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== गर्भावस्‍था ==
 
== गर्भावस्‍था ==
जीवन की यात्रा आरम्भ हुई । यह यात्रा माता के साथ साथ और माता के सहारे चलती है। ये प्रारम्भ के दिन अत्यन्त संस्कारक्षम होते हैं। उसका शारीरिक पिण्ड तो अभी बना नहीं है। अभी तो वह कलल, बुद्बुद, भ्रूण जैसी अवस्थाओं में से गुजरकर चार मास में गर्भ बनता है। इसलिये सीखने के उसके करण सक्रिय होने की सम्भावना नहीं है। उसके अन्तःकरण में भी अभी शेष तीन तो अक्रिय हैं, अप्रकट हैं परन्तु चित्त सर्वाधित सक्रिय है। वह तो गर्भाधान से ही सक्रिय है। उसकी सक्रियता सर्वाधिक है। भावी जीवन में कभी भी उसका चित्त इतना सक्रिय और संस्कारक्षम कभी नहीं रहेगा जितना अभी है। इसलिये वह संस्कार ग्रहण करता ही रहता है । बाहर के जगत में उसके आसपास जो हो रहा है उसके संस्कार वह माता के माध्यम से ग्रहण करता है। माता के खानपान, वेशभूषा, दिनचर्या, विचार, भावनायें, दृष्टिकोण, मनःस्थिति आदि को वह संस्कारों के रूप में ग्रहण करता रहता है और अपने पूर्वजन्म के संस्कारों का जो पुंज उसके पास है उसके साथ इन प्राप्त संस्कारों का संयोजन होता रहता है। इससे उसका चरित्र बनता है। संस्कारों के इन दो आयामों के साथ गर्भाधान के समय में प्राप्त आनुवंशिक संस्कारों का पुंज भी है। अतः पूर्वजन्म के, आनुवंशिक और माता के माध्यम से होने वाले जगत के संस्कारों का संयोजन होते होते उसका चरित्र विकसित होता है। पूर्वजन्म से और आनुवंशिक संस्कारों का स्वरूप तो निश्चित हो ही गया है। अब माता के माध्यम से होने वाले जगत‌ के संस्कारों का ही विषय शेष है । इसलिये शास्त्र तथा परम्परा दोनों कहते हैं कि गर्भस्थ शिशु के लिये माता को अपने आहारविहार की तथा आसपास के लोगों को माता की शारीरिक और मानसिक सुरक्षा की अत्यधिक चिन्ता करनी चाहिये । गर्भअवस्था माता पर ही निर्भर है और जीवन के इस प्रथम चरण में वह माता से ही संस्कार ग्रहण करता है इसलिये कहा गया है , “माता प्रथमो गुरु: - माता प्रथम गुरु है । जैसा गुरु वैसा विद्यार्थी । भावी जीवन की विकास की सारी सम्भावनायें अनुकूल आहारविहार से खिल भी सकती है और प्रतिकूल आहारविहार से कुण्ठित भी हो सकती हैं।
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जीवन की यात्रा आरम्भ हुई । यह यात्रा माता के साथ साथ और माता के सहारे चलती है। ये प्रारम्भ के दिन अत्यन्त संस्कारक्षम होते हैं। उसका शारीरिक पिण्ड तो अभी बना नहीं है। अभी तो वह कलल, बुद्बुद, भ्रूण जैसी अवस्थाओं में से गुजरकर चार मास में गर्भ बनता है। इसलिये सीखने के उसके करण सक्रिय होने की सम्भावना नहीं है। उसके अन्तःकरण में भी अभी शेष तीन तो अक्रिय हैं, अप्रकट हैं परन्तु चित्त सर्वाधित सक्रिय है। वह तो गर्भाधान से ही सक्रिय है। उसकी सक्रियता सर्वाधिक है। भावी जीवन में कभी भी उसका चित्त इतना सक्रिय और संस्कारक्षम कभी नहीं रहेगा जितना अभी है। इसलिये वह संस्कार ग्रहण करता ही रहता है । बाहर के जगत में उसके आसपास जो हो रहा है उसके संस्कार वह माता के माध्यम से ग्रहण करता है। माता के खानपान, वेशभूषा, दिनचर्या, विचार, भावनायें, दृष्टिकोण, मनःस्थिति आदि को वह संस्कारों के रूप में ग्रहण करता रहता है और अपने पूर्वजन्म के संस्कारों का जो पुंज उसके पास है उसके साथ इन प्राप्त संस्कारों का संयोजन होता रहता है। इससे उसका चरित्र बनता है। संस्कारों के इन दो आयामों के साथ गर्भाधान के समय में प्राप्त आनुवंशिक संस्कारों का पुंज भी है। अतः पूर्वजन्म के, आनुवंशिक और माता के माध्यम से होने वाले जगत के संस्कारों का संयोजन होते होते उसका चरित्र विकसित होता है। पूर्वजन्म से और आनुवंशिक संस्कारों का स्वरूप तो निश्चित हो ही गया है। अब माता के माध्यम से होने वाले जगत‌ के संस्कारों का ही विषय शेष है । इसलिये शास्त्र तथा परम्परा दोनों कहते हैं कि गर्भस्थ शिशु के लिये माता को अपने आहारविहार की तथा आसपास के लोगोंं को माता की शारीरिक और मानसिक सुरक्षा की अत्यधिक चिन्ता करनी चाहिये । गर्भअवस्था माता पर ही निर्भर है और जीवन के इस प्रथम चरण में वह माता से ही संस्कार ग्रहण करता है इसलिये कहा गया है , “माता प्रथमो गुरु: - माता प्रथम गुरु है । जैसा गुरु वैसा विद्यार्थी । भावी जीवन की विकास की सारी सम्भावनायें अनुकूल आहारविहार से खिल भी सकती है और प्रतिकूल आहारविहार से कुण्ठित भी हो सकती हैं।
    
गर्भावस्‍था के नौ मास के दौरान पुंसवन और सीमन्तोन्नयन नामक दो संस्कार भी किये जाते हैं। ये भी विकास के लिये अनुकूल हैं। गर्भावस्‍था के संस्कारों के विषय में भी शास्त्रों में और लोक में बहुत कहा गया है। इन संस्कारों के उदाहरण प्राचीन काल के भी मिलते है और अर्वाचीन के भी, भारत के भी मिलते हैं और अन्य देशों के भी। विश्व के सभी जानकार और समझदार लोग तो इस तथ्य से अनभिज्ञ नहीं है परन्तु इसकी शिक्षा की गम्भीरतापूर्वक व्यवस्था नहीं करेंगे तब तक होनेवाले माता पिता आज्ञानी रहेंगे ही। इसका परिणाम भावी पर भी होगा।
 
गर्भावस्‍था के नौ मास के दौरान पुंसवन और सीमन्तोन्नयन नामक दो संस्कार भी किये जाते हैं। ये भी विकास के लिये अनुकूल हैं। गर्भावस्‍था के संस्कारों के विषय में भी शास्त्रों में और लोक में बहुत कहा गया है। इन संस्कारों के उदाहरण प्राचीन काल के भी मिलते है और अर्वाचीन के भी, भारत के भी मिलते हैं और अन्य देशों के भी। विश्व के सभी जानकार और समझदार लोग तो इस तथ्य से अनभिज्ञ नहीं है परन्तु इसकी शिक्षा की गम्भीरतापूर्वक व्यवस्था नहीं करेंगे तब तक होनेवाले माता पिता आज्ञानी रहेंगे ही। इसका परिणाम भावी पर भी होगा।
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इस अवस्था में चित्त तो सक्रिय होता ही है, साथ ही ज्ञानेन्द्रियाँ भी सक्रिय होकर अनुभव प्राप्त करती हैं । शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध के उसके अनुभव शुभ होना आवश्यक है । उसी प्रकार चित्त पर पड़नेवाले संस्कार भी शुभ होना आवश्यक है । जीवन में सुन्दर असुन्दर, शुभ और अशुभ दोनों अनुभव होते हैं । दोनों ग्रहण करने के अवसर आते ही हैं । दोनों को सहना भी पड़ता है । परन्तु प्रारंभ के अनुभव सुन्दर और शुभ होना इसलिये आवश्यक है क्योंकि इससे उसका जीवनविषयक दृष्टिकोण सकारात्मक बनता है । जीवन और जगत्‌ अच्छे हैं यह उसके विचार और व्यवहार का आधार बनता है । इस दृष्टि से उसका खानपान, उसके खानेपीने के पात्र, उसका बिस्तर, उसके कपड़े, आभूषण और खिलौने आदि का चयन ज्ञानेन्द्रियों की अनुभवक्षमता को ध्यान में रखकर करने चाहिये । सूती या रेशमी वस्त्र, देशी गाय के घी-दूध-मक्खन, लकड़ी के खिलौने, सोने-चाँदी और रत्नों के आभूषण आदि का प्रावधान करना चाहिये । उसी प्रकार मधुर संगीत, उत्तम दृश्य, मधुर गन्ध आदि का भी अनुभव आवश्यक है । ज्ञानेन्द्रियाँ ज्ञानार्जन प्रक्रिया में महत्त्वपूर्ण स्थान रखती हैं । साथ ही बाह्य जगत्‌ के साथ जुड़ने का ये एकमात्र माध्यम हैं । जगत का परिचय और ज्ञानार्जन की क्षमता दोनों दृष्टि से इन अनुभवों का विचार करना चाहिये ।
 
इस अवस्था में चित्त तो सक्रिय होता ही है, साथ ही ज्ञानेन्द्रियाँ भी सक्रिय होकर अनुभव प्राप्त करती हैं । शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध के उसके अनुभव शुभ होना आवश्यक है । उसी प्रकार चित्त पर पड़नेवाले संस्कार भी शुभ होना आवश्यक है । जीवन में सुन्दर असुन्दर, शुभ और अशुभ दोनों अनुभव होते हैं । दोनों ग्रहण करने के अवसर आते ही हैं । दोनों को सहना भी पड़ता है । परन्तु प्रारंभ के अनुभव सुन्दर और शुभ होना इसलिये आवश्यक है क्योंकि इससे उसका जीवनविषयक दृष्टिकोण सकारात्मक बनता है । जीवन और जगत्‌ अच्छे हैं यह उसके विचार और व्यवहार का आधार बनता है । इस दृष्टि से उसका खानपान, उसके खानेपीने के पात्र, उसका बिस्तर, उसके कपड़े, आभूषण और खिलौने आदि का चयन ज्ञानेन्द्रियों की अनुभवक्षमता को ध्यान में रखकर करने चाहिये । सूती या रेशमी वस्त्र, देशी गाय के घी-दूध-मक्खन, लकड़ी के खिलौने, सोने-चाँदी और रत्नों के आभूषण आदि का प्रावधान करना चाहिये । उसी प्रकार मधुर संगीत, उत्तम दृश्य, मधुर गन्ध आदि का भी अनुभव आवश्यक है । ज्ञानेन्द्रियाँ ज्ञानार्जन प्रक्रिया में महत्त्वपूर्ण स्थान रखती हैं । साथ ही बाह्य जगत्‌ के साथ जुड़ने का ये एकमात्र माध्यम हैं । जगत का परिचय और ज्ञानार्जन की क्षमता दोनों दृष्टि से इन अनुभवों का विचार करना चाहिये ।
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उसके मानसिक अनुभव मन से नहीं अपितु चित्त से ग्रहण किये जाते हैं। उसे भाषा की आवश्यकता नहीं होती । आसपास के लोगों के मनोभाव, विचारप्रक्रिया, एकदूसरे के प्रति व्यवहार शिशु के प्रति भाव आदि को वह यथावत्‌ ग्रहण करता है, ग्रहण करने में वह कोई चूक नहीं करता। इस अवस्था में उसके साथ के वार्तालाप, कहानी, लोरी, टी.वी. के दृश्य आदि से वह प्रेरणा ग्रहण करता है। उसका मनसिक पिण्ड बनाने में इन सबका योगदान होता है। इस अवस्था में कठोरता का, निषेध का, अस्वीकार का अनुभव उचित नहीं होता। इसलिये शिशु को किसी बातकी मनाही करने, डाँटने, दण्ड देने का निषेध है। उसे स्वीकृति चाहिये। इस मामले में बड़ों की बहुत गलतियाँ होती हैं। ये गलतियाँ अज्ञान और असावधानी के कारण होती हैं परन्तु उनका दुष्परिणाम शिशु पर होता है ।
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उसके मानसिक अनुभव मन से नहीं अपितु चित्त से ग्रहण किये जाते हैं। उसे भाषा की आवश्यकता नहीं होती । आसपास के लोगोंं के मनोभाव, विचारप्रक्रिया, एकदूसरे के प्रति व्यवहार शिशु के प्रति भाव आदि को वह यथावत्‌ ग्रहण करता है, ग्रहण करने में वह कोई चूक नहीं करता। इस अवस्था में उसके साथ के वार्तालाप, कहानी, लोरी, टी.वी. के दृश्य आदि से वह प्रेरणा ग्रहण करता है। उसका मनसिक पिण्ड बनाने में इन सबका योगदान होता है। इस अवस्था में कठोरता का, निषेध का, अस्वीकार का अनुभव उचित नहीं होता। इसलिये शिशु को किसी बातकी मनाही करने, डाँटने, दण्ड देने का निषेध है। उसे स्वीकृति चाहिये। इस मामले में बड़ों की बहुत गलतियाँ होती हैं। ये गलतियाँ अज्ञान और असावधानी के कारण होती हैं परन्तु उनका दुष्परिणाम शिशु पर होता है ।
    
== जीवन का घनिष्ठतम अनुभव ==
 
== जीवन का घनिष्ठतम अनुभव ==
शिशु जीवन का घनिष्ठतम अनुभव प्राप्त करना चाहता है । यह उसकी अन्तःकरण की प्रेरणा होती है । उसके विकास के लिये यह आवश्यक है । विकास की इच्छा भी उसके अन्तःकरण में सहज ही होती है । उसी प्रेरणा से विकास के लिये आवश्यक पुरुषार्थ भी वह करता है । इस पुरुषार्थ का स्वरूप कैसा है ? पहले पहले वह वस्तुओं को पकड़कर मुँह में डालता है । आगे चलकर वस्तुओं को पीटता है, फैंकता है, मरोड़ता है, तोड़ता है । ये सब बड़ों की शब्दावली के अंग है । शिशु तो स्वाद, ध्वनि, अन्तरंग  आदि की परख करने के लिये प्रयोग करता है । सबकुछ स्वयं ही करना चाहता है । वह उत्तम विद्यार्थी है । उसकी कर्मेन्द्रियाँ सक्रिय होने लगती है । वह मिट्टी, पानी, रेत आदि से आकर्षित होता है । उससे खेलना उसे पसन्द है । चढना, उतरना, छलाँगे लगाना, चीखना, चिल्लाना आदि उसके सीखने के उपाय हैं। वह अनुकरणशील है । बड़े जो काम करते हैं वे सब उसे करने होते हैं । कपड़े धोना, अनाज साफ करना, रोटी बेलना, झाड़ू लगाना, अखबार पढ़ना, लिखना, फोन उठाना, दरवाजे की घण्टी बजी तो दरवाजा खोलना आदि सब उसे करना होता है । यह जिज्ञासा है जो ज्ञान ग्रहण करने का प्रथम सोपान है। यदि यह सब उसे करने दिया और बड़ों ने उसे सहायता की और उचित पद्धति से निखारा तो दोनों पीढ़ियों के लिये यह बहुत लाभकारी होता है । वह अपने आसपास के लोगों के साथ जुड़ता है, घर से जुड़ता है और जगत से जुड़ता है । समष्टित और सृष्टिगत विकास के लिये यह आवश्यक नींव है ।
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शिशु जीवन का घनिष्ठतम अनुभव प्राप्त करना चाहता है । यह उसकी अन्तःकरण की प्रेरणा होती है । उसके विकास के लिये यह आवश्यक है । विकास की इच्छा भी उसके अन्तःकरण में सहज ही होती है । उसी प्रेरणा से विकास के लिये आवश्यक पुरुषार्थ भी वह करता है । इस पुरुषार्थ का स्वरूप कैसा है ? पहले पहले वह वस्तुओं को पकड़कर मुँह में डालता है । आगे चलकर वस्तुओं को पीटता है, फैंकता है, मरोड़ता है, तोड़ता है । ये सब बड़ों की शब्दावली के अंग है । शिशु तो स्वाद, ध्वनि, अन्तरंग  आदि की परख करने के लिये प्रयोग करता है । सबकुछ स्वयं ही करना चाहता है । वह उत्तम विद्यार्थी है । उसकी कर्मेन्द्रियाँ सक्रिय होने लगती है । वह मिट्टी, पानी, रेत आदि से आकर्षित होता है । उससे खेलना उसे पसन्द है । चढना, उतरना, छलाँगे लगाना, चीखना, चिल्लाना आदि उसके सीखने के उपाय हैं। वह अनुकरणशील है । बड़े जो काम करते हैं वे सब उसे करने होते हैं । कपड़े धोना, अनाज साफ करना, रोटी बेलना, झाड़ू लगाना, अखबार पढ़ना, लिखना, फोन उठाना, दरवाजे की घण्टी बजी तो दरवाजा खोलना आदि सब उसे करना होता है । यह जिज्ञासा है जो ज्ञान ग्रहण करने का प्रथम सोपान है। यदि यह सब उसे करने दिया और बड़ों ने उसे सहायता की और उचित पद्धति से निखारा तो दोनों पीढ़ियों के लिये यह बहुत लाभकारी होता है । वह अपने आसपास के लोगोंं के साथ जुड़ता है, घर से जुड़ता है और जगत से जुड़ता है । समष्टित और सृष्टिगत विकास के लिये यह आवश्यक नींव है ।
    
== भाषाविकास ==
 
== भाषाविकास ==
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== सद्गुण और सदाचार ==
 
== सद्गुण और सदाचार ==
# घर के लोगों का चरित्र जैसा होगा वैसा ही बालक का भी बनेगा । घर के लोग दुश्वरित्र हों और बालक को सदूगुणी बनाने का विशेष कार्यक्रम बनाया जाय तो वह यशस्वी नहीं होता ।
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# घर के लोगोंं का चरित्र जैसा होगा वैसा ही बालक का भी बनेगा । घर के लोग दुश्वरित्र हों और बालक को सदूगुणी बनाने का विशेष कार्यक्रम बनाया जाय तो वह यशस्वी नहीं होता ।
 
# संयोगवश दुश्चरित्र मातापिता के घर में भी पूर्वजन्म के अच्छे संस्कार लेकर शिशु ने जन्म लिया है तो उसके सच्चरित्र बनने की सम्भावना बनती है ।
 
# संयोगवश दुश्चरित्र मातापिता के घर में भी पूर्वजन्म के अच्छे संस्कार लेकर शिशु ने जन्म लिया है तो उसके सच्चरित्र बनने की सम्भावना बनती है ।
 
# सद्गुणी और सदाचारी मातापिता को अपने शिशु को चरित्रवान बनाने हेतु प्रथम आहारविहार की ओर ध्यान देना चाहिये । सात्विक आहारविहार से सद्गुर्णों की रक्षा होती है ।
 
# सद्गुणी और सदाचारी मातापिता को अपने शिशु को चरित्रवान बनाने हेतु प्रथम आहारविहार की ओर ध्यान देना चाहिये । सात्विक आहारविहार से सद्गुर्णों की रक्षा होती है ।

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