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यदि पूर्ण रूप से बुद्धि आँख और मन पर ही निर्भर है तो बुद्धि की भूमिका क्या रहेगी ? यदि आँख किसी पदार्थ को लाल रंग के और वृत्ताकार के रूप में पहचानती है और मन उसे नीला रंग और आयताकार कहता है तो बुद्धि तटस्थ होकर इसे लोक में और शास्त्रों में क्या कहा गया है यह देखकर अपना निश्चय करती है कि वास्तव में उस पदार्थ का आकार और रंग वही हैं जो मन कहता है या भिन्न। यदि भिन्न है तो वह मन का कहा नहीं मानती। ऐसे अनेक अनुभवों से वह यह भी तय करती है कि मन विश्वसनीय है कि नहीं।
 
यदि पूर्ण रूप से बुद्धि आँख और मन पर ही निर्भर है तो बुद्धि की भूमिका क्या रहेगी ? यदि आँख किसी पदार्थ को लाल रंग के और वृत्ताकार के रूप में पहचानती है और मन उसे नीला रंग और आयताकार कहता है तो बुद्धि तटस्थ होकर इसे लोक में और शास्त्रों में क्या कहा गया है यह देखकर अपना निश्चय करती है कि वास्तव में उस पदार्थ का आकार और रंग वही हैं जो मन कहता है या भिन्न। यदि भिन्न है तो वह मन का कहा नहीं मानती। ऐसे अनेक अनुभवों से वह यह भी तय करती है कि मन विश्वसनीय है कि नहीं।
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प्रश्न यह उठेगा कि फिर बुद्धि सीधे ही निरीक्षण क्यों नहीं करती, मन को बीच में लाती ही क्यों है ? या इन्द्रियां सीधे बुद्धि के समक्ष अपने संवेदनों को क्यों नहीं भेजतीं। बीच में मन को लाती ही क्यों हैं? बुद्धि और इंद्रियों को मन को बीच में लाना ही पड़ता है क्योंकि मन है और वह सक्रिय है । मन यदि अक्रिय हो जाता है तो यह काम सीधे भी हो सकता है। परन्तु मन अक्रिय हो ही नहीं सकता। वह सक्रिय भी है और बलवान और जिद्दी भी है। मन की बात मानने या नहीं मानने के लिए बुद्धि को सक्षम और शक्तिशाली होना ही पड़ता है।  
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प्रश्न यह उठेगा कि फिर बुद्धि सीधे ही निरीक्षण क्यों नहीं करती, मन को मध्य में लाती ही क्यों है ? या इन्द्रियां सीधे बुद्धि के समक्ष अपने संवेदनों को क्यों नहीं भेजतीं। मध्य में मन को लाती ही क्यों हैं? बुद्धि और इंद्रियों को मन को मध्य में लाना ही पड़ता है क्योंकि मन है और वह सक्रिय है । मन यदि अक्रिय हो जाता है तो यह काम सीधे भी हो सकता है। परन्तु मन अक्रिय हो ही नहीं सकता। वह सक्रिय भी है और बलवान और जिद्दी भी है। मन की बात मानने या नहीं मानने के लिए बुद्धि को सक्षम और शक्तिशाली होना ही पड़ता है।  
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इंद्रियों और बुद्धि के बीच में मन आता है उसे अपने वश में रखना, अथवा दूसरे शब्दों में कहें तो उसके वश में नहीं हो जाना बुद्धि का काम है । बुद्धि के पास कार्यकारण भाव को समझने की शक्ति है, उसका प्रयोग बुद्धि को करना होता है। मन के पास ऐसी शक्ति नहीं है। वह नियम नहीं जानता, वह तटस्थ नहीं होता इसलिए तो हम किसी को कहते हैं कि क्या मनमें आया वह बके जा रहे हो, जरा बुद्धि से तो विचार करके बोलो । मन में कुछ भी संगत असंगत बातें आ सकती हैं बुद्धि में नहीं। कुछ भी नहीं, जो ठीक है वही आना यही विवेक है । जो ठीक है उसीको यथार्थ कहते हैं । बुद्धि जब दुर्बल होती है और मन को वश में नहीं कर सकती अथवा मन की उपेक्षा नहीं कर सकती तब आकलन और निर्णय सही नहीं होते हैं। इसलिए मन को बीच में आने से रोकना बहुत आवश्यक है। मन को इस प्रकार साधना चाहिए कि वह बुद्धि के अनुकूल हो और उसकी बात माने । केवल उपेक्षा करते रहने से तो वह ताक में रहता है कि कब मौका मिले और कब मनमानी करे ।
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इंद्रियों और बुद्धि के मध्य में मन आता है उसे अपने वश में रखना, अथवा दूसरे शब्दों में कहें तो उसके वश में नहीं हो जाना बुद्धि का काम है । बुद्धि के पास कार्यकारण भाव को समझने की शक्ति है, उसका प्रयोग बुद्धि को करना होता है। मन के पास ऐसी शक्ति नहीं है। वह नियम नहीं जानता, वह तटस्थ नहीं होता इसलिए तो हम किसी को कहते हैं कि क्या मनमें आया वह बके जा रहे हो, जरा बुद्धि से तो विचार करके बोलो । मन में कुछ भी संगत असंगत बातें आ सकती हैं बुद्धि में नहीं। कुछ भी नहीं, जो ठीक है वही आना यही विवेक है । जो ठीक है उसीको यथार्थ कहते हैं । बुद्धि जब दुर्बल होती है और मन को वश में नहीं कर सकती अथवा मन की उपेक्षा नहीं कर सकती तब आकलन और निर्णय सही नहीं होते हैं। इसलिए मन को मध्य में आने से रोकना बहुत आवश्यक है। मन को इस प्रकार साधना चाहिए कि वह बुद्धि के अनुकूल हो और उसकी बात माने । केवल उपेक्षा करते रहने से तो वह ताक में रहता है कि कब मौका मिले और कब मनमानी करे ।
    
बुद्धि की दूसरी शक्ति या साधन है परीक्षण । यह भी ज्ञानेन्द्रियों के सहयोग से ही होता है । यह केवल दर्शनेन्द्रिय से नहीं तो पांचों ज्ञानेंद्रियों के सहयोग से होता है। इसकी भी स्थिति दर्शानेन्द्रिय और मन के जैसी ही होती है।
 
बुद्धि की दूसरी शक्ति या साधन है परीक्षण । यह भी ज्ञानेन्द्रियों के सहयोग से ही होता है । यह केवल दर्शनेन्द्रिय से नहीं तो पांचों ज्ञानेंद्रियों के सहयोग से होता है। इसकी भी स्थिति दर्शानेन्द्रिय और मन के जैसी ही होती है।
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* भगवान रामकृष्ण से स्वामी विवेकानन्द का बहुत बार वादविवाद होता था । स्वामीजी बहुत तर्क करते थे । ईश्वर के अस्तित्व के बारे में शंका करते थे । एक बार भगवान रामकृष्ण ने स्वामीजी को ध्यान करने को कहा । स्वामीजी ध्यान कर रहे थे तब भगवान रामकृष्ण ने उनकी भूकुटी के मध्यभाग में अंगूठे से स्पर्श किया । स्वामीजी कहते हैं कि उस स्पर्श के कारण से एक वस्तु से दूसरी वस्तु का भेद बताने वाली सारी सीमायें मिट गईं और सर्वं खल्विदं ब्रह्म का अनुभव हो गया । इस अनुभव का कोई बुद्धिगम्य खुलासा नहीं हो सकता परन्तु इसे नकारना असंभव है ।
 
* भगवान रामकृष्ण से स्वामी विवेकानन्द का बहुत बार वादविवाद होता था । स्वामीजी बहुत तर्क करते थे । ईश्वर के अस्तित्व के बारे में शंका करते थे । एक बार भगवान रामकृष्ण ने स्वामीजी को ध्यान करने को कहा । स्वामीजी ध्यान कर रहे थे तब भगवान रामकृष्ण ने उनकी भूकुटी के मध्यभाग में अंगूठे से स्पर्श किया । स्वामीजी कहते हैं कि उस स्पर्श के कारण से एक वस्तु से दूसरी वस्तु का भेद बताने वाली सारी सीमायें मिट गईं और सर्वं खल्विदं ब्रह्म का अनुभव हो गया । इस अनुभव का कोई बुद्धिगम्य खुलासा नहीं हो सकता परन्तु इसे नकारना असंभव है ।
 
* श्री रामकृष्ण स्वयं काली माता के भक्त थे । उन्होंने काली माता का साक्षात्कार किया था । परन्तु स्वामी तोतापुरी ने उन्हें निराकार ब्रह्म की अनुभूति करानी चाही । जब श्री रामकृष्ण ध्यान कर रहे थे तब स्वामी तोतापुरी ने उनकी भूकुटी के मध्यभाग में एक काँच का टुकड़ा चुभो दिया । रक्त का प्रवाह बहा, परन्तु कालीमाता की मूर्ति के टुकड़े टुकड़े होकर उसका साकार स्वरूप बिखर गया और श्री रामकृष्ण को निराकार ब्रह्म की अनुभूति हुई । परन्तु इस उदाहरण से कोई यह नहीं कह सकता कि निराकार ब्रह्म का साक्षात्कार भूकुटी के मध्यभाग में काँच का टुकड़ा चुभोने से होता है । अनुभूति तो बस होती है ।
 
* श्री रामकृष्ण स्वयं काली माता के भक्त थे । उन्होंने काली माता का साक्षात्कार किया था । परन्तु स्वामी तोतापुरी ने उन्हें निराकार ब्रह्म की अनुभूति करानी चाही । जब श्री रामकृष्ण ध्यान कर रहे थे तब स्वामी तोतापुरी ने उनकी भूकुटी के मध्यभाग में एक काँच का टुकड़ा चुभो दिया । रक्त का प्रवाह बहा, परन्तु कालीमाता की मूर्ति के टुकड़े टुकड़े होकर उसका साकार स्वरूप बिखर गया और श्री रामकृष्ण को निराकार ब्रह्म की अनुभूति हुई । परन्तु इस उदाहरण से कोई यह नहीं कह सकता कि निराकार ब्रह्म का साक्षात्कार भूकुटी के मध्यभाग में काँच का टुकड़ा चुभोने से होता है । अनुभूति तो बस होती है ।
* एक बड़े कारखाने में विदेश से यंत्रसामग्री आई । विदेशी अभियंताओं ने उसे स्थापित कर कारखाने के अभियन्ताओं को उस यंत्रसामग्री का संचालन सीखा दिया । काम शुरू हुआ । कुछ समय के बाद एक यंत्र रुक गया । अभियन्ताओं के बहुत प्रयासों के बाद भी वह शुरू नहीं हुआ | सब निराश होकर विचार कर रहे थे कि अब विदेश से अभियंता को बुलाना पड़ेगा । तब एक मेकेनिक ने कहा कि उसे प्रयास करने की अनुमति दी जाये । अधिकारियों ने कुछ सशंक होकर और अविश्वासपूर्वक अनुमति दी। उस मेकेनिक ने कुछ प्रयास किया और सबके आश्चर्य के बीच यंत्र शुरू हो गया । लोगों ने पूछा की उसे कहाँ दोष था इसका पता कैसे चला । उस मेकेनिक ने कहा कि यंत्र उससे बात करता है । निर्जीव यंत्र सजीव मनुष्य के साथ बात कैसे कर सकता है ? जब यंत्र के साथ तादात्म्य होता है तो यंत्र अपना आंतरिक रहस्य व्यक्ति के समक्ष प्रकट कर देता है । यह भारत के लोगों की प्रचलित धारणा है । यह अनूभूति है ।   
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* एक बड़े कारखाने में विदेश से यंत्रसामग्री आई । विदेशी अभियंताओं ने उसे स्थापित कर कारखाने के अभियन्ताओं को उस यंत्रसामग्री का संचालन सीखा दिया । काम शुरू हुआ । कुछ समय के बाद एक यंत्र रुक गया । अभियन्ताओं के बहुत प्रयासों के बाद भी वह शुरू नहीं हुआ | सब निराश होकर विचार कर रहे थे कि अब विदेश से अभियंता को बुलाना पड़ेगा । तब एक मेकेनिक ने कहा कि उसे प्रयास करने की अनुमति दी जाये । अधिकारियों ने कुछ सशंक होकर और अविश्वासपूर्वक अनुमति दी। उस मेकेनिक ने कुछ प्रयास किया और सबके आश्चर्य के मध्य यंत्र शुरू हो गया । लोगों ने पूछा की उसे कहाँ दोष था इसका पता कैसे चला । उस मेकेनिक ने कहा कि यंत्र उससे बात करता है । निर्जीव यंत्र सजीव मनुष्य के साथ बात कैसे कर सकता है ? जब यंत्र के साथ तादात्म्य होता है तो यंत्र अपना आंतरिक रहस्य व्यक्ति के समक्ष प्रकट कर देता है । यह भारत के लोगों की प्रचलित धारणा है । यह अनूभूति है ।   
 
* समाधि जिनकी सिद्ध हुई है ऐसे योगियों को बिना किसी साधन से पता चला है कि मनुष्य के शरीर में ७२,००० नाड़ियाँ हैं ।  
 
* समाधि जिनकी सिद्ध हुई है ऐसे योगियों को बिना किसी साधन से पता चला है कि मनुष्य के शरीर में ७२,००० नाड़ियाँ हैं ।  
 
* प्रेम अनुभूति का साधन हो सकता है । सृष्टि के साथ यदि प्रेम है तो उस व्यक्ति के समक्ष सृष्टि अपने रहस्य स्वयं प्रकट करती है ।
 
* प्रेम अनुभूति का साधन हो सकता है । सृष्टि के साथ यदि प्रेम है तो उस व्यक्ति के समक्ष सृष्टि अपने रहस्य स्वयं प्रकट करती है ।

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