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==== '''स्वत्व की पहचान (Identity) का भ्रम''' ====
 
==== '''स्वत्व की पहचान (Identity) का भ्रम''' ====
एक लम्बे समय से कई विभिन्न कारणों से विश्व के लगभग सभी देशों में विभिन्न प्रकार की पहचानों (Identities) का तालमेल सही सही स्थापित नहीं हुआ है। इस कारण से अनेक आपसी रिश्ते इस कदर बिगड़े हुए हैं कि उनकी आपसी स्थिति हमेशा एक ज्वालामुखी के समान लगती है। इन देशों में जब तक ऐसे नेतृत्व बल नहीं पकड़ते जो विविधता में एकता के सूत्र को न केवल समझते है बल्कि उसे स्थापित करने की क्षमता रखते हैं, सर्वमंगल व सबका विकास चाहते हैं, तब तक इस स्थिति का हल नहीं हो सकता। अहंकार से प्रेरित युद्ध जैसी स्थितियों में समूर्ण विश्व एक अत्यंत कष्टदायी वातावरण में जीने के लिए बाध्य हो रहा हैं। हर राष्ट्र अपनी सुरक्षा के प्रति सजग रहना चाहता है व विश्व की बहुत बड़ी शक्ति सिर्फ फौजें और युद्ध-सामग्रियां जुटाने में ही व्यस्त है । इस विषय की गंभीरता तब और भी भीषण लगने लगती है, जब हम ऐसे अणु-बमों के बारे में सुनते हैं जिनसे पूरा विश्व ही नष्ट किया जा सकता है। कई तरह की मानसिक रूप से विक्षिप्त अव्यवहारिक ताकतें उभरने लगी हैं। जेहाद के नाम पर तो सब कुछ विस्फोटक ही प्रतीत होता है। इस परिस्थिति को बनाये रखने में जिन शक्तियों का संकुचित स्वार्थ छुपा है, वे इस समस्या को निरंतर जिन्दा ही रखना चाहती हैं। जब तक शक्तिशाली नयी पीढ़ी खड़ी नहीं होती, जिसे शांति के मार्ग से ही आगे बढ़ने में रुची हैं। बौद्धिक-भ्रष्टाचार के विभिन्न प्रकारों में यह भी एक प्रकार है
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एक लम्बे समय से कई विभिन्न कारणों से विश्व के लगभग सभी देशों में विभिन्न प्रकार की पहचानों (Identities) का तालमेल सही सही स्थापित नहीं हुआ है। इस कारण से अनेक आपसी रिश्ते इस कदर बिगड़े हुए हैं कि उनकी आपसी स्थिति हमेशा एक ज्वालामुखी के समान लगती है। इन देशों में जब तक ऐसे नेतृत्व बल नहीं पकड़ते जो विविधता में एकता के सूत्र को न केवल समझते है बल्कि उसे स्थापित करने की क्षमता रखते हैं, सर्वमंगल व सबका विकास चाहते हैं, तब तक इस स्थिति का हल नहीं हो सकता। अहंकार से प्रेरित युद्ध जैसी स्थितियों में समूर्ण विश्व एक अत्यंत कष्टदायी वातावरण में जीने के लिए बाध्य हो रहा हैं। हर राष्ट्र अपनी सुरक्षा के प्रति सजग रहना चाहता है व विश्व की बहुत बड़ी शक्ति सिर्फ फौजें और युद्ध-सामग्रियां जुटाने में ही व्यस्त है । इस विषय की गंभीरता तब और भी भीषण लगने लगती है, जब हम ऐसे अणु-बमों के बारे में सुनते हैं जिनसे पूरा विश्व ही नष्ट किया जा सकता है। कई तरह की मानसिक रूप से विक्षिप्त अव्यवहारिक ताकतें उभरने लगी हैं। जेहाद के नाम पर तो सब कुछ विस्फोटक ही प्रतीत होता है। इस परिस्थिति को बनाये रखने में जिन शक्तियों का संकुचित स्वार्थ छुपा है, वे इस समस्या को निरंतर जिन्दा ही रखना चाहती हैं। जब तक शक्तिशाली नयी पीढ़ी खड़ी नहीं होती, जिसे शांति के मार्ग से ही आगे बढ़ने में रुची हैं। बौद्धिक-भ्रष्टाचार के विभिन्न प्रकारों में यह भी एक प्रकार है जिसकी जड़ें राजनैतिक गलियारों में भी
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- गहरे तक घुसी हुई प्रतीत होती है।
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==== (२) वैश्विक समस्याओं का भारत पर प्रभाव ====
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कुछ ही सदियों पूर्व भारत एक समृद्ध राष्ट्र के रूप में विद्यमान था । विश्व के व्यापार में उसकी अहम् भूमिका रही परन्तु विदेशी आक्रान्ताओं द्वारा सदियों के लगातार आघात से पीड़ित भारत असहाय सा प्रतीत होने लगा है।
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===== विश्व की अर्थ व्यवस्थाएँ सन १००० से २००३ =====
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Ref : अठारवीं सदी के पहले भारत और चीन दुनिया के सबसे बड़ी अर्थ व्यवस्था थी। वरिष्ठ अर्थ-शास्त्री अंगस मैडिसन के अनुसंधान के अनुसार ब्रिटिश राज से स्वतंत्र होने के सत्तर वर्ष बाद भी भारत पश्चिमी देशों के प्रभाव से मुक्त नहीं हुआ हैं । जहाँ एक ओर सदियों की गुलामी ने भारत के आत्म-विश्वास को पूरी तरह क्षत-विक्षत कर रखा है, वहाँ दूसरी ओर पश्चिमी राष्ट्रों के आधुनिक आविष्कारों से जनित समृद्धि भारत के शिक्षित समुदाय के लिए स्वाभाविक रूप से आदर्श व कौतुहल का कारण बनी है । इन कारणों के रहते भारत अब तक अपनी स्वतंत्र पहचान प्रभावी ढंग से स्थापित करने में सफल नहीं हुआ है । भारत की उन्नति व अवनति के जो बिन्दु हैं, उन्हें १९४७ के बाद से ४ काल-खण्डों में बाँट कर देखा जा सकता है। इसी प्रक्रिया में हम आगे देखेंगे कि किस तरह भारत पर वैश्विक समस्याओं का क्या परिणाम हुआ है।
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===== भारत के सात दशकः एक केस-स्टडी =====
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भारत में बहुत से लोग गरीब हैं, मगर भारत राष्ट्र कभी भी गरीब नहीं रहा है। भारत की ५०% भूमि कृषियोग्य है (जबकि जापान में मात्र १०.७% व यू.एस.ए. में मात्र १८.९%) । यह एक कटु सत्य है कि १९४७ में ब्रिटिशराज से स्वतन्त्रता के पश्चात का इतिहास देखें तो भारतीय अर्थ-व्यवस्था रोजी-रोटी की जद्दोजहद से बहुत आगे नहीं बढ़ पाई है। भारत एक अच्छा उदाहरण है इस बात का कि कैसे प्राकृतिक संपदा भरपूर होने पर भी एक राष्ट्र के काल-खण्डों में बाँट कर देखें:
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==== काल-खंड १ ====
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==== १९४७-६७ (लगभग २० वर्ष) : मेहनतकश ईमानदार नागरिक, मगर रोजी-रोटी की जद्दोजहद ====
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सदियों की गुलामी से मुक्त, स्वतंत्रता प्राप्ति की खुशी से प्रफुल्लित भारत के नागरिक, स्वाभाविक ही राष्ट्र-निर्माण की प्रबल चेतना से ओत-प्रोत थे। उत्साह व राष्ट्रीय गर्व से भरे हुए इन लगभग २०+ वर्षों में, सब अपनी-अपनी क्षमता के हिसाब से पूरी ईमानदारी से अपनी-अपनी भूमिका निभाने का प्रयास करने लगे। चाहे वे खेत में जुटे किसान हों, या सीमा पर तैनात सैनिक; चाहे वे बौद्धिक रूप से संपन्न वैज्ञानिक हों या राष्ट्र को विभिन्न प्रकार के संगठनों में पिरोने वाले ऋषि-तुल्य महानायक; या जंगलों में अपनी साइकलों से रोज़ ५०-१०० कि. मी. तक यात्रा कर पीने व सिंचाई के पानी के लिए बांध बनाने वाले इंजीनियरों की टोली। राष्ट्र के प्रति इतना अद्भुत समर्पण होते हुए भी, यह भारत के लिए आर्थिक दृष्टि से सबसे कमजोर समय रहा। इसका मुख्य कारण यह था कि आर्थिक विषय को समझने वाले महारथियों व उनके विचारों की घोर उपेक्षा।
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जहाँ एक ओर नए स्वतंत्र राष्ट्र के नए नेतृत्व ने कई सही निर्णय लिए होंगे; समुचित आर्थिक-विकास की दृष्टि से, उनसे भारी चुकें भी हुई। इन चूकों को समझना आवश्यक है, ताकि हम उनसे मिली सीखों के परिप्रेक्ष्य में आज को समझकर, आने वाले कल की सही योजना भी कर सके।
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च) किसी भी राष्ट्र की आर्थिक व्यवस्था उसी तरह महत्वपूर्ण है, जिस प्रकार हर परिवार के लिए जरुरी है स्वयं के पुरुषार्थ से कमाया हुआ धन, जो इतना तो हो कि परिवार सम्मान पूर्वक अपना जीवनयापन कर सके व अतिथि का ध्यान भी रख सके । राष्ट्रीय आर्थिक-नीतियां कुछ ऐसी बन सके कि जहाँ हर हाथ को रोजगार मिल सके
    
==References==
 
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