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१. आज परिवर्तन की भाषा तो सर्वत्र बोली जाती है । प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा हो, चाहे विश्वविद्यालयीन, परिवर्तन होते ही रहते हैं। परिवर्तन संसार का नियम है ऐसा सूत्र भी सर्वश्र सुनाई देता है । परंतु शिक्षा में आज जो परिवर्तन अपेक्षित है वह ऐसा छोटा मोटा या केवल काल के प्रवाह में होने वाला परिवर्तन नहीं है । परिवर्तन धार्मिक चिन्तन के अनुसार होना अपेक्षित है । वर्तमान शिक्षाव्यवस्था को समग्रता में देखकर शिक्षा के सम्पूर्ण मंत्र, तंत्र और यंत्र को परिवर्तित करने की आवश्यकता है । इसे ही हम आमूल परितर्वन कहते हैं। ऐसे समग्रता में परिवर्तन किये बिना हम शिक्षा की जिन समस्याओं की बात करते हैं उनका निराकरण होना सम्भव नहीं है ।
 
१. आज परिवर्तन की भाषा तो सर्वत्र बोली जाती है । प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा हो, चाहे विश्वविद्यालयीन, परिवर्तन होते ही रहते हैं। परिवर्तन संसार का नियम है ऐसा सूत्र भी सर्वश्र सुनाई देता है । परंतु शिक्षा में आज जो परिवर्तन अपेक्षित है वह ऐसा छोटा मोटा या केवल काल के प्रवाह में होने वाला परिवर्तन नहीं है । परिवर्तन धार्मिक चिन्तन के अनुसार होना अपेक्षित है । वर्तमान शिक्षाव्यवस्था को समग्रता में देखकर शिक्षा के सम्पूर्ण मंत्र, तंत्र और यंत्र को परिवर्तित करने की आवश्यकता है । इसे ही हम आमूल परितर्वन कहते हैं। ऐसे समग्रता में परिवर्तन किये बिना हम शिक्षा की जिन समस्याओं की बात करते हैं उनका निराकरण होना सम्भव नहीं है ।
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२. हमें छोटे छोटे परिवर्तन की बात तो झट से समझ में आती है । जैसे कि हम पाठ योजना में नवाचार की बात करते हैं, पाठ्यपुस्तकों में समय समय पर परिवर्तन करते हैं, पाठ्यक्रमों में भी परिवर्तन होता रहता है, कभी हम परीक्षा की पद्धतियों में परिवर्तन करते हैं, कभी कुछ नये विषय जुड़ जाते हैं । संस्कारों की शिक्षा, मूल्यशिक्षा जैसी बातें भी अब अग्रहपूर्वक जुड़ने लगी हैं । इनमें हमारा समय, धन, बुद्धि आदि कम खर्च नहीं हो रहे हैं । हम प्रामाणिक नहीं है ऐसा भी नहीं है। फिर भी हम शिक्षा के वर्तमान स्वरूप से संतुष्ट नहीं हैं । इसका कारण यह है कि मूल बातें विचार में न लेकर हम ऊपरी परिवर्तन में ही लगे हैं । परिवर्तन के लिये शिक्षा के सभी पहलुओं का एक साथ विचार करने की आवश्यकता है ।
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२. हमें छोटे छोटे परिवर्तन की बात तो झट से समझ में आती है । जैसे कि हम पाठ योजना में नवाचार की बात करते हैं, पाठ्यपुस्तकों में समय समय पर परिवर्तन करते हैं, पाठ्यक्रमों में भी परिवर्तन होता रहता है, कभी हम परीक्षा की पद्धतियों में परिवर्तन करते हैं, कभी कुछ नये विषय जुड़ जाते हैं । संस्कारों की शिक्षा, मूल्यशिक्षा जैसी बातें भी अब अग्रहपूर्वक जुड़ने लगी हैं । इनमें हमारा समय, धन, बुद्धि आदि कम खर्च नहीं हो रहे हैं । हम प्रामाणिक नहीं है ऐसा भी नहीं है। तथापि हम शिक्षा के वर्तमान स्वरूप से संतुष्ट नहीं हैं । इसका कारण यह है कि मूल बातें विचार में न लेकर हम ऊपरी परिवर्तन में ही लगे हैं । परिवर्तन के लिये शिक्षा के सभी पहलुओं का एक साथ विचार करने की आवश्यकता है ।
    
३. परिवर्तन के लिये हमें प्रथम चिन्तन बदलने की आवश्यकता होती है, क्योंकि चिन्तन ही शेष सभी बातों का आधार है । आधाररूप होने पर भी चिन्तन केवल प्रथम चरण है । वह नींव है यह बात सत्य है, नींव पक्की होनी चाहिये यह भी सत्य है, नींव शुद्ध होनी चाहिये यह भी सत्य है परंतु केवल नींव से भवन नहीं होता यह भी उतना ही सत्य है । इसलिये चिन्तन के बाद व्यवहार की बात होना अनिवार्य है । चिन्तन के बाद, चिन्तन के साथ, चिन्तन के अनुरूप क्रियान्वयन की बात होनी चाहिये ।
 
३. परिवर्तन के लिये हमें प्रथम चिन्तन बदलने की आवश्यकता होती है, क्योंकि चिन्तन ही शेष सभी बातों का आधार है । आधाररूप होने पर भी चिन्तन केवल प्रथम चरण है । वह नींव है यह बात सत्य है, नींव पक्की होनी चाहिये यह भी सत्य है, नींव शुद्ध होनी चाहिये यह भी सत्य है परंतु केवल नींव से भवन नहीं होता यह भी उतना ही सत्य है । इसलिये चिन्तन के बाद व्यवहार की बात होना अनिवार्य है । चिन्तन के बाद, चिन्तन के साथ, चिन्तन के अनुरूप क्रियान्वयन की बात होनी चाहिये ।
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४. हमारे सन्दर्भ और पार्श्वभूमि कैसी है? हम तात्विक रूप से और भावात्मक रूप से हमारे प्राचीन भूतकाल से जुड़े हैं । हमें उपनिषदों का तत्त्वज्ञान सही लगता है। हम आत्मतत्त्तस की और एकात्मता की बात करते हैं । हमें ऐसे मूल्य अच्छे और सही लगते हैं जिनका अधिष्ठान आध्यात्मिक है । हम त्याग, समर्पण, सेवा, निष्ठा आदि बातों की सृष्टि में विहार करना पसंद करते हैं । हमारे राष्ट्रीय आदर्श भी त्यागी, बलिदानी, सेवाभावी, लोककल्याण हेतु जीवन देने वाले व्यक्तियों के हैं । जहाँ जहाँ हमें इन आदर्शों के अनुरूप उदाहरण देखने को मिलते हैं, हम खुश होते हैं। परन्तु
 
४. हमारे सन्दर्भ और पार्श्वभूमि कैसी है? हम तात्विक रूप से और भावात्मक रूप से हमारे प्राचीन भूतकाल से जुड़े हैं । हमें उपनिषदों का तत्त्वज्ञान सही लगता है। हम आत्मतत्त्तस की और एकात्मता की बात करते हैं । हमें ऐसे मूल्य अच्छे और सही लगते हैं जिनका अधिष्ठान आध्यात्मिक है । हम त्याग, समर्पण, सेवा, निष्ठा आदि बातों की सृष्टि में विहार करना पसंद करते हैं । हमारे राष्ट्रीय आदर्श भी त्यागी, बलिदानी, सेवाभावी, लोककल्याण हेतु जीवन देने वाले व्यक्तियों के हैं । जहाँ जहाँ हमें इन आदर्शों के अनुरूप उदाहरण देखने को मिलते हैं, हम खुश होते हैं। परन्तु
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५. हमारा आसनन भूतकाल ध्यान में लेने की अधिक आवश्यकता है । विगत दो सौ वर्षों की घटनायें हमारी वर्तमान समस्याओं की जड हैं । ये दो सौ वर्ष हमारे चिन्तन और रचना के परिवर्तन का काल है । व्यवहार के जितने भी पक्ष होते हैं उन सभी में परिवर्तन हुआ है । इन दो सौ वर्षा में एक पूर्ण रूप से अधार्मिक प्रतिमान को हमारे ऊपर लादने का बलवान प्रयास हुआ है और शिक्षा की सहायता से यह प्रयास अप्रत्याशित रूप से यशस्वी भी हुआ है ।
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५. हमारा आसनन भूतकाल ध्यान में लेने की अधिक आवश्यकता है । विगत दो सौ वर्षों की घटनायें हमारी वर्तमान समस्याओं की जड़ हैं । ये दो सौ वर्ष हमारे चिन्तन और रचना के परिवर्तन का काल है । व्यवहार के जितने भी पक्ष होते हैं उन सभी में परिवर्तन हुआ है । इन दो सौ वर्षा में एक पूर्ण रूप से अधार्मिक प्रतिमान को हमारे ऊपर लादने का बलवान प्रयास हुआ है और शिक्षा की सहायता से यह प्रयास अप्रत्याशित रूप से यशस्वी भी हुआ है ।
    
६. यह केवल शिक्षा क्षेत्र का परिवर्तन नहीं है, यह सम्पूर्ण जीवन रचना का परिवर्तन है । ब्रिटिशों के ट्वारा लादे गये इस अधार्मिक ढाँचे का प्रभाव इस बात में है कि स्वतन्त्रता के बाद भी हमने उस ढाँचे को आधुनिक समझ कर, अनिवार्य समझ कर अपना लिया है । इसलिये परिवर्तन का विचार करते समय हमें वर्तमान वैचारिक, मानसिक और व्यावहारिक सन्दर्भ को ध्यान में लेना पड़ेगा । इन सभी संदर्भों को लेकर हम शिक्षा क्षेत्र का विचार करेंगे तो हमें कुछ निराकरण प्राप्त होगा ।
 
६. यह केवल शिक्षा क्षेत्र का परिवर्तन नहीं है, यह सम्पूर्ण जीवन रचना का परिवर्तन है । ब्रिटिशों के ट्वारा लादे गये इस अधार्मिक ढाँचे का प्रभाव इस बात में है कि स्वतन्त्रता के बाद भी हमने उस ढाँचे को आधुनिक समझ कर, अनिवार्य समझ कर अपना लिया है । इसलिये परिवर्तन का विचार करते समय हमें वर्तमान वैचारिक, मानसिक और व्यावहारिक सन्दर्भ को ध्यान में लेना पड़ेगा । इन सभी संदर्भों को लेकर हम शिक्षा क्षेत्र का विचार करेंगे तो हमें कुछ निराकरण प्राप्त होगा ।
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११. दूसरी बात यह हुई कि शिक्षक स्वयं गुरु न होकर लघु बन गया, कर्मचारी बन गया और राष्ट्रनिर्माण के अपने दायित्व से विमुख हो गया । शिक्षा में सारे के सारे गैरशैक्षिक नियंत्रण बढ़ गये । सारे तन्त्र में एक प्रकार की व्यक्तिनिरपेक्षता फैल गयी जहाँ किसीकी भी जिम्मेदारी निश्चित करना कठिन हो गया । तन्त्र का चेहरा निर्जीव बन गया जहाँ प्रेम, आनन्द, रस, कृतकृत्यता जैसे तत्त्वों का अभाव हो गया । हम आर्य चाणक्य का स्मरण कर कहते अवश्य हैं कि शिक्षक राष्ट्र निर्माता होता है, परंतु वर्तमान स्थिति में न तो शिक्षा राष्ट्रनिर्माणकारी हो सकती है, न शिक्षक राष्ट्रनिर्माता बन सकता है । अत: परिवर्तन का यह एक महत्त्वपूर्ण क्षेत्र है जिसकी हमें चिन्ता करनी होगी । शिक्षा में स्वायत्तता का सम्पूर्ण विचार एक और शासन का नियन्त्रण कैसे दूर हो इस दिशा में तथा दूसरी ओर स्वायत्तता का विचार और प्रयास स्वयं शिक्षकों की ओर से आरम्भ होने की दिशा में होना चाहिये ।
 
११. दूसरी बात यह हुई कि शिक्षक स्वयं गुरु न होकर लघु बन गया, कर्मचारी बन गया और राष्ट्रनिर्माण के अपने दायित्व से विमुख हो गया । शिक्षा में सारे के सारे गैरशैक्षिक नियंत्रण बढ़ गये । सारे तन्त्र में एक प्रकार की व्यक्तिनिरपेक्षता फैल गयी जहाँ किसीकी भी जिम्मेदारी निश्चित करना कठिन हो गया । तन्त्र का चेहरा निर्जीव बन गया जहाँ प्रेम, आनन्द, रस, कृतकृत्यता जैसे तत्त्वों का अभाव हो गया । हम आर्य चाणक्य का स्मरण कर कहते अवश्य हैं कि शिक्षक राष्ट्र निर्माता होता है, परंतु वर्तमान स्थिति में न तो शिक्षा राष्ट्रनिर्माणकारी हो सकती है, न शिक्षक राष्ट्रनिर्माता बन सकता है । अत: परिवर्तन का यह एक महत्त्वपूर्ण क्षेत्र है जिसकी हमें चिन्ता करनी होगी । शिक्षा में स्वायत्तता का सम्पूर्ण विचार एक और शासन का नियन्त्रण कैसे दूर हो इस दिशा में तथा दूसरी ओर स्वायत्तता का विचार और प्रयास स्वयं शिक्षकों की ओर से आरम्भ होने की दिशा में होना चाहिये ।
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१२. शिक्षा को हमने अप्रत्याशित रूप से संस्थागत बना दिया है। संस्था को फिर आर्थिक दृष्टि से और प्रशासनिक दृष्टि से शासनमान्य होना ही पड़ता है । कहीं न कहीं, किसी न किसी रूप में पंजीकृत हुए बिना संस्था चल नहीं सकती । पंजीकृत होते ही उसमें वस्तुनिष्ठता आ जाती है । वस्तुनिष्ठता यह शब्द हमें अच्छा लगता है क्योंकि उसका अर्थ हम पक्षपातरहितता करते हैं। परंतु व्यवहार में वस्तुनिष्ठता यान्त्रिकता बन जाती है । वस्तुनिष्ठता, मूल्यांकन, प्रमाणपत्र, पदवी आदिका महत्त्व इतना बढ़ जाता है कि अब विद्यालय नामक संस्था से बाहर, बिना परीक्षा उत्तीर्ण किये, बिना प्रमाणपत्र प्राप्त किये कोई शिक्षा होती है यह बात ही हम भूल गये हैं । इसका दुष्परिणाम यह हुआ है कि अब प्रमाणपत्र भी अथार्जिन का साधन है, ज्ञानवान होने का प्रमाण नहीं । शिक्षा अपने स्वभाव से ही इतनी अधिक संस्थागत नहीं हो सकती । वह तो जन्मपूर्व से ही आरम्भ होती है, घर में, आँगन में, खेल के मैदानों में, मन्दिर में, बाजारों में अर्थात्‌ सर्वत्र होती है। वह जीवन के क्रम के साथ जुड़ी हुई रहती है, जीवन के हर पहलू में अनुस्यूत रहती है । संस्थागत स्वरूप तो उसके पूर्ण स्वरूप का एक छोटा सा हिस्सा होता है, वह भी हमेशा अनिवार्य नहीं होता । वर्तमान में हमने शिक्षा के केवल संस्थागत स्वरूप को मान्यता देकर अपने आपको संकट में डाल दिया है । अतः परिवर्तन का हमारा दूसरा प्रयास शिक्षा को इतने अधिक संस्थाकरण से मुक्त करने की दिशा में होना चाहिए ।
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१२. शिक्षा को हमने अप्रत्याशित रूप से संस्थागत बना दिया है। संस्था को फिर आर्थिक दृष्टि से और प्रशासनिक दृष्टि से शासनमान्य होना ही पड़ता है । कहीं न कहीं, किसी न किसी रूप में पंजीकृत हुए बिना संस्था चल नहीं सकती । पंजीकृत होते ही उसमें वस्तुनिष्ठता आ जाती है । वस्तुनिष्ठता यह शब्द हमें अच्छा लगता है क्योंकि उसका अर्थ हम पक्षपातरहितता करते हैं। परंतु व्यवहार में वस्तुनिष्ठता यान्त्रिकता बन जाती है । वस्तुनिष्ठता, मूल्यांकन, प्रमाणपत्र, पदवी आदिका महत्त्व इतना बढ़ जाता है कि अब विद्यालय नामक संस्था से बाहर, बिना परीक्षा उत्तीर्ण किये, बिना प्रमाणपत्र प्राप्त किये कोई शिक्षा होती है यह बात ही हम भूल गये हैं । इसका दुष्परिणाम यह हुआ है कि अब प्रमाणपत्र भी अथार्जिन का साधन है, ज्ञानवान होने का प्रमाण नहीं । शिक्षा अपने स्वभाव से ही इतनी अधिक संस्थागत नहीं हो सकती । वह तो जन्मपूर्व से ही आरम्भ होती है, घर में, आँगन में, खेल के मैदानों में, मन्दिर में, बाजारों में अर्थात्‌ सर्वत्र होती है। वह जीवन के क्रम के साथ जुड़ी हुई रहती है, जीवन के हर पहलू में अनुस्यूत रहती है । संस्थागत स्वरूप तो उसके पूर्ण स्वरूप का एक छोटा सा हिस्सा होता है, वह भी सदा अनिवार्य नहीं होता । वर्तमान में हमने शिक्षा के केवल संस्थागत स्वरूप को मान्यता देकर अपने आपको संकट में डाल दिया है । अतः परिवर्तन का हमारा दूसरा प्रयास शिक्षा को इतने अधिक संस्थाकरण से मुक्त करने की दिशा में होना चाहिए ।
    
१३. आधुनिकता और वैश्विकता की संकल्पनाओं ने हमें गहरे संकट में डाल दिया है । इन दोनों संज्ञाओं के सही अर्थ को छोड़कर हमने उनका अर्थ पाश्चात्य ऐसा ही कर दिया है । “आधुनिक शब्द संस्कृत शब्द “अधुना' से बना है । अधुना' का अर्थ है 'अब' या “अभी' अर्थात्‌ “वर्तमान' । शाश्वत सिद्धान्तों का वर्तमान स्वरूप कैसा होता है इसका चिन्तन भारत में प्राचीन काल से, अर्थात्‌ जबसे चिन्तन आरम्भ हुआ तबसे होता रहा है । इसी प्रक्रिया में हमारे स्मृति साहित्य की रचना हुई है। इसे हम युगानुकूल चिन्तन कहते हैं। युगानुकूल का ही. अर्थ आधुनिकता है । आधुनिकता धार्मिक भी हो सकती है और पाश्चात्य भी । इसलिये परिवर्तन का विचार करते समय हमें पाश्चात्य ही आधुनिक है इस धारणा से मुक्त होना होगा । इस धारणा से मुक्त होकर ही हम पाश्चात्यीकरण से मुक्त हो पायेंगे । इसी प्रकार हमें इस बात में भी स्पष्ट होना होगा कि धार्मिकता और वैश्विकता में कोई अन्तर नहीं है । भारत ने
 
१३. आधुनिकता और वैश्विकता की संकल्पनाओं ने हमें गहरे संकट में डाल दिया है । इन दोनों संज्ञाओं के सही अर्थ को छोड़कर हमने उनका अर्थ पाश्चात्य ऐसा ही कर दिया है । “आधुनिक शब्द संस्कृत शब्द “अधुना' से बना है । अधुना' का अर्थ है 'अब' या “अभी' अर्थात्‌ “वर्तमान' । शाश्वत सिद्धान्तों का वर्तमान स्वरूप कैसा होता है इसका चिन्तन भारत में प्राचीन काल से, अर्थात्‌ जबसे चिन्तन आरम्भ हुआ तबसे होता रहा है । इसी प्रक्रिया में हमारे स्मृति साहित्य की रचना हुई है। इसे हम युगानुकूल चिन्तन कहते हैं। युगानुकूल का ही. अर्थ आधुनिकता है । आधुनिकता धार्मिक भी हो सकती है और पाश्चात्य भी । इसलिये परिवर्तन का विचार करते समय हमें पाश्चात्य ही आधुनिक है इस धारणा से मुक्त होना होगा । इस धारणा से मुक्त होकर ही हम पाश्चात्यीकरण से मुक्त हो पायेंगे । इसी प्रकार हमें इस बात में भी स्पष्ट होना होगा कि धार्मिकता और वैश्विकता में कोई अन्तर नहीं है । भारत ने
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१४. हमेशा वैश्विक संदर्भ में ही विचार और व्यवहार किया है । भारत की आकांक्षा “सर्वे भवन्तु सुखिन:' रही है । भारत हमेशा मानव धर्म के सन्दर्भ में ही विचार करता है । अपने ध्येय को भी भारत “कृण्वन्तो विश्वमार्यमू' कहकर ही प्रस्तुत करता है । इसलिये भारत के लिए वैश्विकता नयी बात नहीं है । वैश्विकता का सम्बन्ध केवल पाश्चात्य के साथ नहीं है ।
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१४. सदा वैश्विक संदर्भ में ही विचार और व्यवहार किया है । भारत की आकांक्षा “सर्वे भवन्तु सुखिन:' रही है । भारत सदा मानव धर्म के सन्दर्भ में ही विचार करता है । अपने ध्येय को भी भारत “कृण्वन्तो विश्वमार्यमू' कहकर ही प्रस्तुत करता है । इसलिये भारत के लिए वैश्विकता नयी बात नहीं है । वैश्विकता का सम्बन्ध केवल पाश्चात्य के साथ नहीं है ।
    
१५. नये सिरे से परिवर्तन का विचार करते समय हमें धार्मिक अध्यात्म विचार को ध्यान में लेना पड़ेगा । आज हमारा सारा चिन्तन बुद्धिनिष्ठ हो गया है। बुद्धिनिष्ठ चिन्तन के आधार पर ही देश की सारी व्यवस्थायें बनी हैं और व्यवहार की रचना हुई है । परन्तु धार्मिक चिन्तन बुद्धिनिष्ठ न होकर आत्मनिष्ठ होता है । श्रीमटू भगवदू गीता में श्रीमगवान कहते हैं,
 
१५. नये सिरे से परिवर्तन का विचार करते समय हमें धार्मिक अध्यात्म विचार को ध्यान में लेना पड़ेगा । आज हमारा सारा चिन्तन बुद्धिनिष्ठ हो गया है। बुद्धिनिष्ठ चिन्तन के आधार पर ही देश की सारी व्यवस्थायें बनी हैं और व्यवहार की रचना हुई है । परन्तु धार्मिक चिन्तन बुद्धिनिष्ठ न होकर आत्मनिष्ठ होता है । श्रीमटू भगवदू गीता में श्रीमगवान कहते हैं,
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=== ज्ञानात्मक पक्ष ===
 
=== ज्ञानात्मक पक्ष ===
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१७. हमें सर्व प्रथम परिवर्तन का ज्ञानात्मक पक्ष ध्यान में लेना चाहिये । विद्यालयों, महाविद्यालयों में जो पढ़ाया जाता है उसका स्वरूप धार्मिक नहीं है। सामाजिक शास्त्रों के सिद्धान्त, प्राकृतिक विज्ञानों की दृष्टि व्यक्तिगत विकास की संकल्पना, जीवनरचना और सृष्टिचना की समझ आदि सब जडवादी, अनात्मवादी जीवनदृष्टि के आधार पर विकसित किये गये हैं । हम यह सब विगत आठ दस पीढ़ियों से पढ़ते आये हैं । यह बहुत स्वाभाविक है कि छोटी आयु से जो पढ़ाया जाता है उसीके अनुसार मानस बनता है, विचार और व्यवहार बनते हैं । ऐसा मानस फिर व्यक्तिगत और सामुदायिक जीवन की व्यवस्थायें बनाता है । देश उसी आधार पर चलता है । देश उसी आधार पर चलने लगता है । धीरे धीरे देश की जीवन रचना में परिवर्तन होने लगता है। यह परिवर्तन जब सम्पूर्ण हो जाता है तब देश का चरित्र पूर्ण रूप से बदल जाता है । जब तक यह परिवर्तन पूर्ण नहीं होता तब तक देश की अपनी मूल जीवन रचना और शिक्षा के माध्यम से बदलने वाली नयी रचना में संघर्ष होता रहता है । देश की मूल रचना अपने आपको बचाने के लिये प्रयास करती रहती है । वह सरलता से अपने आपको हारने नहीं देती । हमारे देश की जितनी भी अधिकृत ताकतें हैं वे सब विपरीत दिशा की शिक्षा के पक्ष में हैं । परंतु हमारे पूर्वजों की महान तपश्चर्या और अपनी जीवनरचना और जीवनदृष्टि की आन्तरिक ताकत के बल के कारण हम इतने शतकों में भी नष्ट नहीं हुए हैं। हम क्षीणप्राण अवश्य हुए हैं परंतु गतप्राण नहीं हुए हैं । हम गतप्राण न हों इसलिये हमें अब अपना ध्यान कक्षाकक्ष में पढ़ाये जानेवाले विषयों के विषयवस्तु की ओर केन्द्रित करना पड़ेगा । हमें विषयों की संकल्पनायें बदलनी होंगी, आधारभूत परिभाषायें बदलनी होंगी, पाठ्यक्रम बदलने होंगे, पठनपाठन की पद्धति बदलनी होगी । इसके लिये हमें अपने शोध, अनुसंधान और अध्ययन की पद्धतियों को भी बदलना होगा । यह एक महान शैक्षिक प्रयास होगा । यह सबसे पहले करना होगा क्योंकि इसे किये बिना बाकी सारे परिवर्तन पाश्चात्य ढाँचे को ही मजबूत बनानेवाले सिद्ध होंगे। आज भी लगभग वही हो रहा है । प्रयास तो हम बहुत कर रहे हैं परन्तु स्वना नहीं बदल रही है ।
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१७. हमें सर्व प्रथम परिवर्तन का ज्ञानात्मक पक्ष ध्यान में लेना चाहिये । विद्यालयों, महाविद्यालयों में जो पढ़ाया जाता है उसका स्वरूप धार्मिक नहीं है। सामाजिक शास्त्रों के सिद्धान्त, प्राकृतिक विज्ञानों की दृष्टि व्यक्तिगत विकास की संकल्पना, जीवनरचना और सृष्टिचना की समझ आदि सब जड़वादी, अनात्मवादी जीवनदृष्टि के आधार पर विकसित किये गये हैं । हम यह सब विगत आठ दस पीढ़ियों से पढ़ते आये हैं । यह बहुत स्वाभाविक है कि छोटी आयु से जो पढ़ाया जाता है उसीके अनुसार मानस बनता है, विचार और व्यवहार बनते हैं । ऐसा मानस फिर व्यक्तिगत और सामुदायिक जीवन की व्यवस्थायें बनाता है । देश उसी आधार पर चलता है । देश उसी आधार पर चलने लगता है । धीरे धीरे देश की जीवन रचना में परिवर्तन होने लगता है। यह परिवर्तन जब सम्पूर्ण हो जाता है तब देश का चरित्र पूर्ण रूप से बदल जाता है । जब तक यह परिवर्तन पूर्ण नहीं होता तब तक देश की अपनी मूल जीवन रचना और शिक्षा के माध्यम से बदलने वाली नयी रचना में संघर्ष होता रहता है । देश की मूल रचना अपने आपको बचाने के लिये प्रयास करती रहती है । वह सरलता से अपने आपको हारने नहीं देती । हमारे देश की जितनी भी अधिकृत ताकतें हैं वे सब विपरीत दिशा की शिक्षा के पक्ष में हैं । परंतु हमारे पूर्वजों की महान तपश्चर्या और अपनी जीवनरचना और जीवनदृष्टि की आन्तरिक ताकत के बल के कारण हम इतने शतकों में भी नष्ट नहीं हुए हैं। हम क्षीणप्राण अवश्य हुए हैं परंतु गतप्राण नहीं हुए हैं । हम गतप्राण न हों इसलिये हमें अब अपना ध्यान कक्षाकक्ष में पढ़ाये जानेवाले विषयों के विषयवस्तु की ओर केन्द्रित करना पड़ेगा । हमें विषयों की संकल्पनायें बदलनी होंगी, आधारभूत परिभाषायें बदलनी होंगी, पाठ्यक्रम बदलने होंगे, पठनपाठन की पद्धति बदलनी होगी । इसके लिये हमें अपने शोध, अनुसंधान और अध्ययन की पद्धतियों को भी बदलना होगा । यह एक महान शैक्षिक प्रयास होगा । यह सबसे पहले करना होगा क्योंकि इसे किये बिना बाकी सारे परिवर्तन पाश्चात्य ढाँचे को ही मजबूत बनानेवाले सिद्ध होंगे। आज भी लगभग वही हो रहा है । प्रयास तो हम बहुत कर रहे हैं परन्तु स्वना नहीं बदल रही है ।
    
=== स्वतन्त्र और स्वायत्त रचना ===
 
=== स्वतन्त्र और स्वायत्त रचना ===
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=== "अनौपचारिक" को अधिक महत्त्व ===
 
=== "अनौपचारिक" को अधिक महत्त्व ===
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२१. चरित्रनिर्माण की शिक्षा, परिवार सुदृढ़ीकरण की शिक्षा, मन को संयम में रखने की शिक्षा, शरीर को स्वस्थ और बलवान बनाने की शिक्षा का परीक्षा में उत्तीर्ण होने, अच्छे अंक मिलने और अर्थार्जन के अच्छे अवसर मिलने से कोई सम्बन्ध नहीं होता । फिर भी यह अनिवार्य है । अत: इन सभी बातों का शिक्षा में समावेश करना, इन बातों की परीक्षा नहीं होना, इनसे अर्थार्जन नहीं होना, फिर भी इनको विकास के मुख्य लक्षण मानना व्यक्ति और समाज को सुसंस्कृत बनाने की दिशा में महत्त्वपूर्ण कदम होगा । आज इसे अनौपचारिक शिक्षा कहा जाता है। करियर बनाने की दौड़ में इसकी कोई गणना नहीं है । इसे अधिक महत्त्वपूर्ण मानकर, अधिक अर्थपूर्ण बनाकर हमारे सर्व प्रकार के संसाधनों का विनियोग इसमें करने की आवश्यकता है। सूत्र यह है कि शिक्षा का सम्बन्ध अर्थार्जन से नहीं अपितु was से जोड़ने के विविध तरीके हमने अपनाने चाहिये । ऐसी शिक्षा देने में मातापिता सक्षम हों इस दृष्टि से मातापिता की शिक्षा आरम्भ करनी चाहिये । परिवार शिक्षा को महत्त्व प्रदान करना चाहिये । हर बालक को अच्छा पुरुष, अच्छा पति, अच्छा गृहस्थ और अच्छा पिता तथा हर बालिका को अच्छी स्त्री, अच्छी पत्नी, अच्छी गृहिणी और अच्छी माता बनना सिखाने हेतु विद्यालय होने चाहिये ।
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२१. चरित्रनिर्माण की शिक्षा, परिवार सुदृढ़ीकरण की शिक्षा, मन को संयम में रखने की शिक्षा, शरीर को स्वस्थ और बलवान बनाने की शिक्षा का परीक्षा में उत्तीर्ण होने, अच्छे अंक मिलने और अर्थार्जन के अच्छे अवसर मिलने से कोई सम्बन्ध नहीं होता । तथापि यह अनिवार्य है । अत: इन सभी बातों का शिक्षा में समावेश करना, इन बातों की परीक्षा नहीं होना, इनसे अर्थार्जन नहीं होना, तथापि इनको विकास के मुख्य लक्षण मानना व्यक्ति और समाज को सुसंस्कृत बनाने की दिशा में महत्त्वपूर्ण कदम होगा । आज इसे अनौपचारिक शिक्षा कहा जाता है। करियर बनाने की दौड़ में इसकी कोई गणना नहीं है । इसे अधिक महत्त्वपूर्ण मानकर, अधिक अर्थपूर्ण बनाकर हमारे सर्व प्रकार के संसाधनों का विनियोग इसमें करने की आवश्यकता है। सूत्र यह है कि शिक्षा का सम्बन्ध अर्थार्जन से नहीं अपितु was से जोड़ने के विविध तरीके हमने अपनाने चाहिये । ऐसी शिक्षा देने में मातापिता सक्षम हों इस दृष्टि से मातापिता की शिक्षा आरम्भ करनी चाहिये । परिवार शिक्षा को महत्त्व प्रदान करना चाहिये । हर बालक को अच्छा पुरुष, अच्छा पति, अच्छा गृहस्थ और अच्छा पिता तथा हर बालिका को अच्छी स्त्री, अच्छी पत्नी, अच्छी गृहिणी और अच्छी माता बनना सिखाने हेतु विद्यालय होने चाहिये ।
    
शिक्षा का सम्बन्ध ज्ञानार्जन से जोड़ना और अर्थार्जन से तोड़ना है तो अर्थार्जन की एक अलग, स्वतन्त्र और अच्छी योजना बनानी होगी | अर्थशास्त्र और समाजशास्त्र को इस बात का विचार करना पड़ेगा क्योंकि बिना अर्थ के ज्ञानार्जन भी सम्भव नहीं होता और केवल जीवन भी सम्भव नहीं होता ।
 
शिक्षा का सम्बन्ध ज्ञानार्जन से जोड़ना और अर्थार्जन से तोड़ना है तो अर्थार्जन की एक अलग, स्वतन्त्र और अच्छी योजना बनानी होगी | अर्थशास्त्र और समाजशास्त्र को इस बात का विचार करना पड़ेगा क्योंकि बिना अर्थ के ज्ञानार्जन भी सम्भव नहीं होता और केवल जीवन भी सम्भव नहीं होता ।

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