Changes

Jump to navigation Jump to search
लेख सम्पादित किया
Line 15: Line 15:  
'''कर्मन्द्रियाँ''' पाँच हैं । वे हैं हाथ, पैर, वाणी, पायु और उपस्थ। '''ज्ञानेंद्रियाँ''' भी पाँच हैं । वे हैं आँख, कान, नाक, जीभ और त्वचा ।
 
'''कर्मन्द्रियाँ''' पाँच हैं । वे हैं हाथ, पैर, वाणी, पायु और उपस्थ। '''ज्ञानेंद्रियाँ''' भी पाँच हैं । वे हैं आँख, कान, नाक, जीभ और त्वचा ।
   −
''इनके काम भी हम जानते हैं । समझती है, जानती है और विवेक करती है । अहंकार''
+
इनके काम भी हम जानते हैं। हाथ काम करते हैं। वे वस्तुओं को पकड़ते हैं, उठाते हैं, दबाते हैं, फेंकते हैं, खींचते हैं, धकेलते हैं, झेलते हैं, लिखते हैं, चित्र बनाते हैं, विविध प्रकार की कारीगरी के काम करते हैं। निर्माण करने की अद्भुत कुशलता हाथ में होती है। पैर शरीर का भार उठाते हैं, शरीर को खड़ा रखते हैं, शरीर का सन्तुलन बनाए रखते हैं, चलते हैं, दौड़ते हैं, नृत्य करते हैं, कूदते हैं, छलांग लगाते हैं, ठोकर मारते हैं, लात मारते हैं। शरीर को विविध प्रकार से गतिमान रखने का काम पैर करते हैं । सर्व प्रकार की गति पैरों के ही अधीन है। वाणी आवाज निकालती है, बोलती है, गाती है। विभिन्न प्रकार के ध्वनि वाणी नामक कर्मेन्द्रिय करती है । पायु जननेन्द्रिय है और अपने ही जैसे जीव को जन्म देने का काम करती है। उपस्थ मलविसर्जन का काम करती है।
   −
''हाथ काम करते हैं। वे वस्तुओं को पकड़ते हैं, कर्तापन और भोकक्‍्तापन का अनुभव करता है और चित्त''
+
इन पाँच कर्मेन्द्रियों में प्रथम तीन अर्थात हाथ, पैर और वाणी ज्ञानार्जन के प्रत्यक्ष कार्य में जुड़ी हुई हैं। ज्ञानेंद्रियाँ संवेदनों का अनुभव करती हैं। आँख देखने का, कान सुनने का, जीभ चखने का, नाक सूंघने का और त्वचा स्पर्श करने का काम करते हैं। इनका महत्व बहुत अधिक है क्योंकि ज्ञानेन्द्रियों के माध्यम से ही हम बाहर के अर्थात अपने आसपास के जगत के सम्पर्क में आते हैं और उससे जुडते हैं । ज्ञानेंद्रियाँ निरीक्षण और परीक्षण का काम करती हैं। इनके बिना जगत में हमारा व्यवहार ही नहीं हो सकता । ज्ञानार्जन के ये प्रथम साधन हैं।
   −
''उठाते हैं, दबाते हैं, फेंकते हैं, खींचते हैं, धकेलते हैं, संस्कार ग्रहण करता है । इच्छा, भावना, विचार, विवेक,''
+
दूसरे हैं अन्त:करण । ये चार हैं। ये हैं मन, बुद्धि, अहंकार और चित्त । सामान्य रूप से हम इनसे परिचित होते हैं परन्तु ये ज्ञानार्जन के साधन हैं ऐसी कल्पना हम करते नहीं हैं। मन विचार करता है, इच्छा करता है और भावों का अनुभव करता है। कोई कोई इन तीनों को एक ही इच्छाशक्ति के रूप बताते हैं परन्तु प्रत्यक्ष कार्य में इन तीनों में कुछ अन्तर है यह हमारा अनुभव है। बुद्धि समझती है, जानती है और विवेक करती है। अहंकार कर्तापन और भोक्तापन का अनुभव करता है और चित्त संस्कार ग्रहण करता है । इच्छा, भावना, विचार, विवेक, कर्ता और भोक्ताभाव और संस्कार के रूप में अन्त:करण ज्ञानार्जन का कार्य करता है।
   −
''seid हैं, लिखते हैं, चित्र बनाते हैं, विविध प्रकार की. कर्ता और भोक्ताभाव और संस्कार के रूप में अन्तः:करण''
+
== करण कार्य कैसे करते हैं ==
   −
''कारीगरी के काम करते हैं। निर्माण करने की अद्भुत. ज्ञानार्जन का कार्य करता है ।''
+
कर्मेन्द्रियाँ क्रिया करती हैं और क्रिया के रूप में ज्ञानार्जन करती हैं। ज्ञानेंद्रियाँ संवेदनों को ग्रहण करती हैं
   −
''कुशलता हाथ में होती है । पैर शरीर का भार उठाते हैं, 5''
+
और संवेदनों के रूप में ज्ञानार्जन करती हैं । मन इच्छा के रूप में कर्मेन्द्रियों और ज्ञानेन्द्रियों को क्रिया करने और संवेदनों को ग्रहण करने हेतु प्रेरित करता है । मन उन दोनों का स्वामी है इसलिए मन की प्रेरणा के बिना कर्मेन्द्रियाँ और ज्ञानेंद्रियाँ अपना अपना कार्य करने हेतु प्रवृत्त ही नहीं होती हैं । मन इच्छा के रूप में विषय को ग्रहण करता है। भावना के रूप में विषय को पसन्द नापसन्द करता है। विचार के रूप में विषय को सूक्ष्म रूप में ग्रहण करता है। बुद्धि विषयों को सूक्ष्म रूप में ग्रहण करने के बाद अपने अनेक साधनों का प्रयोग कर विषय को यथार्थ रूप में ग्रहण करती है। बुद्धि के जानने को विवेक कहते हैं। अहंकार जानने के साथ कर्ता रूप में और भोक्ता रूप में ग्रहण करता है। चित्त विषयों को संस्कार रूप में ग्रहण करता है।
   −
''शरीर को खड़ा रखते हैं, शरीर का सन्तुलन बनाए रखते''
+
== ज्ञानार्जन प्रक्रिया ==
 +
सभी करण समवेत रूप में ज्ञान ग्रहण करते हैं। कोई एक भी करण यदि ठीक रूप में ज्ञानार्जन के कार्य में संलग्न नहीं हुआ है तो ज्ञानार्जन ठीक से नहीं होता । इसलिए सभी करणों का कार्य एकदूसरे से संलग्न होकर कैसे होता है इसे समझना जरूरी है।
   −
== ''करण कार्य कैसे करते हैं'' ==
+
कर्मेन्द्रियाँ क्रिया करती हैं। क्रिया संवेदनों में रूपांतरित होती हैं। थोड़ा विचार करने पर ध्यान में आता है कि हाथ, पैर, वाणी कि क्रिया ज्ञानेन्द्रियों के संवेदनों के बिना व्यवहार में सम्भव नहीं होती हैं। उदाहरण के लिये कान से सुने बिना वाणी से बोला नहीं जाता है । वाणी श्रवणेन्द्रिय का ही अनुसरण करती है । हाथ के साथ स्पर्शेन्द्रिय जुड़ी हुई है । स्पर्श के बिना हाथ का काम होता ही नहीं है । अर्थात संवेदन का क्रिया में और क्रिया का संवेदन में रूपांतर होता है । कर्मेन्द्रियों की क्रिया और ज्ञानेन्द्रियों का संवेदन विचारों में रूपांतरित होकर मन ग्रहण करता है । मन विषय को भौतिक स्वरूप में ग्रहण नहीं कर सकता । अत: क्रिया और संवेदनों का रूपान्तरण विचारों में होना ही होता है। मन पदार्थ को विचार के रूप में ग्रहण कर अपने विभिन्न भावों के रंगों में रंगता है । मन में यदि आसक्ति है तो उसके और द्वेष है तो उसके रंग में रंगता है। आसक्ति है तो वस्तु उसे पसन्द होती है और वह सुख का अनुभव करता है। द्वेष है तो पदार्थ उसे नापसन्द होता है और वह दुःख का अनुभव करता है । इससे विषय या पदार्थ का भौतिक स्वरूप बदल जाता है। वह इन्द्रियों के अनुरूप नहीं अपितु मन के अनुरूप हो जाता है । ऐसे रागद्वेष, सुखदुःख और अच्छे बुरे के रूप में पदार्थ के विचार तरंग बुद्धि के समक्ष प्रस्तुत होते हैं। बुद्धि मन के द्वारा प्रस्तुत हुए विचार तरंगों पर अपने साधनों से अनेक प्रकार की प्रक्रिया करती है । बुद्धि के साधन हैं निरीक्षण, परीक्षण, तर्क, अनुमान, संश्लेषण, विश्लेषण, साम्यभेद और तुलना | इनमें प्रथम दो अर्थात निरीक्षण और परीक्षण के लिये वह ज्ञानेन्द्रियों का सहयोग लेती है । हम आँख से निरीक्षण करते हैं और शेष इन्द्रियों से परीक्षण करते हैं । शेष सब बुद्धि की ही शक्ति पर निर्भर करते हैं । तर्क का अर्थ है किसी भी घटना का कार्यकारण भाव जानना । व्यवहारजगत में सभी घटनायें कार्यकारण संबन्ध से जुड़ी हुई ही रहती हैं । उदाहरण के लिये पानी गिरता है तभी भूमि गीली होती है, उसके बिना नहीं । मनुष्य क्रोध, भय, हर्ष आदि भावों के अनुभव को व्यक्त करने के लिये ही चिल्लाता है । आनंद का अनुभव करता है और नाचता है । भूख लगती है तब खाता है । अर्थात किसी भी कार्य के लिये कारण रहता ही है । कार्य कारण का परिणाम है और कारण कार्य का स्रोत है । इस कार्यकारण संबन्ध को जानना बुद्धि का काम है।
 
  −
'', चलते हैं, दौड़ते हैं, नृत्य करते हैं, कूदते हैं, छलांग कर्मन्द्रियाँ क्रिया करती हैं और क्रिया के रूप में''
  −
 
  −
''लगाते हैं, ठोकर मारते हैं, लात मारते हैं। शरीर को... ज्ञानार्जन करती हैं । ज्ञानेंद्रियाँ संवेदनों को ग्रहण करती हैं''
  −
 
  −
''विविध प्रकार से गतिमान रखने का काम पैर करते हैं । .. और संवेदनों के रूप में ज्ञानार्जन करती हैं । मन इच्छा के''
  −
 
  −
''सर्व प्रकार की गति पैरों के ही अधीन है । वाणी आवाज. . रूप में कर्मन्द्रियों और ज्ञानेन्द्रियों को क्रिया करने और''
  −
 
  −
''निकालती है, बोलती है, गाती है । विभिन्न प्रकार के... संबेदनों को ग्रहण करने हेतु प्रेरित करता है । मन उन दोनों''
  −
 
  −
''ध्वनि वाणी नामक कर्मेन्द्रिय करती है । पायु जननेन्द्रिय है... का स्वामी है इसलिए मन की प्रेरणा के बिना कर्मेन्द्रियाँ''
  −
 
  −
''और अपने ही जैसे जीव को जन्म देने का काम करती... और ज्ञानेंद्रियाँ अपना अपना कार्य करने हेतु प्रवृत्त ही नहीं''
  −
 
  −
''है । उपस्थ मलविसर्जन का काम करती है | होती हैं । मन इच्छा के रूप में विषय को ग्रहण करता है ।''
  −
 
  −
''इन पाँच कर्मेन्द्रियों में प्रथम तीन अर्थात हाथ, पैर... भावना के रूप में विषय को पसन्द नापसन्द करता है।''
  −
 
  −
''और वाणी ज्ञानार्जन के प्रत्यक्ष कार्य में जुड़ी हुई हैं । विचार के रूप में विषय को सूक्ष्म रूप में ग्रहण करता है ।''
  −
 
  −
''ज्ञानेंद्रियाँ संवेदनों का अनुभव करती हैं। आँख. बुद्धि विषयों को सूक्ष्म रूप में ग्रहण करने के बाद अपने''
  −
 
  −
''देखने का, कान सुनने का, जीभ चखने का, नाक सूंघने अनेक साधनों का प्रयोग कर विषय को यथार्थ रूप में''
  −
 
  −
''का और त्वचा स्पर्श करने का काम करते हैं । इनका... ग्रहण करती है। बुद्धि के जानने को विवेक कहते हैं ।''
  −
 
  −
''महत्व बहुत अधिक है क्योंकि ज्ञानेन्द्रियों के माध्यम से ही अहंकार जानने के साथ कर्ता रूप में और भोक्ता रूप में''
  −
 
  −
''हम बाहर के अर्थात अपने आसपास के जगत के सम्पर्क... ग्रहण करता है । चित्त विषयों को संस्कार रूप में ग्रहण''
  −
 
  −
''में आते हैं और उससे जुडते हैं । ज्ञानेंद्रियाँ निरीक्षण और. करता है ।''
  −
 
  −
''परीक्षण का काम करती हैं । इनके बिना जगत में हमारा''
  −
 
  −
''व्यवहार ही नहीं हो सकता । ज्ञानार्जन के ये प्रथम साधन''
  −
 
  −
''हैं। सभी करण समवेत रूप में ज्ञान ग्रहण करते हैं ।''
  −
 
  −
''दूसरे हैं अन्तःकरण । ये चार हैं । ये हैं मन, बुद्धि, कोई एक भी करण यदि ठीक रूप में ज्ञानार्जन के कार्य में''
  −
 
  −
''अहंकार और चित्त । सामान्य रूप से हम इनसे परिचित... संलम नहीं हुआ है तो ज्ञानार्जन ठीक से नहीं होता |''
  −
 
  −
''होते हैं परन्तु ये ज्ञानार्जन के साधन हैं ऐसी कल्पना हम... इसलिए सभी करणों का कार्य एकदूसरे से संलम होकर''
  −
 
  −
''करते नहीं हैं । कैसे होता है इसे समझना जरूरी है ।''
  −
 
  −
''मन विचार करता है, इच्छा करता है और भावों का कर्मन्द्रियाँ क्रिया करती हैं। क्रिया संवेदनों में''
  −
 
  −
''अनुभव करता है। कोई कोई इन तीनों को एक ही... रूंपांतरित होती हैं । थोड़ा विचार करने पर ध्यान में आता''
  −
 
  −
''इच्छाशक्ति के रूप बताते हैं परन्तु प्रत्यक्ष कार्य में इन... है कि हाथ, पैर, वाणी कि क्रिया ज्ञानेन्द्रियों के संवेदनों के''
  −
 
  −
''तीनों में कुछ अन्तर है यह हमारा अनुभव है। बुद्धि .. बिना व्यवहार में सम्भव नहीं होती हैं । उदाहरण के लिये''
  −
 
  −
== ''ज्ञानार्जन प्रक्रिया'' ==
  −
कान से सुने बिना वाणी से बोला नहीं जाता है । वाणी श्रवणेन्द्रिय का ही अनुसरण करती है । हाथ के साथ स्पर्शेन्द्रिय जुड़ी हुई है । स्पर्श के बिना हाथ का काम होता ही नहीं है । अर्थात संवेदन का क्रिया में और क्रिया का संवेदन में रूपांतर होता है । कर्मेन्द्रियों की क्रिया और ज्ञानेन्द्रियों का संवेदन विचारों में रूपांतरित होकर मन ग्रहण करता है । मन विषय को भौतिक स्वरूप में ग्रहण नहीं कर सकता । अत: क्रिया और संवेदनों का रूपान्तरण विचारों में होना ही होता है। मन पदार्थ को विचार के रूप में ग्रहण कर अपने विभिन्न भावों के रंगों में रंगता है । मन में यदि आसक्ति है तो उसके और द्वेष है तो उसके रंग में रंगता है। आसक्ति है तो वस्तु उसे पसन्द होती है और वह सुख का अनुभव करता है। द्वेष है तो पदार्थ उसे नापसन्द होता है और वह दुःख का अनुभव करता है । इससे विषय या पदार्थ का भौतिक स्वरूप बदल जाता है। वह इन्द्रियों के अनुरूप नहीं अपितु मन के अनुरूप हो जाता है । ऐसे रागद्वेष, सुखदुःख और अच्छे बुरे के रूप में पदार्थ के विचार तरंग बुद्धि के समक्ष प्रस्तुत होते हैं। बुद्धि मन के द्वारा प्रस्तुत हुए विचार तरंगों पर अपने साधनों से अनेक प्रकार की प्रक्रिया करती है । बुद्धि के साधन हैं निरीक्षण, परीक्षण, तर्क, अनुमान, संश्लेषण, विश्लेषण, साम्यभेद और तुलना | इनमें प्रथम दो अर्थात निरीक्षण और परीक्षण के लिये वह ज्ञानेन्द्रियों का सहयोग लेती है । हम आँख से निरीक्षण करते हैं और शेष इन्द्रियों से परीक्षण करते हैं । शेष सब बुद्धि की ही शक्ति पर निर्भर करते हैं । तर्क का अर्थ है किसी भी घटना का कार्यकारण भाव जानना । व्यवहारजगत में सभी घटनायें कार्यकारण संबन्ध से जुड़ी हुई ही रहती हैं । उदाहरण के लिये पानी गिरता है तभी भूमि गीली होती है, उसके बिना नहीं । मनुष्य क्रोध, भय, हर्ष आदि भावों के अनुभव को व्यक्त करने के लिये ही चिल्लाता है । आनंद का अनुभव करता है और नाचता है । भूख लगती है तब खाता है । अर्थात किसी भी कार्य के लिये कारण रहता ही है । कार्य कारण का परिणाम है और कारण कार्य का स्रोत है । इस कार्यकारण संबन्ध को जानना बुद्धि का काम है।
      
अनुमान करना तर्क का ही दूसरा प्रकार है । अभ्यास से बुद्धि अनुमान करती है । किसी भी घटना या स्थिति के सभी अंगों को समग्रता में जानना संश्लेषण है जबकि सभी आयामों को अलग अलग स्वतंत्र रूप से जानना विश्लेषण है । दो पदार्थों के रूप, रंग, गंध आदि तथा कारण और परिणाम की तुलना कर साम्य और भेद जानना भी बुद्धि का ही काम है । इन सबके आधार पर घटना, व्यवहार, व्यक्ति, स्थिति, व्यवस्था आदि का यथार्थ रूप जानना विवेक कहा जाता है । विवेक ही बुद्धि का कार्य है। अहंकार किसी भी जानने के साथ कर्ता के रूप में जुड़ता है । अर्थात क्रिया का करने वाला अहंकार होता है । जो करता है वही परिणाम का भोग भी करता है । इन सबके संस्कार चित्त पर पड़ते हैं । इन संस्कारों पर आत्मा का प्रकाश पड़ने से ज्ञान होता है। इस प्रकार मनुष्य के व्यक्तित्व के सभी आयाम ज्ञानार्जन की प्रक्रिया में अपनी अपनी क्षमताओं के साथ सहभागी होते हैं । ये ज्ञानार्जन के करण हैं । इन करणों के बिना ज्ञानार्जन सम्भव नहीं है। बाहर के सारे उपकरण इन करणों के बिना ज्ञानार्जन नहीं कर सकते । वे करणों के आश्रित होते हैं । इसलिए करणों की चिन्ता उपकरणों से अधिक करनी चाहिए |
 
अनुमान करना तर्क का ही दूसरा प्रकार है । अभ्यास से बुद्धि अनुमान करती है । किसी भी घटना या स्थिति के सभी अंगों को समग्रता में जानना संश्लेषण है जबकि सभी आयामों को अलग अलग स्वतंत्र रूप से जानना विश्लेषण है । दो पदार्थों के रूप, रंग, गंध आदि तथा कारण और परिणाम की तुलना कर साम्य और भेद जानना भी बुद्धि का ही काम है । इन सबके आधार पर घटना, व्यवहार, व्यक्ति, स्थिति, व्यवस्था आदि का यथार्थ रूप जानना विवेक कहा जाता है । विवेक ही बुद्धि का कार्य है। अहंकार किसी भी जानने के साथ कर्ता के रूप में जुड़ता है । अर्थात क्रिया का करने वाला अहंकार होता है । जो करता है वही परिणाम का भोग भी करता है । इन सबके संस्कार चित्त पर पड़ते हैं । इन संस्कारों पर आत्मा का प्रकाश पड़ने से ज्ञान होता है। इस प्रकार मनुष्य के व्यक्तित्व के सभी आयाम ज्ञानार्जन की प्रक्रिया में अपनी अपनी क्षमताओं के साथ सहभागी होते हैं । ये ज्ञानार्जन के करण हैं । इन करणों के बिना ज्ञानार्जन सम्भव नहीं है। बाहर के सारे उपकरण इन करणों के बिना ज्ञानार्जन नहीं कर सकते । वे करणों के आश्रित होते हैं । इसलिए करणों की चिन्ता उपकरणों से अधिक करनी चाहिए |

Navigation menu