई विकल्प नहीं है। जिन्हें इस शिक्षक से
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शिशुअवस्था में aera में अच्छी शिक्षा मिलती है वे
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भाग्यवान हैं । अन्यथा पाँच वर्ष तो किसी भी प्रकार से
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बीत ही जाते हैं और व्यक्ति अशिक्षित रह जाता है । इसकी
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भरपाई भी आगे जाकर नहीं हो सकती ।
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इस प्रकार मनुष्य की आजीवन शिक्षा का प्रथम चरण घर में होता है । पाँच वर्ष के बाद विद्यालय में जाकर उसका अध्ययन शुरू होता है उसके लिये यह मूल्यवान पूर्वतैयारी है । यह पढाई यदि ठीक नहीं हुई तो आगे के अध्ययन के लिये बाधा निर्माण होती है । इसलिये कहा गया है कि कुट्म्ब ही प्रथम पाठशाला है । इस पाठशाला का कोई विकल्प नहीं है । इसी प्रकार प्रथम गुरु माता का भी कोई विकल्प नहीं है। जिन्हें इस शिक्षक से शिशुअवस्था में अच्छी शिक्षा मिलती है वे भाग्यवान हैं । अन्यथा पाँच वर्ष तो किसी भी प्रकार से बीत ही जाते हैं और व्यक्ति अशिक्षित रह जाता है । इसकी भरपाई भी आगे जाकर नहीं हो सकती ।
    
==References==
 
==References==

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