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१. आज परिवर्तन की भाषा तो सर्वत्र बोली जाती है । प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा हो, चाहे विश्वविद्यालयीन, परिवर्तन होते ही रहते हैं। परिवर्तन संसार का नियम है ऐसा सूत्र भी सर्वश्र सुनाई देता है । परंतु शिक्षा में आज जो परिवर्तन अपेक्षित है वह ऐसा छोटा मोटा या केवल काल के प्रवाह में होने वाला परिवर्तन नहीं है । परिवर्तन धार्मिक चिन्तन के अनुसार होना अपेक्षित है । वर्तमान शिक्षाव्यवस्था को समग्रता में देखकर शिक्षा के सम्पूर्ण मंत्र, तंत्र और यंत्र को परिवर्तित करने की आवश्यकता है । इसे ही हम आमूल परितर्वन कहते हैं। ऐसे समग्रता में परिवर्तन किये बिना हम शिक्षा की जिन समस्याओं की बात करते हैं उनका निराकरण होना सम्भव नहीं है ।
 
१. आज परिवर्तन की भाषा तो सर्वत्र बोली जाती है । प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा हो, चाहे विश्वविद्यालयीन, परिवर्तन होते ही रहते हैं। परिवर्तन संसार का नियम है ऐसा सूत्र भी सर्वश्र सुनाई देता है । परंतु शिक्षा में आज जो परिवर्तन अपेक्षित है वह ऐसा छोटा मोटा या केवल काल के प्रवाह में होने वाला परिवर्तन नहीं है । परिवर्तन धार्मिक चिन्तन के अनुसार होना अपेक्षित है । वर्तमान शिक्षाव्यवस्था को समग्रता में देखकर शिक्षा के सम्पूर्ण मंत्र, तंत्र और यंत्र को परिवर्तित करने की आवश्यकता है । इसे ही हम आमूल परितर्वन कहते हैं। ऐसे समग्रता में परिवर्तन किये बिना हम शिक्षा की जिन समस्याओं की बात करते हैं उनका निराकरण होना सम्भव नहीं है ।
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२. हमें छोटे छोटे परिवर्तन की बात तो झट से समझ में आती है । जैसे कि हम पाठ योजना में नवाचार की बात करते हैं, पाठ्यपुस्तकों में समय समय पर परिवर्तन करते हैं, पाठ्यक्रमों में भी परिवर्तन होता रहता है, कभी हम परीक्षा की पद्धतियों में परिवर्तन करते हैं, कभी कुछ नये विषय जुड़ जाते हैं । संस्कारों की शिक्षा, मूल्यशिक्षा जैसी बातें भी अब अग्रहपूर्वक जुड़ने लगी हैं । इनमें हमारा समय, धन, बुद्धि आदि कम खर्च नहीं हो रहे हैं । हम प्रामाणिक नहीं है ऐसा भी नहीं है। फिर भी हम शिक्षा के वर्तमान स्वरूप से संतुष्ट नहीं हैं । इसका कारण यह है कि मूल बातें विचार में न लेकर हम ऊपरी परिवर्तन में ही लगे हैं । परिवर्तन के लिये शिक्षा के सभी पहलुओं का एक साथ विचार करने की आवश्यकता है ।
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२. हमें छोटे छोटे परिवर्तन की बात तो झट से समझ में आती है । जैसे कि हम पाठ योजना में नवाचार की बात करते हैं, पाठ्यपुस्तकों में समय समय पर परिवर्तन करते हैं, पाठ्यक्रमों में भी परिवर्तन होता रहता है, कभी हम परीक्षा की पद्धतियों में परिवर्तन करते हैं, कभी कुछ नये विषय जुड़ जाते हैं । संस्कारों की शिक्षा, मूल्यशिक्षा जैसी बातें भी अब अग्रहपूर्वक जुड़ने लगी हैं । इनमें हमारा समय, धन, बुद्धि आदि कम खर्च नहीं हो रहे हैं । हम प्रामाणिक नहीं है ऐसा भी नहीं है। तथापि हम शिक्षा के वर्तमान स्वरूप से संतुष्ट नहीं हैं । इसका कारण यह है कि मूल बातें विचार में न लेकर हम ऊपरी परिवर्तन में ही लगे हैं । परिवर्तन के लिये शिक्षा के सभी पहलुओं का एक साथ विचार करने की आवश्यकता है ।
    
३. परिवर्तन के लिये हमें प्रथम चिन्तन बदलने की आवश्यकता होती है, क्योंकि चिन्तन ही शेष सभी बातों का आधार है । आधाररूप होने पर भी चिन्तन केवल प्रथम चरण है । वह नींव है यह बात सत्य है, नींव पक्की होनी चाहिये यह भी सत्य है, नींव शुद्ध होनी चाहिये यह भी सत्य है परंतु केवल नींव से भवन नहीं होता यह भी उतना ही सत्य है । इसलिये चिन्तन के बाद व्यवहार की बात होना अनिवार्य है । चिन्तन के बाद, चिन्तन के साथ, चिन्तन के अनुरूप क्रियान्वयन की बात होनी चाहिये ।
 
३. परिवर्तन के लिये हमें प्रथम चिन्तन बदलने की आवश्यकता होती है, क्योंकि चिन्तन ही शेष सभी बातों का आधार है । आधाररूप होने पर भी चिन्तन केवल प्रथम चरण है । वह नींव है यह बात सत्य है, नींव पक्की होनी चाहिये यह भी सत्य है, नींव शुद्ध होनी चाहिये यह भी सत्य है परंतु केवल नींव से भवन नहीं होता यह भी उतना ही सत्य है । इसलिये चिन्तन के बाद व्यवहार की बात होना अनिवार्य है । चिन्तन के बाद, चिन्तन के साथ, चिन्तन के अनुरूप क्रियान्वयन की बात होनी चाहिये ।
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=== "अनौपचारिक" को अधिक महत्त्व ===
 
=== "अनौपचारिक" को अधिक महत्त्व ===
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२१. चरित्रनिर्माण की शिक्षा, परिवार सुदृढ़ीकरण की शिक्षा, मन को संयम में रखने की शिक्षा, शरीर को स्वस्थ और बलवान बनाने की शिक्षा का परीक्षा में उत्तीर्ण होने, अच्छे अंक मिलने और अर्थार्जन के अच्छे अवसर मिलने से कोई सम्बन्ध नहीं होता । फिर भी यह अनिवार्य है । अत: इन सभी बातों का शिक्षा में समावेश करना, इन बातों की परीक्षा नहीं होना, इनसे अर्थार्जन नहीं होना, फिर भी इनको विकास के मुख्य लक्षण मानना व्यक्ति और समाज को सुसंस्कृत बनाने की दिशा में महत्त्वपूर्ण कदम होगा । आज इसे अनौपचारिक शिक्षा कहा जाता है। करियर बनाने की दौड़ में इसकी कोई गणना नहीं है । इसे अधिक महत्त्वपूर्ण मानकर, अधिक अर्थपूर्ण बनाकर हमारे सर्व प्रकार के संसाधनों का विनियोग इसमें करने की आवश्यकता है। सूत्र यह है कि शिक्षा का सम्बन्ध अर्थार्जन से नहीं अपितु was से जोड़ने के विविध तरीके हमने अपनाने चाहिये । ऐसी शिक्षा देने में मातापिता सक्षम हों इस दृष्टि से मातापिता की शिक्षा आरम्भ करनी चाहिये । परिवार शिक्षा को महत्त्व प्रदान करना चाहिये । हर बालक को अच्छा पुरुष, अच्छा पति, अच्छा गृहस्थ और अच्छा पिता तथा हर बालिका को अच्छी स्त्री, अच्छी पत्नी, अच्छी गृहिणी और अच्छी माता बनना सिखाने हेतु विद्यालय होने चाहिये ।
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२१. चरित्रनिर्माण की शिक्षा, परिवार सुदृढ़ीकरण की शिक्षा, मन को संयम में रखने की शिक्षा, शरीर को स्वस्थ और बलवान बनाने की शिक्षा का परीक्षा में उत्तीर्ण होने, अच्छे अंक मिलने और अर्थार्जन के अच्छे अवसर मिलने से कोई सम्बन्ध नहीं होता । तथापि यह अनिवार्य है । अत: इन सभी बातों का शिक्षा में समावेश करना, इन बातों की परीक्षा नहीं होना, इनसे अर्थार्जन नहीं होना, तथापि इनको विकास के मुख्य लक्षण मानना व्यक्ति और समाज को सुसंस्कृत बनाने की दिशा में महत्त्वपूर्ण कदम होगा । आज इसे अनौपचारिक शिक्षा कहा जाता है। करियर बनाने की दौड़ में इसकी कोई गणना नहीं है । इसे अधिक महत्त्वपूर्ण मानकर, अधिक अर्थपूर्ण बनाकर हमारे सर्व प्रकार के संसाधनों का विनियोग इसमें करने की आवश्यकता है। सूत्र यह है कि शिक्षा का सम्बन्ध अर्थार्जन से नहीं अपितु was से जोड़ने के विविध तरीके हमने अपनाने चाहिये । ऐसी शिक्षा देने में मातापिता सक्षम हों इस दृष्टि से मातापिता की शिक्षा आरम्भ करनी चाहिये । परिवार शिक्षा को महत्त्व प्रदान करना चाहिये । हर बालक को अच्छा पुरुष, अच्छा पति, अच्छा गृहस्थ और अच्छा पिता तथा हर बालिका को अच्छी स्त्री, अच्छी पत्नी, अच्छी गृहिणी और अच्छी माता बनना सिखाने हेतु विद्यालय होने चाहिये ।
    
शिक्षा का सम्बन्ध ज्ञानार्जन से जोड़ना और अर्थार्जन से तोड़ना है तो अर्थार्जन की एक अलग, स्वतन्त्र और अच्छी योजना बनानी होगी | अर्थशास्त्र और समाजशास्त्र को इस बात का विचार करना पड़ेगा क्योंकि बिना अर्थ के ज्ञानार्जन भी सम्भव नहीं होता और केवल जीवन भी सम्भव नहीं होता ।
 
शिक्षा का सम्बन्ध ज्ञानार्जन से जोड़ना और अर्थार्जन से तोड़ना है तो अर्थार्जन की एक अलग, स्वतन्त्र और अच्छी योजना बनानी होगी | अर्थशास्त्र और समाजशास्त्र को इस बात का विचार करना पड़ेगा क्योंकि बिना अर्थ के ज्ञानार्जन भी सम्भव नहीं होता और केवल जीवन भी सम्भव नहीं होता ।

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