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→‎धर्म विश्वनियम है: लेख सम्पादित किया
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सृष्टि के प्रत्येक पदार्थ का अपना अपना स्वभाव होता है। अग्नि का स्वभाव गर्मी और प्रकाश देने का है। पानी का स्वभाव समतल बने रहने का और शीतलता देने का है। शक्कर पानी में घुलती है। मोम गर्मी से पिघलता है। साँप रेंगकर ही गति करता है। गाय कभी माँस नहीं खाती है। सिंह कभी घास नहीं खाता है। प्राणी और पदार्थ कभी भी अपना स्वभाव छोड़ते नहीं हैं। कभी नहीं छोड़ते हैं, नहीं छोड़ सकते हैं इसलिये ही उसे स्वभाव कहते हैं। गाय का गायपन, सिंह का सिंहपन, पानी का पानीपन, अगि का अगिपन ही स्वभाव है। यह धर्म है। इसे गुणधर्म भी कहते हैं।
 
सृष्टि के प्रत्येक पदार्थ का अपना अपना स्वभाव होता है। अग्नि का स्वभाव गर्मी और प्रकाश देने का है। पानी का स्वभाव समतल बने रहने का और शीतलता देने का है। शक्कर पानी में घुलती है। मोम गर्मी से पिघलता है। साँप रेंगकर ही गति करता है। गाय कभी माँस नहीं खाती है। सिंह कभी घास नहीं खाता है। प्राणी और पदार्थ कभी भी अपना स्वभाव छोड़ते नहीं हैं। कभी नहीं छोड़ते हैं, नहीं छोड़ सकते हैं इसलिये ही उसे स्वभाव कहते हैं। गाय का गायपन, सिंह का सिंहपन, पानी का पानीपन, अगि का अगिपन ही स्वभाव है। यह धर्म है। इसे गुणधर्म भी कहते हैं।
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विश्वनियम के आधार पर सृष्टि और समाज की धारणा हेतु मनुष्य के लिये आचरण के जो नियम बने हैं उन्हें धर्म कहते हैं। यह धर्म कर्तव्य है। इसे कर्तव्य धर्म कहते हैं। उदाहरण के लिये छात्र को आचार्य का आदर करना चाहिये और उनकी आज्ञा का पालन करना चाहिये यह छात्रधर्म है। पिता को पुत्र का पालन करना चाहिये और पालनपोषण पूर्वक का बहुत बड़ा हिस्सा है। संक्षेप में मनुष्य का जीवन शिक्षारहित होता ही नहीं है। हम जब शिक्षा का विचार करने के लिये उद्यत हुए हैं तब इन तथ्यों को हमें ठीक से समझ लेने की आवश्यकता है।
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विश्वनियम के आधार पर सृष्टि और समाज की धारणा हेतु मनुष्य के लिये आचरण के जो नियम बने हैं उन्हें धर्म कहते हैं। यह धर्म कर्तव्य है। इसे कर्तव्य धर्म कहते हैं। उदाहरण के लिये छात्र को आचार्य का आदर करना चाहिये और उनकी आज्ञा का पालन करना चाहिये यह छात्रधर्म है। पिता को पुत्र का पालन करना चाहिये और पालनपोषण पूर्वक उसे कर्तव्य धर्म सिखाना चाहिये, यह उसका कर्तव्य है, उसका पितृधर्म है। राजा का प्रजा के प्रति जो कर्तव्य है वह उसका राजधर्म है। गृहस्थ का समाज के प्रति जो कर्तव्य है वह उसका समाजधर्म है, नागरिक का देश के प्रति जो कर्तव्य है वह उसका देशधर्म है। हरेक व्यक्ति को अपनी संस्कृति का आदर और श्रद्धपूर्वक, कृतिशील होकर अनुसरण करना चाहिये यह उसका राष्ट्रधर्म है। मनुष्य को विश्वनियमरूप धर्म, स्वभावधर्म और 'कर्तव्यधर्म ऐसे तीनों का पालन करना होता है। इस धर्म का पालन नहीं किया तो सृष्टि का सामंजस्य बिगड़ता है, जीवनसंकट में पड़ जाता है| सृष्टि का सामंजस्य बिगाड़ना अधर्म है, अपराध है। धर्म से ही जीवन के परम लक्ष्य मोक्ष के प्रति गति होती है और उसकी प्राप्ति होती है। इस धर्म को सिखाने के लिये शिक्षा होती है। शिक्षा का यह परम लक्ष्य है | विश्वनियम के आधार पर मनुष्य के कर्तव्य और कर्तव्य के पालनपूर्वक अपना जीवन सुखमय बनाना यह मनुष्य के लिये जीवनसाधना है । मनुष्य को स्वतन्त्रता प्राप्त है, स्वतन्त्रता को सुरक्षित रखने का सामर्थ्य प्राप्त हुआ है, साथ ही सृष्टि का सामंजस्य न बिगाड़ने का कर्तव्य और दायित्व भी प्राप्त हुआ है। इसका पालन करना अनेक कारणों से उसके लिये सरल नहीं है। इसे सरल और सहज बनाना ही उसके लिये साधना है । शिक्षा जीवनसाधना के लिये मनुष्य को समर्थ बनाती है ।
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== शिक्षा का समाजजीवन में स्थान ==
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== शिक्षा धर्म सिखाती है ==
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इसलिए मनुष्य के लिये शिक्षा अनिवार्य है। मोक्षमार्ग को प्रशस्त करने वाले धर्म को सिखाने वाली शिक्षा के अनेक गौण आयाम हैं जो व्यवहारजीवन के लिये अत्यन्त आवश्यक हैं। गौण होने का अर्थ वे कम महत्वपूर्ण हैं ऐसा नहीं है। उसका अर्थ यह है कि वे सब मुख्य बात के अविरोधी होने चाहिये अर्थात धर्म के अविरोधी होने चाहिये। उदाहरण के लिये मनुष्य को अन्न वस्त्र की अनिवार्य आवश्यकता है | मनुष्य को अन्न वस्त्र अन्य प्राणियों के तरह बिना प्रयास किये प्राप्त नहीं होते हैं। पशुओं को भी अपना अन्न प्राप्त करने के लिये कहीं जाना पड़ता है, कभी संघर्ष करना पड़ता है, कभी संकटों का सामना करना पड़ता है यह बात सत्य है, परन्तु एक बार प्राप्त कर लेने के बाद उसे 'काटना, छीलना या पकाना नहीं पड़ता है। प्राणियों को वस्त्र पहनने नहीं पड़ते हैं क्योंकि शीलरक्षा या शरीररक्षा का प्रश्न उनके लिये नहीं है। निवास के लिये केवल पक्षी को घोंसला बनाना पड़ता है। शेष सारे प्राणी या तो प्रकृति निर्मित स्थानों में अथवा मनुष्य निर्मित स्थानों में रहते हैं। गुफा और गोशाला इसके क्रमश: उदाहरण हैं। मनुष्य को अपनी इन आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये प्रयास करने होते हैं। ऐसे प्रयासों के लिये बहुत कुछ सीखना होता है। जैसे कि कपड़ा बुनना, अनाज उगाना, भोजन पकाना, घर बांधना, घर बनाने के सामान का उत्पादन करना आदि। यह उसकी औपचारिक अनौपचारिक शिक्षा का महत्त्वपूर्ण हिस्सा है। मनुष्य समाज बनाकर रहता है। साथ रहना है तो अनेक व्यवस्थायें करनी होती हैं, नियम बनाने होते हैं। इन व्यवस्थाओं को बनाना भी सीखना ही होता है। यथा कानून और न्याय, व्यापार और यात्रा आदि। मनुष्य में जिज्ञासा होती है। वह बहुत कुछ जानना चाहता है। जिज्ञासा समाधान के लिये वह निरीक्षण करता है, प्रयोग करता है, प्रयोग के लिये आवश्यक उपकरण बनाता है । इसके लिये उसे बहुत कुछ सीखना होता है। मनुष्य सृष्टि के रहस्यों को जानना चाहता है, अपने आपको जानना चाहता है। जानने के लिये वह विचार करता है, ध्यान करता है, अनुभव करता है। यह सब भी उसे सीखना ही पड़ता है। अर्थात धर्माचरण सीखने के साथ साथ उसे असंख्य बातें अपना जीवन चलाने के लिये सीखनी होती हैं। सीखना उसके जीवन का अविभाज्य अंग ही बन जाता है। इसलिये शिक्षा का बहुत बड़ा शास्र निर्माण हुआ है। धर्मशास्त्र के समान ही शिक्षाशास्र अत्यन्त व्यापक और आधारभूत शास्त्र है। मनुष्य के व्यक्तिगत, सामाजिक, सृष्टित और
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पारमार्थिक व्यवहारों को चलाने के लिये वह अनेक प्रकार के शास्त्रों की रचना करता है, अनेक प्रकार की व्यवस्थायें बनाता है। इसके लिये उसे काम करना होता है, विचार करना होता है, अनुभव करना होता है । ये सब उसकी शिक्षा का बहुत बड़ा हिस्सा है। संक्षेप में मनुष्य का जीवन शिक्षारहित होता ही नहीं है। हम जब शिक्षा का विचार करने के लिये उद्यत हुए हैं तब इन तथ्यों को हमें ठीक से समझ लेने की आवश्यकता है।
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== शिक्षा का समाज जीवन में स्थान ==
 
शिक्षा केवल व्यक्ति के लिये आवश्यक है ऐसा नहीं है। सम्पूर्ण समाज को शिक्षा की आवश्यकता है। कोई कह सकता है कि व्यक्ति को शिक्षा मिली तो समाज को अलग
 
शिक्षा केवल व्यक्ति के लिये आवश्यक है ऐसा नहीं है। सम्पूर्ण समाज को शिक्षा की आवश्यकता है। कोई कह सकता है कि व्यक्ति को शिक्षा मिली तो समाज को अलग
  

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