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प्रत्येक मनुष्य के पास ज्ञानार्जन के करण जन्मजात होते ही हैं । तब सबको एक जैसा ही ज्ञानार्जन क्यों नहीं होता ? जो लोग इस जगत के व्यवहार को यांत्रिक रूप में समझते हैं वे इसका उत्तर नहीं दे सकते हैं । उनके लिये मन, बुद्धि आदि सब में समान ही होते हैं । उनका तर्क होता है कि विश्व में मन या बुद्धि एक जैसे ही होते हैं । परन्तु हमारा व्यवहार का अनुभव कहता है कि ऐसा नहीं होता । सबके मन, बुद्धि आदि अलग अलग स्वरूप और क्षमता के होते हैं ।
 
प्रत्येक मनुष्य के पास ज्ञानार्जन के करण जन्मजात होते ही हैं । तब सबको एक जैसा ही ज्ञानार्जन क्यों नहीं होता ? जो लोग इस जगत के व्यवहार को यांत्रिक रूप में समझते हैं वे इसका उत्तर नहीं दे सकते हैं । उनके लिये मन, बुद्धि आदि सब में समान ही होते हैं । उनका तर्क होता है कि विश्व में मन या बुद्धि एक जैसे ही होते हैं । परन्तु हमारा व्यवहार का अनुभव कहता है कि ऐसा नहीं होता । सबके मन, बुद्धि आदि अलग अलग स्वरूप और क्षमता के होते हैं ।
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ज्ञानार्जन का आधार करणों की सक्रियता और क्षमता पर होता है।  
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ज्ञानार्जन का आधार करणों की सक्रियता और क्षमता पर होता है। करणों की क्षमता का प्रथम आधार उसे जन्मगत प्राप्त संभावनाओं पर होता है। व्यक्ति को जन्म के साथ ही करणों की सम्भाव्य क्षमता प्राप्त होती है। दूसरा आधार करणों की क्षमताओं को अभ्यास और प्रशिक्षण से सम्भाव्य सीमा तक बढ़ाने पर होता है। जन्म के साथ सभी करणों को कम अधिक क्षमतायें प्राप्त होती हैं। उनको इस जन्म में घटाया या बढ़ाया नहीं जा सकता है । यही कारण है कि कोई व्यक्ति स्वभाव से शान्त होता है और कोई उत्तेजनापूर्ण, किसी की स्मरणशक्ति अधिक होती है तो किसी की कम, कोई अधिक बुद्धिमान होता है तो कोई कम, किसी का कंठ अधिक सुरीला होता है तो किसी का कम ।
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''करणों की क्षमता... दौड़ना, सुनते सुनते सुनना आता है । इसलिये करणो की''
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परन्तु इस बात का दूसरा आयाम यह है कि अभ्यास और प्रशिक्षण के अभाव में किसीके करण कम अधिक सक्रिय होते हैं। जिसके करण अधिक सक्रिय होते हैं वे अच्छी तरह से ज्ञानार्जन करते हैं, जिसके करण सक्रिय नहीं हो सकते उनका ज्ञानार्जन कम होता है। इसी कारण से किसीके अधिक अंक आते हैं और किसीके कम । करणों के कम सक्रिय होने से व्यक्ति की ग्रहण, समझ, स्मरण आदि प्रवृत्ति कम होती है और व्यक्ति के लिये विषय कठिन होता है। जिसके करण अधिक सक्रिय होते हैं उनके लिये विषय कठिन नहीं होता है।
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''का प्रथम आधार उसे जन्मगत प्राप्त संभावनाओं पर होता... सक्रियता बढ़ाने का उपाय उन्हें सक्रिय रखना है और साथ''
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प्रश्न यह है कि क्या ज्ञानार्जन के करणों की क्षमता बढाई जा सकती है ? उत्तर है हाँ, अवश्य बढाई जा सकती है और जन्मगत संभावनाओं को पूर्ण रूप से सक्रिय बनाया जा सकता है। इसलिये अध्ययन शुरू करने से पूर्व ज्ञानार्जन के करणों की क्षमताओं को बढ़ाने पर ही विशेष ध्यान देना चाहिए।
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''है। व्यक्ति को जन्म के साथ ही करणों की सम्भाव्य... साथ उन्हें प्रशिक्षित करना है। यह कैसे करें ? जरा''
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== करणों की सक्रियता कैसे बढ़ायें ==
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ज्ञानार्जन के करणों की सक्रियता बढ़ाने का अथवा उन्हें अधिकतम सक्रिय करने का सीधासादा नियम है करते करते करना आता है। चलते चलते चलना आता है, बोलते बोलते बोलना, गाते गाते गाना, दौड़ते दौड़ते दौड़ना, सुनते सुनते सुनना आता है। इसलिये करणो की सक्रियता बढ़ाने का उपाय उन्हें सक्रिय रखना है और साथ साथ उन्हें प्रशिक्षित करना है। यह कैसे करें ? जरा विस्तार से देखेंगे।
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''क्षमता प्राप्त होती है । दूसरा आधार करणों की क्षमताओं... विस्तार से देखेंगे ।''
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कर्मेन्द्रियाँ क्रिया करती हैं। क्रिया करने में तीन बातों का महत्त्व है। एक है सही स्थिति, दूसरी है गति और तीसरी है निपुणता । उदाहरण के लिये हाथ से मिट्टी के खिलौने बनाये जाते हैं या ईंट, घड़ा, या कुल्हड़ जैसे उपयोगी पात्र बनाये जाते हैं। इसमें सर्व प्रथम है पदार्थ का सही आकार होना । इसके लिये हाथ को सही ढंग से काम करना सिखाना होता है । बार बार किसीके मार्गदर्शन में, किसीके बताने से, किसीको काम करते देखते देखते, बार बार बनाते, देखते और फिर बनाते बनाते पात्र सही ढंग से बनाने का काम पहला है। सही रूप में आ जाने के बाद बनाने का बार बार और निरन्तर अभ्यास करने से काम में गति आती है। साथ ही काम में सफाई भी आती है। उसके बाद कल्पनाशीलता, सृजनशीलता, सहजता जैसे तत्त्व सम्मिलित होते हैं और काम में निपुणता आती है। काम में उत्कृष्टता आती है। उसे ही गुणवत्ता कहते हैं। यह कर्मेन्द्रियों की क्षमता बढ़ाने का तरीका है। बोलना और गाना वाणी नामक कर्मेन्द्रिय का काम है। सर्व प्रथम सही सुन सुनकर वाणी को अनुकरण करने के लिये तैयार किया जाता है। बाद में सुनाने वाले और सिखाने वाले तथा बोलने और गाने वाले को सही उच्चारण तथा सही स्वर निकालने के लिये प्रवृत्त किया जाता है। सही उच्चार और सही स्वर बैठ जाना यह पहला चरण है। दूसरे चरण में अभ्यास करते करते बोलने में और गाने में गति आती है। तीसरे चरण में उत्कृष्टता और मौलिकता आती है। भाषा और संगीत सीखने के लिये वाणी की इस प्रकार की तैयारी या सक्रियता बहुत आवश्यक है । ऐसा नहीं किया तो भाषा नहीं सीखी जाती है। इस प्रकार कर्मेन्द्रियों को सक्षम बनाने से ज्ञानार्जन ठीक से होता है।
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''को अभ्यास और प्रशिक्षण से सम्भाव्य सीमा तक बढ़ाने कर्मन्द्रियाँ क्रिया करती हैं। क्रिया करने में तीन''
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ज्ञानेन्द्रियों को सक्षम बनाने के लिये उनकी सर्वप्रथम शुद्धि तथा सुरक्षा आवश्यक है। बाहर से दिखने वाले कान, नाक, आँखें आदि तो केवल यंत्र हैं । वे बाहर से संवेदनों को अंदर जाने का मार्ग प्रशस्त करते हैं। वे केवल दरवाजे हैं । देखने, सुनने, सूंघने का कार्य अन्दर के केंद्र करते हैं। ज्ञानेन्द्रियों को सक्षम बनाने का काम नाड़ियाँ और प्राणशक्ति करती है। जन्म के समय ज्ञानेन्द्रियों को तेज और कर्कश आवाज, तीव्र प्रकाश, भयानक दृश्य, दुर्गन्ध आदि से बचाने की आवश्यकता होती है । यदि उस समय उनकी सुरक्षा नहीं की गई तो उनकी संवेदन ग्रहण करने की शक्ति क्षीण हो जाती है। श्वसनप्रक्रिया यदि ठीक नहीं है तो नाड़ियों में अशुद्धि जमा होती है और ज्ञानेन्द्रियों की ग्रहणक्षमता क्षीण हो जाती है । ज्ञानेन्द्रियों की क्षमता यदि क्षीण है तो बाह्म जगत के अनुभव ही ठीक से नहीं हो पाते हैं। जिनकी आँखें दुर्बल होती है उनका देखने का, नाक सक्षम नहीं है उनका सूंघने का और कान सक्षम नहीं हैं उनका सुनने का अनुभव ठीक नहीं होता है यह सबके अनुभव की बात है। अत: सही और अच्छे ज्ञानार्जन के लिये ज्ञानेंद्रियाँ शुद्ध और बलवान होनी चाहिए ।
 
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''पर होता है । जन्म के साथ सभी करणों को कम अधिक बातों का महत्व है । एक है सही स्थिति, दूसरी है गति''
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''क्षमतायें प्राप्त होती हैं । उनको इस जन्म में घटाया या... और तीसरी है निपुणता । उदाहरण के लिये हाथ से मिट्टी''
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''बढ़ाया नहीं जा सकता है । यही कारण है कि कोई व्यक्ति... के खिलौने बनाये जाते हैं या ईंट, घड़ा, या कुल्हड़ जैसे''
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''स्वभाव से शान्त होता है और कोई उत्तेजनापूर्ण, किसीकी... उपयोगी पात्र बनाये जाते हैं । इसमें सर्व प्रथम है पदार्थ''
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''स्मरणशक्ति अधिक होती है तो किसीकी कम, कोई का सही आकार होना । इसके लिये हाथ को सही ढंग से''
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''अधिक बुद्धिमान होता है तो कोई कम, किसीका कंठ... काम करना सिखाना होता है । बार बार किसीके मार्गदर्शन''
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''अधिक सुरीला होता है तो किसीका कम । में, किसीके बताने से, किसीको काम करते देखते देखते,''
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''परन्तु इस बात का दूसरा आयाम यह है कि अभ्यास... बार बार बनाते, देखते और फिर बनाते बनाते पात्र सही''
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''और प्रशिक्षण के अभाव में किसीके करण कम अधिक. ढंग से बनाने का काम पहला है । सही रूप में आ जाने''
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''सक्रिय होते हैं । जिसके करण अधिक सक्रिय होते हैं वे. के बाद बनाने का बार बार और निरन्तर अभ्यास करने से''
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''अच्छी तरह से ज्ञानार्जन करते हैं, जिसके करण सक्रिय... काम में गति आती है । साथ ही काम में सफाई भी आती''
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''नहीं हो सकते उनका ज्ञानार्जन कम होता है । इसी कारण. है। उसके बाद कल्पनाशीलता, सृजनशीलता, सहजता''
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''से किसीके अधिक अंक आते हैं और किसीके कम ।... जैसे तत्त्व सम्मिलित होते हैं और काम में निपुणता आती''
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''करणों के कम सक्रिय होने से व्यक्ति की ग्रहण, समझ, . है। काम में उत्कृष्टता आती है । उसे ही गुणवत्ता कहते''
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''स्मरण आदि प्रवृत्ति कम होती है और व्यक्ति के लिये. हैं। यह कर्मेन्द्रियों की क्षमता बढ़ाने का तरीका है।''
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''विषय कठिन होता है । जिसके करण अधिक सक्रिय होते... बोलना और गाना वाणी नामक कर्मेन्द्रियि का काम है ।''
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''हैं उनके लिये विषय कठिन नहीं होता है । सर्व प्रथम सही सुन सुनकर वाणी को अनुकरण करने के''
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''प्रश्न यह है कि क्या ज्ञानार्जन के करणों की क्षमता... लिये तैयार किया जाता है । बाद में सुनाने वाले और''
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''बढाई जा सकती है ? उत्तर है हाँ, अवश्य बढाई जा... सिखाने वाले तथा बोलने और गाने वाले को सही''
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''सकती है और जन्मगत संभावनाओं को पूर्ण रूप से सक्रिय... उच्चारण तथा सही स्वर निकालने के लिये प्रवृत्त किया''
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''ज्ञानार्जन के करणों की क्षमताओं को बढ़ाने पर ही विशेष... पहला चरण है । दूसरे चरण में अभ्यास करते करते बोलने''
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''ध्यान देना चाहिए । में और गाने में गति आती है । तीसरे चरण में उत्कृष्टता''
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''उन्हें अधिकतम सक्रिय करने का सीधासादा नियम है करते. है । इस प्रकार कर्मेन्ट्रि यों को सक्षम बनाने से ज्ञानार्जन''
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''करते करना आता है । चलते चलते चलना आता है, ठीक से होता है ।''
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''बोलते बोलते बोलना, गाते गाते गाना, दौड़ते दौड़ते ज्ञानेन्द्रियों को सक्षम बनाने के लिये उनकी सर्वप्रथम''
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शुद्धि तथा सुरक्षा आवश्यक है। बाहर से दिखने वाले कान, नाक, आँखें आदि तो केवल यंत्र हैं । वे बाहर से संवेदनों को अंदर जाने का मार्ग प्रशस्त करते हैं। वे केवल दरवाजे हैं । देखने, सुनने, सूंघने का कार्य अन्दर के केंद्र करते हैं। ज्ञानेन्द्रियों को सक्षम बनाने का काम नाड़ियाँ और प्राणशक्ति करती है। जन्म के समय ज्ञानेन्द्रियों को तेज और कर्कश आवाज, तीव्र प्रकाश, भयानक दृश्य, दुर्गन्ध आदि से बचाने की आवश्यकता होती है । यदि उस समय उनकी सुरक्षा नहीं की गई तो उनकी संवेदन ग्रहण करने की शक्ति क्षीण हो जाती है। श्वसनप्रक्रिया यदि ठीक नहीं है तो नाड़ियों में अशुद्धि जमा होती है और ज्ञानेन्द्रियों की ग्रहणक्षमता क्षीण हो जाती है । ज्ञानेन्द्रियों की क्षमता यदि क्षीण है तो बाह्म जगत के अनुभव ही ठीक से नहीं हो पाते हैं। जिनकी आँखें दुर्बल होती है उनका देखने का, नाक सक्षम नहीं है उनका सूंघने का और कान सक्षम नहीं हैं उनका सुनने का अनुभव ठीक नहीं होता है यह सबके अनुभव की बात है। अत: सही और अच्छे ज्ञानार्जन के लिये ज्ञानेंद्रियाँ शुद्ध और बलवान होनी चाहिए ।
      
ज्ञानेंद्रियाँ और कर्मन्द्रियाँ बाह्य जगत में काम करती हैं। ज्ञानेंद्रियाँ बाहर से अन्दर की ओर यात्रा करती हैं। इसलिये ये बहि:करण हैं । अन्त:करण अन्दर कार्यरत होता है। अन्त:करण बहि:करण से अधिक सूक्ष्म होता है। सूक्ष्म का अर्थ है अधिक व्यापक और अधिक प्रभावी। अन्तःकरण ज्ञानेन्द्रिय और कर्मेन्द्रिय से अधिक प्रभावी है ।
 
ज्ञानेंद्रियाँ और कर्मन्द्रियाँ बाह्य जगत में काम करती हैं। ज्ञानेंद्रियाँ बाहर से अन्दर की ओर यात्रा करती हैं। इसलिये ये बहि:करण हैं । अन्त:करण अन्दर कार्यरत होता है। अन्त:करण बहि:करण से अधिक सूक्ष्म होता है। सूक्ष्म का अर्थ है अधिक व्यापक और अधिक प्रभावी। अन्तःकरण ज्ञानेन्द्रिय और कर्मेन्द्रिय से अधिक प्रभावी है ।

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