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=== प्रश्न १. आज के बच्चोंं पर पीअर प्रेशर बहुत रहता है । इस प्रेशर को दूर करने के लिये क्या करें ? ===
 
=== प्रश्न १. आज के बच्चोंं पर पीअर प्रेशर बहुत रहता है । इस प्रेशर को दूर करने के लिये क्या करें ? ===
उत्तर समान आयु के साथ पढ़ने वाले बच्चोंं को पीअर्स अर्थात्‌ समवयस्क बच्चे कहते हैं । बच्चे जब साथ खेलते हैं, साथ साथ विद्यालय आते जाते हैं, साथ साथ पढ़ ते हैं तब एक दूसरे की वस्तुरयें देखते हैं । तब उनके मन में सहज आकर्षण निर्माण होता है । जिसके प्रति आकर्षण निर्माण होता है वह वस्तु कोई अधिक सुन्दर या मूल्यवान होती है ऐसा नहीं है परन्तु क्षणिक आकर्षण होना मन का स्वभाव होता है । आकर्षण हुआ कि वह चाहिये ऐसा लगना भी मन का स्वभाव है । इस स्थिति में जिस वस्तु की इच्छा हुई वह सब प्राप्त होना सदा सम्भव नहीं होता । वह इष्ट भी नहीं होता । वह आवश्यक भी नहीं होता । उस समय स्थिति को स्वाभाविक समझना उचित है । उचित समय पर बालक को समझाना उचित है । उचित समय पर बालक को समझाना चाहिये कि मन में आती है वह हर वस्तु प्राप्त करना सदा ठीक नहीं होता । बच्चा मन की चंचलता के कारण जो माँगता है वह देना उचित नहीं होता । हम दे नहीं सकते ऐसा अपराध बोध भी उचित नहीं । उसे परावृत करना ही उचित है और और बिना दुःखी हुए, बिना झुंझलाये यह करना चाहिये । दूसरों के पास है वह हर वस्तु न तो लेने लायक होती है न लेना उचित है यह बात ठीक से मन में बिठाई जानी चाहिये । यदि ऐसा नहीं किया तो यह बात आगे जाकर भी परेशान करती है । तरुण विद्यार्थी भी मित्र इन्जिनीयरींग में प्रवेश लेते हैं इसलिये इन्जिनीयरिंग पढना चाहते हैं । आगे चलकर लोग कहते हैं इसलिये अपना भी वैसा ही मत बना लेते हैं । वस्तुसे पढाई तक और पढाई से अभिप्रायों तक पिअर प्रेशर ही चलता है, स्वतन्त्र बुद्धि का विकास ही नहीं होता । इसलिये समय रहते अपने बच्चोंं को उचित पद्धति से समझाना अच्छा है ।
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'''उत्तर''' समान आयु के साथ पढ़ने वाले बच्चोंं को पीअर्स अर्थात्‌ समवयस्क बच्चे कहते हैं । बच्चे जब साथ खेलते हैं, साथ साथ विद्यालय आते जाते हैं, साथ साथ पढ़ ते हैं तब एक दूसरे की वस्तुरयें देखते हैं । तब उनके मन में सहज आकर्षण निर्माण होता है । जिसके प्रति आकर्षण निर्माण होता है वह वस्तु कोई अधिक सुन्दर या मूल्यवान होती है ऐसा नहीं है परन्तु क्षणिक आकर्षण होना मन का स्वभाव होता है । आकर्षण हुआ कि वह चाहिये ऐसा लगना भी मन का स्वभाव है । इस स्थिति में जिस वस्तु की इच्छा हुई वह सब प्राप्त होना सदा सम्भव नहीं होता । वह इष्ट भी नहीं होता । वह आवश्यक भी नहीं होता । उस समय स्थिति को स्वाभाविक समझना उचित है । उचित समय पर बालक को समझाना उचित है । उचित समय पर बालक को समझाना चाहिये कि मन में आती है वह हर वस्तु प्राप्त करना सदा ठीक नहीं होता । बच्चा मन की चंचलता के कारण जो माँगता है वह देना उचित नहीं होता । हम दे नहीं सकते ऐसा अपराध बोध भी उचित नहीं । उसे परावृत करना ही उचित है और और बिना दुःखी हुए, बिना झुंझलाये यह करना चाहिये । दूसरों के पास है वह हर वस्तु न तो लेने लायक होती है न लेना उचित है यह बात ठीक से मन में बिठाई जानी चाहिये । यदि ऐसा नहीं किया तो यह बात आगे जाकर भी परेशान करती है । तरुण विद्यार्थी भी मित्र इन्जिनीयरींग में प्रवेश लेते हैं इसलिये इन्जिनीयरिंग पढना चाहते हैं । आगे चलकर लोग कहते हैं इसलिये अपना भी वैसा ही मत बना लेते हैं । वस्तुसे पढाई तक और पढाई से अभिप्रायों तक पिअर प्रेशर ही चलता है, स्वतन्त्र बुद्धि का विकास ही नहीं होता । इसलिये समय रहते अपने बच्चोंं को उचित पद्धति से समझाना अच्छा है ।
    
=== प्रश्न २. बच्चे अनेक अनावश्यक वस्तुओं के लिये जिद करते हैं । क्या करें ? जिद पूरी करें या न करें ? ===
 
=== प्रश्न २. बच्चे अनेक अनावश्यक वस्तुओं के लिये जिद करते हैं । क्या करें ? जिद पूरी करें या न करें ? ===
उत्तर एक क्षण में समझ लेना चाहिये कि वह वस्तु देनी है कि नहीं । यदि हमारा मत बनता है कि नहीं देनी चाहिये तो जिद पूरी नहीं करनी चाहिये ।
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'''उत्तर''' एक क्षण में समझ लेना चाहिये कि वह वस्तु देनी है कि नहीं । यदि हमारा मत बनता है कि नहीं देनी चाहिये तो जिद पूरी नहीं करनी चाहिये ।
    
दो तीन बातों का विचार कर लेना चाहिये ।
 
दो तीन बातों का विचार कर लेना चाहिये ।
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=== प्रश्न ५. अभिभावक आग्रह करते हैं कि हम गृहकार्य जाँचें, गलतियों का सुधार करें । कक्षा में यदि साठ विद्यार्थी हैं तो यह कैसे हो सकता है ? यह करेंगे तो पढायेंगे कब ? (एक प्राथमिक विद्यालय के शिक्षक का प्रश्न) ===
 
=== प्रश्न ५. अभिभावक आग्रह करते हैं कि हम गृहकार्य जाँचें, गलतियों का सुधार करें । कक्षा में यदि साठ विद्यार्थी हैं तो यह कैसे हो सकता है ? यह करेंगे तो पढायेंगे कब ? (एक प्राथमिक विद्यालय के शिक्षक का प्रश्न) ===
उत्तर यह निजी प्राथमिक विद्यालय के शिक्षक का प्रश्न हो सकता है जहाँ ऊँचा शुल्क देकर विद्यार्थी पढने के लिये आते हैं । संचालक शिक्षक और अभिभावकों में परस्पर अविश्वास और ऊँचा शुल्क देने के परिणाम स्वरूप अपेक्षा करने का अधिकार ये दो बातें इसका मूल है । शिक्षकों के लिये अपनी विश्वसनीयता निर्माण करना प्रथम बात है ।दूसरा, अभिभावकों के साथ बैठकर इस बात पर चर्चा हो कि यह कैसे सम्भव है । उनकी अपेक्षा कितनी अव्यावहारिक है यह अभिभावकों को बताना चाहिये । संचालकों ने शिक्षकों का पक्ष लेना चाहिये । यदि यह नहीं किया तो अभिभावकों को और संचालकों को अच्छे शिक्षक नहीं मिलेंगे । अभिभावकों की गृहकार्य जाँचने की अपेक्षा तो पूर्ण होगी परन्तु अच्छी शिक्षा नहीं होगी । अतः संचालक, अभिभावक और शिक्षक इन तीनों ने समझदारी से काम लेना चाहिये । शिक्षक की भूमिका और दायित्व इसमें मुख्य है । शिक्षा को औपचारिकता मात्र नहीं बनने देना है । इससे शिक्षा का और समाज का नुकसान होगा ।
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'''उत्तर''' यह निजी प्राथमिक विद्यालय के शिक्षक का प्रश्न हो सकता है जहाँ ऊँचा शुल्क देकर विद्यार्थी पढने के लिये आते हैं । संचालक शिक्षक और अभिभावकों में परस्पर अविश्वास और ऊँचा शुल्क देने के परिणाम स्वरूप अपेक्षा करने का अधिकार ये दो बातें इसका मूल है । शिक्षकों के लिये अपनी विश्वसनीयता निर्माण करना प्रथम बात है ।दूसरा, अभिभावकों के साथ बैठकर इस बात पर चर्चा हो कि यह कैसे सम्भव है । उनकी अपेक्षा कितनी अव्यावहारिक है यह अभिभावकों को बताना चाहिये । संचालकों ने शिक्षकों का पक्ष लेना चाहिये । यदि यह नहीं किया तो अभिभावकों को और संचालकों को अच्छे शिक्षक नहीं मिलेंगे । अभिभावकों की गृहकार्य जाँचने की अपेक्षा तो पूर्ण होगी परन्तु अच्छी शिक्षा नहीं होगी । अतः संचालक, अभिभावक और शिक्षक इन तीनों ने समझदारी से काम लेना चाहिये । शिक्षक की भूमिका और दायित्व इसमें मुख्य है । शिक्षा को औपचारिकता मात्र नहीं बनने देना है । इससे शिक्षा का और समाज का नुकसान होगा ।
    
=== प्रश्न ६. शिक्षा की दुरवस्था के लिये सब शिक्षक को ही दोषी मानते हैं । क्या हमारे अलावा और कोई दोषी नहीं है ? (एक शिक्षक का प्रश्न) ===
 
=== प्रश्न ६. शिक्षा की दुरवस्था के लिये सब शिक्षक को ही दोषी मानते हैं । क्या हमारे अलावा और कोई दोषी नहीं है ? (एक शिक्षक का प्रश्न) ===
उत्तर इस स्थिति के मूल में जायें तो कहना होगा कि सरकार मुख्य रूप से दोषी है । अंग्रेजों ने शिक्षा का सरकारीकरण किया । यह भारत स्वतन्त्र हुआ उससे पूर्व की बात है । जब भारत स्वतन्त्र हुआ तब सरकारीकरण को दूर करना चाहिये था । उस समय किया होता तो सम्भव हो भी जाता परन्तु अंग्रेजों के मनोवैज्ञानिक प्रभाव के कारण ऐसा नहीं हुआ । धीरे धीरे परिस्थिति ऐसी हुई कि अब सरकार उसे मुक्त करना चाहे और शिक्षकों को देना चाहे तो शिक्षक ही दायित्व लेने के लिये तैयार नहीं है । सरकार किसके हाथ में दे ?
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'''उत्तर''' इस स्थिति के मूल में जायें तो कहना होगा कि सरकार मुख्य रूप से दोषी है । अंग्रेजों ने शिक्षा का सरकारीकरण किया । यह भारत स्वतन्त्र हुआ उससे पूर्व की बात है । जब भारत स्वतन्त्र हुआ तब सरकारीकरण को दूर करना चाहिये था । उस समय किया होता तो सम्भव हो भी जाता परन्तु अंग्रेजों के मनोवैज्ञानिक प्रभाव के कारण ऐसा नहीं हुआ । धीरे धीरे परिस्थिति ऐसी हुई कि अब सरकार उसे मुक्त करना चाहे और शिक्षकों को देना चाहे तो शिक्षक ही दायित्व लेने के लिये तैयार नहीं है । सरकार किसके हाथ में दे ?
    
दोषी सब हैं । परन्तु शिक्षक को दायित्व लेना चाहिये तो भी वह लेता नहीं है और शिक्षक के अलावा और किसी ने लिया तो शिक्षा की दुरवस्था बदल नहीं सकती । इस स्थिति में शिक्षक नहीं तो और कौन दोषी है ?
 
दोषी सब हैं । परन्तु शिक्षक को दायित्व लेना चाहिये तो भी वह लेता नहीं है और शिक्षक के अलावा और किसी ने लिया तो शिक्षा की दुरवस्था बदल नहीं सकती । इस स्थिति में शिक्षक नहीं तो और कौन दोषी है ?
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=== प्रश्न १०. पढाई पूरी होने के बाद विद्यार्थियों को नौकरी देने की जिम्मेदारी सरकार की है । वह यदि अपनी जिम्मेदारी पूर्ण न करें तो कहाँ शिकायत कर सकते हैं ? ===
 
=== प्रश्न १०. पढाई पूरी होने के बाद विद्यार्थियों को नौकरी देने की जिम्मेदारी सरकार की है । वह यदि अपनी जिम्मेदारी पूर्ण न करें तो कहाँ शिकायत कर सकते हैं ? ===
उत्तर समझदारी पूर्वक किसी भी प्रश्न का विचार करना हरेक की जिम्मेदारी है । हरेक को नौकरी देने की जिम्मेदारी सरकार की नहीं है । सरकार यदि ऐसा करती है तो वह केवल चुनावी घोषणा है जो मिथ्या है । सरकार भी यह जानती है । थोडा विचार करेंगे तो ध्यान में आयेगा कि हम यन्त्रों का अधिकाधिक मात्रा में प्रयोग करते जायेंगे तो मनुष्य के लिये काम ही नहीं रहेगा । फिर नौकरियाँ ही नहीं होंगी । इस स्थिति में सरकार तो क्या कोई भी नौकरी नहीं दे सकता । हाँ, सरकार बेरोजगारी भत्ता दे सकती है परन्तु वह नौकरी नहीं, भीख होगी । इससे तो दुर्गति होगी ।
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'''उत्तर''' समझदारी पूर्वक किसी भी प्रश्न का विचार करना हरेक की जिम्मेदारी है । हरेक को नौकरी देने की जिम्मेदारी सरकार की नहीं है । सरकार यदि ऐसा करती है तो वह केवल चुनावी घोषणा है जो मिथ्या है । सरकार भी यह जानती है । थोडा विचार करेंगे तो ध्यान में आयेगा कि हम यन्त्रों का अधिकाधिक मात्रा में प्रयोग करते जायेंगे तो मनुष्य के लिये काम ही नहीं रहेगा । फिर नौकरियाँ ही नहीं होंगी । इस स्थिति में सरकार तो क्या कोई भी नौकरी नहीं दे सकता । हाँ, सरकार बेरोजगारी भत्ता दे सकती है परन्तु वह नौकरी नहीं, भीख होगी । इससे तो दुर्गति होगी ।
    
हाँ, सरकार की यह जिम्मेदारी अवश्य है कि सबको अर्थार्जन हेतु काम मिले । काम और नोकरी में अन्तर है । प्रथम तो यह समझना चाहिये कि लोग काम नहीं माँग रहे हैं, नौकरी माँग रहे हैं । जिन्हें काम करना है उन्हें काम तो मिल ही जाता है । यदि हम विद्यालयों में और घरों में काम और काम करना सिखाने लगें, स्वमान जाग्रत करें तो सरकार निरपेक्ष अर्थार्जन की अच्छी व्यवस्था देखते ही देखते बन सकती है क्योंकि भारत के रक्त में इस व्यवस्था के संस्कार हैं । नोकरी नहीं मिलना यह संकट नहीं है, बच्चोंं को निरुद्यमी बनाना और काम करने लायक ही नहीं बनाना संकट है । सही समृद्धि तो उद्यमशीलता के साथ रहती है, और रहती ही है ।
 
हाँ, सरकार की यह जिम्मेदारी अवश्य है कि सबको अर्थार्जन हेतु काम मिले । काम और नोकरी में अन्तर है । प्रथम तो यह समझना चाहिये कि लोग काम नहीं माँग रहे हैं, नौकरी माँग रहे हैं । जिन्हें काम करना है उन्हें काम तो मिल ही जाता है । यदि हम विद्यालयों में और घरों में काम और काम करना सिखाने लगें, स्वमान जाग्रत करें तो सरकार निरपेक्ष अर्थार्जन की अच्छी व्यवस्था देखते ही देखते बन सकती है क्योंकि भारत के रक्त में इस व्यवस्था के संस्कार हैं । नोकरी नहीं मिलना यह संकट नहीं है, बच्चोंं को निरुद्यमी बनाना और काम करने लायक ही नहीं बनाना संकट है । सही समृद्धि तो उद्यमशीलता के साथ रहती है, और रहती ही है ।
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=== प्रश्न ११. हम शिक्षकों को पूरा वेतन देते हैं तो भी वे ट्यूशन करते हैं । कभी कभी तो शेयर बाजार में व्यवसाय करते हैं । उनकी नौकरी निश्चित है । उनका कोई कुछ बिगाड नहीं सकता । अब क्या किया जाय ? (एक संचालक का प्रश्न) ===
 
=== प्रश्न ११. हम शिक्षकों को पूरा वेतन देते हैं तो भी वे ट्यूशन करते हैं । कभी कभी तो शेयर बाजार में व्यवसाय करते हैं । उनकी नौकरी निश्चित है । उनका कोई कुछ बिगाड नहीं सकता । अब क्या किया जाय ? (एक संचालक का प्रश्न) ===
उत्तर ऐसा करने वाले शिक्षक आपका प्रश्न सुनकर हँसते होंगे । हमारा कोई कुछ बिगाड नहीं सकता ऐसा कहकर आपको ठेंगा दिखाते होंगे । स्थिति तो आप कहते हैं ऐसी ही है । परन्तु हमने पूरा तन्त्र ही यह सम्भव हो ऐसा बना दिया है । अनेक संचालक भी पूरे वेतन पर हस्ताक्षर करवाकर कम वेतन देते हैं । उनका भी कोई कुछ बिगाड नहीं सकता । अनेक विद्यार्थी खुले आम नकल करके पास हो जाते हैं । उनका भी कोई कुछ बिगाड नहीं सकता । अनेक मन्त्री अनेक प्रकार से भ्रष्टाचार करते हैं । उनका भी कोई कुछ बिगाड नहीं सकता ।
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'''उत्तर''' ऐसा करने वाले शिक्षक आपका प्रश्न सुनकर हँसते होंगे । हमारा कोई कुछ बिगाड नहीं सकता ऐसा कहकर आपको ठेंगा दिखाते होंगे । स्थिति तो आप कहते हैं ऐसी ही है । परन्तु हमने पूरा तन्त्र ही यह सम्भव हो ऐसा बना दिया है । अनेक संचालक भी पूरे वेतन पर हस्ताक्षर करवाकर कम वेतन देते हैं । उनका भी कोई कुछ बिगाड नहीं सकता । अनेक विद्यार्थी खुले आम नकल करके पास हो जाते हैं । उनका भी कोई कुछ बिगाड नहीं सकता । अनेक मन्त्री अनेक प्रकार से भ्रष्टाचार करते हैं । उनका भी कोई कुछ बिगाड नहीं सकता ।
    
सवाल कानून का नहीं है, सवाल नैतिकता का है । अपनी करनी के ये परिणाम हैं । शिक्षा में, राजनीति में, अर्थार्जन में नीति नहीं रहेगी तो यही सब होगा ।
 
सवाल कानून का नहीं है, सवाल नैतिकता का है । अपनी करनी के ये परिणाम हैं । शिक्षा में, राजनीति में, अर्थार्जन में नीति नहीं रहेगी तो यही सब होगा ।
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=== प्रश्न १२. हम अच्छे शिक्षक चाहते हैं । परन्तु उच्चतर माध्यमिक विद्यालयों में गणित और विज्ञान के शिक्षक मिलते नहीं है । क्या उपाय है ? (एक संचालक का प्रश्न) ===
 
=== प्रश्न १२. हम अच्छे शिक्षक चाहते हैं । परन्तु उच्चतर माध्यमिक विद्यालयों में गणित और विज्ञान के शिक्षक मिलते नहीं है । क्या उपाय है ? (एक संचालक का प्रश्न) ===
उत्तर हमने जीवन को अर्थनिष्ठ बना दिया है । जीवन में पैसा ही केन्द्रस्थान में आ गया है । लोगोंं को लगता है कि डॉक्टर, इन्जिनीयर, चार्टर्ड एकाउण्टण्ट, मैनेजर आदि ही बनना चाहिये । इसलिये लोग इतिहास, समाजशास्त्र, भाषा, साहित्य, विज्ञान, गणित जैसे ज्ञानात्मक विषय पढना ही नहीं चाहते । जब इन विषयों को पढने वाले विद्यार्थी ही नहीं होंगे तो पाँच दस वर्षों में शिक्षक भी नहीं मिलेंगे । यह कठिनाई तो हमने ही मोल ली है । जो सामान्य स्नातक बनना चाहते हैं वे गणित, विज्ञान जैसे बुद्धिगम्य विषय पढना नहीं चाहते हैं, न वे पढ सकते हैं । इसलिये शिक्षकों का अभाव हो जाता है । दो उपाय हो सकते हैं । एक तो हमारे विद्यालय में शिक्षक चाहिये इसलिये हमारे विद्यार्थियों को ही शिक्षक बनने हेतु प्रेरणा और प्रशिक्षण देना, और दूसरा विद्यार्थी समाज में ज्ञानात्मक दृष्टिकोण निर्माण करना ।
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'''उत्तर''' हमने जीवन को अर्थनिष्ठ बना दिया है । जीवन में पैसा ही केन्द्रस्थान में आ गया है । लोगोंं को लगता है कि डॉक्टर, इन्जिनीयर, चार्टर्ड एकाउण्टण्ट, मैनेजर आदि ही बनना चाहिये । इसलिये लोग इतिहास, समाजशास्त्र, भाषा, साहित्य, विज्ञान, गणित जैसे ज्ञानात्मक विषय पढना ही नहीं चाहते । जब इन विषयों को पढने वाले विद्यार्थी ही नहीं होंगे तो पाँच दस वर्षों में शिक्षक भी नहीं मिलेंगे । यह कठिनाई तो हमने ही मोल ली है । जो सामान्य स्नातक बनना चाहते हैं वे गणित, विज्ञान जैसे बुद्धिगम्य विषय पढना नहीं चाहते हैं, न वे पढ सकते हैं । इसलिये शिक्षकों का अभाव हो जाता है । दो उपाय हो सकते हैं । एक तो हमारे विद्यालय में शिक्षक चाहिये इसलिये हमारे विद्यार्थियों को ही शिक्षक बनने हेतु प्रेरणा और प्रशिक्षण देना, और दूसरा विद्यार्थी समाज में ज्ञानात्मक दृष्टिकोण निर्माण करना ।
    
=== प्रश्न १३. इतिहास, समाजशास्त्र, साहित्य आदि विषय न कोई पढना चाहता है न पढाना । इसके क्या परिणाम हो सकते हैं ? इन्हें नहीं पढने से क्या हानि है ? ===
 
=== प्रश्न १३. इतिहास, समाजशास्त्र, साहित्य आदि विषय न कोई पढना चाहता है न पढाना । इसके क्या परिणाम हो सकते हैं ? इन्हें नहीं पढने से क्या हानि है ? ===
उत्तर शिक्षा ज्ञानार्जन के लिये होती है । शिक्षा समष्टि में ज्ञाननिष्ठ व्यवहार करने के लिये होती है । हमारी परम्परा, हमारी संस्कृति, हमारा राष्ट्र, हमारी जीवनदृष्टि की शिक्षा यदि नहीं मिली, हम जीवन के बोध के उच्चतर स्तर तक नहीं पहुँचे तो पशु में और मनुष्य में क्या अन्तर रह जायेगा ? मनुष्य को व्यक्तिगत रूप से सुसंस्कृत बनाने के लिये और समाज को समृद्ध चिरंजीवी और विकसित बनाने के लिये ये विषय आवश्यक होते हैं । इसलिये ये अध्ययन की मुख्य धारा में होने चाहिये । आज इन विषयों को सार्थकता पूर्वक और गहराई से पढ़ाने वाला कोई नहीं रहा क्योंकि दो पीढ़ियों से हमने उनका महत्त्व भुला दिया इसलिये विद्यार्थियों ने पढ़ना छोड दिया । विद्यार्थी नहीं पढ़े इसलिये शिक्षक भी नहीं रहे । उपाय वही है जो गणित, विज्ञान आदि के विषय में बताया है ।
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'''उत्तर''' शिक्षा ज्ञानार्जन के लिये होती है । शिक्षा समष्टि में ज्ञाननिष्ठ व्यवहार करने के लिये होती है । हमारी परम्परा, हमारी संस्कृति, हमारा राष्ट्र, हमारी जीवनदृष्टि की शिक्षा यदि नहीं मिली, हम जीवन के बोध के उच्चतर स्तर तक नहीं पहुँचे तो पशु में और मनुष्य में क्या अन्तर रह जायेगा ? मनुष्य को व्यक्तिगत रूप से सुसंस्कृत बनाने के लिये और समाज को समृद्ध चिरंजीवी और विकसित बनाने के लिये ये विषय आवश्यक होते हैं । इसलिये ये अध्ययन की मुख्य धारा में होने चाहिये । आज इन विषयों को सार्थकता पूर्वक और गहराई से पढ़ाने वाला कोई नहीं रहा क्योंकि दो पीढ़ियों से हमने उनका महत्त्व भुला दिया इसलिये विद्यार्थियों ने पढ़ना छोड दिया । विद्यार्थी नहीं पढ़े इसलिये शिक्षक भी नहीं रहे । उपाय वही है जो गणित, विज्ञान आदि के विषय में बताया है ।
    
=== प्रश्न १४. बडे लोगोंं के बच्चे तो अंग्रेजी माध्यम में पढते हैं परन्तु छोटे लोगोंं को अंग्रेजी माध्यम की मनाई करते हैं । क्या आप हमें आगे नहीं बढने देना चाहते हैं ? ===
 
=== प्रश्न १४. बडे लोगोंं के बच्चे तो अंग्रेजी माध्यम में पढते हैं परन्तु छोटे लोगोंं को अंग्रेजी माध्यम की मनाई करते हैं । क्या आप हमें आगे नहीं बढने देना चाहते हैं ? ===
उत्तर क्षमा करें । यह छोटे लोगों के लिये नहीं है, तथाकथित बडे लोगोंं के लिये है क्योंकि आप यदि अपने आपको छोटा मानते हैं तो जो सही है वह नहीं करेंगे, आप जिन्हें बडा मानते हैं उनके जैसा करेंगे।
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'''उत्तर''' क्षमा करें । यह छोटे लोगों के लिये नहीं है, तथाकथित बडे लोगोंं के लिये है क्योंकि आप यदि अपने आपको छोटा मानते हैं तो जो सही है वह नहीं करेंगे, आप जिन्हें बडा मानते हैं उनके जैसा करेंगे।
    
आप अपने ब्चचों को अंग्रेजी माध्यम में इसलिये पढाना चाहते हैं क्योंकि वे पढाते हैं । कल वे बन्द करेंगे तो आप भी बन्द करेंगे ।
 
आप अपने ब्चचों को अंग्रेजी माध्यम में इसलिये पढाना चाहते हैं क्योंकि वे पढाते हैं । कल वे बन्द करेंगे तो आप भी बन्द करेंगे ।
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=== प्रश्न १५. सहशिक्षा के बारे में आपका क्या अभिप्राय है ? ===
 
=== प्रश्न १५. सहशिक्षा के बारे में आपका क्या अभिप्राय है ? ===
उत्तर अध्ययन के लिये मन की एकाग्रता, संयम, अनुशासन, सदाचार आदि अनिवार्य रूप से आवश्यक हैं । यदि ये सब नहीं हैं तो अध्ययन सम्भव ही नहीं है । इन सबको यदि एक शब्द में कहना है तो वह शब्द है ब्रह्मचर्य । स्वामी विवेकानन्द जैसे अनेक मनीषियों ने शिक्षा के लिये ब्रह्मचर्य की आवश्यकता पर बल दिया है ।
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'''उत्तर''' अध्ययन के लिये मन की एकाग्रता, संयम, अनुशासन, सदाचार आदि अनिवार्य रूप से आवश्यक हैं । यदि ये सब नहीं हैं तो अध्ययन सम्भव ही नहीं है । इन सबको यदि एक शब्द में कहना है तो वह शब्द है ब्रह्मचर्य । स्वामी विवेकानन्द जैसे अनेक मनीषियों ने शिक्षा के लिये ब्रह्मचर्य की आवश्यकता पर बल दिया है ।
    
सह शिक्षा लडके और लडकियाँ दोनों के ब्रह्मचर्य में अवरोध निर्माण करती है । इसलिये वह सराहनीय नहीं है।
 
सह शिक्षा लडके और लडकियाँ दोनों के ब्रह्मचर्य में अवरोध निर्माण करती है । इसलिये वह सराहनीय नहीं है।
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=== प्रश्न १६. आजकल बच्चे बहुत स्मार्ट हो गये हैं फिर उन्हें पाँच वर्ष की आयु तक क्यों नहीं पढाना चाहिये ? (एक अभिभावक का प्रश्न) ===
 
=== प्रश्न १६. आजकल बच्चे बहुत स्मार्ट हो गये हैं फिर उन्हें पाँच वर्ष की आयु तक क्यों नहीं पढाना चाहिये ? (एक अभिभावक का प्रश्न) ===
उत्तर मोबाइल, टीवी, संगणक चलाने को, किसी के सामने नहीं शरमाने को, चबर-चबर बोलने को, विज्ञापन की अभिनय सहित हूबहू नकल करने को हम स्मार्टनेस कहते हैं । यह स्मार्टनेस नहीं है, छिछलापन है जो बच्चोंं में होता है इसलिये हमें अखरता नहीं है परन्तु बडे बच्चे यदि ऐसे हैं तो हमें परेशानी होती है ।
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'''उत्तर''' मोबाइल, टीवी, संगणक चलाने को, किसी के सामने नहीं शरमाने को, चबर-चबर बोलने को, विज्ञापन की अभिनय सहित हूबहू नकल करने को हम स्मार्टनेस कहते हैं । यह स्मार्टनेस नहीं है, छिछलापन है जो बच्चोंं में होता है इसलिये हमें अखरता नहीं है परन्तु बडे बच्चे यदि ऐसे हैं तो हमें परेशानी होती है ।
    
स्मार्ट होने से भी बुद्धिमान, स्थिर और शान्त होना आवश्यक है । स्मार्टनेस के लिये हमारे शास्त्र बहुत अच्छा शब्द है । वह है प्रत्युत्पन्नमतित्व अर्थात्‌ त्वरित बुद्धि वाला, सहज बुद्धिवाला । सामान्य भाषा में शब्द हैं चतुर । चतुराई सदा सराहनीय ही होती है ऐसा नहीं है ।
 
स्मार्ट होने से भी बुद्धिमान, स्थिर और शान्त होना आवश्यक है । स्मार्टनेस के लिये हमारे शास्त्र बहुत अच्छा शब्द है । वह है प्रत्युत्पन्नमतित्व अर्थात्‌ त्वरित बुद्धि वाला, सहज बुद्धिवाला । सामान्य भाषा में शब्द हैं चतुर । चतुराई सदा सराहनीय ही होती है ऐसा नहीं है ।
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=== प्रश्न १७. विद्यालयों में सीसीटीवी कैमरे रखने का क्या प्रयोजन है ? ===
 
=== प्रश्न १७. विद्यालयों में सीसीटीवी कैमरे रखने का क्या प्रयोजन है ? ===
उत्तर विद्यालय यदि बडा है तो मुख्याध्यापक को कहाँ क्या हो रहा है इसकी जानकारी अपने स्थान पर ही बैठे हुए मिलती रहे यही उसका मूल प्रयोजन है । कोई बाहर का व्यक्ति, कोई आवांछनीय व्यक्ति विद्यालय में न घुसे इसकी सावधानी भी इससे रखी जाती है । परन्तु इस व्यवस्था का दुरुपयोग मनुष्य का मन और बुद्धि कर ही लेते हैं । इसलिये कक्षाकक्षों में शिक्षक और विद्यार्थियों की गतिविधि पर नजर रखने के लिये इसका महत्तम उपयोग किया जाता है । विद्यार्थी यह खूब जानते हैं इसलिये उससे बचने के उपाय भी खोज लेते हैं और जो करना है कर लेते हैं ।
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'''उत्तर''' विद्यालय यदि बडा है तो मुख्याध्यापक को कहाँ क्या हो रहा है इसकी जानकारी अपने स्थान पर ही बैठे हुए मिलती रहे यही उसका मूल प्रयोजन है । कोई बाहर का व्यक्ति, कोई आवांछनीय व्यक्ति विद्यालय में न घुसे इसकी सावधानी भी इससे रखी जाती है । परन्तु इस व्यवस्था का दुरुपयोग मनुष्य का मन और बुद्धि कर ही लेते हैं । इसलिये कक्षाकक्षों में शिक्षक और विद्यार्थियों की गतिविधि पर नजर रखने के लिये इसका महत्तम उपयोग किया जाता है । विद्यार्थी यह खूब जानते हैं इसलिये उससे बचने के उपाय भी खोज लेते हैं और जो करना है कर लेते हैं ।
    
=== प्रश्न १८. इतने प्रभावी दृश्यश्राव्य उपकरण हैं फिर शिक्षक की क्या आवश्यकता है ? (एक संचालक का प्रश्न) ===
 
=== प्रश्न १८. इतने प्रभावी दृश्यश्राव्य उपकरण हैं फिर शिक्षक की क्या आवश्यकता है ? (एक संचालक का प्रश्न) ===
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=== प्रश्न २०. मातृभाषा नहीं आने से क्या हानि है ? (एक अभिभावक का प्रश्न) ===
 
=== प्रश्न २०. मातृभाषा नहीं आने से क्या हानि है ? (एक अभिभावक का प्रश्न) ===
उत्तर मातृभाषा क्यों नहीं आनी चाहिये इसका कोई तर्कपूर्ण कारण है क्या ? नहीं । इसलिये मातृभाषा नहीं आना अत्यन्त अस्वाभाविक है ।
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'''उत्तर''' मातृभाषा क्यों नहीं आनी चाहिये इसका कोई तर्कपूर्ण कारण है क्या ? नहीं । इसलिये मातृभाषा नहीं आना अत्यन्त अस्वाभाविक है ।
    
१, मातृभाषा नहीं आने से दुनिया की एक भी भाषा अच्छी तरह नहीं आती |
 
१, मातृभाषा नहीं आने से दुनिया की एक भी भाषा अच्छी तरह नहीं आती |
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=== प्रश्न २१. अभी तो सरकार ने सूत्र दिया है “बेटी बचाओ बेटी पढाओ' तब आप सहशिक्षा के लिये क्यों मना कर रहे हैं? (एक अभिभावक का प्रश्न) ===
 
=== प्रश्न २१. अभी तो सरकार ने सूत्र दिया है “बेटी बचाओ बेटी पढाओ' तब आप सहशिक्षा के लिये क्यों मना कर रहे हैं? (एक अभिभावक का प्रश्न) ===
उत्तर आपका प्रश्न ही असंगत है । बेटी पढ़ाने का और सहशिक्षा का क्या सम्बन्ध है ? सहशिक्षा नहीं होने का अर्थ यह नहीं होता कि बेटी को पढ़ाना नहीं है । बेटी को अवश्य पढ़ाना है । परन्तु इस सूत्र का आज हम व्यवहार में क्या कर रहे हैं इसका जरा गम्भीरतापूर्वक विचार करने की आवश्यकता है ।
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'''उत्तर''' आपका प्रश्न ही असंगत है । बेटी पढ़ाने का और सहशिक्षा का क्या सम्बन्ध है ? सहशिक्षा नहीं होने का अर्थ यह नहीं होता कि बेटी को पढ़ाना नहीं है । बेटी को अवश्य पढ़ाना है । परन्तु इस सूत्र का आज हम व्यवहार में क्या कर रहे हैं इसका जरा गम्भीरतापूर्वक विचार करने की आवश्यकता है ।
    
आधुनिक समय में भी एक कालखण्ड ऐसा आया जब कन्या भ्रूण हत्या की मात्रा बढ गई । यह चिन्तित कर देने वाला मामला अवश्य था । हमारी यह भी धारणा बनी है कि हम लडकों को ही पढाते हैं, लडकियों को नहीं । इसका उपाय करने के प्रयास होने लगे । सरकार की ओर से अनेक प्रयास हुए । उनमें से यह “बेटी बचाओ बेटी पढाओ' सूत्र आया ।
 
आधुनिक समय में भी एक कालखण्ड ऐसा आया जब कन्या भ्रूण हत्या की मात्रा बढ गई । यह चिन्तित कर देने वाला मामला अवश्य था । हमारी यह भी धारणा बनी है कि हम लडकों को ही पढाते हैं, लडकियों को नहीं । इसका उपाय करने के प्रयास होने लगे । सरकार की ओर से अनेक प्रयास हुए । उनमें से यह “बेटी बचाओ बेटी पढाओ' सूत्र आया ।
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=== प्रश्न २२. शिक्षा ज्ञान की वाहक है । वह बहुत मूल्यवान है । फिर वह निःशुल्क क्यों होनी चाहिये ? (एक अभिभावक का प्रश्न) ===
 
=== प्रश्न २२. शिक्षा ज्ञान की वाहक है । वह बहुत मूल्यवान है । फिर वह निःशुल्क क्यों होनी चाहिये ? (एक अभिभावक का प्रश्न) ===
उत्तर आज यही कहा जाता है कि जिसका कोई शुल्क नहीं उसका कोई मूल्य नहीं । जो मुफ्त मिलता है उसकी कोई कीमत नहीं होती । इसलिये आप निःशुल्क विद्यालय चलायेंगे तो कोई पढने नहीं आयेगा । आजकल तो ऊँचा शुल्क लेने वाले विद्यालय अच्छे माने जाते हैं ।
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'''उत्तर''' आज यही कहा जाता है कि जिसका कोई शुल्क नहीं उसका कोई मूल्य नहीं । जो मुफ्त मिलता है उसकी कोई कीमत नहीं होती । इसलिये आप निःशुल्क विद्यालय चलायेंगे तो कोई पढने नहीं आयेगा । आजकल तो ऊँचा शुल्क लेने वाले विद्यालय अच्छे माने जाते हैं ।
    
हमारी सोच विपरीत बन गई है । पैसा ही सबसे श्रेष्ठ है ऐसा सोचकर ही हम ये बातें करते हैं । वास्तव में सुसंस्कृत और बुद्धिमान लोग जानते हैं कि पैसे से अधिक मूल्यावन बहुत बातें हैं । वे पैसे से नापी ही नहीं जातीं । पैसे से उन्हें तौलना ही उनका मूल्य कम कर देने के बराबर है । इसलिये शिक्षा निःशुल्क होनी चाहिये ।
 
हमारी सोच विपरीत बन गई है । पैसा ही सबसे श्रेष्ठ है ऐसा सोचकर ही हम ये बातें करते हैं । वास्तव में सुसंस्कृत और बुद्धिमान लोग जानते हैं कि पैसे से अधिक मूल्यावन बहुत बातें हैं । वे पैसे से नापी ही नहीं जातीं । पैसे से उन्हें तौलना ही उनका मूल्य कम कर देने के बराबर है । इसलिये शिक्षा निःशुल्क होनी चाहिये ।
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=== प्रश्न २७. हम पढते थे तब सातवीं में बोर्ड की परीक्षा होती थी और उसे उत्तीर्ण करने पर प्राथमिक विद्यालय में शिक्षक बना जाता था । माध्यमिक विद्यालय की मैट्रिक में प्रथम श्रेणी मिल गई तो बडी उपलब्धि मानी जाति थी । स्नातक होना बहुत बडी बात थी । आज के स्नातक से भी उस समय के सातवीं पास को अधिक ज्ञान था । आज गडबड कहाँ हुई है ? (एक अभिभावक का प्रश्न) ===
 
=== प्रश्न २७. हम पढते थे तब सातवीं में बोर्ड की परीक्षा होती थी और उसे उत्तीर्ण करने पर प्राथमिक विद्यालय में शिक्षक बना जाता था । माध्यमिक विद्यालय की मैट्रिक में प्रथम श्रेणी मिल गई तो बडी उपलब्धि मानी जाति थी । स्नातक होना बहुत बडी बात थी । आज के स्नातक से भी उस समय के सातवीं पास को अधिक ज्ञान था । आज गडबड कहाँ हुई है ? (एक अभिभावक का प्रश्न) ===
उत्तर आप दो पीढ़ी पूर्व की बात बता रहे हैं जब आप पढ़ रहे थे । उस समय हजार रूपया वेतन होना भी बहुत बडी बात थी ।
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'''उत्तर''' आप दो पीढ़ी पूर्व की बात बता रहे हैं जब आप पढ़ रहे थे । उस समय हजार रूपया वेतन होना भी बहुत बडी बात थी ।
    
हमने विगत तीस चालीस वर्षा में सारी बातों की गुणवत्ता बहुत कम कर दी है । वस्तुओं का मूल्य भी कम कर दिया है । रूपये का भी मूल्य कम हो गया, परीक्षा में अंकों का कम हो गया |
 
हमने विगत तीस चालीस वर्षा में सारी बातों की गुणवत्ता बहुत कम कर दी है । वस्तुओं का मूल्य भी कम कर दिया है । रूपये का भी मूल्य कम हो गया, परीक्षा में अंकों का कम हो गया |
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=== प्रश्न २९. एक बात ध्यान में आती है कि स्त्रीत्व के गुणों का विकास हो सके ऐसी शिक्षा की आज कोई व्यवस्था ही नहीं है । में निवृत्त शिक्षक हूँ । क्‍या मैं इसके लिये कुछ कर सकता हूँ ? (एक शिक्षक का प्रश्न) ===
 
=== प्रश्न २९. एक बात ध्यान में आती है कि स्त्रीत्व के गुणों का विकास हो सके ऐसी शिक्षा की आज कोई व्यवस्था ही नहीं है । में निवृत्त शिक्षक हूँ । क्‍या मैं इसके लिये कुछ कर सकता हूँ ? (एक शिक्षक का प्रश्न) ===
उत्तर
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'''उत्तर'''
    
आपकी ओर से ऐसा प्रस्ताव आना ही शुभ संकेत है । आपके जैसे अन्य सेवानिवृत्त शिक्षक यदि इस बात को प्रधानता देते हैं तो उचित परिप्रेक्ष्या में यह बात आरम्भ होगी । इस दृष्टि से आपको इन चरणों में काम करना होगा ।
 
आपकी ओर से ऐसा प्रस्ताव आना ही शुभ संकेत है । आपके जैसे अन्य सेवानिवृत्त शिक्षक यदि इस बात को प्रधानता देते हैं तो उचित परिप्रेक्ष्या में यह बात आरम्भ होगी । इस दृष्टि से आपको इन चरणों में काम करना होगा ।
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=== प्रश्न ३०. धार्मिक शिक्षा के पक्षधर सब कहते हैं कि शिक्षा निःशुल्क होनी चाहिये । आज स्थिति एकदम दूसरे छोर की है । अब दोनों छोरों को मिलाने के क्या उपाय हैं ? (एक शिक्षक का प्रश्न) ===
 
=== प्रश्न ३०. धार्मिक शिक्षा के पक्षधर सब कहते हैं कि शिक्षा निःशुल्क होनी चाहिये । आज स्थिति एकदम दूसरे छोर की है । अब दोनों छोरों को मिलाने के क्या उपाय हैं ? (एक शिक्षक का प्रश्न) ===
उत्तर ज्योर्ज वॉर्शिंग्टन कार्वर नामक एक नीग्रो कृषि वैज्ञानिक ने कहा है कि आप जहाँ हैं वहाँ से, जिस स्थिति में हैं वहाँ से आरम्भ करो और कुछ करके दिखाओ । आप शिक्षक हैं । शिक्षकों द्वारा ही इसका प्रास्भ हो सकता है ।
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'''उत्तर''' ज्योर्ज वॉर्शिंग्टन कार्वर नामक एक नीग्रो कृषि वैज्ञानिक ने कहा है कि आप जहाँ हैं वहाँ से, जिस स्थिति में हैं वहाँ से आरम्भ करो और कुछ करके दिखाओ । आप शिक्षक हैं । शिक्षकों द्वारा ही इसका प्रास्भ हो सकता है ।
    
आप वेतन लेना बन्द मत करो । परन्तु आप विद्यार्थियों को पढ़ाते हैं वे यदि अन्य किसी के पास ट्यूशन के लिये जाते हैं तो उनके ट्यूशन बन्द करवाकर अतिरिक्त शिक्षा निःशुल्क देना प्रारम्भ करो । प्रार्भ में अभिभावकों को विश्वास नहीं होगा । वे सॉंचेगे कि आप पैसे नहीं लेते इसलिये दरकार भी कम करेंगे । परन्तु धीरे धीरे विश्वास हो जायेगा । दूसरे शिक्षकों के विद्यार्थियों को मत पढाओ, अपने ही विद्यार्थियों का जिम्मा लो । धीरे धीरे आपके जैसे और शिक्षक भी आपसे मिल जायेंगे ।
 
आप वेतन लेना बन्द मत करो । परन्तु आप विद्यार्थियों को पढ़ाते हैं वे यदि अन्य किसी के पास ट्यूशन के लिये जाते हैं तो उनके ट्यूशन बन्द करवाकर अतिरिक्त शिक्षा निःशुल्क देना प्रारम्भ करो । प्रार्भ में अभिभावकों को विश्वास नहीं होगा । वे सॉंचेगे कि आप पैसे नहीं लेते इसलिये दरकार भी कम करेंगे । परन्तु धीरे धीरे विश्वास हो जायेगा । दूसरे शिक्षकों के विद्यार्थियों को मत पढाओ, अपने ही विद्यार्थियों का जिम्मा लो । धीरे धीरे आपके जैसे और शिक्षक भी आपसे मिल जायेंगे ।
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=== प्रश्न ३२. एक जिज्ञासु का प्रश्न निश्चित रूप से अनुसन्धान का धार्मिक स्वरूप वर्तमान स्वरूप से भिन्न ही है । ===
 
=== प्रश्न ३२. एक जिज्ञासु का प्रश्न निश्चित रूप से अनुसन्धान का धार्मिक स्वरूप वर्तमान स्वरूप से भिन्न ही है । ===
उत्तर निश्चित रूप से अनुसन्धान का धार्मिक स्वरूप से भिन्न ही है।
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'''उत्तर''' निश्चित रूप से अनुसन्धान का धार्मिक स्वरूप से भिन्न ही है।
    
धार्मिक अनुसन्धान के दो प्रकार हैं, अथवा कहें कि दो स्तर हैं । एक है तात्त्विक और दूसरा है व्यावहारिक ।
 
धार्मिक अनुसन्धान के दो प्रकार हैं, अथवा कहें कि दो स्तर हैं । एक है तात्त्विक और दूसरा है व्यावहारिक ।
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=== प्रश्न ३३. विगत कुछ वर्षों से सूत्र चल रहा है “छोटा परिवार सुखी परिवार' अब लोगोंं के ध्यान में आ रहा है कि छोटा परिवार बहुत सुखदायक नहीं होता है । लोग एकदम बडे परिवार बनाने तो नहीं लगे हैं परन्तु विचार तो आरम्भ हुआ है । विद्यालय भी एक परिवार है । आज की स्थिति में तो सूत्र है “बडा विद्यालय अच्छा विद्यालय ।' उचित क्या है, बडा विद्यालय कि छोटा ? (एक संचालक का प्रश्न) ===
 
=== प्रश्न ३३. विगत कुछ वर्षों से सूत्र चल रहा है “छोटा परिवार सुखी परिवार' अब लोगोंं के ध्यान में आ रहा है कि छोटा परिवार बहुत सुखदायक नहीं होता है । लोग एकदम बडे परिवार बनाने तो नहीं लगे हैं परन्तु विचार तो आरम्भ हुआ है । विद्यालय भी एक परिवार है । आज की स्थिति में तो सूत्र है “बडा विद्यालय अच्छा विद्यालय ।' उचित क्या है, बडा विद्यालय कि छोटा ? (एक संचालक का प्रश्न) ===
उत्तर “छोटा विद्यालय अच्छा विद्यालय' यही उचित रचना है । इसके कई कारण हैं ।
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'''उत्तर''' “छोटा विद्यालय अच्छा विद्यालय' यही उचित रचना है । इसके कई कारण हैं ।
    
१, एक मुख्याध्यापक को साथी शिक्षक और विद्यालय के लगभग सभी विद्यार्थियों के नाम, उनके गुणदोष, उनकी क्षमताओं , उनकी पारिवारिक स्थिति की भली भाँति जानकारी हो यह अपेक्षित है । यह सम्भव हो इसके लिये विद्यालय छोटा होना चाहिये ।
 
१, एक मुख्याध्यापक को साथी शिक्षक और विद्यालय के लगभग सभी विद्यार्थियों के नाम, उनके गुणदोष, उनकी क्षमताओं , उनकी पारिवारिक स्थिति की भली भाँति जानकारी हो यह अपेक्षित है । यह सम्भव हो इसके लिये विद्यालय छोटा होना चाहिये ।
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=== प्रश्न ३४. सभी पूर्व प्राथमिक विद्यालय यदि शैक्षिक दृष्टि से अमान्य हैं तो सरकार उन्हें कानून से प्रतिबन्धित क्यों नहीं कर देती ? (एक अभिभावक का प्रश्न) ===
 
=== प्रश्न ३४. सभी पूर्व प्राथमिक विद्यालय यदि शैक्षिक दृष्टि से अमान्य हैं तो सरकार उन्हें कानून से प्रतिबन्धित क्यों नहीं कर देती ? (एक अभिभावक का प्रश्न) ===
उत्तर यह कानून से होनेवाला काम नहीं है । कानून बनाने से सम्बन्धित लोग दूसरे मार्ग खोज निकालते हैं । कुछ वर्ष पूर्व सरकार ने ऐसा कानून बनाया था तब रातोंरात संचालकों ने “पूर्व प्राथमिक विद्यालय लिखे हुए फलक उतार कर “नर्सरी' “झूला घर' “प्ले हाउस' लिखे हुए फलक चढा दिये । संचालक, शिक्षक और अभिभावक कल तक करते थे वही करते रहे । सबने मिलकर सिद्ध कर दिया कि वे विद्यालय नहीं हैं । तात्पर्य यह है कि यह कानून का विषय नहीं है ।
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'''उत्तर''' यह कानून से होनेवाला काम नहीं है । कानून बनाने से सम्बन्धित लोग दूसरे मार्ग खोज निकालते हैं । कुछ वर्ष पूर्व सरकार ने ऐसा कानून बनाया था तब रातोंरात संचालकों ने “पूर्व प्राथमिक विद्यालय लिखे हुए फलक उतार कर “नर्सरी' “झूला घर' “प्ले हाउस' लिखे हुए फलक चढा दिये । संचालक, शिक्षक और अभिभावक कल तक करते थे वही करते रहे । सबने मिलकर सिद्ध कर दिया कि वे विद्यालय नहीं हैं । तात्पर्य यह है कि यह कानून का विषय नहीं है ।
    
अकेले अभिभावक भी कुछ नहीं कर सकते । यदि पूर्व प्राथमिक विभाग में प्रवेश न लें तो सीधे प्राथमिक में प्रवेश देने से संचालक इनकार कर देते हैं । इसलिये पूर्व प्राथमिक से ही बच्चोंं को विद्यालय भेजने की बाध्यता हो जाती है । कानून है परन्तु कानून को नहीं माना तो कुछ नहीं हो सकता । अकेले संचालक भी कुछ नहीं कर सकते क्योंकि अभिभावकों के आग्रह के आगे सबको झुकना पडता है ।
 
अकेले अभिभावक भी कुछ नहीं कर सकते । यदि पूर्व प्राथमिक विभाग में प्रवेश न लें तो सीधे प्राथमिक में प्रवेश देने से संचालक इनकार कर देते हैं । इसलिये पूर्व प्राथमिक से ही बच्चोंं को विद्यालय भेजने की बाध्यता हो जाती है । कानून है परन्तु कानून को नहीं माना तो कुछ नहीं हो सकता । अकेले संचालक भी कुछ नहीं कर सकते क्योंकि अभिभावकों के आग्रह के आगे सबको झुकना पडता है ।
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=== प्रश्न ३५. मैं ब्राह्मण हूँ । क्या ब्राह्मण होने से कोई विशेष शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार मिलता है ? क्या प्राचीन समयमें ब्राह्मण का विशेष अधिकार था ? आज शूट्रों के लिये तो आरक्षण के अन्तर्गत नौकरी सुनिश्चित है, प्रगत अध्ययन के लिये प्रवेश सुनिश्चित है परन्तु ब्राह्मणों की चिन्ता ही नहीं की जाती । क्या यह उचित है ? (एक ब्राह्मण युवक का प्रश्र) ===
 
=== प्रश्न ३५. मैं ब्राह्मण हूँ । क्या ब्राह्मण होने से कोई विशेष शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार मिलता है ? क्या प्राचीन समयमें ब्राह्मण का विशेष अधिकार था ? आज शूट्रों के लिये तो आरक्षण के अन्तर्गत नौकरी सुनिश्चित है, प्रगत अध्ययन के लिये प्रवेश सुनिश्चित है परन्तु ब्राह्मणों की चिन्ता ही नहीं की जाती । क्या यह उचित है ? (एक ब्राह्मण युवक का प्रश्र) ===
उत्तर एक समय था जब वर्णव्यवस्था हिन्दु समाजव्यवस्था के मूल आधारों में एक थी । परन्तु आज वह पूर्ण रूप से अव्यवस्था में बदल गई है । आज उसका कोई सार्थक उपयोग नहीं रहा ।
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'''उत्तर''' एक समय था जब वर्णव्यवस्था हिन्दु समाजव्यवस्था के मूल आधारों में एक थी । परन्तु आज वह पूर्ण रूप से अव्यवस्था में बदल गई है । आज उसका कोई सार्थक उपयोग नहीं रहा ।
    
आप ब्राह्मण हैं । ब्राह्मण वर्ण का समाज में क्या स्थान है इसका विचार करने से पहले दायित्व क्या है इसका विचार करना चाहिये । ब्राह्मण केवल ब्राह्मण मातापिता के घर में जन्म लेने से नहीं हुआ जाता । प्रत्येक वर्ण के साथ आचार और व्यवसाय का सम्बन्ध है । ब्राह्मण वर्ण के आचार क्या हैं ? पवित्रता, सादगी, संयम, तपश्चर्या ब्राह्मण वर्ण के आचार हैं । अध्ययन और अध्यापन करना, यज्ञ करना और करवाना ब्राह्मण का व्यवसाय है । वैद्य, पुरोहित और अमात्य भी ब्राह्मण होते हैं । परन्तु व्यवसाय का अर्थ पैसा कमाना नहीं है, नोकरी करना नहीं है । केवल अमात्य ही नौकरी करते हैं । अन्य व्यवसाय का लक्ष्य भी अथार्जिन नहीं है, सेवा है । तभी तो ब्राह्मण पृथ्वी पर का देवता है । क्या आप ऐसे ब्राह्मण हैं ? बनना चाहते हैं ? ऐसे ब्राह्मणों की समाज को बहुत आवश्यकता है । समाज आज भी सम्मान करने को इच्छुक है । परन्तु ब्राह्मण नहीं रहना है और ब्राह्मण का सम्मान चाहिये तो सम्मान नहीं, उपहास मिलेगा । वस्तुस्थिति यह है कि आज किसी भी वर्ण में जन्म हुआ हो दस प्रतिशत लोग भी आचार और व्यवसाय से ब्राह्मण बन जाय तो समाज की व्यवस्था सम्हल जायेगी ।
 
आप ब्राह्मण हैं । ब्राह्मण वर्ण का समाज में क्या स्थान है इसका विचार करने से पहले दायित्व क्या है इसका विचार करना चाहिये । ब्राह्मण केवल ब्राह्मण मातापिता के घर में जन्म लेने से नहीं हुआ जाता । प्रत्येक वर्ण के साथ आचार और व्यवसाय का सम्बन्ध है । ब्राह्मण वर्ण के आचार क्या हैं ? पवित्रता, सादगी, संयम, तपश्चर्या ब्राह्मण वर्ण के आचार हैं । अध्ययन और अध्यापन करना, यज्ञ करना और करवाना ब्राह्मण का व्यवसाय है । वैद्य, पुरोहित और अमात्य भी ब्राह्मण होते हैं । परन्तु व्यवसाय का अर्थ पैसा कमाना नहीं है, नोकरी करना नहीं है । केवल अमात्य ही नौकरी करते हैं । अन्य व्यवसाय का लक्ष्य भी अथार्जिन नहीं है, सेवा है । तभी तो ब्राह्मण पृथ्वी पर का देवता है । क्या आप ऐसे ब्राह्मण हैं ? बनना चाहते हैं ? ऐसे ब्राह्मणों की समाज को बहुत आवश्यकता है । समाज आज भी सम्मान करने को इच्छुक है । परन्तु ब्राह्मण नहीं रहना है और ब्राह्मण का सम्मान चाहिये तो सम्मान नहीं, उपहास मिलेगा । वस्तुस्थिति यह है कि आज किसी भी वर्ण में जन्म हुआ हो दस प्रतिशत लोग भी आचार और व्यवसाय से ब्राह्मण बन जाय तो समाज की व्यवस्था सम्हल जायेगी ।
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=== प्रश्न ३७. शिक्षा के तन्त्र में ऐसे कौन से परिवर्तन हैं जो सहजता से किये जा सकते हैं ? जो सहजता से किये नहीं जा सकते उन्हें हम व्यावहारिक कैसे कहेंगे ? (एक विचारक का प्रश्न) ===
 
=== प्रश्न ३७. शिक्षा के तन्त्र में ऐसे कौन से परिवर्तन हैं जो सहजता से किये जा सकते हैं ? जो सहजता से किये नहीं जा सकते उन्हें हम व्यावहारिक कैसे कहेंगे ? (एक विचारक का प्रश्न) ===
उत्तर प्रथम तो हमें समझना चाहिये कि जो हमें सुविधायुक्त लगता है उसे ही हम व्यावहारिक न कहें । जिन्हें करने में हमें कोई भी कष्ट न हो उसे हम व्यावहारिक न कहें । जो अपने आप हो जाय उसे ही हम व्यावहारिक न कहें । जो तत्त्व के अनुसार हो उसे ही हम व्यावहारिक कहें ।
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'''उत्तर''' प्रथम तो हमें समझना चाहिये कि जो हमें सुविधायुक्त लगता है उसे ही हम व्यावहारिक न कहें । जिन्हें करने में हमें कोई भी कष्ट न हो उसे हम व्यावहारिक न कहें । जो अपने आप हो जाय उसे ही हम व्यावहारिक न कहें । जो तत्त्व के अनुसार हो उसे ही हम व्यावहारिक कहें ।
    
यह बात ठीक है कि व्यवहार के क्षेत्र में शुरुआत हम सरल बातों से करें, कठिन या असम्भव से नहीं । सरल बातों से शुरु कर क्रमशः कठिन बातों को सरल और असम्भव को कठिन के दायरे में लायें और इस प्रकार असम्भव को भी सरल बना दें । इस दृष्टि से कुछ परिवर्तन इस प्रकार करने होंगे...
 
यह बात ठीक है कि व्यवहार के क्षेत्र में शुरुआत हम सरल बातों से करें, कठिन या असम्भव से नहीं । सरल बातों से शुरु कर क्रमशः कठिन बातों को सरल और असम्भव को कठिन के दायरे में लायें और इस प्रकार असम्भव को भी सरल बना दें । इस दृष्टि से कुछ परिवर्तन इस प्रकार करने होंगे...
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=== प्रश्न ३८. सीधा ही प्रश्न है - क्या आप मोबाइल, कम्प्यूटर और टीवी को अमान्य करते हैं ? (एक जिज्ञासु का प्रश्र) ===
 
=== प्रश्न ३८. सीधा ही प्रश्न है - क्या आप मोबाइल, कम्प्यूटर और टीवी को अमान्य करते हैं ? (एक जिज्ञासु का प्रश्र) ===
उत्तर आपने जितना सीधा पूछा उतना ही सीधा बताना है तो कहना होगा कि हाँ इन्हें अमान्य करने से ही बचना सम्भव होगा । परन्तु आप कहेंगे मान्य हैं और हम कहेंगे अमान्य हैं इससे न तो कोई खुलासा होगा न हल निकलेगा । इसलिये अमान्य होने के कारण भी बताने होंगे ।
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'''उत्तर''' आपने जितना सीधा पूछा उतना ही सीधा बताना है तो कहना होगा कि हाँ इन्हें अमान्य करने से ही बचना सम्भव होगा । परन्तु आप कहेंगे मान्य हैं और हम कहेंगे अमान्य हैं इससे न तो कोई खुलासा होगा न हल निकलेगा । इसलिये अमान्य होने के कारण भी बताने होंगे ।
    
१. इन सबके कारण पर्यावरण का प्रदूषण और स्वास्थ्य की बहुत हानि होती है जो कैन्सर तक का कारण बनती है । यह एक मात्र कारण भी इन्हें अमान्य करने हेतु पर्याप्त है ।
 
१. इन सबके कारण पर्यावरण का प्रदूषण और स्वास्थ्य की बहुत हानि होती है जो कैन्सर तक का कारण बनती है । यह एक मात्र कारण भी इन्हें अमान्य करने हेतु पर्याप्त है ।
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=== प्रश्न ३९. जमाने के अनुसार नहीं चलने में क्या व्यावहारिकता है ? धार्मिक शिक्षा के नाम पर अथ से इति सब कुछ नकारना कहाँ तक उचित है ? क्या वर्तमान शिक्षा में सब कुछ छोड देने योग्य है ? (एक प्राध्यापक का प्रश्र) ===
 
=== प्रश्न ३९. जमाने के अनुसार नहीं चलने में क्या व्यावहारिकता है ? धार्मिक शिक्षा के नाम पर अथ से इति सब कुछ नकारना कहाँ तक उचित है ? क्या वर्तमान शिक्षा में सब कुछ छोड देने योग्य है ? (एक प्राध्यापक का प्रश्र) ===
उत्तर भारत में धार्मिक शिक्षा होनी चाहिये इतना यदि हमने स्वीकर कर लिया तो सारी की सारी बातें परिवर्तनीय हैं यह भी मानना ही पड़ेगा ।
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'''उत्तर''' भारत में धार्मिक शिक्षा होनी चाहिये इतना यदि हमने स्वीकर कर लिया तो सारी की सारी बातें परिवर्तनीय हैं यह भी मानना ही पड़ेगा ।
    
हमें यदि भोपाल से कन्याकुमारी जाना है परन्तु दिल्ली जाने वाली गाडी में बैठ गये हैं तो कोच बदलना, बैठक बदलना, नास्ते के पदार्थ बदलना आदि से काम नहीं चलेगा । हमें गाडी ही बदलनी होगी, इतना ही नहीं तो उल्टी दिशा में जाने वाली गाडी में ही बैठना पड़ेगा ।
 
हमें यदि भोपाल से कन्याकुमारी जाना है परन्तु दिल्ली जाने वाली गाडी में बैठ गये हैं तो कोच बदलना, बैठक बदलना, नास्ते के पदार्थ बदलना आदि से काम नहीं चलेगा । हमें गाडी ही बदलनी होगी, इतना ही नहीं तो उल्टी दिशा में जाने वाली गाडी में ही बैठना पड़ेगा ।
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=== प्रश्न ४०. सरकारें बदलती हैं, सरकार बनाने वाले राजकीय पक्ष बदलते हैं, नई नई नीतियाँ और आयोग बनते हैं तो भी शिक्षा का प्रश्न तो अधिकाधिक उलझता रहता है इसका कारण क्या है ? ===
 
=== प्रश्न ४०. सरकारें बदलती हैं, सरकार बनाने वाले राजकीय पक्ष बदलते हैं, नई नई नीतियाँ और आयोग बनते हैं तो भी शिक्षा का प्रश्न तो अधिकाधिक उलझता रहता है इसका कारण क्या है ? ===
उत्तर एक जिज्ञासु का प्रश्न कारण यह है कि जो सरकार का काम नहीं है उससे सारी अपेक्षायें की जा रही हैं । वर्तमान लोकतन्त्र में सरकार मना तो नहीं कर सकती फिर उससे जो बनता है वह करती है । वास्तव में यह तो समाज की जिम्मेदारी है कि वह शिक्षा की व्यवस्था करे । समाज में भी यह जिम्मेदारी हर किसीकी नहीं है, शिक्षकों की है ।
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'''उत्तर''' एक जिज्ञासु का प्रश्न कारण यह है कि जो सरकार का काम नहीं है उससे सारी अपेक्षायें की जा रही हैं । वर्तमान लोकतन्त्र में सरकार मना तो नहीं कर सकती फिर उससे जो बनता है वह करती है । वास्तव में यह तो समाज की जिम्मेदारी है कि वह शिक्षा की व्यवस्था करे । समाज में भी यह जिम्मेदारी हर किसीकी नहीं है, शिक्षकों की है ।
    
शिक्षा का बहुत बडा अंश घर में होता है । घर में मातापिता की जिम्मेदारी है कि अपने बच्चे के स्वास्थ्य, संस्कार, व्यवहारदृक्षता, कौशल, सामाजिकता आदि सिखायें । शेष शिक्षा विद्यालय में होगी जो शिक्षक की जिम्मेदारी है । मातापिता और शिक्षक दोनों यदि अपनी जिम्मेदारी छोड देते हैं तो सरकार की बाध्यता बन जाती है । फिर शिक्षा का वही होगा जो आज हो रहा है ।
 
शिक्षा का बहुत बडा अंश घर में होता है । घर में मातापिता की जिम्मेदारी है कि अपने बच्चे के स्वास्थ्य, संस्कार, व्यवहारदृक्षता, कौशल, सामाजिकता आदि सिखायें । शेष शिक्षा विद्यालय में होगी जो शिक्षक की जिम्मेदारी है । मातापिता और शिक्षक दोनों यदि अपनी जिम्मेदारी छोड देते हैं तो सरकार की बाध्यता बन जाती है । फिर शिक्षा का वही होगा जो आज हो रहा है ।
    
=== प्रश्न ४१. आज समाज में चारों और ऐसा क्या क्या नहीं है जो नई पीढी का विकास अवरुद्ध करता हो ? उसकी व्यवस्था कैसे की जा सकती है ? (एक जनप्रतिनिधि का प्रश्न) ===
 
=== प्रश्न ४१. आज समाज में चारों और ऐसा क्या क्या नहीं है जो नई पीढी का विकास अवरुद्ध करता हो ? उसकी व्यवस्था कैसे की जा सकती है ? (एक जनप्रतिनिधि का प्रश्न) ===
उत्तर १, आज समाज में व्यायामशालायें नहीं हैं जहाँ जाकर तरुण और युवा व्यायाम करें ।
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'''उत्तर''' १, आज समाज में व्यायामशालायें नहीं हैं जहाँ जाकर तरुण और युवा व्यायाम करें ।
    
२. आज घरों को आँगन नहीं हैं जहाँ बालअवस्था के बच्चे खेलें । विद्यालयों में मैदान हैं परन्तु खेलने के लिये बच्चोंं के पास समय नहीं है ।
 
२. आज घरों को आँगन नहीं हैं जहाँ बालअवस्था के बच्चे खेलें । विद्यालयों में मैदान हैं परन्तु खेलने के लिये बच्चोंं के पास समय नहीं है ।
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=== प्रश्न ४२. हमारा बालक क्या बनेगा यह कौन निश्चित कर सकता है ? हम, शिक्षक, बालक स्वयं या सरकार ? यदि हमें करना है तो हम कैसे करेंगे? (एक माता का प्रश्र) ===
 
=== प्रश्न ४२. हमारा बालक क्या बनेगा यह कौन निश्चित कर सकता है ? हम, शिक्षक, बालक स्वयं या सरकार ? यदि हमें करना है तो हम कैसे करेंगे? (एक माता का प्रश्र) ===
उत्तर प्रथम अधिकार और जिम्मेदारी मातापिता की है । उन्हें प्रथम कल्पना करनी चाहिये कि वे कैसा बालक चाहते हैं । उदाहरण के लिये अच्छा चाहिये, स्वस्थ चाहिये, बुद्धिमान चाहिये ऐसा तो सभी मातापिता चाहेंगे ही ।
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'''उत्तर''' प्रथम अधिकार और जिम्मेदारी मातापिता की है । उन्हें प्रथम कल्पना करनी चाहिये कि वे कैसा बालक चाहते हैं । उदाहरण के लिये अच्छा चाहिये, स्वस्थ चाहिये, बुद्धिमान चाहिये ऐसा तो सभी मातापिता चाहेंगे ही ।
    
वह बडा होकर अपनी गृहस्थी बसायेगा, खूब पैसा कमायेगा और समाज में प्रतिष्ठा प्राप्त करेगा ऐसा भी चाहेंगे ।
 
वह बडा होकर अपनी गृहस्थी बसायेगा, खूब पैसा कमायेगा और समाज में प्रतिष्ठा प्राप्त करेगा ऐसा भी चाहेंगे ।
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=== प्रश्न ४३. पन्द्रह सोलह वर्ष के बच्चे आत्महत्या करते हैं । उन्हें कैसे बचायें ? (एक अभिभावक का प्रश्न) ===
 
=== प्रश्न ४३. पन्द्रह सोलह वर्ष के बच्चे आत्महत्या करते हैं । उन्हें कैसे बचायें ? (एक अभिभावक का प्रश्न) ===
उत्तर इसका कारण मानसिक दुर्बलता है और मातापिता उसके लिये जिम्मेदार हैं । जीवन में कितनी भी कठिनाइयाँ आयें, मन की इच्छा पूरी न हो, समस्या से घिर जायें और मार्ग न दिखाई दे तो भी हिम्मत नहीं हारना, निराश नहीं होना, धैर्यपूर्वक मुसीबतों का सामना करना सिखाना चाहिये । मातापिता कुछ भी सिखाते नहीं, उल्टे हर बात में सब कुछ चाहिये उससे भी अधिक मिलता है, आराम है, सुविधा है, सुरक्षा है । दूसरी और उनकी रुचि, क्षमता आदि से पूर्ण बेखबर रहकर ऊँची अपेक्षायें रखी जाती हैं । हमें लगता है कि पैसे से खरीदी जाने वाली सब व्यवस्था कर देने से परीक्षा में अधिक अंक मिल ही जायेंगे । इन सबसे परेशान होकर उनके लिये बचने का कोई उपाय ही नहीं रहता और वे आत्महत्या करते हैं ।
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'''उत्तर''' इसका कारण मानसिक दुर्बलता है और मातापिता उसके लिये जिम्मेदार हैं । जीवन में कितनी भी कठिनाइयाँ आयें, मन की इच्छा पूरी न हो, समस्या से घिर जायें और मार्ग न दिखाई दे तो भी हिम्मत नहीं हारना, निराश नहीं होना, धैर्यपूर्वक मुसीबतों का सामना करना सिखाना चाहिये । मातापिता कुछ भी सिखाते नहीं, उल्टे हर बात में सब कुछ चाहिये उससे भी अधिक मिलता है, आराम है, सुविधा है, सुरक्षा है । दूसरी और उनकी रुचि, क्षमता आदि से पूर्ण बेखबर रहकर ऊँची अपेक्षायें रखी जाती हैं । हमें लगता है कि पैसे से खरीदी जाने वाली सब व्यवस्था कर देने से परीक्षा में अधिक अंक मिल ही जायेंगे । इन सबसे परेशान होकर उनके लिये बचने का कोई उपाय ही नहीं रहता और वे आत्महत्या करते हैं ।
    
वास्तव में उन्हें कठिनाई, समस्या, कष्ट आदि का अनुभव मिलना चाहिये, तात्त्विक और व्यावहारिक बुद्धि कसी जानी चाहिये, मन की शिक्षा होनी चाहिये । ऐसा होगा तभी वे सम्हलेंगे । नहीं तो आत्महत्या न करें तो भी तनाव, हताशा, उत्तेजना आदि तो रहता ही है । रक्तचाप, मधुप्रमेह और हृदयाघात की बिमारियाँ बढने का कारण यही है । जो आत्महत्या नहीं करते वे इन रोगों से ग्रस्त हो जाते है ।
 
वास्तव में उन्हें कठिनाई, समस्या, कष्ट आदि का अनुभव मिलना चाहिये, तात्त्विक और व्यावहारिक बुद्धि कसी जानी चाहिये, मन की शिक्षा होनी चाहिये । ऐसा होगा तभी वे सम्हलेंगे । नहीं तो आत्महत्या न करें तो भी तनाव, हताशा, उत्तेजना आदि तो रहता ही है । रक्तचाप, मधुप्रमेह और हृदयाघात की बिमारियाँ बढने का कारण यही है । जो आत्महत्या नहीं करते वे इन रोगों से ग्रस्त हो जाते है ।
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=== प्रश्न ४४. क्या वास्तव में संस्कृत पढने की आवश्यकता है ? यदि हाँ तो विद्यालय में वह कैसे पढाई जाय ? ===
 
=== प्रश्न ४४. क्या वास्तव में संस्कृत पढने की आवश्यकता है ? यदि हाँ तो विद्यालय में वह कैसे पढाई जाय ? ===
उत्तर धार्मिकों के लिये संस्कृत पढ़ना अनिवार्य है । इसके कई कारण हैं जिनमें दो सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है । धार्मिक ज्ञानधारा जिन ग्रन्थों में सुरक्षित है वे सब संस्कृत में रचे गये हैं । उनका प्रत्यक्ष पठन कर सकें इस लिये संस्कृत पढना आवश्यक है । एक धार्मिक को अपनी ही ज्ञानधारा का परिचय न हो यह कैसे सम्भव है ? वह शिक्षित ही कैसे कहा जायेगा ? दूसरा, भारत की सभी भाषाओं की जननी संस्कृत है । अपनी मातृभाषा को उत्तम स्तर की बनाने हेतु संस्कृत का ज्ञान अति आवश्यक है । हर कोई चाहेगा कि वह अपनी भाषा का प्रयोग उत्तम पद्धति से कर सके ।
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'''उत्तर''' धार्मिकों के लिये संस्कृत पढ़ना अनिवार्य है । इसके कई कारण हैं जिनमें दो सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है । धार्मिक ज्ञानधारा जिन ग्रन्थों में सुरक्षित है वे सब संस्कृत में रचे गये हैं । उनका प्रत्यक्ष पठन कर सकें इस लिये संस्कृत पढना आवश्यक है । एक धार्मिक को अपनी ही ज्ञानधारा का परिचय न हो यह कैसे सम्भव है ? वह शिक्षित ही कैसे कहा जायेगा ? दूसरा, भारत की सभी भाषाओं की जननी संस्कृत है । अपनी मातृभाषा को उत्तम स्तर की बनाने हेतु संस्कृत का ज्ञान अति आवश्यक है । हर कोई चाहेगा कि वह अपनी भाषा का प्रयोग उत्तम पद्धति से कर सके ।
    
संस्कृत तो क्या, जगत की कोई भी भाषा प्रथम बोलनी होती है । संस्कृत का प्रारम्भ भी संस्कृत बोलने से होता है । शिशु अवस्था से ही संस्कृत बोलने का अभ्यास आरम्भ करना चाहिये । जब पढ़ने लिखने का क्रम आता है तब लिपि सीखने की आयु में प्रथम लिपि और बाद में पठन आरम्भ करना चाहिये । अच्छा बोलना और पढन अच्छी तरह अवगत होने के बाद लेखन आरम्भ करना चाहिये । पढने हेतु सुन्दर, ललित और शास्त्रीय वाड़्य या तो एकत्रित करना चाहिये, नहीं तो निर्माण करना चाहिये । संस्कृत का अध्ययन आरम्भ करने से पूर्व, अपरिचय के कारण से जो ग्रन्थियाँ होती है वे अध्ययन आरम्भ करने के बाद शीघ्र ही छूट जाती है और आनन्द का अनुभव होता है।
 
संस्कृत तो क्या, जगत की कोई भी भाषा प्रथम बोलनी होती है । संस्कृत का प्रारम्भ भी संस्कृत बोलने से होता है । शिशु अवस्था से ही संस्कृत बोलने का अभ्यास आरम्भ करना चाहिये । जब पढ़ने लिखने का क्रम आता है तब लिपि सीखने की आयु में प्रथम लिपि और बाद में पठन आरम्भ करना चाहिये । अच्छा बोलना और पढन अच्छी तरह अवगत होने के बाद लेखन आरम्भ करना चाहिये । पढने हेतु सुन्दर, ललित और शास्त्रीय वाड़्य या तो एकत्रित करना चाहिये, नहीं तो निर्माण करना चाहिये । संस्कृत का अध्ययन आरम्भ करने से पूर्व, अपरिचय के कारण से जो ग्रन्थियाँ होती है वे अध्ययन आरम्भ करने के बाद शीघ्र ही छूट जाती है और आनन्द का अनुभव होता है।
    
=== प्रश्न ४५. क्या विद्यालय जाना इतना अनिवार्य है कि उसे संविधान के अन्तर्गत अनिवार्य बनाया जाता है और सबको निःशुल्क पढाने हेतु अभियान चलाया जाता है ? ===
 
=== प्रश्न ४५. क्या विद्यालय जाना इतना अनिवार्य है कि उसे संविधान के अन्तर्गत अनिवार्य बनाया जाता है और सबको निःशुल्क पढाने हेतु अभियान चलाया जाता है ? ===
उत्तर सबके लिये शिक्षा आवश्यक है । शिक्षा ज्ञानप्राप्ति का मार्ग है इसलिये सबके लिये आवश्यक है । परन्तु यह स्वेच्छा और स्वतन्त्रता से ही ग्रहण की जा सकती है,अनिवार्य बनाने से नहीं । निःशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा यह सरकार का नियम है । शिक्षा निःशुल्क होना तो ठीक ही है परन्तु अनिवार्य बनाना सम्भव नहीं होता । जिस पढ़ाना है उसके मन में इच्छा जगाना ही महत्त्वपूर्ण कार्य है । दूसरा, शिक्षा निःशुल्क होनी चाहिये उस तत्त्व को लेकर वह निःशुल्क नहीं की गई है । जिसे हम अनिवार्य बना रहे हैं उसे निःशुल्क बनाने की बाध्यता हो जाती है इसलिये उसे निःशुल्क रखा गया है । इस प्रकार निःशुल्क और अनिवार्य इन दोनों तत्त्वों में दृष्टिकोण ठीक नहीं होने से अभियान में यश प्राप्त नहीं होता है ।
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'''उत्तर''' सबके लिये शिक्षा आवश्यक है । शिक्षा ज्ञानप्राप्ति का मार्ग है इसलिये सबके लिये आवश्यक है । परन्तु यह स्वेच्छा और स्वतन्त्रता से ही ग्रहण की जा सकती है,अनिवार्य बनाने से नहीं । निःशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा यह सरकार का नियम है । शिक्षा निःशुल्क होना तो ठीक ही है परन्तु अनिवार्य बनाना सम्भव नहीं होता । जिस पढ़ाना है उसके मन में इच्छा जगाना ही महत्त्वपूर्ण कार्य है । दूसरा, शिक्षा निःशुल्क होनी चाहिये उस तत्त्व को लेकर वह निःशुल्क नहीं की गई है । जिसे हम अनिवार्य बना रहे हैं उसे निःशुल्क बनाने की बाध्यता हो जाती है इसलिये उसे निःशुल्क रखा गया है । इस प्रकार निःशुल्क और अनिवार्य इन दोनों तत्त्वों में दृष्टिकोण ठीक नहीं होने से अभियान में यश प्राप्त नहीं होता है ।
    
निःशुल्क और अनिवार्य होने के कारण से ही विद्यालय जाना भी अनिवार्य बन जाता है । व्यवस्था से अनिवार्य बनाई गई बात धीरे धीरे मानस में भी स्थापित हो जाती है । इसका परिणाम यह है कि व्यवस्था और मानसिकता दोनों प्रकार से शिक्षा के लिये विद्यालय अनिवार्य बन गया है । तात्तविक दृष्टि से, शैक्षिक दृष्टि से या व्यावहारिक दृष्टि से विद्यालय जाना अनिवार्य नहीं है । आज कुछ मात्रा में विद्यालय की व्यवस्था की अनिवार्यता समाप्त भी कर दी गई है तथापि सबके मानस में अब विद्यालय जाना अनिवार्य बन गया है ।
 
निःशुल्क और अनिवार्य होने के कारण से ही विद्यालय जाना भी अनिवार्य बन जाता है । व्यवस्था से अनिवार्य बनाई गई बात धीरे धीरे मानस में भी स्थापित हो जाती है । इसका परिणाम यह है कि व्यवस्था और मानसिकता दोनों प्रकार से शिक्षा के लिये विद्यालय अनिवार्य बन गया है । तात्तविक दृष्टि से, शैक्षिक दृष्टि से या व्यावहारिक दृष्टि से विद्यालय जाना अनिवार्य नहीं है । आज कुछ मात्रा में विद्यालय की व्यवस्था की अनिवार्यता समाप्त भी कर दी गई है तथापि सबके मानस में अब विद्यालय जाना अनिवार्य बन गया है ।
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=== प्रश्न ४६. एक व्यावहारिक कठिनाई ऐसी है कि अनेक बार जो बात जिसे बतानी है उसे बताने के स्थान पर दूसरों को ही बताई जाती है । अभिभावक सम्मेलनों में मातापिता को जो बताना चाहिये वह दादादादी को बताया जाता है । घर में दादादादी की बात मातापिता मानते ही नहीं है । मातापिता को सीधे सीधे बताने की क्या व्यवस्था है ? (एक समाजसेवी प्रौढ प्रश्न) ===
 
=== प्रश्न ४६. एक व्यावहारिक कठिनाई ऐसी है कि अनेक बार जो बात जिसे बतानी है उसे बताने के स्थान पर दूसरों को ही बताई जाती है । अभिभावक सम्मेलनों में मातापिता को जो बताना चाहिये वह दादादादी को बताया जाता है । घर में दादादादी की बात मातापिता मानते ही नहीं है । मातापिता को सीधे सीधे बताने की क्या व्यवस्था है ? (एक समाजसेवी प्रौढ प्रश्न) ===
उत्तर आप की बात विचार करने योग्य है । बताना तो मातापिता को ही चाहिये । वे ही जिम्मेदार भी हैं और निर्णय करनेवाले भी हैं ।
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'''उत्तर''' आप की बात विचार करने योग्य है । बताना तो मातापिता को ही चाहिये । वे ही जिम्मेदार भी हैं और निर्णय करनेवाले भी हैं ।
    
स्थिति यह है कि मातापिता अत्यन्त व्यस्त होते हैं । उन्हें विचार करने का समय ही नहीं मिलता । पूर्व पीढी का जमाना अब नहीं रहा और उन्हें आज के जमाने की समझ नहीं है ऐसा उन्हें लगता है इसलिये दादादादी की बात वे नहीं मानते । वे मार्गदर्शन प्राप्त करते हैं इण्टरनेट से अंग्रेजी में लिखी गई पाश्चात्य लेखकों की पुस्तकोंसे | वहाँ जो बताया जाता है वह हम जो कहते हैं उससे सर्वथा भिन्न होता है । उनका विश्वास उन बातों पर ही होता है, हमारी बातों पर नहीं। फिर उपाय क्‍या है ?
 
स्थिति यह है कि मातापिता अत्यन्त व्यस्त होते हैं । उन्हें विचार करने का समय ही नहीं मिलता । पूर्व पीढी का जमाना अब नहीं रहा और उन्हें आज के जमाने की समझ नहीं है ऐसा उन्हें लगता है इसलिये दादादादी की बात वे नहीं मानते । वे मार्गदर्शन प्राप्त करते हैं इण्टरनेट से अंग्रेजी में लिखी गई पाश्चात्य लेखकों की पुस्तकोंसे | वहाँ जो बताया जाता है वह हम जो कहते हैं उससे सर्वथा भिन्न होता है । उनका विश्वास उन बातों पर ही होता है, हमारी बातों पर नहीं। फिर उपाय क्‍या है ?
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=== प्रश्न ४७. आज चारों ओर जब विपरीत प्रवाह ही चल रहा है तब ये सर्वथा देशी पद्धतियाँ कैसे चलने वाली हैं ? क्या मध्य का रास्ता नहीं है ? ===
 
=== प्रश्न ४७. आज चारों ओर जब विपरीत प्रवाह ही चल रहा है तब ये सर्वथा देशी पद्धतियाँ कैसे चलने वाली हैं ? क्या मध्य का रास्ता नहीं है ? ===
उत्तर महत्त्वपूर्ण बात यह है कि बताने वाले ने समझौते की बात नहीं करनी चाहिये । बताने वाले ने सही बातें बतानी चाहिये । वर्तमान परिस्थिति में वे बहुत विपरीत या अव्यावहारिक लग सकती हैं । परन्तु व्यावहारिकता का विचार कर आधी अधूरी बातें नहीं बतानी चाहिये । मध्य के रास्ते तो लोग स्वयं निकाल लेते हैं । मध्य के रास्ते निकालने भी पड़ते हैं । परन्तु मध्य के रास्ते निकालते समय क्या सही है और क्या नहीं इसके मापदण्ड तो सामने रहने ही चाहिये । ऐसे मापदण्ड सामने रहने से प्रयत्नों की दिशा सही रहती है । आज स्थिति ऐसी है कि जो सही करना चाहते हैं उनके सामने भी आदर्श नहीं है, जानकारी भी नहीं है । हमें प्रथम तो सही जानकारी देनी चाहिये और साथ में उदाहरण भी प्रस्तुत करने चाहिये ।
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'''उत्तर''' महत्त्वपूर्ण बात यह है कि बताने वाले ने समझौते की बात नहीं करनी चाहिये । बताने वाले ने सही बातें बतानी चाहिये । वर्तमान परिस्थिति में वे बहुत विपरीत या अव्यावहारिक लग सकती हैं । परन्तु व्यावहारिकता का विचार कर आधी अधूरी बातें नहीं बतानी चाहिये । मध्य के रास्ते तो लोग स्वयं निकाल लेते हैं । मध्य के रास्ते निकालने भी पड़ते हैं । परन्तु मध्य के रास्ते निकालते समय क्या सही है और क्या नहीं इसके मापदण्ड तो सामने रहने ही चाहिये । ऐसे मापदण्ड सामने रहने से प्रयत्नों की दिशा सही रहती है । आज स्थिति ऐसी है कि जो सही करना चाहते हैं उनके सामने भी आदर्श नहीं है, जानकारी भी नहीं है । हमें प्रथम तो सही जानकारी देनी चाहिये और साथ में उदाहरण भी प्रस्तुत करने चाहिये ।
    
=== प्रश्न ४८. हमने एक उक्ति सुनी है, “सर्वनाशे समुत्पन्ने अर्थ त्यजति पण्डित:' अर्थात्‌ जब सब कुछ नष्ट होने कि स्थिति है तब कुछ आग्रह छोड देने चाहिये । प्रत्यक्ष में यह कैसे किया जाय ? ===
 
=== प्रश्न ४८. हमने एक उक्ति सुनी है, “सर्वनाशे समुत्पन्ने अर्थ त्यजति पण्डित:' अर्थात्‌ जब सब कुछ नष्ट होने कि स्थिति है तब कुछ आग्रह छोड देने चाहिये । प्रत्यक्ष में यह कैसे किया जाय ? ===
उत्तर वास्तव में सारे व्यवहारशास्त्र देशकालपरिस्थिति को देखकर ही ऐसे व्यवहार करना चाहिये यह बताते हैं । परन्तु ऐसे व्यवहार के भी कुछ मानक होते हैं । जो विचारशील, निःस्वार्थ, सबका भला चाहने वाले, लोगोंं की क्षमता और मर्यादा जानने वाले, ज्ञानवान लोग होते हैं वे इन सब बातों का विचार करके ही परामर्श देते हैं । ऐसे परामर्शक हमारे पास होने चाहिये । हमें तय भी कर लेना चाहिये कि हमारे परामर्शक कौन हैं । उनकी बात माननी चाहिये । आज कठिनाई यह है कि हमें ऐसे परामर्शक नहीं चाहिये होते हैं जो सही बात बतायें । हमें ऐसे चाहिये होते हैं जो हम चाहते हैं वह बतायें । आजकल ऐसे शिक्षक, ऐसे पण्डित, ऐसे डॉक्टर, ऐसे परामर्शक, ऐसे साधु मिल भी जाते हैं । इसी कारण से समाज संकट में पड गया है । इस स्थिति में हमें अपनी समझ बढानी होगी |
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'''उत्तर''' वास्तव में सारे व्यवहारशास्त्र देशकालपरिस्थिति को देखकर ही ऐसे व्यवहार करना चाहिये यह बताते हैं । परन्तु ऐसे व्यवहार के भी कुछ मानक होते हैं । जो विचारशील, निःस्वार्थ, सबका भला चाहने वाले, लोगोंं की क्षमता और मर्यादा जानने वाले, ज्ञानवान लोग होते हैं वे इन सब बातों का विचार करके ही परामर्श देते हैं । ऐसे परामर्शक हमारे पास होने चाहिये । हमें तय भी कर लेना चाहिये कि हमारे परामर्शक कौन हैं । उनकी बात माननी चाहिये । आज कठिनाई यह है कि हमें ऐसे परामर्शक नहीं चाहिये होते हैं जो सही बात बतायें । हमें ऐसे चाहिये होते हैं जो हम चाहते हैं वह बतायें । आजकल ऐसे शिक्षक, ऐसे पण्डित, ऐसे डॉक्टर, ऐसे परामर्शक, ऐसे साधु मिल भी जाते हैं । इसी कारण से समाज संकट में पड गया है । इस स्थिति में हमें अपनी समझ बढानी होगी |
    
=== प्रश्न ४९. बाहर का खाना नहीं, प्लास्टिक की बोतल का पानी पीना नहीं, सिन्थेटिक वस्त्र पहनना नहीं, प्रात: जल्दी उठना ये सब कितनी कठिन बातें हैं । आज के जमाने में यह सब कैसे सम्भव है ? ===
 
=== प्रश्न ४९. बाहर का खाना नहीं, प्लास्टिक की बोतल का पानी पीना नहीं, सिन्थेटिक वस्त्र पहनना नहीं, प्रात: जल्दी उठना ये सब कितनी कठिन बातें हैं । आज के जमाने में यह सब कैसे सम्भव है ? ===
उत्तर कठिन और सरल होना तो मनःस्थिति पर निर्भर करता है । जो भी हमें जँच जाता है उसे व्यवहारिक बनाने की अनुकूलता हम बना ही लेते हैं ।
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'''उत्तर''' कठिन और सरल होना तो मनःस्थिति पर निर्भर करता है । जो भी हमें जँच जाता है उसे व्यवहारिक बनाने की अनुकूलता हम बना ही लेते हैं ।
    
जो बात आज के जमाने में नाम पर हमें अव्यावहारिक लगती है वे तो वैज्ञानिक तथ्य हैं और सांस्कृतिक सत्य हैं । उन्हें छोडने के स्थान पर हमें उनके अनुकूल हमारी व्यवस्थायें बदलनी चाहिये । इतनी एक बात हमारी समझ में आ जाती है तो सरल और कठिन का प्रश्न ही नहीं रह जाता ।
 
जो बात आज के जमाने में नाम पर हमें अव्यावहारिक लगती है वे तो वैज्ञानिक तथ्य हैं और सांस्कृतिक सत्य हैं । उन्हें छोडने के स्थान पर हमें उनके अनुकूल हमारी व्यवस्थायें बदलनी चाहिये । इतनी एक बात हमारी समझ में आ जाती है तो सरल और कठिन का प्रश्न ही नहीं रह जाता ।
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=== प्रश्न ५१. आज के युवा ब्रह्मचर्य का पालन कर सकें ऐसी स्थिति ही नहीं है । इसका परिणाम तो बहुत विपरीत होता है, परन्तु बचने का उपाय क्या है ? ===
 
=== प्रश्न ५१. आज के युवा ब्रह्मचर्य का पालन कर सकें ऐसी स्थिति ही नहीं है । इसका परिणाम तो बहुत विपरीत होता है, परन्तु बचने का उपाय क्या है ? ===
उत्तर विषय तो कठिन है ही । मन पर चारों ओर से भीषण आक्रमण होते हैं । मन को सम्हालने की शक्ति नहीं है । मन की शक्ति बढ़े ऐसे कोई उपाय नहीं किये जाते । छोटी आयु से उपाय नहीं किये जाते इसलिये युवावस्था तक पहुँचते पहुँचते बातें अधिक कठिन हो जाती हैं । इसके तत्काल और दीर्घकालीन दोनों उपाय करने चाहिये ?
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'''उत्तर''' विषय तो कठिन है ही । मन पर चारों ओर से भीषण आक्रमण होते हैं । मन को सम्हालने की शक्ति नहीं है । मन की शक्ति बढ़े ऐसे कोई उपाय नहीं किये जाते । छोटी आयु से उपाय नहीं किये जाते इसलिये युवावस्था तक पहुँचते पहुँचते बातें अधिक कठिन हो जाती हैं । इसके तत्काल और दीर्घकालीन दोनों उपाय करने चाहिये ?
    
(१) कक्षाकक्षों में उपस्थिति अनिवार्य होना ।
 
(१) कक्षाकक्षों में उपस्थिति अनिवार्य होना ।
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=== प्रश्न ५३. सम्पूर्ण विद्यार्थी वर्ग को आज किन बातों से मुक्त करने की और बचाने की आवश्यकता है ? ===
 
=== प्रश्न ५३. सम्पूर्ण विद्यार्थी वर्ग को आज किन बातों से मुक्त करने की और बचाने की आवश्यकता है ? ===
उत्तर व्यवहारदृक्ष लोग कहते हैं कि अपने प्रयासों में यशस्वी होना है तो सरल बातों की ओर पहले ध्यान देना चाहिये । ऐसा करने से कठिन बातें क्रमशः सरल होती जाती हैं ।
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'''उत्तर''' व्यवहारदृक्ष लोग कहते हैं कि अपने प्रयासों में यशस्वी होना है तो सरल बातों की ओर पहले ध्यान देना चाहिये । ऐसा करने से कठिन बातें क्रमशः सरल होती जाती हैं ।
    
इसलिये सर्वस्तरों पर प्रथम तो स्पर्धा बहिष्कृत करना चाहिये । इस विषय की शास्त्रीय चर्चा करने का यह समय नहीं है, परन्तु स्पर्धा बडा अनिष्ट है यह मानना चाहिये ।
 
इसलिये सर्वस्तरों पर प्रथम तो स्पर्धा बहिष्कृत करना चाहिये । इस विषय की शास्त्रीय चर्चा करने का यह समय नहीं है, परन्तु स्पर्धा बडा अनिष्ट है यह मानना चाहिये ।
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=== प्रश्न ५४. ऐसी पाँच बातें बताइये जो हमें कठोरतापूर्वक हमारे दस से पन्द्रह वर्षों के बच्चोंं के लिये लागू करनी चाहिये । ===
 
=== प्रश्न ५४. ऐसी पाँच बातें बताइये जो हमें कठोरतापूर्वक हमारे दस से पन्द्रह वर्षों के बच्चोंं के लिये लागू करनी चाहिये । ===
उत्तर
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'''उत्तर'''
    
१, होटेलिंग शत प्रतिशत बन्द |
 
१, होटेलिंग शत प्रतिशत बन्द |
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=== प्रश्न ५५. ऐसी पाँच बातें बताइयें जो हमें माध्यमिक विद्यालय के विद्यार्थियों से अनिवार्य रूप से करवानी चाहिये । (एक शिक्षक का प्रश्न) ===
 
=== प्रश्न ५५. ऐसी पाँच बातें बताइयें जो हमें माध्यमिक विद्यालय के विद्यार्थियों से अनिवार्य रूप से करवानी चाहिये । (एक शिक्षक का प्रश्न) ===
उत्तर १, प्रतिदिन बीस वाक्य मौलिकतापूर्वक शुद्ध भाषा में लिखना ।
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'''उत्तर''' १, प्रतिदिन बीस वाक्य मौलिकतापूर्वक शुद्ध भाषा में लिखना ।
    
२. प्रतिदिन निश्चित की हुई पुस्तक के बीस पृष्ठ पढना ।
 
२. प्रतिदिन निश्चित की हुई पुस्तक के बीस पृष्ठ पढना ।
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=== प्रश्न ५६. ऐसी पाँच बातें बताइये जो अच्छे शिक्षक बनने हेतु हमें आग्रहपूर्वक करनी चाहिये । (एक शिक्षक का प्रश्न) ===
 
=== प्रश्न ५६. ऐसी पाँच बातें बताइये जो अच्छे शिक्षक बनने हेतु हमें आग्रहपूर्वक करनी चाहिये । (एक शिक्षक का प्रश्न) ===
उत्तर १. प्रतिमास धार्मिक शिक्षाविषयक एक पुस्तक पढना।
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'''उत्तर''' १. प्रतिमास धार्मिक शिक्षाविषयक एक पुस्तक पढना।
    
२. वर्ष में कम से कम एक बार शिक्षकों की गोष्ठी आयोजित करना अथवा उसमें जाना ।
 
२. वर्ष में कम से कम एक बार शिक्षकों की गोष्ठी आयोजित करना अथवा उसमें जाना ।
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=== प्रश्न ५७. ऐसी एक पुस्तक का नाम दें जो भारत के हर शिक्षित व्यक्ति को पढनी और समझनी चाहिये । (एक जिज्ञासु का प्रश्र) ===
 
=== प्रश्न ५७. ऐसी एक पुस्तक का नाम दें जो भारत के हर शिक्षित व्यक्ति को पढनी और समझनी चाहिये । (एक जिज्ञासु का प्रश्र) ===
उत्तर श्रीमटू भगवदूगीता ।
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'''उत्तर''' श्रीमद भगवदूगीता ।
    
=== प्रश्न ५८. क्या अंग्रेजी बोलने वाले और मातृभषा नहीं बोलने वाले कम देशभक्त होते हैं ? (एक जिज्ञासु का प्रश्र) ===
 
=== प्रश्न ५८. क्या अंग्रेजी बोलने वाले और मातृभषा नहीं बोलने वाले कम देशभक्त होते हैं ? (एक जिज्ञासु का प्रश्र) ===
उत्तर निश्चित !
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'''उत्तर''' निश्चित !
    
=== प्रश्न ५९. क्या भारत में शिक्षा धार्मिक होगी ? यह सम्भव है ? (एक जिज्ञासु का प्रश्न) ===
 
=== प्रश्न ५९. क्या भारत में शिक्षा धार्मिक होगी ? यह सम्भव है ? (एक जिज्ञासु का प्रश्न) ===
उत्तर निश्चितरूप से भारतमें धार्मिक शिक्षा प्रतिष्ठित होगी । यह विश्व की आवश्यकता है और भारत की नियति ।
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'''उत्तर''' निश्चितरूप से भारतमें धार्मिक शिक्षा प्रतिष्ठित होगी । यह विश्व की आवश्यकता है और भारत की नियति ।
    
=== प्रश्न ६०. शिक्षा पुन: धार्मिक हो इसके लिये किसे काम करना होगा ? ===
 
=== प्रश्न ६०. शिक्षा पुन: धार्मिक हो इसके लिये किसे काम करना होगा ? ===
उत्तर हम में से कोई बाकी न रहे । हम सबको काम करना होगा ।
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'''उत्तर''' हम में से कोई बाकी न रहे । हम सबको काम करना होगा ।
    
==References==
 
==References==
<references />धार्मिक शिक्षा : धार्मिक शिक्षा के व्यावहारिक आयाम (धार्मिक शिक्षा ग्रन्थमाला ३), पर्व ५, प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे
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<references />
 
[[Category:ग्रंथमाला 3 पर्व 5: विविध]]
 
[[Category:ग्रंथमाला 3 पर्व 5: विविध]]
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