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संक्षेप में मन को विभिन्न उपायों से एकाग्र, शान्त और अनासक्त बनाना ज्ञानार्जन के लिये अत्यंत आवश्यक है।
 
संक्षेप में मन को विभिन्न उपायों से एकाग्र, शान्त और अनासक्त बनाना ज्ञानार्जन के लिये अत्यंत आवश्यक है।
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== मन के बाद बुद्धि का क्रम है । ==
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== बुद्धि, अहंकार, चित्त  ==
बुद्धि को तेजस्वी बनाने हेतु उसके सभी साधनों का
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बुद्धि को तेजस्वी बनाने हेतु उसके सभी साधनों का अभ्यास आवश्यक होता है । बुद्धि का काम मन के कारण से ही कठिन होता है । मन यदि ठीक रहा तो बुद्धि भी ठीक रहती है । बुद्धि मन को अपने वश में करे और स्वयं आत्मनिष्ठ बने तो ज्ञानार्जन ठीक होता है ।
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अभ्यास आवश्यक होता है । बुद्धि का काम मन के कारण
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बुद्धि के बाद अहंकार का क्रम है। अहंकार के विषय में हम नकारात्मक ढंग से सोचते हैं । परन्तु अहंकार हर क्रिया का कर्ता होता है और चूंकि वह कर्ता है इसिलिए वह भोक्ता भी है । व्यवहार में देखें तो कोई भी काम या कोई भी क्रिया कर्ता के बिना होना सम्भव नहीं है । अत: अहंकार क्रिया करने का निर्णय बुद्धि के साथ मिलकर लेता है। अहंकार भी जब आत्मनिष्ठ होता है तब सकारात्मक बन जाता है और क्रिया करने में दायित्वबोध का अनुभव करता है। दायित्वबोध से ही किसी भी कार्य को सार्थकता प्राप्त होती है।
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से ही कठिन होता है । मन यदि ठीक रहा तो बुद्धि भी
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चित्त एक पारदर्शक पर्दे जैसा है जो संस्कारों को ग्रहण करता है। क्रिया, संवेदन, विचार, विवेक आदि सब चित्त पर संस्कार बनकर अंकित होते हैं। चित्त स्वयं निष्क्रिय ही होता है । वह केवल संस्कार ग्रहण करने का ही काम करता है । चित्त पर संस्कार होने से ही किसी भी क्रिया या अनुभव की स्मृति बनती है । स्मृति के कारण ही सीखी हुई बात हमारे साथ रहती है । जिस विचार या अनुभव के संस्कार गहरे नहीं होते हैं वे बातें जल्दी विस्मृत हो जाती हैं ।
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ठीक रहती है । बुद्धि मन को अपने वश में करे और स्वयं
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चित्त पर संस्कार होने के लिये कर्मेन्द्रियों से लेकर अहंकार तक के सभी करण सक्रिय और सक्षम होने की आवश्यकता होती है। इस प्रकार हम देखते हैं कि ज्ञानार्जन में कर्मेन्द्रियों, ज्ञानेन्द्रयों और मन की भूमिका विशेष रूप से महत्वपूर्ण है। उसमें भी मन बहुत विशिष्ट भूमिका निभाता है। वह अवरोध भी निर्माण करता है और सहायता भी करता है। इसलिये उसे ठीक से शिक्षित करना महत्वपूर्ण है । कभी कभी यह प्रश्न पूछा जाता है कि स्थूल स्वरूप के पदार्थों के संवेदनों को या क्रियाओं को विचारों में रूपांतरित किस प्रकार किया जा सकता है। वास्तव में ज्ञानार्जन सूक्ष्म स्तर पर ही होता है । जगत में भी विचार स्वरूप और भौतिक स्वरूप एकदूसरे में रूपान्तरणक्षम ही होते हैं। विचार का ही स्थूल स्वरूप भौतिक है और भौतिक पदार्थ का सूक्ष्म स्वरूप विचार है । अन्तःकरण भौतिक पदार्थ को सूक्ष्म स्वरूप में ही ग्रहण कर सकता है।
 
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आत्मनिष्ठ बने तो ज्ञानार्जन ठीक होता है ।
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बुद्धि के बाद अहंकार का क्रम है। अहंकार के
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विषय में हम नकारात्मक ढंग से सोचते हैं । परन्तु अहंकार
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हर क्रिया का कर्ता होता है और चूंकि वह कर्ता है
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इसिलिए वह भोक्ता भी है । व्यवहार में देखें तो कोई भी
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काम या कोई भी क्रिया कर्ता के बिना होना सम्भव नहीं
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है । अत: अहंकार क्रिया करने का निर्णय बुद्धि के साथ
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मिलकर लेता है । अहंकार भी जब आत्मनिष्ठ होता है तब
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सकारात्मक बन जाता है और क्रिया करने में दायित्वबोध
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का अनुभव करता है । दायित्वबोध से ही किसी भी कार्य
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को सार्थकता प्राप्त होती है ।
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चित्त एक पारदर्शक पर्दे जैसा है जो संस्कारों को
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श्१्द
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भारतीय शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप
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ग्रहण करता है । क्रिया, संवेदन, विचार, विवेक आदि सब
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चित्त पर संस्कार बनकर अंकित होते हैं। चित्त स्वयं
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निष्क्रिय ही होता है । वह केवल संस्कार ग्रहण करने का
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ही काम करता है । चित्त पर संस्कार होने से ही किसी भी
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क्रिया या अनुभव की स्मृति बनती है । स्मृति के कारण ही
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सीखी हुई बात हमारे साथ रहती है । जिस विचार या
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अनुभव के संस्कार गहरे नहीं होते हैं वे बातें जल्दी
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विस्मृत हो जाती हैं ।
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चित्त पर संस्कार होने के लिये कर्मन्ट्रियों से लेकर
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अहंकार तक के सभी करण सक्रिय और सक्षम होने की
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आवश्यकता होती है ।
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इस प्रकार हम देखते हैं कि ज्ञानार्जन में कर्मेन्द्रियों ,
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ज्ञानेन्द्रयों और मन की भूमिका विशेष रूप से महत्वपूर्ण
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है । उसमें भी मन बहुत विशिष्ट भूमिका निभाता है । वह
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अवरोध भी निर्माण करता है और सहायता भी करता है ।
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इसलिये उसे ठीक से शिक्षित करना महत्वपूर्ण है ।
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कभी कभी यह प्रश्न पूछा जाता है कि स्थूल स्वरूप
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के पदार्थों के संवेदनों को या क्रियाओं को विचारों में
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रूपांतरित किस प्रकार किया जा सकता है। वास्तव में
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ज्ञानार्जन सूक्ष्म स्तर पर ही होता है । जगत में भी विचार
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स्वरूप और भौतिक स्वरूप एकदूसरे में रूपान्तरणक्षम ही
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होते हैं। विचार का ही स्थूल स्वरूप भौतिक है और
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भौतिक पदार्थ का सूक्ष्म स्वरूप विचार है । अन्तःकरण
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भौतिक पदार्थ को सूक्ष्म स्वरूप में ही ग्रहण कर सकता
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है।
      
== करण और उपकरण ==
 
== करण और उपकरण ==
उपकरण बाहर के जगत में हम जो सहायक सामग्री
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उपकरण बाहर के जगत में हम जो सहायक सामग्री के रूप में जुटाते हैं वे साधन हैं । जैसा पूर्व में कहा है लेखन सामग्री, पठन सामग्री, संगणक से संबन्धित सामग्री, भौतिक विज्ञान के प्रयोगों की सामग्री, नक्शे, आलेख, चित्र आदि सब उपकरण हैं । करण और उपकरण का परस्पर संबन्ध इस प्रकार है: करण मुख्य साधन हैं, उपकरण गौण |
 
+
* करणों की अनुपस्थिति में उपकरण का कोई महत्व नहीं है । बिना करण के वे उपयोग में ही नहीं लिये जा सकते | करण की क्षमता कम होती है तभी उपकरणों की आवश्यकता होती है। सक्षम करणों के लिये उपकरणों की कोई आवश्यकता नहीं होती है । उदाहरण के लिये आँख दुर्बल है तभी चश्मा की आवश्यकता पड़ती है । बुद्धि की क्षमता कुछ कम होती है तभी दृकश्राव्य सामग्री की आवश्यकता होती है ।
के रूप में जुटाते हैं वे साधन हैं । जैसा पूर्व में कहा है
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* जिनकी स्मृति बहुत तेज है, ग्रहणशीलता और समझ अच्छी है उन्हें उपकरणों की आवश्यकता बहुत कम होती है । उदाहरण के लिये जिन्हें गिनती अच्छी आती है उन्हें गणनयंत्र की आवश्यकता नहीं होती ।  
 
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* पठन पाठन की प्राकृतिक परिस्थिति में उपकरणों की आवश्यकता बहुत ही कम होती है । उदाहरण के लिये मैदान में भूमि पर ही जो दिशाओं का ज्ञान प्राप्त करते हैं उन्हें नक्शे की या दिशादर्शक यंत्र की आवश्यकता नहीं होती ।
लेखन सामग्री, पठन सामग्री, संगणक से संबन्धित सामग्री,
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* जिनकी बुद्धि अतिशय तेजस्वी होती है उन्हें तो लेखन सामग्री की भी आवश्यकता नहीं होती है ।  
 
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* परन्तु उपकरण सर्वथा हेय हैं ऐसा भी नहीं है। अमूर्त या कठिन संकल्पना को समझाने के लिये उपकरण का प्रयोग उपकारक भी हो सकता है। उपनिषद में मुनि उद्दालक और श्वेतकेतु की कथा है । ब्रह्म इस सृष्टि में ओतप्रोत है और वह सर्वत्र है यह श्वेतकेतु को समझाने के लिये मुनि उद्दालक एक प्रयोग करते हैं । वे श्वेतकेतु को लोटे में भरे हुए पानी में नमक डालकर उसे हिलाने के लिये कहते हैं। श्वेतकेतु वैसा करता है । तब मुनि पुछते हैं कि नमक कहाँ है ? श्वेतकेतु कहता है कि वह अब दिखाई नहीं देता । तब मुनि उसे पानी को चखने के लिये कहते हैं। श्वेतकेतु पानी को चखकर कहता है कि वह खारा है । इसका अर्थ यह है कि नमक दिखाई नहीं देता परन्तु पानी में है। अब वे ऊपरी हिस्से का पानी चखने को कहते हैं । श्वेतकेतु चखता है और कहता है कि वह खारा है। मध्यभाग का चखने को कहते हैं । श्वेतकेतु चखता है और कहता है कि वह भी खारा है । नीचे का चखता है तो वह भी खारा है । तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार नमक दिखाई नहीं देता तो भी पानी में है और वह सर्वत्र है उसी प्रकार ब्रह्म दिखाई नहीं देता तो भी जगत में है और वह जगत में सर्वत्र है ।
भौतिक विज्ञान के प्रयोगों की सामग्री, नक्शे, आलेख,
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* यह भी उपकरण का प्रयोग है । परन्तु वह अत्यंत मौलिक है । ब्रह्म को समझाने के लिये यह प्रयोग करना चाहिए और इन उपकरणों का प्रयोग करना चाहिए ऐसा कहीं लिखा हुआ नहीं है। अर्थात उपकरणों का प्रयोग अत्यंत मौलिक बुद्धि से करना चाहिए तब वह समर्पक और सार्थक होता है । वर्तमान में जो नवाचार और साधनसामग्री का प्रयोग होता है वह कृत्रिम पद्धति से होता है ।
 
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* पानी और ब्रह्म का उदाहरण दर्शाता है कि पढ़ने और पढ़ाने वाले के करण सक्षम होने के बाद ही उपकरणों का प्रयोग किया जाय तो वह सार्थक सिद्ध होता है ।
चित्र आदि सब उपकरण हैं ।
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ज्ञानार्जन के करणों को सक्षम बनाना यह शिक्षा का प्रथम चरण है । सक्षम करणों से ज्ञानार्जन करना यह दूसरा चरण है ।
 
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करण और उपकरण का परस्पर संबन्ध इस प्रकार
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पर्व ३ : शिक्षा का मनोविज्ञान
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करण मुख्य साधन हैं, उपकरण गौण |
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करणों की अनुपस्थिति में उपकरण का कोई महत्व
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नहीं है । बिना करण के वे उपयोग में ही नहीं लिये
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जा सकते |
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करण की क्षमता कम होती है तभी उपकरणों की
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आवश्यकता होती है। सक्षम करणों के लिये
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उपकरणों की कोई आवश्यकता नहीं होती है ।
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उदाहरण के लिये आँख दुर्बल है तभी चश्मा की
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आवश्यकता पड़ती है । बुद्धि की क्षमता कुछ कम
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होती है तभी दृकुश्राव्य सामग्री की आवश्यकता
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होती है ।
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जिनकी स्मृति बहुत तेज है, ग्रहणशीलता और समझ
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अच्छी है उन्हें उपकरणों की आवश्यकता बहुत कम
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होती है । उदाहरण के लिये जिन्हें गिनती अच्छी
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आती है उन्हें गणनयंत्र की आवश्यकता नहीं होती ।
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पठन पाठन की प्राकृतिक परिस्थिति में उपकरणों की
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आवश्यकता बहुत ही कम होती है । उदाहरण के
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लिये मैदान में भूमि पर ही जो दिशाओं का ज्ञान
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प्राप्त करते हैं उन्हें नक्शे की या दिशादर्शक यंत्र की
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आवश्यकता नहीं होती ।
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जिनकी बुद्धि अतिशय तेजस्वी होती है उन्हें तो
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लेखन सामग्री की भी आवश्यकता नहीं होती है ।
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परन्तु उपकरण सर्वथा हेय हैं ऐसा भी नहीं है।
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अमूर्त या कठिन संकल्पना को समझाने के लिये
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उपकरण का प्रयोग उपकारक भी हो सकता है।
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उपनिषद में मुनि उद्दालक और श्रेतकेतु कि कथा
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है । ब्रह्म इस सृष्टि में ओतप्रोत है और वह सर्वत्र है
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यह श्वेतकेतु को समझाने के लिये मुनि उद्दालक एक
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प्रयोग करते हैं । वे श्वेतकेतु को लोटे में भरे हुए
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पानी में नमक डालकर उसे हिलाने के लिये कहते
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हैं। ade वैसा करता है । तब मुनि पुछते हैं कि
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नमक कहाँ है ? श्वेतकेतु कहता है कि वह अब
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दिखाई नहीं देता । तब मुनि उसे पानी को चखने के
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लिये कहते हैं। श्वेतकेतु पानी
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को चखकर कहता है कि वह खारा है । इसका अर्थ
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यह है कि नमक दिखाई नहीं देता परन्तु पानी में
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है। अब वे ऊपरी हिस्से का पानी चखने को कहते
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हैं । श्वेतकेतु चखता है और कहता है कि वह खारा
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है। मध्यभाग का चखने को कहते हैं । श्वेतकेतु
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चखता है और कहता है कि वह भी खारा है । नीचे
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का चखता है तो वह भी खारा है । तात्पर्य यह है
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कि जिस प्रकार नमक दिखाई नहीं देता तो भी पानी
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में है और वह सर्वत्र है उसी प्रकार ब्रह्म दिखाई नहीं
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देता तो भी जगत में है और वह जगत में सर्वत्र है ।
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© यह भी उपकरण का प्रयोग है । परन्तु वह अत्यंत
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मौलिक है । ब्रह्म को समझाने के लिये यह प्रयोग
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करना चाहिए और इन उपकरणों का प्रयोग करना
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चाहिए ऐसा कहीं लिखा हुआ नहीं है। अर्थात
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उपकरणों का प्रयोग अत्यंत मौलिक बुद्धि से करना
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चाहिए तब वह समर्पक और सार्थक होता है ।
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वर्तमान में जो नवाचार और साधनसामग्री का प्रयोग
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होता है वह कृत्रिम पद्धति से होता है ।
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०... पानी और ब्रह्म का उदाहरण दर्शाता है कि पढ़ने
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और पढ़ाने वाले के करण सक्षम होने के बाद ही
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उपकरणों का प्रयोग किया जाय तो वह सार्थक सिद्ध
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होता है ।
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ज्ञाना्जन के करणों को सक्षम बनाना यह शिक्षा का
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प्रथम चरण है । सक्षम करणों से ज्ञानार्जन करना यह दूसरा
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चरण है ।
      
== करणों की क्रमिक सक्रियता ==
 
== करणों की क्रमिक सक्रियता ==
Wasa के सभी करण एकसाथ सक्रिय नहीं होते ।
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ज्ञानार्जन के सभी करण एकसाथ सक्रिय नहीं होते । आयु की अवस्था के अनुसार वे सक्रिय होते जाते हैं । जब जो करण सक्रिय होता है तब उस करण को सक्षम बनाने के लिये उस करण के माध्यम से अध्ययन किया जाता है और अध्ययन के अनुकूल अध्यापन होता है । गर्भावस्‍था में चित्त सक्रिय होता है । वास्तव में गर्भाधान के क्षण से ही चित्त सक्रिय होता है। अन्य करण अक्रिय होने से चित्त अत्यधिक सक्रिय होता है। यह अवस्था मोटे तौर पर पाँच वर्ष की आयु तक चलती है । यद्यपि जन्म के बाद और करण सक्रिय होने लगते हैं तथापि चित्त की सक्रियता अधिक रहती है । इसलिये गर्भावस्‍था और शिशु अवस्था में चित्त को माध्यम बनाकर संस्कारों के रूप में अध्ययन होता है । गर्भ माता के माध्यम से ज्ञानेन्द्रियों के, कर्मेन्द्रियों के, मन के, बुद्धि के सारे अनुभव चित्त पर संस्कारों के रूप में ग्रहण करता है। यह ज्ञानार्जन का श्रेष्ठ समय है क्योंकि चित्त के संस्कार ग्रहण करने के आड़े और कुछ भी नहीं आता । यह कुछ सावधानी का काल भी है क्योंकि गर्भ के चित्त को कुछ भी ग्रहण करने से रोका नहीं जा सकता । संस्कार हो ही जाते हैं । माता के आहार, विचार, वाचन, संगति, कल्पना, भावना आदि सभी अनुभवों के संस्कार गर्भ पर होते हैं । यह माता के माध्यम से गर्भ का ज्ञानार्जन ही है । शिशुअवस्था में संस्कारों की यह प्रक्रिया चलती रहती है । प्रथम माता के माध्यम से और जैसे जैसे शिशु की आयु बढ़ती जाती है उसकी अपनी कर्मेन्द्रियों और ज्ञानेन्द्रियों के जो अनुभव होते है वे सब सीधे संस्कारों के रूप में परिणत होते जाते हैं और चित्त पर स्थान ग्रहण कर लेते हैं ।
 
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आयु की अवस्था के अनुसार वे सक्रिय होते जाते हैं ।
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जब जो करण सक्रिय होता है तब उस करण को सक्षम
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बनाने के लिये उस करण के माध्यम से अध्ययन किया
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जाता है और अध्ययन के अनुकूल अध्यापन होता है ।
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गर्भावस्‍था में चित्त सक्रिय होता
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है । वास्तव में गर्भाधान के क्षण से ही चित्त सक्रिय होता
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है। अन्य करण अक्रिय होने से चित्त अत्यधिक सक्रिय
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होता है। यह अवस्था मोटे तौर पर पाँच वर्ष की आयु
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तक चलती है । यद्यपि जन्म के बाद और करण सक्रिय
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होने लगते हैं तथापि चित्त की सक्रियता अधिक रहती है ।
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इसलिये गर्भावस्‍था और शिशु अवस्था में चित्त को माध्यम
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बनाकर संस्कारों के रूप में अध्ययन होता है । गर्भ माता
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के माध्यम से ज्ञानेन्द्रियों के, कर्मेन्द्रियों के, मन के, बुद्धि
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के सारे अनुभव चित्त पर संस्कारों के रूप में ग्रहण करता
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है। यह ज्ञानार्जन का श्रेष्ठ समय है क्योंकि चित्त के
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संस्कार ग्रहण करने के आड़े और कुछ भी नहीं आता ।
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यह कुछ सावधानी का काल भी है क्योंकि गर्भ के चित्त
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को कुछ भी ग्रहण करने से रोका नहीं जा सकता । संस्कार
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हो ही जाते हैं । माता के आहार, विचार, वाचन, संगति,
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कल्पना, भावना आदि सभी अनुभवों के संस्कार गर्भ पर
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होते हैं । यह माता के माध्यम से गर्भ का ज्ञानार्जन ही है ।
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शिशुअवस्था में संस्कारों की यह प्रक्रिया चलती
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रहती है । प्रथम माता के माध्यम से और जैसे जैसे शिशु
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की आयु बढ़ती जाती है उसकी अपनी कर्मन्ट्रियों और
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ज्ञानेन्द्रियों के जो अनुभव होते है वे सब सीधे संस्कारों के
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रूप में परिणत होते जाते हैं और चित्त पर स्थान ग्रहण कर
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लेते हैं ।
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इसी अवस्था में व्यक्ति का चरित्र बन जाता है ।
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शिशु अवस्था में कर्मन्द्रियाँ और बाद में ज्ञानेंद्रियाँ
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सक्रिय होने लगती हैं और वह क्रिया और संवेदनों के
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इसी अवस्था में व्यक्ति का चरित्र बन जाता है। शिशु अवस्था में कर्मन्द्रियाँ और बाद में ज्ञानेंद्रियाँ सक्रिय होने लगती हैं और वह क्रिया और संवेदनों के माध्यम से ज्ञान ग्रहण करता है । यह जगत का ज्ञान है । बाल अवस्था में कर्मन्द्रियाँ और ज्ञानेंद्रियाँ अधिक सक्रिय होती हैं और वह क्रिया और संवेदनों के अनुभव के माध्यम से संस्कार ग्रहण करता है । अब सीधे संस्कार नहीं होते अपितु क्रिया और अनुभवों का रूपान्तरण संस्कारों में होता है । उत्तर बाल अवस्था में मन सक्रिय होने लगता है। परन्तु अभी विचार का पक्ष सक्रिय नहीं हुआ है, केवल भावना का पक्ष सक्रिय हुआ है । अत: वह क्रिया, संवेदन और प्रेरणा के माध्यम से संस्कार ग्रहण करता है ।
   −
माध्यम से ज्ञान ग्रहण करता है । यह जगत का ज्ञान है ।
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भावनाओं का भी संस्कारों में रूपान्तरण होता है । किशोर अवस्था में मन का विचार पक्ष और बुद्धि के निरीक्षण और परीक्षण के पक्ष सक्रिय होने लगते हैं और वह विचार तथा प्राथमिक स्वरूप कि बुद्धि के माध्यम से ज्ञान ग्रहण करता है। इस समय विचार, निरीक्षण और परीक्षण संस्कारों में रूपांतरित होते हैं। क्रिया और संवेदन तो प्रथम से हैं ही। तरुण अवस्था में बुद्धि के तर्क, विश्लेषण, संश्लेषण आदि सभी पक्ष सक्रिय हो जाते हैं । साथ ही अहंकार का कर्ता भाव और दायित्वबोध भी जागृत होता है । यह सब संस्कारों में परिवर्तित होता है । आत्मा के स्तर पर संस्कार भी अनुभूति में रूपांतरित होते हैं और आत्मज्ञान होता है। वह ज्ञान का परम स्वरूप है। जब तक अनुभूति नहीं होती ज्ञान संस्कारों के रूप में ही रहता है और अहंकार तथा बुद्धि सारे व्यवहारों का निर्देशन करते हैं । अनुभूति के बाद प्रेम सारे व्यवहार का निर्देशन करता है।
 
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बाल अवस्था में कर्मन्द्रियाँ और ज्ञानेंद्रियाँ अधिक सक्रिय
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होती हैं और वह क्रिया और संवेदनों के अनुभव के
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माध्यम से संस्कार ग्रहण करता है । अब सीधे संस्कार नहीं
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होते अपितु क्रिया और अनुभवों का रूपान्तरण संस्कारों में
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होता है । उत्तर बाल अवस्था में मन सक्रिय होने लगता
  −
 
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है। परन्तु अभी विचार का पक्ष सक्रिय नहीं हुआ है,
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केवल भावना का पक्ष सक्रिय हुआ है । अत: वह क्रिया,
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भारतीय शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप
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संवेदन और प्रेरणा के माध्यम से संस्कार ग्रहण करता है ।
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भावनाओं का भी संस्कारों में रूपान्तरण होता है । किशोर
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अवस्था में मन का विचार पक्ष और बुद्धि के निरीक्षण
  −
 
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और परीक्षण के पक्ष सक्रिय होने लगते हैं और वह विचार
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तथा प्राथमिक स्वरूप कि बुद्धि के माध्यम से ज्ञान ग्रहण
  −
 
  −
करता है। इस समय विचार, निरीक्षण और परीक्षण
  −
 
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संस्कारों में रूपांतरित होते हैं। क्रिया और संवेदन तो
  −
 
  −
प्रथम से हैं ही। तरुण अवस्था में बुद्धि के तर्क,
  −
 
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विश्लेषण, संश्लेषण आदि सभी पक्ष सक्रिय हो जाते हैं ।
  −
 
  −
साथ ही अहंकार का कर्ता भाव और दायित्वबोध भी
  −
 
  −
जागृत होता है । यह सब संस्कारों में परिवर्तित होता है ।
  −
 
  −
आत्मा के स्तर पर संस्कार भी अनुभूति में रूपांतरित
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होते हैं और आत्मज्ञान होता है। वह ज्ञान का परम
  −
 
  −
स्वरूप है । जब तक अनुभूति नहीं होती ज्ञान संस्कारों के
  −
 
  −
रूप में ही रहता है और अहंकार तथा बुद्धि सारे व्यवहारों
  −
 
  −
का निर्देशन करते हैं । अनुभूति के बाद प्रेम सारे व्यवहार
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  −
का निर्देशन करता है ।
      
== आयु की अवस्थानुसार ज्ञानार्जन ==
 
== आयु की अवस्थानुसार ज्ञानार्जन ==
आयु की विभिन्न अवस्थाओं में ज्ञानार्जन के भिन्न
+
आयु की विभिन्न अवस्थाओं में ज्ञानार्जन के भिन्न भिन्न करण सक्रिय होते हैं इसलिये अध्ययन और अध्यापन का स्वरूप भी बदलता है । गर्भावस्‍था और शिशु अवस्था में संस्कार आधारित, बाल अवस्था में क्रिया, संवेदन और भाव आधारित, किशोर अवस्था में विचार और निरीक्षण और परीक्षण आधारित तरुण अवस्था में बुद्धि तथा दायित्वबोध आधारित अध्ययन और अध्यापन होता है । वह वैसा होता है तभी ज्ञानार्जन होता है अन्यथा ज्ञानार्जन में अवरोध निर्माण होते हैं ।
 
  −
भिन्न करण सक्रिय होते हैं इसलिये अध्ययन और अध्यापन
  −
 
  −
का स्वरूप भी बदलता है । गर्भावस्‍था और शिशु अवस्था
  −
 
  −
में संस्कार आधारित, बाल अवस्था में क्रिया, संबेदन और
  −
 
  −
भाव आधारित, किशोर अवस्था में विचार और निरीक्षण
  −
 
  −
और परीक्षण आधारित तरुण अवस्था में बुद्धि तथा
  −
 
  −
दायित्वबोध आधारित अध्ययन और अध्यापन होता है ।
  −
 
  −
वह वैसा होता है तभी ज्ञानार्जन होता है अन्यथा ज्ञानार्जन
  −
 
  −
में अवरोध निर्माण होते हैं
  −
 
  −
सोलह वर्ष की आयु तक ज्ञानार्जन के करणों को
  −
 
  −
सक्षम बनाने हेतु शिक्षा होती है। सोलह वर्ष के बाद
  −
 
  −
सक्षम करणों के प्रयोग से विषयों का अध्ययन शुरू होता
  −
 
  −
है। सोलह वर्ष की आयु तक शिक्षक के निर्देशन में
  −
 
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WAR के करणों को सक्षम बनाने का अध्ययन चलता
  −
 
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है, बाद में स्वतंत्रतापूर्वक अध्ययन चलता है ।
  −
 
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पर्व ३ : शिक्षा का मनोविज्ञान
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  −
सामान्य रूप में प्राथमिक, माध्यमिक स्तर का
  −
 
  −
अध्ययन करणों को सक्षम बनाने के लिये होता है । वह
  −
 
  −
निर्देशित होता है । महाविद्यालय और विश्वविद्यालय का
  −
 
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अध्ययन सक्षम करणों से होता है इसलिये उसे निर्देशित
  −
 
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होने की आवश्यकता नहीं होती है । इसलिये प्राथमिक
  −
 
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और माध्यमिक स्तर पर पाठ्यक्रम के साथ साथ
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पाठ्यपुस्तकें, . साधनसामग्री, शिक्षकों al उपदेश,
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अनुशासन के नियम आदि बहुत आवश्यक होते हैं, बाद
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के अध्ययन के लिये केवल पाठ्यक्रम ही आवश्यक होता
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है, शेष सारी बातों में छात्र स्वतंत्र होता है ।
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प्राथमिक और माध्यमिक स्तर पर विषय साधन होते
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हैं और करणों का विकास साध्य होता है जबकि बाद में
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विषय साध्य और करण साधन होते हैं । उदाहरण के लिये
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गणित और विज्ञान बुद्धि के विकास के लिये, भाषा भाव
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और बुद्धि दोनों के विकास के लिये, योग मन को सक्षम
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बनाने के लिये, इतिहास प्रेरणा और चरखिनिर्माण के लिये
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सीखने होते हैं । महाविद्यालय में विषयों का शास्त्रीय
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अध्ययन होता है । सोलह वर्ष से पूर्व और सोलह वर्ष के
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बाद के अध्ययन में यह मूल अन्तर है ।
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आज इस अन्तर को भुला देने के कारण से अथवा
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शिक्षक प्रशिक्षण का वह अंग ही नहीं होने के कारण से
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महाविद्यालयीन शिक्षा भी करणों के आधार पर स्वतंत्र
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पद्धति से नहीं अपितु निर्देशन में ही चलती है । माध्यमिक
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विद्यालय के स्तर पर करणों की शिक्षा नहीं होने के कारण
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करण सक्षम बनते ही नहीं हैं । सोलह वर्ष से पूर्व की और
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बाद की शिक्षा में अनवस्था ही निर्माण होती है। न तो
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करण सक्षम होते हैं न स्वतंत्र अध्ययन होता है ।
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ज्ञानार्जन की प्रक्रिया ध्यान में आने से उपकरणों की
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दृष्टि बदल जाती है । वे अब उतने अनिवार्य नहीं लगते
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जितने यह नहीं जानने वाले को लगते हैं । विद्यालयीन
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शिक्षाव्यवस्था में समयसारिणी और अध्यापन पद्धति भी
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बदल जाती है ।
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करणों के विकास के लिये
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विद्यालय के साथ साथ घर में भी प्रयास करने होते हैं
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क्योंकि आहारविहार का भी करणों की स्थिति पर बहुत
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प्रभाव होता है । उदाहरण के लिये छात्र की निद्रा ठीक
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नहीं होने से उसका उत्साह मन्द होता है और मन अशान्त
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रहता है । तामसी आहार से मन की स्थिति बदलती है
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और बुद्धि तामसी होती है । व्यसन और टीवी के उत्तेजक
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दृश्यों से मन उत्तेजना और वासनाओं से ग्रस्त होता है और
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विषयों को ग्रहण करना लगभग असंभव हो जाता है।
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व्यायाम और अभ्यास के अभाव में कर्मन्ट्रियाँ
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कुशलतापूर्वक काम नहीं कर सकतीं । निरन्तर स्कूटर और
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मोटरसाइकिल चलाने से शरीर अकुशल और दुर्बल हो
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जाता है । खेल के अभाव में शरीर और मन दोनों दुर्बल
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हो जाते हैं । अभ्यास के अभाव में बुद्धि का विकास नहीं
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होता । अनुशासन के अभाव में दायित्वबोध आता नहीं
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और मद बढ़ता है । वस्त्रों और अलंकारों के आकर्षण के
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कारण मन की एकाग्रता कम होती है, उत्तेजना के कारण
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ग्रहणशीलता कम होती है और विद्याप्रीति भी निर्माण नहीं
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होती । विद्याप्रीति नहीं होना बड़ी हानि है क्योंकि उसके
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अभाव में अध्ययन बोज ही बना रहता है ।
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WAS के करण सबको जन्मजात प्राप्त हुए हैं
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इसका संकेत यह है कि उनका उपयोग कर ज्ञान प्राप्त
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करना सबसे अपेक्षित है । यह भी गृहीत है कि ज्ञान सबके
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लिये सुलभ है । ज्ञानार्जन गरीब, अमीर, राजा रंक,
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मालिक नौकर, छोटा बड़ा आदि का भेद नहीं मानता ।
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ज्ञानार्जन के लिये पैसा, कुल, सत्ता, प्रतिष्ठा, साधन आदि
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की आवश्यकता नहीं है । जो भी ज्ञान प्राप्त करना चाहता
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है वह कर सकता है । आज इन बातों का विस्मरण होने
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के कारण शिक्षा के क्षेत्र में हमने बहुत जंजाल खड़े कर
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दीये हैं और ज्ञान के नाम पर और ही कुछ चल रहा |
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इसका मनन चिंतन और योजना कर उपाय करना
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चाहिए
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सोलह वर्ष की आयु तक ज्ञानार्जन के करणों को सक्षम बनाने हेतु शिक्षा होती है। सोलह वर्ष के बाद सक्षम करणों के प्रयोग से विषयों का अध्ययन शुरू होता है। सोलह वर्ष की आयु तक शिक्षक के निर्देशन में ज्ञानार्जन के करणों को सक्षम बनाने का अध्ययन चलता है, बाद में स्वतंत्रतापूर्वक अध्ययन चलता है ।
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सामान्य रूप में प्राथमिक, माध्यमिक स्तर का अध्ययन करणों को सक्षम बनाने के लिये होता है । वह निर्देशित होता है । महाविद्यालय और विश्वविद्यालय का अध्ययन सक्षम करणों से होता है इसलिये उसे निर्देशित होने की आवश्यकता नहीं होती है । इसलिये प्राथमिक और माध्यमिक स्तर पर पाठ्यक्रम के साथ साथ पाठ्यपुस्तकें, साधनसामग्री, शिक्षकों का उपदेश, अनुशासन के नियम आदि बहुत आवश्यक होते हैं, बाद के अध्ययन के लिये केवल पाठ्यक्रम ही आवश्यक होता है, शेष सारी बातों में छात्र स्वतंत्र होता है ।
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प्राथमिक और माध्यमिक स्तर पर विषय साधन होते हैं और करणों का विकास साध्य होता है जबकि बाद में विषय साध्य और करण साधन होते हैं । उदाहरण के लिये गणित और विज्ञान बुद्धि के विकास के लिये, भाषा भाव और बुद्धि दोनों के विकास के लिये, योग मन को सक्षम बनाने के लिये, इतिहास प्रेरणा और चरित्रनिर्माण के लिये सीखने होते हैं । महाविद्यालय में विषयों का शास्त्रीय अध्ययन होता है । सोलह वर्ष से पूर्व और सोलह वर्ष के बाद के अध्ययन में यह मूल अन्तर है ।
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आज इस अन्तर को भुला देने के कारण से अथवा शिक्षक प्रशिक्षण का वह अंग ही नहीं होने के कारण से महाविद्यालयीन शिक्षा भी करणों के आधार पर स्वतंत्र पद्धति से नहीं अपितु निर्देशन में ही चलती है । माध्यमिक विद्यालय के स्तर पर करणों की शिक्षा नहीं होने के कारण करण सक्षम बनते ही नहीं हैं । सोलह वर्ष से पूर्व की और बाद की शिक्षा में अनवस्था ही निर्माण होती है। न तो करण सक्षम होते हैं न स्वतंत्र अध्ययन होता है ।
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L LAE
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ज्ञानार्जन की प्रक्रिया ध्यान में आने से उपकरणों की दृष्टि बदल जाती है । वे अब उतने अनिवार्य नहीं लगते जितने यह नहीं जानने वाले को लगते हैं । विद्यालयीन शिक्षाव्यवस्था में समयसारिणी और अध्यापन पद्धति भी बदल जाती है ।
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ANAS
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करणों के विकास के लिये विद्यालय के साथ साथ घर में भी प्रयास करने होते हैं क्योंकि आहारविहार का भी करणों की स्थिति पर बहुत प्रभाव होता है । उदाहरण के लिये छात्र की निद्रा ठीक नहीं होने से उसका उत्साह मन्द होता है और मन अशान्त रहता है । तामसी आहार से मन की स्थिति बदलती है और बुद्धि तामसी होती है ।व्यसन और टीवी के उत्तेजक दृश्यों से मन उत्तेजना और वासनाओं से ग्रस्त होता है और विषयों को ग्रहण करना लगभग असंभव हो जाता है।
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LNZN
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व्यायाम और अभ्यास के अभाव में कर्मेन्द्रियाँ कुशलतापूर्वक काम नहीं कर सकतीं । निरन्तर स्कूटर और मोटरसाइकिल चलाने से शरीर अकुशल और दुर्बल हो जाता है। खेल के अभाव में शरीर और मन दोनों दुर्बल हो जाते हैं । अभ्यास के अभाव में बुद्धि का विकास नहीं होता । अनुशासन के अभाव में दायित्वबोध आता नहीं और मद बढ़ता है । वस्त्रों और अलंकारों के आकर्षण के कारण मन की एकाग्रता कम होती है, उत्तेजना के कारण ग्रहणशीलता कम होती है और विद्याप्रीति भी निर्माण नहीं होती । विद्याप्रीति नहीं होना बड़ी हानि है क्योंकि उसके अभाव में अध्ययन बोझ ही बना रहता है ।
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ZN
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ज्ञानार्जन के करण सबको जन्मजात प्राप्त हुए हैं. इसका संकेत यह है कि उनका उपयोग कर ज्ञान प्राप्त करना सबसे अपेक्षित है । यह भी गृहीत है कि ज्ञान सबके लिये सुलभ है । ज्ञानार्जन गरीब, अमीर, राजा रंक, मालिक नौकर, छोटा बड़ा आदि का भेद नहीं मानता । ज्ञानार्जन के लिये पैसा, कुल, सत्ता, प्रतिष्ठा, साधन आदि की आवश्यकता नहीं है । जो भी ज्ञान प्राप्त करना चाहता है वह कर सकता है । आज इन बातों का विस्मरण होने के कारण शिक्षा के क्षेत्र में हमने बहुत जंजाल खड़े कर दिए हैं और ज्ञान के नाम पर और ही कुछ चल रहा है| इसका मनन चिंतन और योजना कर उपाय करना चाहिए ।
 
==References==
 
==References==
 
<references />
 
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