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४८. जिन बातों का सम्बन्ध मन के सदूगुण और सदाचार के साथ है वे घर में ही बनें तो संस्कारों की रक्षा होती है । भोजन और शिशुसंगोपन ऐसे ही दो काम हैं जो घर में ही होने चाहिये । इन कामों में बाजार का प्रवेश होते ही संस्कारों का हास होने लगता है ।
 
४८. जिन बातों का सम्बन्ध मन के सदूगुण और सदाचार के साथ है वे घर में ही बनें तो संस्कारों की रक्षा होती है । भोजन और शिशुसंगोपन ऐसे ही दो काम हैं जो घर में ही होने चाहिये । इन कामों में बाजार का प्रवेश होते ही संस्कारों का हास होने लगता है ।
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४९. घर धर्मशाला नहीं है, होटेल भी नहीं है और सदाब्रत भी नहीं है । घर की कर्मयुक्त सेवा कर ही घर को घर बनाया जा सकता है । इस भाव को सिखाना भी मातापिता का दायित्व है ।
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४९. घर धर्मशाला नहीं है, होटेल भी नहीं है और सदाव्रत भी नहीं है । घर की कर्मयुक्त सेवा कर ही घर को घर बनाया जा सकता है । इस भाव को सिखाना भी मातापिता का दायित्व है ।
    
५०. वर्तमान में परिवार स्वावलम्बी नहीं रहे हैं, नौकरावलम्बी और बाजारावलम्बी बन गये हैं । वास्तव में नौकर घर के सदस्यों के सहायक होते हैं, पर्याय नहीं । घर के कामों के प्रति रुचि और लगाव होने से परिवार स्वावलम्बी बनता है । घर के कामों को तुच्छ और बोजरूप जानने से घर की ही अवमानना होती है ।
 
५०. वर्तमान में परिवार स्वावलम्बी नहीं रहे हैं, नौकरावलम्बी और बाजारावलम्बी बन गये हैं । वास्तव में नौकर घर के सदस्यों के सहायक होते हैं, पर्याय नहीं । घर के कामों के प्रति रुचि और लगाव होने से परिवार स्वावलम्बी बनता है । घर के कामों को तुच्छ और बोजरूप जानने से घर की ही अवमानना होती है ।

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