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जहाँ एक ओर नए स्वतंत्र राष्ट्र के नए नेतृत्व ने कई सही निर्णय लिए होंगे; समुचित आर्थिक-विकास की दृष्टि से, उनसे भारी चुकें भी हुई। इन चूकों को समझना आवश्यक है, ताकि हम उनसे मिली सीखों के परिप्रेक्ष्य में आज को समझकर, आने वाले कल की सही योजना भी कर सके।
 
जहाँ एक ओर नए स्वतंत्र राष्ट्र के नए नेतृत्व ने कई सही निर्णय लिए होंगे; समुचित आर्थिक-विकास की दृष्टि से, उनसे भारी चुकें भी हुई। इन चूकों को समझना आवश्यक है, ताकि हम उनसे मिली सीखों के परिप्रेक्ष्य में आज को समझकर, आने वाले कल की सही योजना भी कर सके।
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च) किसी भी राष्ट्र की आर्थिक व्यवस्था उसी तरह महत्वपूर्ण है, जिस प्रकार हर परिवार के लिए जरुरी है स्वयं के पुरुषार्थ से कमाया हुआ धन, जो इतना तो हो कि परिवार सम्मान पूर्वक अपना जीवनयापन कर सके व अतिथि का ध्यान भी रख सके । राष्ट्रीय आर्थिक-नीतियां कुछ ऐसी बन सके कि जहाँ हर हाथ को रोजगार मिल सके
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च) किसी भी राष्ट्र की आर्थिक व्यवस्था उसी तरह महत्वपूर्ण है, जिस प्रकार हर परिवार के लिए जरुरी है स्वयं के पुरुषार्थ से कमाया हुआ धन, जो इतना तो हो कि परिवार सम्मान पूर्वक अपना जीवनयापन कर सके व अतिथि का ध्यान भी रख सके । राष्ट्रीय आर्थिक-नीतियां कुछ ऐसी बन सके कि जहाँ हर हाथ को रोजगार मिल सके व समाज व देश की विपदाओं से सुरक्षा हो सके। मगर ७० वर्षों की यात्रा के बाद भी यदि आज हम रोजी-रोटी के जद्दो-जहद से बड़ी जनसंख्या को नहीं उबार सके हैं, तो इसके पीछे प्रारंभिक वर्षों में की गयी कुछ मूलभूत गलतियाँ ही है, जो कि आज तक चली आ रही हैं । उन अनेकानेक आर्थिक गलतियों के केंद्र में जो बिन्दू है वह यह है- जिस तरह एक रेलगाड़ी के चलने के लिए एक सशक्त इंजिन
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आवश्यक है वैसे ही हर हाथ को काम मिले, यह तभी संभव होता है जब समाज में इंजिन के समान ताकतवर उद्यमियों का सतत निर्माण होता रहे । हमारे नीति निर्धारकों ने नव जवानों को इंजिन जैसे स्वयं की ताकत से आर्थिक रूप से सक्षम साहसी व आत्म-विश्वासी (जो कि रोजगार पैदा करने में अपनी शान समझें) बनाने के बजाय जीवन भर की गारंटी देने वाली नौकरी खोजने वाली फौज खड़ी कर दी। और तो और, नया उद्यम व व्यापार प्रारंभ करने वाले उद्यमियों को पैसे के लालची व स्वार्थी ठहरा कर बहुत ही नकारात्मक वातावरण तैयार कर दिया। इसके चलते जहाँ एक ओर भारत के होनहार बच्चे उद्यमी बनने का साहस जुटाने के बजाय हर सूरत में नौकरी पाने वालों (वह भी सरकारी क्योंकि उसमे जीवन भर की गारंटी है) की दौड़ में शामिल हो गए, और यह सिलसिला आज भी जारी है। दूसरी ओर जिन इक्के-दुक्के लोगों ने उद्यमी बनने की हिम्मत की, उन्हें नियम-कानून के जाल में इस तरह जकड़ा कि वे अधिक टिक नहीं पाये।
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छ) नए उद्यमियों के निर्माण में भारी कमी होने से, आर्थिक विकास की रफ़्तार बस इतनी ही रही जिससे जैसे तैसे गुजारा चलता रहे । सरकार का काम धन उत्पत्ति बढाने की नीतियाँ बनाने के बजाय, जो भी धन पैदा हुआ उसे बाँटने का होकर रह गया । आज भी सरकार में जो भी लोग आते हैं (चाहे चुने हुए प्रतिनिधि हो या व्यवस्था चलाने वाली ब्यूरोक्रेसी), आर्थिक-विकास में वेल्थ-क्रियेशन की समझ न होने के कारण धन को बढाने में उद्यमिता की भूमिका को नहीं समझ पाने के कारण, धन को बाँट कर ही गरीबी दूर होगी ऐसे प्रयास में लगे दिखते हैं । और जब धन कमाने के अवसर कम होते हैं, तो ताकतवर भ्रष्टता का मार्ग अपनाकर येनकेन प्रकारेण धन को लुटने लगते हैं, यही मनुष्य का स्वभाव हो गया है।
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===== कालखण्ड -२ (१९६७ से लगभग १९८० तक) =====
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भ्रष्ट अर्थ व्यवस्था का आरम्भ व् जड़ में पकड़ : कालखंड १ में भारत के लोग आर्थिक रूप से भले ही कमजोर रहे, मगर अत्यंत ईमानदारी से अपने कार्य को पूरा करते थे। इस दूसरे कालखंड में भारत के लोगों ने अपनी ईमानदारी के मूल्यों को तिलांजलि देना शुरु कर दिया । जब कोई राष्ट्र आर्थिक रूप से कमजोर बना रहता है, भ्रष्ट लोगों द्वारा राजनैतिक, व्यापारिक, व ब्यूरोक्रेटिक गठबंधन बनाना आसान व स्वाभाविक हो जाता है। ऐसे में यदि राष्ट्र का नेतृत्व छोटे भ्रष्ट आचरणों को नजरअंदाज करने लगे या खुद ही ऐसा करने लगे, तो भ्रष्टता समाज-व्यवस्था के जड़ में ही घर करने लगती है। भारत जैसे विशाल राष्ट्र, जहाँ बड़ी जनसँख्या, लम्बी दूरियां, सड़कों व कम्युनिकेशन का भारी अभाव रहा, भ्रष्टता ने धीरे-धीरे इस कदर घर कर लिया, कि ईमानदारी से काम करने वाले उपहास के पात्र बनते चले गए और इस कालखंड में भ्रष्टता ने पूरी सामाजिकआर्थिक-राजनैतिक-व्यापारिक व्यवस्था में गहरी जड़ पकड़ ली। यद्यपि अब तक भारत, विश्व से अलग थलग ही रहा, मगर भ्रष्ट लोगों ने अवश्य वैश्विक सम्बन्ध स्थापित किये, ताकि भ्रष्टता से पाए धन को राष्ट्र से बाहर ले जाया जा सके।
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===== कालखण्ड - ३ (१९८० से लगभग १९९० तक): =====
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भ्रष्ट नेतृत्व का बढ़ता उबाल : किसी भी समाज की व्यवस्था तीन प्रकार की शक्तियों में बांटी जा सकती है। एक, ईमानदार व सृजनात्मक शक्ति जो पूरे देश का नेतृत्व करती है; दूसरी, भ्रष्ट व ताकतवर शक्ति जो स्वयं के स्वार्थ हेतु पूरे देश को लूटने का कार्य करती है; और तीसरी सीधी-सादी सामान्य जनता जो निरपेक्ष भाव से जीवन की जद्दोजहद में व्यस्त रहती है तथा रेलगाड़ी के डिब्बे के समान, ताकतवर नेतृत्व की दिशा में चलने को बाध्य रहती है।
    
==References==
 
==References==
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