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जब हम व्यवहार के स्तर पर परिवर्तन की बात करते हैं, तब कई बातों का विचार करना होता है । क्रियान्वयन के लिये एक रचना चाहिये, एक कार्य योजना चाहिये, एक रणनीति, एक व्यूहरचना चाहिये । हमें अपनी पार्श्वभूमि और सन्दर्भ का विचार करना होगा, हमारी क्षमताओं और व्यापक
 
जब हम व्यवहार के स्तर पर परिवर्तन की बात करते हैं, तब कई बातों का विचार करना होता है । क्रियान्वयन के लिये एक रचना चाहिये, एक कार्य योजना चाहिये, एक रणनीति, एक व्यूहरचना चाहिये । हमें अपनी पार्श्वभूमि और सन्दर्भ का विचार करना होगा, हमारी क्षमताओं और व्यापक
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मानसिकता का विचार करना होगा, हमारी तत्काल और दूरगामी आवश्यकताओं का तथा संसाधनों की उपलब्धता का विचार करना होगा । हमे एक सम्पूर्ण प्रतिमान का, एक सम्पूर्ण ढाँचे का विचार करना होगा । भले ही समय लगे, हमें पूरा विचार, एक साथ विचार, समग्रता में विचार किये बिना परिवर्तन का प्रारम्भ नहीं करना चाहिये ।
 
मानसिकता का विचार करना होगा, हमारी तत्काल और दूरगामी आवश्यकताओं का तथा संसाधनों की उपलब्धता का विचार करना होगा । हमे एक सम्पूर्ण प्रतिमान का, एक सम्पूर्ण ढाँचे का विचार करना होगा । भले ही समय लगे, हमें पूरा विचार, एक साथ विचार, समग्रता में विचार किये बिना परिवर्तन का प्रारम्भ नहीं करना चाहिये ।
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१०. इस व्यवस्था के बदलने के कई दुष्परिणाम हैं । शासन के नियंत्रण में आते ही शिक्षा ने अपना गौरव, गुरुता खो दिया । ज्ञानसत्ता के ऊपर अर्थ और शासन का प्रभुत्व हो जाने के कारण से समाज सही मार्गदर्शन से वंचित हो गया । साथ ही अर्थसत्ता और राज्यसत्ता बिना मार्गदर्शन के सही रास्ते से भटकने लगे और बिना नियन्त्रण के निरंकुश होकर कुशासन में परिणत हो गये ।
 
१०. इस व्यवस्था के बदलने के कई दुष्परिणाम हैं । शासन के नियंत्रण में आते ही शिक्षा ने अपना गौरव, गुरुता खो दिया । ज्ञानसत्ता के ऊपर अर्थ और शासन का प्रभुत्व हो जाने के कारण से समाज सही मार्गदर्शन से वंचित हो गया । साथ ही अर्थसत्ता और राज्यसत्ता बिना मार्गदर्शन के सही रास्ते से भटकने लगे और बिना नियन्त्रण के निरंकुश होकर कुशासन में परिणत हो गये ।
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११. दूसरी बात यह हुई कि शिक्षक स्वयं गुरु न होकर लघु बन गया, कर्मचारी बन गया और राष्ट्रनिर्माण के
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११. दूसरी बात यह हुई कि शिक्षक स्वयं गुरु न होकर लघु बन गया, कर्मचारी बन गया और राष्ट्रनिर्माण के अपने दायित्व से विमुख हो गया । शिक्षा में सारे के सारे गैरशैक्षिक नियंत्रण बढ़ गये । सारे तन्त्र में एक प्रकार की व्यक्तिनिरपेक्षता फैल गयी जहाँ किसीकी भी जिम्मेदारी निश्चित करना कठिन हो गया । तन्त्र का चेहरा निर्जीव बन गया जहाँ प्रेम, आनन्द, रस, कृतकृत्यता जैसे तत्त्वों का अभाव हो गया । हम आर्य चाणक्य का स्मरण कर कहते अवश्य हैं कि शिक्षक राष्ट्र निर्माता होता है, परंतु वर्तमान स्थिति में न तो शिक्षा राष्ट्रनिर्माणकारी हो सकती है, न शिक्षक राष्ट्रनिर्माता बन सकता है । अत: परिवर्तन का यह एक महत्त्वपूर्ण क्षेत्र है जिसकी हमें चिन्ता करनी होगी । शिक्षा में स्वायत्तता का सम्पूर्ण विचार एक और शासन का नियन्त्रण कैसे दूर हो इस दिशा में तथा दूसरी ओर स्वायत्तता का विचार और प्रयास स्वयं शिक्षकों की ओर से शुरू होने की दिशा में होना चाहिये ।
 
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अपने दायित्व से विमुख हो गया । शिक्षा में सारे के सारे गैरशैक्षिक नियंत्रण बढ़ गये । सारे तन्त्र में एक प्रकार की व्यक्तिनिरपेक्षता फैल गयी जहाँ किसीकी भी जिम्मेदारी निश्चित करना कठिन हो गया । तन्त्र का चेहरा निर्जीव बन गया जहाँ प्रेम, आनन्द, रस, कृतकृत्यता जैसे तत्त्वों का अभाव हो गया । हम आर्य चाणक्य का स्मरण कर कहते अवश्य हैं कि शिक्षक राष्ट्र निर्माता होता है, परंतु वर्तमान स्थिति में न तो शिक्षा राष्ट्रनिर्माणकारी हो सकती है, न शिक्षक राष्ट्रनिर्माता बन सकता है । अत: परिवर्तन का यह एक महत्त्वपूर्ण क्षेत्र है जिसकी हमें चिन्ता करनी होगी । शिक्षा में स्वायत्तता का सम्पूर्ण विचार एक और शासन का नियन्त्रण कैसे दूर हो इस दिशा में तथा दूसरी ओर स्वायत्तता का विचार और प्रयास स्वयं शिक्षकों की ओर से शुरू होने की दिशा में होना चाहिये ।
      
१२. शिक्षा को हमने अप्रत्याशित रूप से संस्थागत बना दिया है। संस्था को फिर आर्थिक दृष्टि से और प्रशासनिक दृष्टि से शासनमान्य होना ही पड़ता है । कहीं न कहीं, किसी न किसी रूप में पंजीकृत हुए बिना संस्था चल नहीं सकती । पंजीकृत होते ही उसमें वस्तुनिष्ठता आ जाती है । वस्तुनिष्ठता यह शब्द हमें अच्छा लगता है क्योंकि उसका अर्थ हम पक्षपातरहितता करते हैं। परंतु व्यवहार में वस्तुनिष्ठता यान्त्रिकता बन जाती है । वस्तुनिष्ठता, मूल्यांकन, प्रमाणपत्र, पदवी आदिका महत्त्व इतना बढ़ जाता है कि अब विद्यालय नामक संस्था से बाहर, बिना परीक्षा उत्तीर्ण किये, बिना प्रमाणपत्र प्राप्त किये कोई शिक्षा होती है यह बात ही हम भूल गये हैं । इसका दुष्परिणाम यह हुआ है कि अब प्रमाणपत्र भी अथार्जिन का साधन है, ज्ञानवान होने का प्रमाण नहीं । शिक्षा अपने स्वभाव से ही इतनी अधिक संस्थागत नहीं हो सकती । वह तो जन्मपूर्व से ही शुरू होती है, घर में, आँगन में, खेल के मैदानों में, मन्दिर में, बाजारों में अर्थात्‌ सर्वत्र होती है। वह जीवन के क्रम के साथ जुड़ी हुई रहती है, जीवन के हर पहलू में अनुस्यूत रहती है । संस्थागत स्वरूप तो उसके पूर्ण स्वरूप का एक छोटा सा हिस्सा होता है, वह भी हमेशा अनिवार्य नहीं होता । वर्तमान में हमने शिक्षा के केवल संस्थागत स्वरूप को मान्यता देकर अपने आपको संकट में डाल दिया है । अतः परिवर्तन का हमारा दूसरा प्रयास शिक्षा को इतने अधिक संस्थाकरण से मुक्त करने की दिशा में होना चाहिए ।
 
१२. शिक्षा को हमने अप्रत्याशित रूप से संस्थागत बना दिया है। संस्था को फिर आर्थिक दृष्टि से और प्रशासनिक दृष्टि से शासनमान्य होना ही पड़ता है । कहीं न कहीं, किसी न किसी रूप में पंजीकृत हुए बिना संस्था चल नहीं सकती । पंजीकृत होते ही उसमें वस्तुनिष्ठता आ जाती है । वस्तुनिष्ठता यह शब्द हमें अच्छा लगता है क्योंकि उसका अर्थ हम पक्षपातरहितता करते हैं। परंतु व्यवहार में वस्तुनिष्ठता यान्त्रिकता बन जाती है । वस्तुनिष्ठता, मूल्यांकन, प्रमाणपत्र, पदवी आदिका महत्त्व इतना बढ़ जाता है कि अब विद्यालय नामक संस्था से बाहर, बिना परीक्षा उत्तीर्ण किये, बिना प्रमाणपत्र प्राप्त किये कोई शिक्षा होती है यह बात ही हम भूल गये हैं । इसका दुष्परिणाम यह हुआ है कि अब प्रमाणपत्र भी अथार्जिन का साधन है, ज्ञानवान होने का प्रमाण नहीं । शिक्षा अपने स्वभाव से ही इतनी अधिक संस्थागत नहीं हो सकती । वह तो जन्मपूर्व से ही शुरू होती है, घर में, आँगन में, खेल के मैदानों में, मन्दिर में, बाजारों में अर्थात्‌ सर्वत्र होती है। वह जीवन के क्रम के साथ जुड़ी हुई रहती है, जीवन के हर पहलू में अनुस्यूत रहती है । संस्थागत स्वरूप तो उसके पूर्ण स्वरूप का एक छोटा सा हिस्सा होता है, वह भी हमेशा अनिवार्य नहीं होता । वर्तमान में हमने शिक्षा के केवल संस्थागत स्वरूप को मान्यता देकर अपने आपको संकट में डाल दिया है । अतः परिवर्तन का हमारा दूसरा प्रयास शिक्षा को इतने अधिक संस्थाकरण से मुक्त करने की दिशा में होना चाहिए ।
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१४. हमेशा वैश्विक संदर्भ में ही विचार और व्यवहार किया है । भारत की आकांक्षा “सर्वे भवन्तु सुखिन:' रही है । भारत हमेशा मानव धर्म के सन्दर्भ में ही विचार करता है । अपने ध्येय को भी भारत “कृण्वन्तो विश्वमार्यमू' कहकर ही प्रस्तुत करता है । इसलिये भारत के लिए वैश्विकता नयी बात नहीं है । वैश्विकता का सम्बन्ध केवल पाश्चात्य के साथ नहीं है ।
 
१४. हमेशा वैश्विक संदर्भ में ही विचार और व्यवहार किया है । भारत की आकांक्षा “सर्वे भवन्तु सुखिन:' रही है । भारत हमेशा मानव धर्म के सन्दर्भ में ही विचार करता है । अपने ध्येय को भी भारत “कृण्वन्तो विश्वमार्यमू' कहकर ही प्रस्तुत करता है । इसलिये भारत के लिए वैश्विकता नयी बात नहीं है । वैश्विकता का सम्बन्ध केवल पाश्चात्य के साथ नहीं है ।
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१५. नये सिरे से परिवर्तन का विचार करते समय हमें
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१५. नये सिरे से परिवर्तन का विचार करते समय हमें भारतीय अध्यात्म विचार को ध्यान में लेना पड़ेगा । आज हमारा सारा चिन्तन बुद्धिनिष्ठ हो गया है। बुद्धिनिष्ठ चिन्तन के आधार पर ही देश की सारी व्यवस्थायें बनी हैं और व्यवहार की रचना हुई है । परन्तु भारतीय चिन्तन बुद्धिनिष्ठ न होकर आत्मनिष्ठ होता है । श्रीमटू भगवदू गीता में श्रीमगवान कहते हैं,
 
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भारतीय अध्यात्म विचार को ध्यान में लेना पड़ेगा । आज हमारा सारा चिन्तन बुद्धिनिष्ठ हो गया है। बुद्धिनिष्ठ चिन्तन के आधार पर ही देश की सारी व्यवस्थायें बनी हैं और व्यवहार की रचना हुई है । परन्तु भारतीय चिन्तन बुद्धिनिष्ठ न होकर आत्मनिष्ठ होता है । श्रीमटू भगवदू गीता में श्रीमगवान कहते हैं,
      
'''''इंद्रियाणि पराण्याहु: इंट्रियेश्य: पर मन: ।'''''  
 
'''''इंद्रियाणि पराण्याहु: इंट्रियेश्य: पर मन: ।'''''  
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=== ज्ञानात्मक पक्ष ===
 
=== ज्ञानात्मक पक्ष ===
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१७. हमें सर्व प्रथम परिवर्तन का ज्ञानात्मक पक्ष ध्यान में लेना चाहिये । विद्यालयों, महाविद्यालयों में जो पढ़ाया जाता है उसका स्वरूप भारतीय नहीं है। सामाजिक शास्त्रों के सिद्धान्त, प्राकृतिक विज्ञानों की दृष्टि व्यक्तिगत विकास की संकल्पना, जीवनरचना और सृष्टिचना की समझ आदि सब जडवादी, अनात्मवादी जीवनदृष्टि के आधार पर विकसित किये गये हैं । हम यह सब विगत आठ दस पीढ़ियों से पढ़ते आये हैं । यह बहुत स्वाभाविक है कि छोटी आयु से जो पढ़ाया जाता है उसीके अनुसार मानस बनता है, विचार और व्यवहार बनते हैं । ऐसा मानस फिर व्यक्तिगत और सामुदायिक जीवन की व्यवस्थायें बनाता है । देश उसी आधार पर चलता है । देश उसी आधार पर चलने लगता है । धीरे धीरे देश की जीवन रचना में परिवर्तन होने लगता है। यह परिवर्तन जब सम्पूर्ण हो जाता है तब देश का चरित्र पूर्ण रूप से बदल जाता है । जब तक यह परिवर्तन पूर्ण नहीं होता तब तक देश की अपनी मूल जीवन रचना और शिक्षा के माध्यम से बदलने वाली नयी रचना में संघर्ष होता रहता है । देश की मूल रचना अपने आपको बचाने के लिये प्रयास करती रहती है । वह सरलता से अपने आपको हारने नहीं देती । हमारे देश की जितनी भी अधिकृत ताकतें हैं वे सब विपरीत दिशा की शिक्षा के पक्ष में हैं । परंतु हमारे
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१७. हमें सर्व प्रथम परिवर्तन का ज्ञानात्मक पक्ष ध्यान में लेना चाहिये । विद्यालयों, महाविद्यालयों में जो पढ़ाया जाता है उसका स्वरूप भारतीय नहीं है। सामाजिक शास्त्रों के सिद्धान्त, प्राकृतिक विज्ञानों की दृष्टि व्यक्तिगत विकास की संकल्पना, जीवनरचना और सृष्टिचना की समझ आदि सब जडवादी, अनात्मवादी जीवनदृष्टि के आधार पर विकसित किये गये हैं । हम यह सब विगत आठ दस पीढ़ियों से पढ़ते आये हैं । यह बहुत स्वाभाविक है कि छोटी आयु से जो पढ़ाया जाता है उसीके अनुसार मानस बनता है, विचार और व्यवहार बनते हैं । ऐसा मानस फिर व्यक्तिगत और सामुदायिक जीवन की व्यवस्थायें बनाता है । देश उसी आधार पर चलता है । देश उसी आधार पर चलने लगता है । धीरे धीरे देश की जीवन रचना में परिवर्तन होने लगता है। यह परिवर्तन जब सम्पूर्ण हो जाता है तब देश का चरित्र पूर्ण रूप से बदल जाता है । जब तक यह परिवर्तन पूर्ण नहीं होता तब तक देश की अपनी मूल जीवन रचना और शिक्षा के माध्यम से बदलने वाली नयी रचना में संघर्ष होता रहता है । देश की मूल रचना अपने आपको बचाने के लिये प्रयास करती रहती है । वह सरलता से अपने आपको हारने नहीं देती । हमारे देश की जितनी भी अधिकृत ताकतें हैं वे सब विपरीत दिशा की शिक्षा के पक्ष में हैं । परंतु हमारे पूर्वजों की महान तपश्चर्या और अपनी जीवनरचना और जीवनदृष्टि की आन्तरिक ताकत के बल के कारण हम इतने शतकों में भी नष्ट नहीं हुए हैं। हम क्षीणप्राण अवश्य हुए हैं परंतु गतप्राण नहीं हुए हैं । हम गतप्राण न हों इसलिये हमें अब अपना ध्यान कक्षाकक्ष में पढ़ाये जानेवाले विषयों के विषयवस्तु की ओर केन्द्रित करना पड़ेगा । हमें विषयों की संकल्पनायें बदलनी होंगी, आधारभूत परिभाषायें बदलनी होंगी, पाठ्यक्रम बदलने होंगे, पठनपाठन की पद्धति बदलनी होगी । इसके लिये हमें अपने शोध, अनुसंधान और अध्ययन की पद्धतियों को भी बदलना होगा । यह एक महान शैक्षिक प्रयास होगा । यह सबसे पहले करना होगा क्योंकि इसे किये बिना बाकी सारे परिवर्तन पाश्चात्य ढाँचे को ही मजबूत बनानेवाले सिद्ध होंगे। आज भी लगभग वही हो रहा है । प्रयास तो हम बहुत कर रहे हैं परन्तु स्वना नहीं बदल रही है ।
 
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पूर्वजों की महान तपश्चर्या और अपनी जीवनरचना और जीवनदृष्टि की आन्तरिक ताकत के बल के कारण हम इतने शतकों में भी नष्ट नहीं हुए हैं। हम क्षीणप्राण अवश्य हुए हैं परंतु गतप्राण नहीं हुए हैं । हम गतप्राण न हों इसलिये हमें अब अपना ध्यान कक्षाकक्ष में पढ़ाये जानेवाले विषयों के विषयवस्तु की ओर केन्द्रित करना पड़ेगा । हमें विषयों की संकल्पनायें बदलनी होंगी, आधारभूत परिभाषायें बदलनी होंगी, पाठ्यक्रम बदलने होंगे, पठनपाठन की पद्धति बदलनी होगी । इसके लिये हमें अपने शोध, अनुसंधान और अध्ययन की पद्धतियों को भी बदलना होगा । यह एक महान शैक्षिक प्रयास होगा । यह सबसे पहले करना होगा क्योंकि इसे किये बिना बाकी सारे परिवर्तन पाश्चात्य ढाँचे को ही मजबूत बनानेवाले सिद्ध होंगे। आज भी लगभग वही हो रहा है । प्रयास तो हम बहुत कर रहे हैं परन्तु स्वना नहीं बदल रही है ।
      
=== स्वतन्त्र और स्वायत्त रचना ===
 
=== स्वतन्त्र और स्वायत्त रचना ===
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नये पाठ्यक्रमों के लिये हमें नयी अध्ययन सामग्री भी तैयार करनी पड़ेगी । हमारे शाश्वत सिद्धान्तों को समाहित करने वाले शास्त्र ग्रन्थों का अध्ययन कर उनके आधार पर वर्तमान युग के अनुरूप साहित्य निर्माण करने का कार्य भी करना होगा । उसी समय विश्व के ज्ञान प्रवाहों से अवगत रहते हुए उनका समायोजन हमारी ज्ञानधारा से कर उसे समृद्ध भी बनाना होगा । संक्षेप में विपुल साहित्य निर्माण हमारा दूसरा कार्य होगा ।
 
नये पाठ्यक्रमों के लिये हमें नयी अध्ययन सामग्री भी तैयार करनी पड़ेगी । हमारे शाश्वत सिद्धान्तों को समाहित करने वाले शास्त्र ग्रन्थों का अध्ययन कर उनके आधार पर वर्तमान युग के अनुरूप साहित्य निर्माण करने का कार्य भी करना होगा । उसी समय विश्व के ज्ञान प्रवाहों से अवगत रहते हुए उनका समायोजन हमारी ज्ञानधारा से कर उसे समृद्ध भी बनाना होगा । संक्षेप में विपुल साहित्य निर्माण हमारा दूसरा कार्य होगा ।
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शिक्षा को स्वायत्त बनाने की दिशा में बलवान प्रयास करने की आवश्यकता है। शासन निरपेक्ष शिक्षाव्यवस्था ही समाज का सही मार्गदर्शन कर सकती है । शिक्षा शिक्षकों के बल पर चलनी चाहिये । जहाँ शिक्षक कर्मचारी होते हैं वहाँ वे गुरु नहीं बन सकते । गुरुत्व एक मानसिकता होती है । शिक्षक अपने आपको गुरु मानता है तब वह दायित्वबोध से युक्त होता है । तब छात्र का यदि चरित्र अच्छा नहीं है, समाज यदि सुसंस्कृत नहीं है तो वह अपने आपको जिम्मेदार मानता है । समाज यदि शिक्षक को गुरु मानता है तो उसे धनवानों से और सत्तावानों से अधिक आदर देता है । ऐसा समाज शिक्षक को कभी भी दीन या दरिद्रा नहीं रहने देता । यदि समाज शिक्षक को गुरु मानकर उसका सम्मान करता है परन्तु शिक्षक अपने आपको गुरु नहीं मानता तब वह समाज को गलत रास्ते पर ले जाकर भटका देता है और उसका अकल्याण करता है । यदि शिक्षक अपने आपको गुरु मानता है परन्तु समाज उसे गुरु नहीं मानता है तो शिक्षक को अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है और अवमानना भी सहनी पड़ती है । ऐसी स्थिति में विरले ही अपना गुरूत्व बनाये रख पाते हैं, अधिकांश कर्मचारी बन जाते हैं । इस स्थिति में ज्ञान की, शिक्षक की और समाज की हानि होती है । जब समाज और शिक्षक दोनों ही शिक्षक को गुरु नहीं मानते हैं तब समाज की अधोगति को सीमा नहीं रहती । ऐसा समाज सुसंस्कृत नहीं रह पाता । वह प्रथम पशुप्रवृत्ति की ओर बढ़ता है और फिर पशु से भी गयाबीता बनकर विकृति की ओर गति करता है । कहने की आवश्यकता नहीं है कि आज हम ऐसी ही स्थिति में जी रहे हैं । इस स्थिति से उबरने के लिये हमें शिक्षा को स्वायत्त बनाने
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शिक्षा को स्वायत्त बनाने की दिशा में बलवान प्रयास करने की आवश्यकता है। शासन निरपेक्ष शिक्षाव्यवस्था ही समाज का सही मार्गदर्शन कर सकती है । शिक्षा शिक्षकों के बल पर चलनी चाहिये । जहाँ शिक्षक कर्मचारी होते हैं वहाँ वे गुरु नहीं बन सकते । गुरुत्व एक मानसिकता होती है । शिक्षक अपने आपको गुरु मानता है तब वह दायित्वबोध से युक्त होता है । तब छात्र का यदि चरित्र अच्छा नहीं है, समाज यदि सुसंस्कृत नहीं है तो वह अपने आपको जिम्मेदार मानता है । समाज यदि शिक्षक को गुरु मानता है तो उसे धनवानों से और सत्तावानों से अधिक आदर देता है । ऐसा समाज शिक्षक को कभी भी दीन या दरिद्रा नहीं रहने देता । यदि समाज शिक्षक को गुरु मानकर उसका सम्मान करता है परन्तु शिक्षक अपने आपको गुरु नहीं मानता तब वह समाज को गलत रास्ते पर ले जाकर भटका देता है और उसका अकल्याण करता है । यदि शिक्षक अपने आपको गुरु मानता है परन्तु समाज उसे गुरु नहीं मानता है तो शिक्षक को अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है और अवमानना भी सहनी पड़ती है । ऐसी स्थिति में विरले ही अपना गुरूत्व बनाये रख पाते हैं, अधिकांश कर्मचारी बन जाते हैं । इस स्थिति में ज्ञान की, शिक्षक की और समाज की हानि होती है । जब समाज और शिक्षक दोनों ही शिक्षक को गुरु नहीं मानते हैं तब समाज की अधोगति को सीमा नहीं रहती । ऐसा समाज सुसंस्कृत नहीं रह पाता । वह प्रथम पशुप्रवृत्ति की ओर बढ़ता है और फिर पशु से भी गयाबीता बनकर विकृति की ओर गति करता है । कहने की आवश्यकता नहीं है कि आज हम ऐसी ही स्थिति में जी रहे हैं । इस स्थिति से उबरने के लिये हमें शिक्षा को स्वायत्त बनाने की दिशा में गम्भीर रूप से प्रयास करने होंगे । यह कार्य कोई भी व्यक्ति या संस्था अकेले नहीं कर सकते । इसके लिये अनिवार्य रूप से संगठन चाहिये । व्यक्ति या संस्था शैक्षिक कार्य कर सकते हैं । देश में अगणित व्यक्ति और संस्थायें आज भी मूल्यवान शैक्षिक कार्य कर ही रहे हैं । परंतु समाज के मानस को बदलना और शासन को प्रभावित करने का कार्य संगठित शक्ति ही कर सकती है । संगठित शक्ति भी दो प्रकार की है । एक तो शिक्षा के ही क्षेत्र में कार्यरत संगठन की शक्ति और दूसरी धर्मसत्ता की नैतिक शक्ति । वास्तव में शिक्षा धर्मसत्ता का ही प्रतिनिधित्व करती है । समाज को शिक्षित करने का कार्य धर्मसत्ता का होता है। यह धर्म की शिक्षा नहीं अपितु धर्म आधारित शिक्षा है । अत: धर्म की नैतिक शक्ति और शैक्षिक संगठनों की संगठन की शक्ति ही समाज के मानस को बदलकर और शासन को प्रभावित कर शिक्षा को स्वायत्त बना सकते हैं । आज देश में ऐसे संगठनों का अस्तित्व है । धर्मसत्ता भी है । उन्होंने इस कार्य को अपनी वरीयता सूची में लाने की आवश्यकता है ।
 
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की दिशा में गम्भीर रूप से प्रयास करने होंगे । यह कार्य कोई भी व्यक्ति या संस्था अकेले नहीं कर सकते । इसके लिये अनिवार्य रूप से संगठन चाहिये । व्यक्ति या संस्था शैक्षिक कार्य कर सकते हैं । देश में अगणित व्यक्ति और संस्थायें आज भी मूल्यवान शैक्षिक कार्य कर ही रहे हैं । परंतु समाज के मानस को बदलना और शासन को प्रभावित करने का कार्य संगठित शक्ति ही कर सकती है । संगठित शक्ति भी दो प्रकार की है । एक तो शिक्षा के ही क्षेत्र में कार्यरत संगठन की शक्ति और दूसरी धर्मसत्ता की नैतिक शक्ति । वास्तव में शिक्षा धर्मसत्ता का ही प्रतिनिधित्व करती है । समाज को शिक्षित करने का कार्य धर्मसत्ता का होता है। यह धर्म की शिक्षा नहीं अपितु धर्म आधारित शिक्षा है । अत: धर्म की नैतिक शक्ति और शैक्षिक संगठनों की संगठन की शक्ति ही समाज के मानस को बदलकर और शासन को प्रभावित कर शिक्षा को स्वायत्त बना सकते हैं । आज देश में ऐसे संगठनों का अस्तित्व है । धर्मसत्ता भी है । उन्होंने इस कार्य को अपनी वरीयता सूची में लाने की आवश्यकता है ।
      
=== स्वतन्त्र प्रयोग ===
 
=== स्वतन्त्र प्रयोग ===
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=== "अनौपचारिक" को अधिक महत्त्व ===
 
=== "अनौपचारिक" को अधिक महत्त्व ===
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२१. चरित्रनिर्माण की शिक्षा, परिवार सुदृढ़ीकरण की शिक्षा, मन को संयम में रखने की शिक्षा, शरीर को
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२१. चरित्रनिर्माण की शिक्षा, परिवार सुदृढ़ीकरण की शिक्षा, मन को संयम में रखने की शिक्षा, शरीर को स्वस्थ और बलवान बनाने की शिक्षा का परीक्षा में उत्तीर्ण होने, अच्छे अंक मिलने और अथर्जिन के अच्छे अवसर मिलने से कोई सम्बन्ध नहीं होता । फिर भी यह अनिवार्य है । अत: इन सभी बातों का शिक्षा में समावेश करना, इन बातों की परीक्षा नहीं होना, इनसे अथर्जिन नहीं होना, फिर भी इनको विकास के मुख्य लक्षण मानना व्यक्ति और समाज को सुसंस्कृत बनाने की दिशा में महत्त्वपूर्ण कदम होगा । आज इसे अनौपचारिक शिक्षा कहा जाता है। करियर बनाने की दौड़ में इसकी कोई गणना नहीं है । इसे अधिक महत्त्वपूर्ण मानकर, अधिक अर्थपूर्ण बनाकर हमारे सर्व प्रकार के संसाधनों का विनियोग इसमें करने की आवश्यकता है। सूत्र यह है कि शिक्षा का सम्बन्ध अथर्जिन से नहीं अपितु was से जोड़ने के विविध तरीके हमने अपनाने चाहिये । ऐसी शिक्षा देने में मातापिता सक्षम हों इस दृष्टि से मातापिता की शिक्षा शुरू करनी चाहिये । परिवार शिक्षा को महत्त्व प्रदान करना चाहिये । हर बालक को अच्छा पुरुष, अच्छा पति, अच्छा गृहस्थ और अच्छा पिता तथा हर बालिका को अच्छी स्त्री, अच्छी पत्नी, अच्छी गृहिणी और अच्छी माता बनना सिखाने हेतु विद्यालय होने चाहिये ।
 
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स्वस्थ और बलवान बनाने की शिक्षा का परीक्षा में उत्तीर्ण होने, अच्छे अंक मिलने और अथर्जिन के अच्छे अवसर मिलने से कोई सम्बन्ध नहीं होता । फिर भी यह अनिवार्य है । अत: इन सभी बातों का शिक्षा में समावेश करना, इन बातों की परीक्षा नहीं होना, इनसे अथर्जिन नहीं होना, फिर भी इनको विकास के मुख्य लक्षण मानना व्यक्ति और समाज को सुसंस्कृत बनाने की दिशा में महत्त्वपूर्ण कदम होगा । आज इसे अनौपचारिक शिक्षा कहा जाता है। करियर बनाने की दौड़ में इसकी कोई गणना नहीं है । इसे अधिक महत्त्वपूर्ण मानकर, अधिक अर्थपूर्ण बनाकर हमारे सर्व प्रकार के संसाधनों का विनियोग इसमें करने की आवश्यकता है। सूत्र यह है कि शिक्षा का सम्बन्ध अथर्जिन से नहीं अपितु was से जोड़ने के विविध तरीके हमने अपनाने चाहिये । ऐसी शिक्षा देने में मातापिता सक्षम हों इस दृष्टि से मातापिता की शिक्षा शुरू करनी चाहिये । परिवार शिक्षा को महत्त्व प्रदान करना चाहिये । हर बालक को अच्छा पुरुष, अच्छा पति, अच्छा गृहस्थ और अच्छा पिता तथा हर बालिका को अच्छी स्त्री, अच्छी पत्नी, अच्छी गृहिणी और अच्छी माता बनना सिखाने हेतु विद्यालय होने चाहिये ।
      
शिक्षा का सम्बन्ध ज्ञानार्जन से जोड़ना और अथर्जिन से तोड़ना है तो अथर्जिन की एक अलग, स्वतन्त्र और अच्छी योजना बनानी होगी | अर्थशास्त्र और समाजशास्त्र को इस बात का विचार करना पड़ेगा क्योंकि बिना अर्थ के ज्ञानार्जन भी सम्भव नहीं होता और केवल जीवन भी सम्भव नहीं होता ।
 
शिक्षा का सम्बन्ध ज्ञानार्जन से जोड़ना और अथर्जिन से तोड़ना है तो अथर्जिन की एक अलग, स्वतन्त्र और अच्छी योजना बनानी होगी | अर्थशास्त्र और समाजशास्त्र को इस बात का विचार करना पड़ेगा क्योंकि बिना अर्थ के ज्ञानार्जन भी सम्भव नहीं होता और केवल जीवन भी सम्भव नहीं होता ।
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. इस प्रतिमान के आधार पर विपुल मात्रा में अध्ययन और अध्यापन की सामग्री का निर्माण करना होगा ।
 
. इस प्रतिमान के आधार पर विपुल मात्रा में अध्ययन और अध्यापन की सामग्री का निर्माण करना होगा ।
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. इसका प्रयोग करने के लिये स्वतन्त्र विद्या केन्द्रों की
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. इसका प्रयोग करने के लिये स्वतन्त्र विद्या केन्द्रों की स्चना करनी होगी ।
 
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स्चना करनी होगी ।
      
. अनौपचारिक शिक्षाव्यवस्था. का. महत्त्व बढ़ाना होगा ।
 
. अनौपचारिक शिक्षाव्यवस्था. का. महत्त्व बढ़ाना होगा ।
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