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− | ज्ञानार्जन और करणों का परस्पर संबंध | + | == ज्ञानार्जन और करणों का परस्पर संबंध == |
| + | ज्ञानार्जन का अर्थ है ज्ञान का अर्जन।<ref>भारतीय शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप (भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला १), प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे</ref> ज्ञान का अर्जन करने का अर्थ है ज्ञान प्राप्त करना । हम जब कहते हैं कि हम पढ़ते हैं तब हम ज्ञान प्राप्त कर रहे होते हैं । ज्ञान प्राप्त करने के लिए हमने बहुत सारी व्यवस्था की है, बहुत सारे साधन जुटाये हैं । ज्ञान प्राप्त करने के लिए हम पुस्तकों का और लेखन सामग्री का उपयोग करते हैं । अब तो पुस्तक और लेखन सामग्री का व्याप बहुत बढ़ गया है। टीवी, फिल्म, टैब, संगणक, अंतर्जाल, चित्र, चार्ट, नक्शे आदि विविध प्रकार की सामग्री का अम्बार आज उपलब्ध है । छात्र इन सबका उपयोग कर सर्के ऐसी नई नई पाठन पठन पद्धतियों का भी आविष्कार होता है जिन्हें नवाचार कहा जाता है । इन सबका प्रयोग कर सकें ऐसी नई नई सुविधायें भी निर्माण की जा रही हैं। इन सुविधाओं और सामाग्री के कारण पढ़ने पढ़ाने का खर्च बहुत बढ़ गया है और बाजार विकसित हो गया है। |
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− | WAS का अर्थ है ज्ञान का अर्जन । ज्ञान का
| + | परन्तु बाजार के बढ़ने से, खर्च बढ़ने से, सुविधाओं और सामग्री के बढ़ने से ज्ञानार्जन बहुत अच्छा हो गया है ऐसी स्थिति नहीं है। कदाचित इन सबके बढ़ने का परिणाम विपरीत ही हुआ है। इसका एक स्वाभाविक कारण है । शिक्षा इन सब बातों से नहीं होती । ये सब शिक्षा प्राप्त करने के उपकरण हैं, करण नहीं । उपकरण और करण में अन्तर है। उपकरण का अर्थ ही है गौण साधन । करण ही मुख्य साधन है । उदाहरण के लिये आँख देखने का मुख्य साधन है जबकि चश्मा गौण साधन । वृद्धों के लिये पैर चलने हेतु मुख्य साधन है परन्तु लकड़ी गौण साधन है । लिखने के लिये हाथ मुख्य साधन है और लेखनी सहायक साधन । देखना आँखों से ही होता है, चश्मे से नहीं, चलना पैरों से ही होता है, लकड़ी से नहीं । शिक्षा करणों से होती है, उपकरणों से नहीं । करणों की चिन्ता न करते हुए उपकरणों की ही चिन्ता अधिक करने के कारण वर्तमान में ज्ञानार्जन का कार्य ठीक प्रकार से नहीं हो रहा है। |
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− | अर्जन करने का अर्थ है ज्ञान प्राप्त करना । हम जब कहते
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− | हैं कि हम पढ़ते हैं तब हम ज्ञान प्राप्त कर रहे होते हैं ।
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− | ज्ञान प्राप्त करने के लिए हमने बहुत सारी व्यवस्था की है,
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− | बहुत सारे साधन जुटाये हैं । ज्ञान प्राप्त करने के लिए हम
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− | पुस्तकों का और लेखन सामग्री का उपयोग करते हैं । अब
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− | तो पुस्तक और लेखन सामग्री का व्याप बहुत बढ़ गया
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− | है । टीवी, फिल्म, टैब, संगणक, अंतर्जाल, चित्र, चार्ट,
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− | नक्शे आदि विविध प्रकार की सामग्री का अम्बार आज
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− | उपलब्ध है । छात्र इन सबका उपयोग कर सर्के ऐसी नई
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− | नई पाठन पठन पद्धतियों का भी आविष्कार होता है जिन्हें
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− | नवाचार कहा जाता है । इन सबका प्रयोग कर सकें ऐसी
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− | नई नई सुविधायें भी निर्माण की जा रही हैं। इन
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− | सुविधाओं और सामाग्री के कारण पढ़ने पढ़ाने का खर्च
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− | बहुत बढ़ गया है और बाजार विकसित हो गया है ।
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− | परन्तु बाजार के बढ़ने से, खर्च बढ़ने से, सुविधाओं | |
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− | और सामग्री के बढ़ने से ज्ञानार्जन बहुत अच्छा हो गया है | |
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− | ऐसी स्थिति नहीं है। कदाचित इन सबके बढ़ने का | |
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− | परिणाम विपरीत ही हुआ है । | |
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− | इसका एक स्वाभाविक कारण है । शिक्षा इन सब | |
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− | बातों से नहीं होती । ये सब शिक्षा प्राप्त करने के उपकरण | |
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− | हैं, करण नहीं । उपकरण और करण में अन्तर है। | |
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− | उपकरण का अर्थ ही है गौण साधन । करण ही मुख्य | |
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− | साधन है । उदाहरण के लिये आँख देखने का मुख्य साधन | |
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− | है जबकि चश्मा गौण साधन । वृद्धों के लिये पैर चलने | |
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− | हेतु मुख्य साधन है परन्तु लकड़ी गौण साधन है । लिखने | |
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− | श्श्१
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− | के लिये हाथ मुख्य साधन है और लेखनी सहायक | |
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− | साधन । देखना आँखों से ही होता है, चश्मे से नहीं, | |
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− | चलना पैरों से ही होता है, लकड़ी से नहीं । शिक्षा करणों | |
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− | से होती है, उपकरणों से नहीं । करणों की चिन्ता न करते | |
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− | हुए उपकरणों की ही चिन्ता अधिक करने के कारण | |
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− | वर्तमान में ज्ञानार्जन का कार्य ठीक प्रकार से नहीं हो रहा | |
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− | है। | |
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| == करण कौन कौन से हैं == | | == करण कौन कौन से हैं == |
− | यदि करणों की चिन्ता करना अधिक महत्त्वपूर्ण है | + | यदि करणों की चिन्ता करना अधिक महत्वपूर्ण है तो करण क्या है यह जानना होगा । भगवान ने हमें बनाया और हमारी बुद्धि में जिज्ञासा भी स्थापित की । जिज्ञासा का अर्थ ही है जानने की इच्छा । हमारे अंदर जानने की स्वाभाविक इच्छा होती है इसिलिए हम ज्ञानार्जन हेतु प्रवृत्त होते हैं । जिन्होंने हमें ज्ञानार्जन की इच्छा दी है उन्होंने ही ज्ञानार्जन के करण अर्थात साधन भी दिए हैं। अर्थात मनुष्य को ज्ञानार्जन के करण जन्माजात प्राप्त हुए हैं, वे कहीं बाहर से नहीं लाने पड़ते । उन्हें प्राप्त करने हेतु पैसा खर्च नहीं करना पड़ता क्योंकि वे बाजार में उपलब्ध नहीं होते हैं । भौतिक पदार्थों की तरह वे कारखाने में बनाये नहीं जाते हैं । वे हमारे व्यक्तित्व के साथ ही जुड़े हुए हैं । |
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− | तो करण क्या है यह जानना होगा । भगवान ने हमें बनाया | |
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− | और हमारी बुद्धि में जिज्ञासा भी स्थापित की । जिज्ञासा | |
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− | का अर्थ ही है जानने की इच्छा । हमारे अंदर जानने की | |
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− | स्वाभाविक इच्छा होती है इसिलिए हम ज्ञानार्जन हेतु प्रवृत्त | |
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− | होते हैं । जिन्होंने हमें ज्ञानार्जन की इच्छा दी है उन्होंने ही | |
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− | ज्ञानार्जन के करण अर्थात साधन भी दीये हैं । अर्थात | |
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− | मनुष्य को ज्ञानार्जन के करण जन्माजात प्राप्त हुए हैं, वे | |
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− | कहीं बाहर से नहीं लाने पड़ते । उन्हें प्राप्त करने हेतु पैसा | |
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− | खर्च नहीं करना पड़ता क्योंकि वे बाजार में उपलब्ध नहीं
| + | ज्ञानार्जन के करण दो प्रकार के होते हैं । एक है बहि:करण और दूसरे हैं अन्तःकरण । |
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− | होते हैं । भौतिक पदार्थों की तरह वे कारखाने में बनाये | + | बहि:करण दो प्रकार के होते हैं । एक हैं कर्मेन्द्रियाँ और दूसरे हैं ज्ञानेंद्रियाँ । |
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− | नहीं जाते हैं । वे हमारे व्यक्तित्व के साथ ही जुड़े हुए हैं ।
| + | '''कर्मन्द्रियाँ''' पाँच हैं । वे हैं हाथ, पैर, वाणी, पायु और उपस्थ। '''ज्ञानेंद्रियाँ''' भी पाँच हैं । वे हैं आँख, कान, नाक, जीभ और त्वचा । |
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− | ज्ञानार्जन के करण दो प्रकार के होते हैं ।
| + | ''इनके काम भी हम जानते हैं । समझती है, जानती है और विवेक करती है । अहंकार'' |
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− | एक है बहि:करण और दूसरे हैं अन्तःकरण ।
| + | ''हाथ काम करते हैं। वे वस्तुओं को पकड़ते हैं, कर्तापन और भोकक््तापन का अनुभव करता है और चित्त'' |
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− | बहि:करण दो प्रकार के होते हैं । एक हैं कर्मन्ट्रियाँ
| + | ''उठाते हैं, दबाते हैं, फेंकते हैं, खींचते हैं, धकेलते हैं, संस्कार ग्रहण करता है । इच्छा, भावना, विचार, विवेक,'' |
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− | और दूसरे हैं ज्ञानेंद्रियाँ । | + | ''seid हैं, लिखते हैं, चित्र बनाते हैं, विविध प्रकार की. कर्ता और भोक्ताभाव और संस्कार के रूप में अन्तः:करण'' |
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− | कर्मन्द्रियाँ पाँच हैं । वे हैं हाथ, पैर, वाणी, पायु
| + | ''कारीगरी के काम करते हैं। निर्माण करने की अद्भुत. ज्ञानार्जन का कार्य करता है ।'' |
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− | और उपस्थ । ज्ञानेंद्रियाँ भी पाँच हैं । वे हैं आँख, कान,
| + | ''कुशलता हाथ में होती है । पैर शरीर का भार उठाते हैं, 5'' |
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− | नाक, जीभ और त्वचा ।
| + | ''शरीर को खड़ा रखते हैं, शरीर का सन्तुलन बनाए रखते'' |
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| + | == ''करण कार्य कैसे करते हैं'' == |
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− | भारतीय शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप
| + | '', चलते हैं, दौड़ते हैं, नृत्य करते हैं, कूदते हैं, छलांग कर्मन्द्रियाँ क्रिया करती हैं और क्रिया के रूप में'' |
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− | इनके काम भी हम जानते हैं । समझती है, जानती है और विवेक करती है । अहंकार
| + | ''लगाते हैं, ठोकर मारते हैं, लात मारते हैं। शरीर को... ज्ञानार्जन करती हैं । ज्ञानेंद्रियाँ संवेदनों को ग्रहण करती हैं'' |
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− | हाथ काम करते हैं। वे वस्तुओं को पकड़ते हैं, कर्तापन और भोकक््तापन का अनुभव करता है और चित्त
| + | ''विविध प्रकार से गतिमान रखने का काम पैर करते हैं । .. और संवेदनों के रूप में ज्ञानार्जन करती हैं । मन इच्छा के'' |
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− | उठाते हैं, दबाते हैं, फेंकते हैं, खींचते हैं, धकेलते हैं, संस्कार ग्रहण करता है । इच्छा, भावना, विचार, विवेक,
| + | ''सर्व प्रकार की गति पैरों के ही अधीन है । वाणी आवाज. . रूप में कर्मन्द्रियों और ज्ञानेन्द्रियों को क्रिया करने और'' |
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− | seid हैं, लिखते हैं, चित्र बनाते हैं, विविध प्रकार की. कर्ता और भोक्ताभाव और संस्कार के रूप में अन्तः:करण
| + | ''निकालती है, बोलती है, गाती है । विभिन्न प्रकार के... संबेदनों को ग्रहण करने हेतु प्रेरित करता है । मन उन दोनों'' |
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− | कारीगरी के काम करते हैं। निर्माण करने की अद्भुत. ज्ञानार्जन का कार्य करता है ।
| + | ''ध्वनि वाणी नामक कर्मेन्द्रिय करती है । पायु जननेन्द्रिय है... का स्वामी है इसलिए मन की प्रेरणा के बिना कर्मेन्द्रियाँ'' |
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− | कुशलता हाथ में होती है । पैर शरीर का भार उठाते हैं, 5
| + | ''और अपने ही जैसे जीव को जन्म देने का काम करती... और ज्ञानेंद्रियाँ अपना अपना कार्य करने हेतु प्रवृत्त ही नहीं'' |
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− | शरीर को खड़ा रखते हैं, शरीर का सन्तुलन बनाए रखते
| + | ''है । उपस्थ मलविसर्जन का काम करती है | होती हैं । मन इच्छा के रूप में विषय को ग्रहण करता है ।'' |
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− | == करण कार्य कैसे करते हैं ==
| + | ''इन पाँच कर्मेन्द्रियों में प्रथम तीन अर्थात हाथ, पैर... भावना के रूप में विषय को पसन्द नापसन्द करता है।'' |
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− | , चलते हैं, दौड़ते हैं, नृत्य करते हैं, कूदते हैं, छलांग कर्मन्द्रियाँ क्रिया करती हैं और क्रिया के रूप में
| + | ''और वाणी ज्ञानार्जन के प्रत्यक्ष कार्य में जुड़ी हुई हैं । विचार के रूप में विषय को सूक्ष्म रूप में ग्रहण करता है ।'' |
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− | लगाते हैं, ठोकर मारते हैं, लात मारते हैं। शरीर को... ज्ञानार्जन करती हैं । ज्ञानेंद्रियाँ संवेदनों को ग्रहण करती हैं
| + | ''ज्ञानेंद्रियाँ संवेदनों का अनुभव करती हैं। आँख. बुद्धि विषयों को सूक्ष्म रूप में ग्रहण करने के बाद अपने'' |
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− | विविध प्रकार से गतिमान रखने का काम पैर करते हैं । .. और संवेदनों के रूप में ज्ञानार्जन करती हैं । मन इच्छा के
| + | ''देखने का, कान सुनने का, जीभ चखने का, नाक सूंघने अनेक साधनों का प्रयोग कर विषय को यथार्थ रूप में'' |
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− | सर्व प्रकार की गति पैरों के ही अधीन है । वाणी आवाज. . रूप में कर्मन्द्रियों और ज्ञानेन्द्रियों को क्रिया करने और
| + | ''का और त्वचा स्पर्श करने का काम करते हैं । इनका... ग्रहण करती है। बुद्धि के जानने को विवेक कहते हैं ।'' |
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− | निकालती है, बोलती है, गाती है । विभिन्न प्रकार के... संबेदनों को ग्रहण करने हेतु प्रेरित करता है । मन उन दोनों
| + | ''महत्व बहुत अधिक है क्योंकि ज्ञानेन्द्रियों के माध्यम से ही अहंकार जानने के साथ कर्ता रूप में और भोक्ता रूप में'' |
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− | ध्वनि वाणी नामक कर्मेन्द्रिय करती है । पायु जननेन्द्रिय है... का स्वामी है इसलिए मन की प्रेरणा के बिना कर्मेन्द्रियाँ
| + | ''हम बाहर के अर्थात अपने आसपास के जगत के सम्पर्क... ग्रहण करता है । चित्त विषयों को संस्कार रूप में ग्रहण'' |
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− | और अपने ही जैसे जीव को जन्म देने का काम करती... और ज्ञानेंद्रियाँ अपना अपना कार्य करने हेतु प्रवृत्त ही नहीं | + | ''में आते हैं और उससे जुडते हैं । ज्ञानेंद्रियाँ निरीक्षण और. करता है ।'' |
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− | है । उपस्थ मलविसर्जन का काम करती है | होती हैं । मन इच्छा के रूप में विषय को ग्रहण करता है ।
| + | ''परीक्षण का काम करती हैं । इनके बिना जगत में हमारा'' |
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− | इन पाँच कर्मेन्ट्रियों में प्रथम तीन अर्थात हाथ, पैर... भावना के रूप में विषय को पसन्द नापसन्द करता है।
| + | ''व्यवहार ही नहीं हो सकता । ज्ञानार्जन के ये प्रथम साधन'' |
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− | और वाणी ज्ञानार्जन के प्रत्यक्ष कार्य में जुड़ी हुई हैं । विचार के रूप में विषय को सूक्ष्म रूप में ग्रहण करता है ।
| + | ''हैं। सभी करण समवेत रूप में ज्ञान ग्रहण करते हैं ।'' |
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− | ज्ञानेंद्रियाँ संवेदनों का अनुभव करती हैं। आँख. बुद्धि विषयों को सूक्ष्म रूप में ग्रहण करने के बाद अपने
| + | ''दूसरे हैं अन्तःकरण । ये चार हैं । ये हैं मन, बुद्धि, कोई एक भी करण यदि ठीक रूप में ज्ञानार्जन के कार्य में'' |
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− | देखने का, कान सुनने का, जीभ चखने का, नाक सूंघने अनेक साधनों का प्रयोग कर विषय को यथार्थ रूप में
| + | ''अहंकार और चित्त । सामान्य रूप से हम इनसे परिचित... संलम नहीं हुआ है तो ज्ञानार्जन ठीक से नहीं होता |'' |
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− | का और त्वचा स्पर्श करने का काम करते हैं । इनका... ग्रहण करती है। बुद्धि के जानने को विवेक कहते हैं ।
| + | ''होते हैं परन्तु ये ज्ञानार्जन के साधन हैं ऐसी कल्पना हम... इसलिए सभी करणों का कार्य एकदूसरे से संलम होकर'' |
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− | महत्त्व बहुत अधिक है क्योंकि ज्ञानेन्द्रियों के माध्यम से ही अहंकार जानने के साथ कर्ता रूप में और भोक्ता रूप में
| + | ''करते नहीं हैं । कैसे होता है इसे समझना जरूरी है ।'' |
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− | हम बाहर के अर्थात अपने आसपास के जगत के सम्पर्क... ग्रहण करता है । चित्त विषयों को संस्कार रूप में ग्रहण
| + | ''मन विचार करता है, इच्छा करता है और भावों का कर्मन्द्रियाँ क्रिया करती हैं। क्रिया संवेदनों में'' |
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− | में आते हैं और उससे जुडते हैं । ज्ञानेंद्रियाँ निरीक्षण और. करता है ।
| + | ''अनुभव करता है। कोई कोई इन तीनों को एक ही... रूंपांतरित होती हैं । थोड़ा विचार करने पर ध्यान में आता'' |
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− | परीक्षण का काम करती हैं । इनके बिना जगत में हमारा
| + | ''इच्छाशक्ति के रूप बताते हैं परन्तु प्रत्यक्ष कार्य में इन... है कि हाथ, पैर, वाणी कि क्रिया ज्ञानेन्द्रियों के संवेदनों के'' |
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− | व्यवहार ही नहीं हो सकता । ज्ञानार्जन के ये प्रथम साधन | + | ''तीनों में कुछ अन्तर है यह हमारा अनुभव है। बुद्धि .. बिना व्यवहार में सम्भव नहीं होती हैं । उदाहरण के लिये'' |
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− | हैं। सभी करण समवेत रूप में ज्ञान ग्रहण करते हैं ।
| + | == ''ज्ञानार्जन प्रक्रिया'' == |
| + | कान से सुने बिना वाणी से बोला नहीं जाता है । वाणी श्रवणेन्द्रिय का ही अनुसरण करती है । हाथ के साथ स्पर्शेन्द्रिय जुड़ी हुई है । स्पर्श के बिना हाथ का काम होता ही नहीं है । अर्थात संवेदन का क्रिया में और क्रिया का संवेदन में रूपांतर होता है । कर्मेन्द्रियों की क्रिया और ज्ञानेन्द्रियों का संवेदन विचारों में रूपांतरित होकर मन ग्रहण करता है । मन विषय को भौतिक स्वरूप में ग्रहण नहीं कर सकता । अत: क्रिया और संवेदनों का रूपान्तरण विचारों में होना ही होता है। मन पदार्थ को विचार के रूप में ग्रहण कर अपने विभिन्न भावों के रंगों में रंगता है । मन में यदि आसक्ति है तो उसके और द्वेष है तो उसके रंग में रंगता है। आसक्ति है तो वस्तु उसे पसन्द होती है और वह सुख का अनुभव करता है। द्वेष है तो पदार्थ उसे नापसन्द होता है और वह दुःख का अनुभव करता है । इससे विषय या पदार्थ का भौतिक स्वरूप बदल जाता है। वह इन्द्रियों के अनुरूप नहीं अपितु मन के अनुरूप हो जाता है । ऐसे रागद्वेष, सुखदुःख और अच्छे बुरे के रूप में पदार्थ के विचार तरंग बुद्धि के समक्ष प्रस्तुत होते हैं। बुद्धि मन के द्वारा प्रस्तुत हुए विचार तरंगों पर अपने साधनों से अनेक प्रकार की प्रक्रिया करती है । बुद्धि के साधन हैं निरीक्षण, परीक्षण, तर्क, अनुमान, संश्लेषण, विश्लेषण, साम्यभेद और तुलना | इनमें प्रथम दो अर्थात निरीक्षण और परीक्षण के लिये वह ज्ञानेन्द्रियों का सहयोग लेती है । हम आँख से निरीक्षण करते हैं और शेष इन्द्रियों से परीक्षण करते हैं । शेष सब बुद्धि की ही शक्ति पर निर्भर करते हैं । तर्क का अर्थ है किसी भी घटना का कार्यकारण भाव जानना । व्यवहारजगत में सभी घटनायें कार्यकारण संबन्ध से जुड़ी हुई ही रहती हैं । उदाहरण के लिये पानी गिरता है तभी भूमि गीली होती है, उसके बिना नहीं । मनुष्य क्रोध, भय, हर्ष आदि भावों के अनुभव को व्यक्त करने के लिये ही चिल्लाता है । आनंद का अनुभव करता है और नाचता है । भूख लगती है तब खाता है । अर्थात किसी भी कार्य के लिये कारण रहता ही है । कार्य कारण का परिणाम है और कारण कार्य का स्रोत है । इस कार्यकारण संबन्ध को जानना बुद्धि का काम है। |
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− | दूसरे हैं अन्तःकरण । ये चार हैं । ये हैं मन, बुद्धि, कोई एक भी करण यदि ठीक रूप में ज्ञानार्जन के कार्य में
| + | अनुमान करना तर्क का ही दूसरा प्रकार है । अभ्यास से बुद्धि अनुमान करती है । किसी भी घटना या स्थिति के सभी अंगों को समग्रता में जानना संश्लेषण है जबकि सभी आयामों को अलग अलग स्वतंत्र रूप से जानना विश्लेषण है । दो पदार्थों के रूप, रंग, गंध आदि तथा कारण और परिणाम की तुलना कर साम्य और भेद जानना भी बुद्धि का ही काम है । इन सबके आधार पर घटना, व्यवहार, व्यक्ति, स्थिति, व्यवस्था आदि का यथार्थ रूप जानना विवेक कहा जाता है । विवेक ही बुद्धि का कार्य है। अहंकार किसी भी जानने के साथ कर्ता के रूप में जुड़ता है । अर्थात क्रिया का करने वाला अहंकार होता है । जो करता है वही परिणाम का भोग भी करता है । इन सबके संस्कार चित्त पर पड़ते हैं । इन संस्कारों पर आत्मा का प्रकाश पड़ने से ज्ञान होता है। इस प्रकार मनुष्य के व्यक्तित्व के सभी आयाम ज्ञानार्जन की प्रक्रिया में अपनी अपनी क्षमताओं के साथ सहभागी होते हैं । ये ज्ञानार्जन के करण हैं । इन करणों के बिना ज्ञानार्जन सम्भव नहीं है। बाहर के सारे उपकरण इन करणों के बिना ज्ञानार्जन नहीं कर सकते । वे करणों के आश्रित होते हैं । इसलिए करणों की चिन्ता उपकरणों से अधिक करनी चाहिए | |
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− | अहंकार और चित्त । सामान्य रूप से हम इनसे परिचित... संलम नहीं हुआ है तो ज्ञानार्जन ठीक से नहीं होता |
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− | होते हैं परन्तु ये ज्ञानार्जन के साधन हैं ऐसी कल्पना हम... इसलिए सभी करणों का कार्य एकदूसरे से संलम होकर
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− | करते नहीं हैं । कैसे होता है इसे समझना जरूरी है ।
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− | मन विचार करता है, इच्छा करता है और भावों का कर्मन्द्रियाँ क्रिया करती हैं। क्रिया संवेदनों में
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− | | |
− | अनुभव करता है। कोई कोई इन तीनों को एक ही... रूंपांतरित होती हैं । थोड़ा विचार करने पर ध्यान में आता
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− | इच्छाशक्ति के रूप बताते हैं परन्तु प्रत्यक्ष कार्य में इन... है कि हाथ, पैर, वाणी कि क्रिया ज्ञानेन्द्रियों के संवेदनों के
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− | | |
− | तीनों में कुछ अन्तर है यह हमारा अनुभव है। बुद्धि .. बिना व्यवहार में सम्भव नहीं होती हैं । उदाहरण के लिये
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− | == ज्ञानार्जन प्रक्रिया ==
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− | पर्व ३ : शिक्षा का मनोविज्ञान
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− | कान से सुने बिना वाणी से बोला नहीं जाता है । वाणी
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− | श्रवणेन्द्रिय का ही अनुसरण करती है । हाथ के साथ
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− | स्पर्शंट्रिय जुड़ी हुई है । स्पर्श के बिना हाथ का काम होता
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− | | |
− | ही नहीं है । अर्थात संवेदन का क्रिया में और क्रिया का
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− | | |
− | संवेदन में रूपांतर होता है । कर्मेन्ट्रियों कि क्रिया और
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− | | |
− | ज्ञानेन्द्रियों का संवेदन विचारों में रूपांतरित होकर मन ग्रहण
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− | | |
− | करता है । मन विषय को भौतिक स्वरूप में ग्रहण नहीं कर
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− | सकता । अत: क्रिया और संवेदनों का रूपान्तरण विचारों
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− | | |
− | में होना ही होता है। मन पदार्थ को विचार के रूप में
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− | | |
− | ग्रहण कर अपने विभिन्न भावों के रंगों में रंगता है । मन में
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− | | |
− | यदि आसक्ति है तो उसके और ट्रेष है तो उसके रंग में
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− | | |
− | रंगता है। आसक्ति है तो वस्तु उसे पसन्द होती है और
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− | वह सुख का अनुभव करता है। ट्रेष है तो पदार्थ उसे
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− | नापसन्द होता है और वह दुःख का अनुभव करता है ।
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− | | |
− | इससे विषय या पदार्थ का भौतिक स्वरूप बदल जाता है ।
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− | | |
− | वह इंट्रियों के अनुरूप नहीं अपितु मन के अनुरूप हो
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− | | |
− | जाता है । ऐसे रागट्रेष, सुखदुःख और अच्छेबूरे के रूप में
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− | | |
− | पदार्थ के विचार तरंग बुद्धि के समक्ष प्रस्तुत होते हैं।
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− | | |
− | बुद्धि मन के द्वारा प्रस्तुत हुए विचार तरंगों पर अपने
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− | | |
− | साधनों से अनेक प्रकार कि प्रक्रिया करती है । बुद्धि के
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− | | |
− | साधन हैं निरीक्षण, परीक्षण, तर्क, अनुमान, संश्लेषण,
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− | | |
− | विश्लेषण, साम्यभेदू और तुलना | इनमें प्रथम दो अर्थात
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− | | |
− | निरीक्षण और परीक्षण के लिये वह ज्ञानेन्द्रियों का सहयोग
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− | | |
− | लेती है । हम आँख से निरीक्षण करते हैं और शेष इंट्रियों
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− | | |
− | से परीक्षण करते हैं । शेष सब बुद्धि की ही शक्ति पर
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− | | |
− | निर्भर करते हैं । तर्क का अर्थ है किसी भी घटना का
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− | | |
− | कार्यकारण भाव जानना । व्यवहारजगत में सभी घटनायें
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− | | |
− | कार्यकारण संबन्ध से जुड़ी हुई ही रहती हैं । उदाहरण के
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− | लिये पानी गिरता है तभी भूमि गीली होती है, उसके बिना
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− | | |
− | नहीं । मनुष्य क्रोध, भय, हर्ष आदि भावों के अनुभव को
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− | व्यक्त करने के लिये ही चिछ्ठाता है । आनंद का अनुभव
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− | | |
− | करता है और नाचता है । भूख लगती है तब खाता है ।
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− | अर्थात किसी भी कार्य के लिये कारण रहता ही है । कार्य
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− | | |
− | कारण का परिणाम है और कारण कार्य का स्रोत है । इस
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− | | |
− | $83
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− | | |
− | कार्यकारण संबन्ध को जानना बुद्धि का
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− | | |
− | काम है । अनुमान करना तर्क का ही दूसरा प्रकार है ।
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− | | |
− | अभ्यास से बुद्धि अनुमान करती है । किसी भी घटना या | |
− | | |
− | स्थिति के सभी अंगों को समग्रता में जानना संश्लेषण है | |
− | | |
− | जबकि सभी आयामों को अलग अलग स्वतंत्र रूप से | |
− | | |
− | जानना विश्लेषण है । दो पदार्थों के रूप, रंग, गंध आदि | |
− | | |
− | तथा कारण और परिणाम की तुलना कर साम्य और भेद | |
− | | |
− | जानना भी बुद्धि का ही काम है । इन सबके आधार पर | |
− | | |
− | घटना, व्यवहार, व्यक्ति, स्थिति, व्यवस्था आदि का | |
− | | |
− | यथार्थ रूप जानना विवेक कहा जाता है । विवेक ही बुद्धि | |
− | | |
− | का कार्य है । अहंकार किसी भी जानने के साथ कर्ता के | |
− | | |
− | रूप में जुड़ता है । अर्थात क्रिया का करने वाला अहंकार | |
− | | |
− | होता है । जो करता है वही परिणाम का भोग भी करता | |
− | | |
− | है । इन सबके संस्कार चित्त पर पड़ते हैं । इन संस्कारों पर | |
− | | |
− | आत्मा का प्रकाश पड़ने से ज्ञान होता है। इस प्रकार | |
− | | |
− | मनुष्य के व्यक्तित्व के सभी आयाम ज्ञानार्जन की प्रक्रिया | |
− | | |
− | में अपनी अपनी क्षमताओं के साथ सहभागी होते हैं । ये | |
− | | |
− | ज्ञानार्जन के करण हैं । इन करणों के बिना ज्ञानार्जन सम्भव | |
− | | |
− | नहीं है। बाहर के सारे उपकरण इन करणों के बिना | |
− | | |
− | ज्ञानार्जन नहीं कर सकते । वे करणों के आश्रित होते हैं । | |
− | | |
− | इसलिए करणों की चिन्ता उपकरणों से अधिक | |
− | | |
− | करनी चाहिए | | |
| | | |
| == ज्ञानार्जन के करण और ज्ञानार्जन प्रक्रिया == | | == ज्ञानार्जन के करण और ज्ञानार्जन प्रक्रिया == |
− | प्रत्येक मनुष्य के पास ज्ञानार्जन के करण जन्मजात | + | प्रत्येक मनुष्य के पास ज्ञानार्जन के करण जन्मजात होते ही हैं । तब सबको एक जैसा ही ज्ञानार्जन क्यों नहीं होता ? जो लोग इस जगत के व्यवहार को यांत्रिक रूप में समझते हैं वे इसका उत्तर नहीं दे सकते हैं । उनके लिये मन, बुद्धि आदि सब में समान ही होते हैं । उनका तर्क होता है कि विश्व में मन या बुद्धि एक जैसे ही होते हैं । परन्तु हमारा व्यवहार का अनुभव कहता है कि ऐसा नहीं होता । सबके मन, बुद्धि आदि अलग अलग स्वरूप और क्षमता के होते हैं । |
− | | |
− | होते ही हैं । तब सबको एक जैसा ही ज्ञानार्जन क्यों नहीं | |
− | | |
− | होता ? जो लोग इस जगत के व्यवहार को यांत्रिक रूप में | |
− | | |
− | समझते हैं वे इसका उत्तर नहीं दे सकते हैं । उनके लिये | |
− | | |
− | मन, बुद्धि आदि सब में समान ही होते हैं । उनका तर्क | |
− | | |
− | होता है कि विश्व में मन या बुद्धि एक जैसे ही होते हैं । | |
− | | |
− | परन्तु हमारा व्यवहार का अनुभव कहता है कि ऐसा नहीं | |
− | | |
− | होता । सबके मन, बुद्धि आदि अलग अलग स्वरूप और | |
− | | |
− | क्षमता के होते हैं । | |
− | | |
− | TARA का आधार करणों की सक्रियता और
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− | | |
− | ............. page-130 .............
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− | भारतीय शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप
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− | | |
− | क्षमता पर होता है । करणों की क्षमता... दौड़ना, सुनते सुनते सुनना आता है । इसलिये करणो की
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− | | |
− | का प्रथम आधार उसे जन्मगत प्राप्त संभावनाओं पर होता... सक्रियता बढ़ाने का उपाय उन्हें सक्रिय रखना है और साथ
| |
− | | |
− | है। व्यक्ति को जन्म के साथ ही करणों की सम्भाव्य... साथ उन्हें प्रशिक्षित करना है। यह कैसे करें ? जरा
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− | | |
− | क्षमता प्राप्त होती है । दूसरा आधार करणों की क्षमताओं... विस्तार से देखेंगे ।
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− | | |
− | को अभ्यास और प्रशिक्षण से सम्भाव्य सीमा तक बढ़ाने कर्मन्द्रियाँ क्रिया करती हैं। क्रिया करने में तीन
| |
− | | |
− | पर होता है । जन्म के साथ सभी करणों को कम अधिक बातों का महत्त्व है । एक है सही स्थिति, दूसरी है गति
| |
− | | |
− | क्षमतायें प्राप्त होती हैं । उनको इस जन्म में घटाया या... और तीसरी है निपुणता । उदाहरण के लिये हाथ से मिट्टी
| |
− | | |
− | बढ़ाया नहीं जा सकता है । यही कारण है कि कोई व्यक्ति... के खिलौने बनाये जाते हैं या ईंट, घड़ा, या कुल्हड़ जैसे
| |
− | | |
− | स्वभाव से शान्त होता है और कोई उत्तेजनापूर्ण, किसीकी... उपयोगी पात्र बनाये जाते हैं । इसमें सर्व प्रथम है पदार्थ
| |
− | | |
− | स्मरणशक्ति अधिक होती है तो किसीकी कम, कोई का सही आकार होना । इसके लिये हाथ को सही ढंग से
| |
− | | |
− | अधिक बुद्धिमान होता है तो कोई कम, किसीका कंठ... काम करना सिखाना होता है । बार बार किसीके मार्गदर्शन
| |
− | | |
− | अधिक सुरीला होता है तो किसीका कम । में, किसीके बताने से, किसीको काम करते देखते देखते,
| |
− | | |
− | परन्तु इस बात का दूसरा आयाम यह है कि अभ्यास... बार बार बनाते, देखते और फिर बनाते बनाते पात्र सही
| |
− | | |
− | और प्रशिक्षण के अभाव में किसीके करण कम अधिक. ढंग से बनाने का काम पहला है । सही रूप में आ जाने
| |
− | | |
− | सक्रिय होते हैं । जिसके करण अधिक सक्रिय होते हैं वे. के बाद बनाने का बार बार और निरन्तर अभ्यास करने से
| |
− | | |
− | अच्छी तरह से ज्ञानार्जन करते हैं, जिसके करण सक्रिय... काम में गति आती है । साथ ही काम में सफाई भी आती
| |
− | | |
− | नहीं हो सकते उनका ज्ञानार्जन कम होता है । इसी कारण. है। उसके बाद कल्पनाशीलता, सृजनशीलता, सहजता
| |
− | | |
− | से किसीके अधिक अंक आते हैं और किसीके कम ।... जैसे तत्त्व सम्मिलित होते हैं और काम में निपुणता आती
| |
− | | |
− | करणों के कम सक्रिय होने से व्यक्ति की ग्रहण, समझ, . है। काम में उत्कृष्टता आती है । उसे ही गुणवत्ता कहते
| |
− | | |
− | स्मरण आदि प्रवृत्ति कम होती है और व्यक्ति के लिये. हैं। यह कर्मेन्ट्रियों की क्षमता बढ़ाने का तरीका है।
| |
− | | |
− | विषय कठिन होता है । जिसके करण अधिक सक्रिय होते... बोलना और गाना वाणी नामक कर्मेन्ट्रियि का काम है ।
| |
− | | |
− | हैं उनके लिये विषय कठिन नहीं होता है । सर्व प्रथम सही सुन सुनकर वाणी को अनुकरण करने के
| |
− | | |
− | प्रश्न यह है कि क्या ज्ञानार्जन के करणों की क्षमता... लिये तैयार किया जाता है । बाद में सुनाने वाले और
| |
− | | |
− | बढाई जा सकती है ? उत्तर है हाँ, अवश्य बढाई जा... सिखाने वाले तथा बोलने और गाने वाले को सही
| |
− | | |
− | सकती है और जन्मगत संभावनाओं को पूर्ण रूप से सक्रिय... उच्चारण तथा सही स्वर निकालने के लिये प्रवृत्त किया
| |
− | | |
− | बनाया जा सकता है । इसलिये अध्ययन शुरू करने से पूर्व जाता है। सही उच्चार और सही स्वर बैठ जाना यह
| |
− | | |
− | ज्ञानार्जन के करणों की क्षमताओं को बढ़ाने पर ही विशेष... पहला चरण है । दूसरे चरण में अभ्यास करते करते बोलने
| |
− | | |
− | ध्यान देना चाहिए । में और गाने में गति आती है । तीसरे चरण में उत्कृष्टता
| |
− | | |
− | करणों बढ़ायें और मौलिकता आती है । भाषा और संगीत सीखने के
| |
− | | |
− | की सक्रियता कैसे बढ़ लिये वाणी की इस प्रकार की तैयारी या सक्रियता बहुत
| |
− | | |
− | ज्ञानार्जन के करणों की सक्रियता बढ़ाने का अथवा. आवश्यक है । ऐसा नहीं किया तो भाषा नहीं सीखी जाती
| |
− | | |
− | उन्हें अधिकतम सक्रिय करने का सीधासादा नियम है करते. है । इस प्रकार कर्मेन्ट्रि यों को सक्षम बनाने से ज्ञानार्जन
| |
− | | |
− | करते करना आता है । चलते चलते चलना आता है, ठीक से होता है ।
| |
− | | |
− | बोलते बोलते बोलना, गाते गाते गाना, दौड़ते दौड़ते ज्ञानेन्द्रियों को सक्षम बनाने के लिये उनकी सर्वप्रथम
| |
− | | |
− | श्श्ढ
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− | | |
− | ............. page-131 .............
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− | पर्व ३ : शिक्षा का मनोविज्ञान
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− | | |
− | शुद्धि तथा सुरक्षा आवश्यक है । बाहर से दिखने वाले
| |
− | | |
− | कान, नाक, आँखें आदि तो केवल यंत्र हैं । वे बाहर से
| |
− | | |
− | संवेदनों को अंदर जाने का मार्ग प्रशस्त करते हैं। वे
| |
− | | |
− | केवल दरवाजे हैं । देखने, सुनने, सूंघने का कार्य अन्दर के
| |
− | | |
− | केंद्र करते हैं। ज्ञानेन्द्रियों को सक्षम बनाने का काम
| |
− | | |
− | नाड़ियाँ और प्राणशक्ति करती है। जन्म के समय
| |
− | | |
− | ज्ञानेन्द्रियों को तेज और कर्कश आवाज, तीव्र प्रकाश,
| |
− | | |
− | भयानक दृश्य, दुर्गनध आदि से बचाने की आवश्यकता
| |
− | | |
− | होती है । यदि उस समय उनकी सुरक्षा नहीं की गई तो
| |
| | | |
− | उनकी संवेदन ग्रहण करने की शक्ति क्षीण हो जाती है ।
| + | ज्ञानार्जन का आधार करणों की सक्रियता और क्षमता पर होता है। |
| | | |
− | श्वसनप्रक्रिया यदि ठीक नहीं है तो नाड़ियों में अशुद्धि जमा
| + | ''करणों की क्षमता... दौड़ना, सुनते सुनते सुनना आता है । इसलिये करणो की'' |
| | | |
− | होती है और ज्ञानेन्द्रियों की ग्रहणक्षमता क्षीण हो जाती
| + | ''का प्रथम आधार उसे जन्मगत प्राप्त संभावनाओं पर होता... सक्रियता बढ़ाने का उपाय उन्हें सक्रिय रखना है और साथ'' |
| | | |
− | है । ज्ञानेन्द्रियों की क्षमता यदि क्षीण है तो बाह्म जगत के
| + | ''है। व्यक्ति को जन्म के साथ ही करणों की सम्भाव्य... साथ उन्हें प्रशिक्षित करना है। यह कैसे करें ? जरा'' |
| | | |
− | अनुभव ही ठीक से नहीं हो पाते हैं । जिनकी आँखें दुर्बल
| + | ''क्षमता प्राप्त होती है । दूसरा आधार करणों की क्षमताओं... विस्तार से देखेंगे ।'' |
| | | |
− | होती है उनका देखने का, नाक सक्षम नहीं है उनका सूंघने
| + | ''को अभ्यास और प्रशिक्षण से सम्भाव्य सीमा तक बढ़ाने कर्मन्द्रियाँ क्रिया करती हैं। क्रिया करने में तीन'' |
| | | |
− | का और कान सक्षम नहीं हैं उनका सुनने का अनुभव ठीक | + | ''पर होता है । जन्म के साथ सभी करणों को कम अधिक बातों का महत्व है । एक है सही स्थिति, दूसरी है गति'' |
| | | |
− | नहीं होता है यह सबके अनुभव की बात है । अत: सही
| + | ''क्षमतायें प्राप्त होती हैं । उनको इस जन्म में घटाया या... और तीसरी है निपुणता । उदाहरण के लिये हाथ से मिट्टी'' |
| | | |
− | और अच्छे ज्ञानार्जन के लिये ज्ञानेंद्रियाँ शुद्ध और बलवान
| + | ''बढ़ाया नहीं जा सकता है । यही कारण है कि कोई व्यक्ति... के खिलौने बनाये जाते हैं या ईंट, घड़ा, या कुल्हड़ जैसे'' |
| | | |
− | होनी चाहिए ।
| + | ''स्वभाव से शान्त होता है और कोई उत्तेजनापूर्ण, किसीकी... उपयोगी पात्र बनाये जाते हैं । इसमें सर्व प्रथम है पदार्थ'' |
| | | |
− | ज्ञानेंद्रियाँ और कर्मन्द्रियाँ बाह्य जगत में काम करती
| + | ''स्मरणशक्ति अधिक होती है तो किसीकी कम, कोई का सही आकार होना । इसके लिये हाथ को सही ढंग से'' |
| | | |
− | हैं। ज्ञानेंद्रियाँ बाहर से अन्दर की ओर यात्रा करती हैं ।
| + | ''अधिक बुद्धिमान होता है तो कोई कम, किसीका कंठ... काम करना सिखाना होता है । बार बार किसीके मार्गदर्शन'' |
| | | |
− | इसलिये ये बहि:करण हैं । अन्त:करण अन्दर कार्यरत होता
| + | ''अधिक सुरीला होता है तो किसीका कम । में, किसीके बताने से, किसीको काम करते देखते देखते,'' |
| | | |
− | है । setae बहि:करण से अधिक सूक्ष्म होता है। | + | ''परन्तु इस बात का दूसरा आयाम यह है कि अभ्यास... बार बार बनाते, देखते और फिर बनाते बनाते पात्र सही'' |
| | | |
− | सूक्ष्म का अर्थ है अधिक व्यापक और अधिक प्रभावी ।
| + | ''और प्रशिक्षण के अभाव में किसीके करण कम अधिक. ढंग से बनाने का काम पहला है । सही रूप में आ जाने'' |
| | | |
− | अन्तःकरण ज्ञानेन्द्रिय और कर्मेन्ट्रिय से अधिक प्रभावी है ।
| + | ''सक्रिय होते हैं । जिसके करण अधिक सक्रिय होते हैं वे. के बाद बनाने का बार बार और निरन्तर अभ्यास करने से'' |
| | | |
− | अब मन के संबन्ध में विचार करें ।
| + | ''अच्छी तरह से ज्ञानार्जन करते हैं, जिसके करण सक्रिय... काम में गति आती है । साथ ही काम में सफाई भी आती'' |
| | | |
− | मन एक अद्भुत पदार्थ है । उसका स्वभाव ट्रन्द्रात्मक
| + | ''नहीं हो सकते उनका ज्ञानार्जन कम होता है । इसी कारण. है। उसके बाद कल्पनाशीलता, सृजनशीलता, सहजता'' |
| | | |
− | है। वह इच्छाओं का पुंज है । वह अत्यंत बलवान है ।
| + | ''से किसीके अधिक अंक आते हैं और किसीके कम ।... जैसे तत्त्व सम्मिलित होते हैं और काम में निपुणता आती'' |
| | | |
− | वह अत्यंत जिद्दी है। वह निरन्तर गतिमान है। वह
| + | ''करणों के कम सक्रिय होने से व्यक्ति की ग्रहण, समझ, . है। काम में उत्कृष्टता आती है । उसे ही गुणवत्ता कहते'' |
| | | |
− | रजोगुणी है। रजोगुणी होने के कारण वह अत्यंत
| + | ''स्मरण आदि प्रवृत्ति कम होती है और व्यक्ति के लिये. हैं। यह कर्मेन्द्रियों की क्षमता बढ़ाने का तरीका है।'' |
| | | |
− | क्रियाशील है । वह बलवान है परन्तु उसकी शक्ति हमेशा
| + | ''विषय कठिन होता है । जिसके करण अधिक सक्रिय होते... बोलना और गाना वाणी नामक कर्मेन्द्रियि का काम है ।'' |
| | | |
− | बिखरी ही रहती है क्योंकि वह अत्यंत चंचल है । गतिमान
| + | ''हैं उनके लिये विषय कठिन नहीं होता है । सर्व प्रथम सही सुन सुनकर वाणी को अनुकरण करने के'' |
| | | |
− | होने के कारण से वह इधर उधर भागता ही रहता है, कहीं
| + | ''प्रश्न यह है कि क्या ज्ञानार्जन के करणों की क्षमता... लिये तैयार किया जाता है । बाद में सुनाने वाले और'' |
| | | |
− | भी एकाग्र नहीं होता । एकाग्र नहीं होने के कारण से वह
| + | ''बढाई जा सकती है ? उत्तर है हाँ, अवश्य बढाई जा... सिखाने वाले तथा बोलने और गाने वाले को सही'' |
| | | |
− | विषय को ठीक से ग्रहण ही नहीं कर
| + | ''सकती है और जन्मगत संभावनाओं को पूर्ण रूप से सक्रिय... उच्चारण तथा सही स्वर निकालने के लिये प्रवृत्त किया'' |
| | | |
− | सकता । मन में काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर | + | ''बनाया जा सकता है । इसलिये अध्ययन शुरू करने से पूर्व जाता है। सही उच्चार और सही स्वर बैठ जाना यह'' |
| | | |
− | आदि भाव रहते हैं । इनके चलते मन हमेशा उत्तेजना की
| + | ''ज्ञानार्जन के करणों की क्षमताओं को बढ़ाने पर ही विशेष... पहला चरण है । दूसरे चरण में अभ्यास करते करते बोलने'' |
| | | |
− | अवस्था में रहता है । उत्तेजना ही अशान्त अवस्था है ।
| + | ''ध्यान देना चाहिए । में और गाने में गति आती है । तीसरे चरण में उत्कृष्टता'' |
| | | |
− | उत्तेजना के कारण से जब मन किसी अन्य स्थान या अन्य
| + | ''करणों बढ़ायें और मौलिकता आती है । भाषा और संगीत सीखने के'' |
| | | |
− | पदार्थ में आसक्त हो जाता है तब विषय के साथ जुड़ता
| + | ''की सक्रियता कैसे बढ़ लिये वाणी की इस प्रकार की तैयारी या सक्रियता बहुत'' |
| | | |
− | ही नहीं है । विषय को आधा अधूरा और खण्ड खण्ड में
| + | ''ज्ञानार्जन के करणों की सक्रियता बढ़ाने का अथवा. आवश्यक है । ऐसा नहीं किया तो भाषा नहीं सीखी जाती'' |
| | | |
− | ग्रहण करता है । एक रूपक से इस स्थिति को समझने का
| + | ''उन्हें अधिकतम सक्रिय करने का सीधासादा नियम है करते. है । इस प्रकार कर्मेन्ट्रि यों को सक्षम बनाने से ज्ञानार्जन'' |
| | | |
− | प्रयत्न करें । मान लीजिए एक पात्र में पानी भरा है । हवा
| + | ''करते करना आता है । चलते चलते चलना आता है, ठीक से होता है ।'' |
| | | |
− | जरा भी नहीं बह रही है इसलिये पानी में लहरें नहीं उठ
| + | ''बोलते बोलते बोलना, गाते गाते गाना, दौड़ते दौड़ते ज्ञानेन्द्रियों को सक्षम बनाने के लिये उनकी सर्वप्रथम'' |
| | | |
− | रही हैं । पानी बिलकुल शान्त है । उस शान्त पानी में यदि
| + | ''श्श्ढ'' |
| | | |
− | हम अपना चेहरा देखते हैं तो वह जैसा है वैसा साफ
| + | शुद्धि तथा सुरक्षा आवश्यक है। बाहर से दिखने वाले कान, नाक, आँखें आदि तो केवल यंत्र हैं । वे बाहर से संवेदनों को अंदर जाने का मार्ग प्रशस्त करते हैं। वे केवल दरवाजे हैं । देखने, सुनने, सूंघने का कार्य अन्दर के केंद्र करते हैं। ज्ञानेन्द्रियों को सक्षम बनाने का काम नाड़ियाँ और प्राणशक्ति करती है। जन्म के समय ज्ञानेन्द्रियों को तेज और कर्कश आवाज, तीव्र प्रकाश, भयानक दृश्य, दुर्गन्ध आदि से बचाने की आवश्यकता होती है । यदि उस समय उनकी सुरक्षा नहीं की गई तो उनकी संवेदन ग्रहण करने की शक्ति क्षीण हो जाती है। श्वसनप्रक्रिया यदि ठीक नहीं है तो नाड़ियों में अशुद्धि जमा होती है और ज्ञानेन्द्रियों की ग्रहणक्षमता क्षीण हो जाती है । ज्ञानेन्द्रियों की क्षमता यदि क्षीण है तो बाह्म जगत के अनुभव ही ठीक से नहीं हो पाते हैं। जिनकी आँखें दुर्बल होती है उनका देखने का, नाक सक्षम नहीं है उनका सूंघने का और कान सक्षम नहीं हैं उनका सुनने का अनुभव ठीक नहीं होता है यह सबके अनुभव की बात है। अत: सही और अच्छे ज्ञानार्जन के लिये ज्ञानेंद्रियाँ शुद्ध और बलवान होनी चाहिए । |
| | | |
− | दिखाई देता है । परन्तु वह पानी यदि हवा से हिल रहा है
| + | ज्ञानेंद्रियाँ और कर्मन्द्रियाँ बाह्य जगत में काम करती हैं। ज्ञानेंद्रियाँ बाहर से अन्दर की ओर यात्रा करती हैं। इसलिये ये बहि:करण हैं । अन्त:करण अन्दर कार्यरत होता है। अन्त:करण बहि:करण से अधिक सूक्ष्म होता है। सूक्ष्म का अर्थ है अधिक व्यापक और अधिक प्रभावी। अन्तःकरण ज्ञानेन्द्रिय और कर्मेन्द्रिय से अधिक प्रभावी है । |
| | | |
− | या चुल्हे पर रखने के कारण उबल रहा है तब उसमें यदि | + | अब मन के संबन्ध में विचार करें । मन एक अद्भुत पदार्थ है । उसका स्वभाव द्वंद्वात्मक है। वह इच्छाओं का पुंज है । वह अत्यंत बलवान है । वह अत्यंत जिद्दी है। वह निरन्तर गतिमान है। वह रजोगुणी है। रजोगुणी होने के कारण वह अत्यंत क्रियाशील है । वह बलवान है परन्तु उसकी शक्ति हमेशा बिखरी ही रहती है क्योंकि वह अत्यंत चंचल है । गतिमान होने के कारण से वह इधर उधर भागता ही रहता है, कहीं भी एकाग्र नहीं होता । एकाग्र नहीं होने के कारण से वह विषय को ठीक से ग्रहण ही नहीं कर सकता । मन में काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर आदि भाव रहते हैं । इनके चलते मन हमेशा उत्तेजना की अवस्था में रहता है । उत्तेजना ही अशान्त अवस्था है । उत्तेजना के कारण से जब मन किसी अन्य स्थान या अन्य पदार्थ में आसक्त हो जाता है तब विषय के साथ जुड़ता ही नहीं है । विषय को आधा अधूरा और खण्ड खण्ड में ग्रहण करता है । एक रूपक से इस स्थिति को समझने का प्रयत्न करें । मान लीजिए एक पात्र में पानी भरा है । हवा जरा भी नहीं बह रही है इसलिये पानी में लहरें नहीं उठ रही हैं । पानी बिलकुल शान्त है । उस शान्त पानी में यदि हम अपना चेहरा देखते हैं तो वह जैसा है वैसा साफ दिखाई देता है । परन्तु वह पानी यदि हवा से हिल रहा है या चुल्हे पर रखने के कारण उबल रहा है तब उसमें यदि हम अपना चेहरा देखें तो वह टुकड़ों टुकड़ों में ही दिखाई देता है । इसी प्रकार मन जब भिन्न भिन्न प्रकार के भावों से उत्तेजित रहता है तब विषय को ठीक से नहीं ग्रहण कर सकता है। तीसरी स्थिति होती है आसक्ति की या आसक्ति से विमुखता की । उदाहरण के लिये मन जब क्रिकेट में आसक्त रहता है या किसी फिल्म में आसक्त रहता है तब अन्य किसी बात का विचार ही नहीं कर सकता है। ऐसा चंचल, उत्तेजित और आसक्त मन अध्ययन के लिये जरा भी समर्थ नहीं होता है । मन जब तक ऐसा है तब तक दुनिया के कोई भी उपकरण या व्यक्तित्व के साथ प्राप्त हुए कोई भी करण ज्ञानार्जन को असंभव बना देते हैं । मन को ज्ञानार्जन हेतु सक्षम बनाना बहुत महत्वपूर्ण काम है । |
− | | |
− | हम अपना चेहरा देखें तो वह टुकड़ों टुकड़ों में ही दिखाई | |
− | | |
− | देता है । इसी प्रकार मन जब भिन्न भिन्न प्रकार के भावों से | |
− | | |
− | उत्तेजित रहता है तब विषय को ठीक से नहीं ग्रहण कर | |
− | | |
− | सकता है। तीसरी स्थिति होती है आसक्ति की या | |
− | | |
− | आसक्ति से विमुखता की । उदाहरण के लिये मन जब | |
− | | |
− | क्रिकेट में आसक्त रहता है या किसी फिल्म में आसक्त | |
− | | |
− | रहता है तब अन्य किसी बात का विचार ही नहीं कर | |
− | | |
− | सकता है। ऐसा चंचल, उत्तेजित और आसक्त मन | |
− | | |
− | अध्ययन के लिये जरा भी समर्थ नहीं होता है । मन जब | |
− | | |
− | तक ऐसा है तब तक दुनिया के कोई भी उपकरण या | |
− | | |
− | व्यक्तित्व के साथ प्राप्त हुए कोई भी करण ज्ञानार्जन को | |
− | | |
− | असंभव बना देते हैं । मन को ज्ञानार्जन हेतु सक्षम बनाना | |
− | | |
− | बहुत महत्त्वपूर्ण काम है । | |
| | | |
| == मन को सक्षम कैसे बनाया जाय ? == | | == मन को सक्षम कैसे बनाया जाय ? == |
− | ०... मन के साथ मित्रवत व्यवहार करना आवश्यक है ।
| + | * मन के साथ मित्रवत व्यवहार करना आवश्यक है। अथवा छोटे बच्चे के समान उसे समझाना चाहिए । |
− | | + | * ध्यान से मन एकाग्र होता है । अत: नियमित ध्यान करना चाहिए । |
− | अथवा छोटे बच्चे के समान उसे समझाना चाहिए । | + | * शुद्ध और सात्विक आहार तथा व्यवस्थित विहार मन को शान्त और एकाग्र बनाते हैं । |
− | | + | * सत्संग और सदवचन मन को सदुणयुक्त बनने की प्रेरणा देते हैं । नित्य सेवाकार्य मन को प्रेरित करते हैं । |
− | ०... ध्यान से मन एकाग्र होता है । अत: नियमित ध्यान
| + | * प्रतिदिन पसीना निकल आए ऐसा खेलने से मन साफ होता है । |
− | | + | * ओंकार का गान, मंत्रगान, उत्तम संगीत का श्रवण भी मन को अच्छा बनाते हैं । |
− | करना चाहिए । | + | * किसी इष्ट मंत्र का जप करने से मन एकाग्र होता है। |
− | | + | * विभिन्न प्रकार से संयम करना मन को सक्षम बनाने हेतु सहायता करता है । |
− | ° शुद्ध और सात्विक आहार तथा व्यवस्थित विहार
| + | संक्षेप में मन को विभिन्न उपायों से एकाग्र, शान्त और अनासक्त बनाना ज्ञानार्जन के लिये अत्यंत आवश्यक है। |
− | | |
− | ............. page-132 .............
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− | | |
− | मन को शान्त और एकाग्र बनाते हैं । | |
− | | |
− | सत्संग और सदूवाचन मन को सदुणयुक्त बनने की | |
− | | |
− | प्रेरणा देते हैं । | |
− | | |
− | नित्य सेवाकार्य मन को प्रेरित करते हैं । | |
− | | |
− | प्रतिदिन पसीना निकल आए ऐसा खेलने से मन | |
− | | |
− | साफ होता है । | |
− | | |
− | ऑऔकार का गान, मंत्रगान, उत्तम संगीत का श्रवण
| |
− | | |
− | भी मन को अच्छा बनाते हैं । | |
− | | |
− | किसी इष्ट मंत्र का जप करने से मन एकाग्र होता | |
− | | |
− | है। | |
− | | |
− | विभिन्न प्रकार से संयम करना मन को सक्षम बनाने | |
− | | |
− | हेतु सहायता करता है । | |
− | | |
− | संक्षेप में मन को विभिन्न उपायों से एकाग्र, शान्त | |
− | | |
− | और अनासक्त बनाना ज्ञानार्जन के लिये अत्यंत आवश्यक | |
− | | |
− | है। | |
| | | |
| == मन के बाद बुद्धि का क्रम है । == | | == मन के बाद बुद्धि का क्रम है । == |
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| आवश्यकता होती है । | | आवश्यकता होती है । |
| | | |
− | इस प्रकार हम देखते हैं कि ज्ञानार्जन में कर्मेन्ट्रियों , | + | इस प्रकार हम देखते हैं कि ज्ञानार्जन में कर्मेन्द्रियों , |
| | | |
− | ज्ञानेन्द्रयों और मन की भूमिका विशेष रूप से महत्त्वपूर्ण | + | ज्ञानेन्द्रयों और मन की भूमिका विशेष रूप से महत्वपूर्ण |
| | | |
| है । उसमें भी मन बहुत विशिष्ट भूमिका निभाता है । वह | | है । उसमें भी मन बहुत विशिष्ट भूमिका निभाता है । वह |
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Line 249: |
| अवरोध भी निर्माण करता है और सहायता भी करता है । | | अवरोध भी निर्माण करता है और सहायता भी करता है । |
| | | |
− | इसलिये उसे ठीक से शिक्षित करना महत्त्वपूर्ण है । | + | इसलिये उसे ठीक से शिक्षित करना महत्वपूर्ण है । |
| | | |
| कभी कभी यह प्रश्न पूछा जाता है कि स्थूल स्वरूप | | कभी कभी यह प्रश्न पूछा जाता है कि स्थूल स्वरूप |
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Line 290: |
| करण मुख्य साधन हैं, उपकरण गौण | | | करण मुख्य साधन हैं, उपकरण गौण | |
| | | |
− | करणों की अनुपस्थिति में उपकरण का कोई महत्त्व | + | करणों की अनुपस्थिति में उपकरण का कोई महत्व |
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| नहीं है । बिना करण के वे उपयोग में ही नहीं लिये | | नहीं है । बिना करण के वे उपयोग में ही नहीं लिये |
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| बनाकर संस्कारों के रूप में अध्ययन होता है । गर्भ माता | | बनाकर संस्कारों के रूप में अध्ययन होता है । गर्भ माता |
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− | के माध्यम से ज्ञानेन्द्रियों के, कर्मेन्ट्रियों के, मन के, बुद्धि | + | के माध्यम से ज्ञानेन्द्रियों के, कर्मेन्द्रियों के, मन के, बुद्धि |
| | | |
| के सारे अनुभव चित्त पर संस्कारों के रूप में ग्रहण करता | | के सारे अनुभव चित्त पर संस्कारों के रूप में ग्रहण करता |