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बुद्धि स्वभाव से आत्मनिष्ठ होती है। वह अपने कार्यों के लिए चित्त पर निर्भर करती है यह अभी हमने देखा । '''चित्त''' संस्कारों का भंडार है । जन्मजन्मांतर के संस्कार इसमें संग्रहीत हैं । संस्कारों की ही स्मृति होती है । इस स्मृति का बुद्धि को बहुत उपयोग होता है। बुद्धि की विवेकशक्ति अत्यन्त परिपक्क होती है तब सृष्टि के सारे रहस्य उसके समक्ष प्रकट होते हैं । सृष्टि का मूल स्वरूप आत्मतत्व है यह सत्य उद्घाटित होता है और वह आत्मतत्व मैं ही हूँ, यह भी समझता है । केवल मैं ही  नहीं तो समग्र सृष्टि ही आत्मतत्व है यह भी समझ में आता है। अत: मैं और सृष्टि के सभी पदार्थ एक ही हैं ऐसा भी समझ में आता है। परिणामस्वरूप आपपर भाव समाप्त हो जाता है। और अहम ब्रह्मास्मि तथा सर्व खलु इदं ब्रह्म समझ में आता है। यह बुद्धि से आत्मतत्व को जानना है। इसे भगवान शंकराचार्य विवेकख्याति कहते हैं। विवेकख्याति से यथार्थबोध होता है। बुद्धि से आत्मतत्व को समझना ज्ञानमार्ग अथवा ज्ञानयोग है। बुद्धि से तत्व को समझना तत्वज्ञान है। बुद्धि से शास्त्रों को समझना अपरा विद्या से परा विद्या की ओर जाना है। परिपक्क बुद्धि में अनुभूति की ओर जाने की क्षमता होती है ।
 
बुद्धि स्वभाव से आत्मनिष्ठ होती है। वह अपने कार्यों के लिए चित्त पर निर्भर करती है यह अभी हमने देखा । '''चित्त''' संस्कारों का भंडार है । जन्मजन्मांतर के संस्कार इसमें संग्रहीत हैं । संस्कारों की ही स्मृति होती है । इस स्मृति का बुद्धि को बहुत उपयोग होता है। बुद्धि की विवेकशक्ति अत्यन्त परिपक्क होती है तब सृष्टि के सारे रहस्य उसके समक्ष प्रकट होते हैं । सृष्टि का मूल स्वरूप आत्मतत्व है यह सत्य उद्घाटित होता है और वह आत्मतत्व मैं ही हूँ, यह भी समझता है । केवल मैं ही  नहीं तो समग्र सृष्टि ही आत्मतत्व है यह भी समझ में आता है। अत: मैं और सृष्टि के सभी पदार्थ एक ही हैं ऐसा भी समझ में आता है। परिणामस्वरूप आपपर भाव समाप्त हो जाता है। और अहम ब्रह्मास्मि तथा सर्व खलु इदं ब्रह्म समझ में आता है। यह बुद्धि से आत्मतत्व को जानना है। इसे भगवान शंकराचार्य विवेकख्याति कहते हैं। विवेकख्याति से यथार्थबोध होता है। बुद्धि से आत्मतत्व को समझना ज्ञानमार्ग अथवा ज्ञानयोग है। बुद्धि से तत्व को समझना तत्वज्ञान है। बुद्धि से शास्त्रों को समझना अपरा विद्या से परा विद्या की ओर जाना है। परिपक्क बुद्धि में अनुभूति की ओर जाने की क्षमता होती है ।
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विवेकशक्ति को जागृत करना और विकसित करना शिक्षा का लक्ष्य है। परन्तु आज हम बुद्धि के केवल भौतिक पक्ष पर अटक गए हैं । जीवन को और जगत को भौतिक दृष्टिकोण से देखने का यह परिणाम है। इसे भौतिकवाद से बचाने का काम प्रथम करना होगा । दूसरा अवरोध यह है कि हम इंद्रियों और मन में अटक गए हैं। भौतिकवाद में अतिशय विश्वास होने के कारण हमने मापन और आकलन के यांत्रिक साधन विकसित किए हैं और बौद्धिक क्षमताओं के स्थान पर साधनों का प्रयोग शुरू किया है जो बुद्धिविकास में अवरोध बनता है । उदाहरण के लिये पहाड़ो के स्थान पर गणनयंत्र का उपयोग करके हमने गणनक्षमता को कुंठित कर दिया । भारत की पारंपरिक पद्धति में पहाड़े कंठस्थ करना हमारा अंगभूत गणनयंत्र था । उसकी अवमानना कर यान्त्रिक साधन को अपनाना हानिकारक ही सिद्ध होता है । यह उल्टी दिशा है जो बुद्धिविकास के लिए हानिकारक है । ऐसी तो सैकड़ों बाते हैं जो सुविधा के नाम पर बुद्धिविकास के मार्ग में अवरोध बनकर जम गईं हैं । इन सबकी चर्चा करने का यह स्थान नहीं है परन्तु ज्ञानक्षेत्र के सन्दर्भ में इनका विचार करना अपरिहार्य है ।
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विवेकशक्ति को जागृत करना और विकसित करना शिक्षा का लक्ष्य है। परन्तु आज हम बुद्धि के केवल भौतिक पक्ष पर अटक गए हैं । जीवन को और जगत को भौतिक दृष्टिकोण से देखने का यह परिणाम है। इसे भौतिकवाद से बचाने का काम प्रथम करना होगा । दूसरा अवरोध यह है कि हम इंद्रियों और मन में अटक गए हैं। भौतिकवाद में अतिशय विश्वास होने के कारण हमने मापन और आकलन के यांत्रिक साधन विकसित किए हैं और बौद्धिक क्षमताओं के स्थान पर साधनों का प्रयोग आरम्भ किया है जो बुद्धिविकास में अवरोध बनता है । उदाहरण के लिये पहाड़ो के स्थान पर गणनयंत्र का उपयोग करके हमने गणनक्षमता को कुंठित कर दिया । भारत की पारंपरिक पद्धति में पहाड़े कंठस्थ करना हमारा अंगभूत गणनयंत्र था । उसकी अवमानना कर यान्त्रिक साधन को अपनाना हानिकारक ही सिद्ध होता है । यह उल्टी दिशा है जो बुद्धिविकास के लिए हानिकारक है । ऐसी तो सैकड़ों बाते हैं जो सुविधा के नाम पर बुद्धिविकास के मार्ग में अवरोध बनकर जम गईं हैं । इन सबकी चर्चा करने का यह स्थान नहीं है परन्तु ज्ञानक्षेत्र के सन्दर्भ में इनका विचार करना अपरिहार्य है ।
    
== निर्णय और दायित्वबोध ==
 
== निर्णय और दायित्वबोध ==
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* भगवान रामकृष्ण से स्वामी विवेकानन्द का बहुत बार वादविवाद होता था । स्वामीजी बहुत तर्क करते थे । ईश्वर के अस्तित्व के बारे में शंका करते थे । एक बार भगवान रामकृष्ण ने स्वामीजी को ध्यान करने को कहा । स्वामीजी ध्यान कर रहे थे तब भगवान रामकृष्ण ने उनकी भूकुटी के मध्यभाग में अंगूठे से स्पर्श किया । स्वामीजी कहते हैं कि उस स्पर्श के कारण से एक वस्तु से दूसरी वस्तु का भेद बताने वाली सारी सीमायें मिट गईं और सर्वं खल्विदं ब्रह्म का अनुभव हो गया । इस अनुभव का कोई बुद्धिगम्य खुलासा नहीं हो सकता परन्तु इसे नकारना असंभव है ।
 
* भगवान रामकृष्ण से स्वामी विवेकानन्द का बहुत बार वादविवाद होता था । स्वामीजी बहुत तर्क करते थे । ईश्वर के अस्तित्व के बारे में शंका करते थे । एक बार भगवान रामकृष्ण ने स्वामीजी को ध्यान करने को कहा । स्वामीजी ध्यान कर रहे थे तब भगवान रामकृष्ण ने उनकी भूकुटी के मध्यभाग में अंगूठे से स्पर्श किया । स्वामीजी कहते हैं कि उस स्पर्श के कारण से एक वस्तु से दूसरी वस्तु का भेद बताने वाली सारी सीमायें मिट गईं और सर्वं खल्विदं ब्रह्म का अनुभव हो गया । इस अनुभव का कोई बुद्धिगम्य खुलासा नहीं हो सकता परन्तु इसे नकारना असंभव है ।
 
* श्री रामकृष्ण स्वयं काली माता के भक्त थे । उन्होंने काली माता का साक्षात्कार किया था । परन्तु स्वामी तोतापुरी ने उन्हें निराकार ब्रह्म की अनुभूति करानी चाही । जब श्री रामकृष्ण ध्यान कर रहे थे तब स्वामी तोतापुरी ने उनकी भूकुटी के मध्यभाग में एक काँच का टुकड़ा चुभो दिया । रक्त का प्रवाह बहा, परन्तु कालीमाता की मूर्ति के टुकड़े टुकड़े होकर उसका साकार स्वरूप बिखर गया और श्री रामकृष्ण को निराकार ब्रह्म की अनुभूति हुई । परन्तु इस उदाहरण से कोई यह नहीं कह सकता कि निराकार ब्रह्म का साक्षात्कार भूकुटी के मध्यभाग में काँच का टुकड़ा चुभोने से होता है । अनुभूति तो बस होती है ।
 
* श्री रामकृष्ण स्वयं काली माता के भक्त थे । उन्होंने काली माता का साक्षात्कार किया था । परन्तु स्वामी तोतापुरी ने उन्हें निराकार ब्रह्म की अनुभूति करानी चाही । जब श्री रामकृष्ण ध्यान कर रहे थे तब स्वामी तोतापुरी ने उनकी भूकुटी के मध्यभाग में एक काँच का टुकड़ा चुभो दिया । रक्त का प्रवाह बहा, परन्तु कालीमाता की मूर्ति के टुकड़े टुकड़े होकर उसका साकार स्वरूप बिखर गया और श्री रामकृष्ण को निराकार ब्रह्म की अनुभूति हुई । परन्तु इस उदाहरण से कोई यह नहीं कह सकता कि निराकार ब्रह्म का साक्षात्कार भूकुटी के मध्यभाग में काँच का टुकड़ा चुभोने से होता है । अनुभूति तो बस होती है ।
* एक बड़े कारखाने में विदेश से यंत्रसामग्री आई । विदेशी अभियंताओं ने उसे स्थापित कर कारखाने के अभियन्ताओं को उस यंत्रसामग्री का संचालन सीखा दिया । काम शुरू हुआ । कुछ समय के बाद एक यंत्र रुक गया । अभियन्ताओं के बहुत प्रयासों के बाद भी वह शुरू नहीं हुआ | सब निराश होकर विचार कर रहे थे कि अब विदेश से अभियंता को बुलाना पड़ेगा । तब एक मेकेनिक ने कहा कि उसे प्रयास करने की अनुमति दी जाये । अधिकारियों ने कुछ सशंक होकर और अविश्वासपूर्वक अनुमति दी। उस मेकेनिक ने कुछ प्रयास किया और सबके आश्चर्य के मध्य यंत्र शुरू हो गया । लोगों ने पूछा की उसे कहाँ दोष था इसका पता कैसे चला । उस मेकेनिक ने कहा कि यंत्र उससे बात करता है । निर्जीव यंत्र सजीव मनुष्य के साथ बात कैसे कर सकता है ? जब यंत्र के साथ तादात्म्य होता है तो यंत्र अपना आंतरिक रहस्य व्यक्ति के समक्ष प्रकट कर देता है । यह भारत के लोगों की प्रचलित धारणा है । यह अनूभूति है ।   
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* एक बड़े कारखाने में विदेश से यंत्रसामग्री आई । विदेशी अभियंताओं ने उसे स्थापित कर कारखाने के अभियन्ताओं को उस यंत्रसामग्री का संचालन सीखा दिया । काम आरम्भ हुआ । कुछ समय के बाद एक यंत्र रुक गया । अभियन्ताओं के बहुत प्रयासों के बाद भी वह आरम्भ नहीं हुआ | सब निराश होकर विचार कर रहे थे कि अब विदेश से अभियंता को बुलाना पड़ेगा । तब एक मेकेनिक ने कहा कि उसे प्रयास करने की अनुमति दी जाये । अधिकारियों ने कुछ सशंक होकर और अविश्वासपूर्वक अनुमति दी। उस मेकेनिक ने कुछ प्रयास किया और सबके आश्चर्य के मध्य यंत्र आरम्भ हो गया । लोगों ने पूछा की उसे कहाँ दोष था इसका पता कैसे चला । उस मेकेनिक ने कहा कि यंत्र उससे बात करता है । निर्जीव यंत्र सजीव मनुष्य के साथ बात कैसे कर सकता है ? जब यंत्र के साथ तादात्म्य होता है तो यंत्र अपना आंतरिक रहस्य व्यक्ति के समक्ष प्रकट कर देता है । यह भारत के लोगों की प्रचलित धारणा है । यह अनूभूति है ।   
 
* समाधि जिनकी सिद्ध हुई है ऐसे योगियों को बिना किसी साधन से पता चला है कि मनुष्य के शरीर में ७२,००० नाड़ियाँ हैं ।  
 
* समाधि जिनकी सिद्ध हुई है ऐसे योगियों को बिना किसी साधन से पता चला है कि मनुष्य के शरीर में ७२,००० नाड़ियाँ हैं ।  
 
* प्रेम अनुभूति का साधन हो सकता है । सृष्टि के साथ यदि प्रेम है तो उस व्यक्ति के समक्ष सृष्टि अपने रहस्य स्वयं प्रकट करती है ।
 
* प्रेम अनुभूति का साधन हो सकता है । सृष्टि के साथ यदि प्रेम है तो उस व्यक्ति के समक्ष सृष्टि अपने रहस्य स्वयं प्रकट करती है ।

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