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== राष्ट्र की आत्मा “चिति' ==
 
== राष्ट्र की आत्मा “चिति' ==
भारत एक राष्ट्र है। प्रत्येक राष्ट्र का एक स्वभाव होता है। उस स्वभाव को चिति कहते हैं। दैशिकशास्त्र नामक एक ग्रन्थ है। उस ग्रन्थ में चिति को राष्ट्र की आत्मा कहा गया है। भगवान कृष्ण ने अपनी गीता में भी
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भारत एक राष्ट्र है। प्रत्येक राष्ट्र का एक स्वभाव होता है। उस स्वभाव को चिति कहते हैं। दैशिकशास्त्र नामक एक ग्रन्थ है। उस ग्रन्थ में चिति को राष्ट्र की आत्मा कहा गया है। भगवान कृष्ण ने अपनी गीता में भी कहा है<ref>श्रीमद भगवदगीता 8.3</ref>: <blockquote>अक्षरं ब्रह्म परमं स्वभावोऽध्यात्ममुच्यते।</blockquote><blockquote>भूतभावोद्भवकरो विसर्गः कर्मसंज्ञितः।।8.3।।</blockquote><blockquote>"श्रीभगवान् ने कहा - परम अक्षर (अविनाशी) तत्व ब्रह्म है स्वभाव (अपना स्वरूप) अध्यात्म कहा जाता है भूतों के भावों को उत्पन्न करने वाला विसर्ग (यज्ञ प्रेरक बल) कर्म नाम से जाना जाता है।।"<ref>'''Hindi Translation By Swami Tejomayananda (Taken from Gita super site)'''  https://www.gitasupersite.iitk.ac.in/srimad?language=dv&field_chapter_value=8&field_nsutra_value=3&httyn=1&choose=1</ref></blockquote>अर्थात आत्मा ही स्वभाव है। राष्ट्र की आत्मा कहो या स्वभाव, एक ही बात है। भगवान वेदव्यास ने ब्रह्मसूत्र में चिति को चैतन्य कहा है। चैतन्य का अर्थ भी आत्मा ही है। वेदान्त दर्शन उसे शबल ब्रह्म कहता है। वह भी आत्मतत्व है। राष्ट्र को स्वभाव अपने जन्म के साथ ही प्राप्त होता है। वह उसके अस्तित्व का अभिन्न अंग है। जब तक यह स्वभाव रहता है तब तक राष्ट्र भी रहता है। जब स्वभाव बदलता है तब राष्ट्र बदलता है। जब स्वभाव पूर्ण बदलता है तब राष्ट्र नष्ट होता है। फिर नाम रहता है परन्तु राष्ट्र अलग ही हो जाता है। इसे ही उस देश का देशपन कहते हैं। भारतीयता भारत का भारतपन है, उसकी आत्मा है, उसका स्वभाव है, उसकी पहचान है। विश्व के कई देशों का स्वभाव बदल कर वे या तो अपना अस्तित्व मिटा चुके हैं अथवा बदल गये हैं परन्तु भारत ने अपने जन्म से लेकर आज तक अपनी पहचान नहीं बदली है।
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Ha ब्रह्म परमं स्वभावो5ध्यात्ममुच्यते।
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हमारे मनीषी इस तथ्य का जो दर्शन करते हैं, उसकी जो अनुभूति करते हैं उस आधार पर शास्त्रों की रचना होती है। समाज की सारी व्यवस्थायें इस तथ्य के अनुरूप ही बनती हैं। प्रजा का मानस भी उसी के अनुरूप बनता है। उचित अनुचित की कल्पना भी उसी के अनुसार बनती है।
 
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भूतभावोद्भधवकरो विसर्ग: कर्मसब्चित:।। (गीता.८.३)
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ऐसा कहा है। अर्थात आत्मा ही स्वभाव है। राष्ट्र की आत्मा कहो या स्वभाव, एक ही बात है। भगवान वेदव्यास ने ब्रह्मसूत्र में चिति को चैतन्य कहा है। चैतन्य का अर्थ भी आत्मा ही है। वेदान्त दर्शन उसे शबल ब्रह्म कहता है। वह भी आत्मतत्त्व है। राष्ट्र को स्वभाव अपने जन्म के साथ ही प्राप्त होता है। वह उसके अस्तित्व का अभिन्न अंग है। जब तक यह स्वभाव रहता है तब तक राष्ट्र भी रहता है। जब स्वभाव बदलता है तब राष्ट्र बदलता है। जब स्वभाव पूर्ण बदलता है तब राष्ट्र नष्ट होता है। फिर नाम रहता है परन्तु राष्ट्र अलग ही हो जाता है। इसे ही उस देश का देशपन कहते हैं। भारतीयता भारत का भारतपन है, उसकी आत्मा है, उसका स्वभाव है, उसकी पहचान है। विश्व के कई देशों का स्वभाव बदल कर वे या तो अपना अस्तित्व मिटा चुके हैं अथवा बदल गये हैं परन्तु भारत ने अपने जन्म से लेकर आज तक अपनी पहचान नहीं बदली है।
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हमारे मनीषी इस तथ्य का जो दर्शन करते हैं, उसकी जो अनुभूति करते हैं उस आधार पर शास्त्रों की रचना होती है। समाज की सारी व्यवस्थायें इस तथ्य के अनुरूप ही बनती हैं। प्रजा का मानस भी उसीके अनुरूप बनता है। उचित अनुचित की कल्पना भी उसीके अनुसार बनती है।
      
छोटी से छोटी और बड़ी से बड़ी बातों के पीछे इस स्वभाव का ही निकष रहता है। भारत के लिये भारतीयता स्वभाव है। भारत के प्रजाजनों के लिये भारतीय होना ही स्वाभाविक है। इसलिये अनेक लोगों के मन में इस विषय में प्रश्न ही निर्माण नहीं होता है। जब बात स्वाभाविक ही हो तो प्रश्र कैसे निर्माण होंगे ?
 
छोटी से छोटी और बड़ी से बड़ी बातों के पीछे इस स्वभाव का ही निकष रहता है। भारत के लिये भारतीयता स्वभाव है। भारत के प्रजाजनों के लिये भारतीय होना ही स्वाभाविक है। इसलिये अनेक लोगों के मन में इस विषय में प्रश्न ही निर्माण नहीं होता है। जब बात स्वाभाविक ही हो तो प्रश्र कैसे निर्माण होंगे ?
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हमारी हर व्यवस्था, उसे “भारतीय विशेषण जोड़ो या न जोड़ो तो भी भारतीय ही रहेगी। कारण स्पष्ट है। उसे बनाने वाले और अपनाने वाले भारतीय हैं। उन्हें भी यह सब उचित और सही लगता है। अपनाने वाले न तो खुलासा पूछते हैं, बनाने वालों को न खुलासे देने की आवश्यकतालगती है। प्रश्न पूछे भी जाते हैं तो वे जिज्ञासावश होते हैं।
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हमारी हर व्यवस्था, उसे 'भारतीय' विशेषण जोड़ो या न जोड़ो तो भी भारतीय ही रहेगी। कारण स्पष्ट है। उसे बनाने वाले और अपनाने वाले भारतीय हैं। उन्हें भी यह सब उचित और सही लगता है। अपनाने वाले न तो खुलासा पूछते हैं, बनाने वालों को न खुलासे देने की आवश्यकतालगती है। प्रश्न पूछे भी जाते हैं तो वे जिज्ञासावश होते हैं।
    
आकलन में गलतियाँ की भी जाती हैं तो वे अज्ञान या अल्पज्ञान के कारण होती हैं, अनास्था या अस्वीकृति के कारण नहीं। परन्तु आज “भारतीय' और “अभारतीय 'ऐसे दो विशेषणों का प्रयोग होने लगा है। इसका एक ऐतिहासिक सन्दर्भ है। सत्रहवीं शताब्दी के प्रारम्भ में ही अंग्रेज़, फ्रेंच, पोर्तुगीज जैसे यूरोपीय देशों के लोग भारत में आने लगे। वे भारत की समृद्धि से आकर्षित होकर आये थे। कालफ्रम में अंग्रेज़ प्रभावी सिद्ध हुए। उन्होंने भारत में राज्य हस्तगत किया। साथ ही पूर्व में किसी शासक ने नहीं की होगी वैसी बात भी उन्होंने की। उन्होंने समाज की स्वायत्तता और स्वतन्त्रता को ही समाप्त कर दिया और समाज को राज्य के अधीन बनाया। अंग्रेजों से पूर्व के समय में भारत में समाज सर्वोपरि था और राज्यतन्त्र समाजतन्त्र के अनुकूल चलता था। अंग्रेजों ने राज्य को सर्वोपरि बनाया और समाज को राज्य के अधीन बना दिया। यहीं से अभारतीयता का प्रारम्भ हुआ। समाज ही राज्य के अधीन हो गया तब समाज की व्यवस्था में चलने वाली सारी बातें भी राज्य के अधीन हो गईं। व्यापार, कृषि और अन्य उद्योग, शिक्षा, चिकित्सा आदि सारी बातें राज्य के ही अधीन हो गईं।
 
आकलन में गलतियाँ की भी जाती हैं तो वे अज्ञान या अल्पज्ञान के कारण होती हैं, अनास्था या अस्वीकृति के कारण नहीं। परन्तु आज “भारतीय' और “अभारतीय 'ऐसे दो विशेषणों का प्रयोग होने लगा है। इसका एक ऐतिहासिक सन्दर्भ है। सत्रहवीं शताब्दी के प्रारम्भ में ही अंग्रेज़, फ्रेंच, पोर्तुगीज जैसे यूरोपीय देशों के लोग भारत में आने लगे। वे भारत की समृद्धि से आकर्षित होकर आये थे। कालफ्रम में अंग्रेज़ प्रभावी सिद्ध हुए। उन्होंने भारत में राज्य हस्तगत किया। साथ ही पूर्व में किसी शासक ने नहीं की होगी वैसी बात भी उन्होंने की। उन्होंने समाज की स्वायत्तता और स्वतन्त्रता को ही समाप्त कर दिया और समाज को राज्य के अधीन बनाया। अंग्रेजों से पूर्व के समय में भारत में समाज सर्वोपरि था और राज्यतन्त्र समाजतन्त्र के अनुकूल चलता था। अंग्रेजों ने राज्य को सर्वोपरि बनाया और समाज को राज्य के अधीन बना दिया। यहीं से अभारतीयता का प्रारम्भ हुआ। समाज ही राज्य के अधीन हो गया तब समाज की व्यवस्था में चलने वाली सारी बातें भी राज्य के अधीन हो गईं। व्यापार, कृषि और अन्य उद्योग, शिक्षा, चिकित्सा आदि सारी बातें राज्य के ही अधीन हो गईं।
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भारतीय शिक्षा की श्रेष्ठता किसमें है यह जानना।
 
भारतीय शिक्षा की श्रेष्ठता किसमें है यह जानना।
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भारत की शिक्षा के मूल तत्त्वों और व्यवहार के विषय में जानना।
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भारत की शिक्षा के मूल तत्वों और व्यवहार के विषय में जानना।
    
इनके सम्बन्ध में जानने के साथ साथ आज भारत में शिक्षा की क्या अवस्था है, उसके कारण और परिणाम कौनसे हैं, आज यदि शिक्षा की दुरवस्था है तो उसे ठीक करने के क्या उपाय हैं यह भी हमें समझना होगा। इसके बाद योजना का भी विचार करना होगा। अर्थात यह एक व्यापक प्रयास है जो हमें धैर्यपूर्वक करना है। चिन्तन से शुरु कर कार्ययोजना तक का हमारा व्याप है।
 
इनके सम्बन्ध में जानने के साथ साथ आज भारत में शिक्षा की क्या अवस्था है, उसके कारण और परिणाम कौनसे हैं, आज यदि शिक्षा की दुरवस्था है तो उसे ठीक करने के क्या उपाय हैं यह भी हमें समझना होगा। इसके बाद योजना का भी विचार करना होगा। अर्थात यह एक व्यापक प्रयास है जो हमें धैर्यपूर्वक करना है। चिन्तन से शुरु कर कार्ययोजना तक का हमारा व्याप है।
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== धर्म विश्वनियम है ==
 
== धर्म विश्वनियम है ==
मनुष्य बनने और बने रहने के लिये जो नियामक तत्त्व है वह धर्म है। आश्चर्य मत करें। वर्तमान के अनेक सन्दर्भों के कारण धर्म संज्ञा विवाद में पड़ गई है और हमारे मन में उलझन निर्माण करती है यह सत्य है परन्तु धर्म धर्म है और हमारे लिये अनिवार्य है यह परम सत्य है। बहुत संक्षेप में हम समझ लें कि “धर्म' से हमारा क्या तात्पर्य है।
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मनुष्य बनने और बने रहने के लिये जो नियामक तत्व है वह धर्म है। आश्चर्य मत करें। वर्तमान के अनेक सन्दर्भों के कारण धर्म संज्ञा विवाद में पड़ गई है और हमारे मन में उलझन निर्माण करती है यह सत्य है परन्तु धर्म धर्म है और हमारे लिये अनिवार्य है यह परम सत्य है। बहुत संक्षेप में हम समझ लें कि “धर्म' से हमारा क्या तात्पर्य है।
    
धर्म विश्वनियम है। इस नियम के कारण सृष्टि में असंख्य ग्रह, नक्षत्र आदि सारे पदार्थ निरन्तर गतिमान होने के बाद भी, अपनी अपनी गति से गतिमान होने के बाद भी आपस में टकराते नहीं हैं। पंचमहाभूतों और प्राणियों के स्वभाव एकदूसरे से भिन्न, और कभी विरोधी होने पर भी सब सुरक्षित हैं, सबका जीवननिर्वाह हो जाता है। यह उस विश्वनियम के कारण होता है। इस विश्वनियम को वेदों में ऋत कहा है। यह ma at धर्म है। सुरक्षापूर्वक, waa, Aaa बने रहने को धारणा कहते हैं।
 
धर्म विश्वनियम है। इस नियम के कारण सृष्टि में असंख्य ग्रह, नक्षत्र आदि सारे पदार्थ निरन्तर गतिमान होने के बाद भी, अपनी अपनी गति से गतिमान होने के बाद भी आपस में टकराते नहीं हैं। पंचमहाभूतों और प्राणियों के स्वभाव एकदूसरे से भिन्न, और कभी विरोधी होने पर भी सब सुरक्षित हैं, सबका जीवननिर्वाह हो जाता है। यह उस विश्वनियम के कारण होता है। इस विश्वनियम को वेदों में ऋत कहा है। यह ma at धर्म है। सुरक्षापूर्वक, waa, Aaa बने रहने को धारणा कहते हैं।
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आजकल बिना विवाह के स्त्रीपुरुष साथ साथ रहते हैं। वे at ak yes a कामयुक्त व्यवहार भी करते हैं परन्तु वे पति पत्नी नहीं होते हैं, केवल साथीदार होते हैं। यह विवाह नहीं है, आन्तरिक सम्बन्ध भी नहीं है इसलिए वे समाज भी नहीं बनते हैं।
 
आजकल बिना विवाह के स्त्रीपुरुष साथ साथ रहते हैं। वे at ak yes a कामयुक्त व्यवहार भी करते हैं परन्तु वे पति पत्नी नहीं होते हैं, केवल साथीदार होते हैं। यह विवाह नहीं है, आन्तरिक सम्बन्ध भी नहीं है इसलिए वे समाज भी नहीं बनते हैं।
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विवाह भी केवल तान्त्रिक व्यवस्था नहीं है जो केवल कानून पर आधारित होती है। वह एकात्म सम्बन्ध है। उस सम्बन्ध के आधार पर स्त्री और पुरुष साथ रहते हैं तब परिवार बनता है। परिवार की इकाइयाँ जब साथ साथ रहती हैं तो उनमें भी एकात्म सम्बन्ध का सूत्र ही लागू है। इस प्रकार से जो समाज बनता है वह शिक्षा का आधार है। समाज के स्तर पर एकात्म सम्बन्ध की स्वाभाविकता और आवश्यकता की जो शिक्षा होती है वह समाज की आवश्यकता है। समाज को जब यह शिक्षा मिलती है तब सामुदायिक जीवन की सारी व्यवस्थायें परिवारभावना से अनुप्राणित होती हैं। यह तत्त्व गूढ़ लगता है क्योंकि उसका अनुभव करना किंचित कठिन होता 2।
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विवाह भी केवल तान्त्रिक व्यवस्था नहीं है जो केवल कानून पर आधारित होती है। वह एकात्म सम्बन्ध है। उस सम्बन्ध के आधार पर स्त्री और पुरुष साथ रहते हैं तब परिवार बनता है। परिवार की इकाइयाँ जब साथ साथ रहती हैं तो उनमें भी एकात्म सम्बन्ध का सूत्र ही लागू है। इस प्रकार से जो समाज बनता है वह शिक्षा का आधार है। समाज के स्तर पर एकात्म सम्बन्ध की स्वाभाविकता और आवश्यकता की जो शिक्षा होती है वह समाज की आवश्यकता है। समाज को जब यह शिक्षा मिलती है तब सामुदायिक जीवन की सारी व्यवस्थायें परिवारभावना से अनुप्राणित होती हैं। यह तत्व गूढ़ लगता है क्योंकि उसका अनुभव करना किंचित कठिन होता 2।
    
दूसरा कारण यह भी है कि आज इस दिशा में चिन्तन होता भी नहीं है। एकात्म समाज के लिये एकात्म शिक्षा चाहिये। यह समाज की आवश्यकता है।
 
दूसरा कारण यह भी है कि आज इस दिशा में चिन्तन होता भी नहीं है। एकात्म समाज के लिये एकात्म शिक्षा चाहिये। यह समाज की आवश्यकता है।

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