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हुआ । प्रश्न यह है कि दर्शन का यह विषय भाषा और साहित्य विभाग में क्यों है ? केवल संस्कृत में लिखा गया है इसलिये । केवल पन्‍्द्रह सूत्र क्यों हैं ? एक वर्ष में इतने ही पढ़े जा सकते हैं इसलिये । इन्हें पढने से कया होगा ? इसका उचित उत्तर देश के हजारों छात्रों को नहीं मिलता है क्योंकि देश के सैकड़ो अध्यापकों और पाठ्यक्रम निर्धारित करनेवालों के पास भी नहीं है । इस प्रकार अनिश्चित उद्देश्य और आलम्बनरहित अध्ययन की पद्धति हमें बदलनी होगी ।
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हुआ । प्रश्न यह है कि दर्शन का यह विषय भाषा और साहित्य विभाग में क्यों है ? केवल संस्कृत में लिखा गया है इसलिये । केवल पन्‍्द्रह सूत्र क्यों हैं ? एक वर्ष में इतने ही पढ़े जा सकते हैं इसलिये । इन्हें पढने से क्या होगा ? इसका उचित उत्तर देश के हजारों छात्रों को नहीं मिलता है क्योंकि देश के सैकड़ो अध्यापकों और पाठ्यक्रम निर्धारित करनेवालों के पास भी नहीं है । इस प्रकार अनिश्चित उद्देश्य और आलम्बनरहित अध्ययन की पद्धति हमें बदलनी होगी ।
    
१४. देश में अनेक संन्यासी सम्प्रदाय, मठ, आश्रम आदि चलते हैं । संन्यासियों के लिये, धर्माचार्यों के लिये उपनिषदों का, दर्शन ग्रन्थों का या वेदों का अध्ययन करना अनिवार्य होता है । वर्षों तक ऐसा अध्ययन यहाँ होता भी है । परन्तु यह या तो ज्ञान बढ़ाने के लिये अथवा मोक्ष प्राप्त करने के लिये होता है । समाज की जीवनशैली बदलना इनके लिये बहुत कठिन होता है । कदाचित यह उद्देश्य भी नहीं होता । हमें इस पद्धति में भी परिवर्तन करना होगा ।
 
१४. देश में अनेक संन्यासी सम्प्रदाय, मठ, आश्रम आदि चलते हैं । संन्यासियों के लिये, धर्माचार्यों के लिये उपनिषदों का, दर्शन ग्रन्थों का या वेदों का अध्ययन करना अनिवार्य होता है । वर्षों तक ऐसा अध्ययन यहाँ होता भी है । परन्तु यह या तो ज्ञान बढ़ाने के लिये अथवा मोक्ष प्राप्त करने के लिये होता है । समाज की जीवनशैली बदलना इनके लिये बहुत कठिन होता है । कदाचित यह उद्देश्य भी नहीं होता । हमें इस पद्धति में भी परिवर्तन करना होगा ।
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२३. अध्ययन और अनुसन्धान के समस्त ज्ञानव्यापार के लिये हमें प्रमाणव्यवस्था की भी आवश्यकता होगी । हमारे लिये यह मानसिक साहस का प्रश्न है, बौद्धिक साहस का नहीं । हम वेद और उपनिषदों को प्रमाण मान सकते हैं कि नहीं इसका निश्चय पहले करना होगा । भगवदूगीता प्रमाण है कि नहीं इसका निश्चय प्रथम करना होगा । जीवन के किस क्षेत्र में कौन सा ग्रन्थ हमारे लिये प्रमाण है इसका भी निश्चय करना होगा । जीवनदृष्टि किस ग्रन्थ में किस रूप में निरूपित हुई है और भिन्न भिन्न रूपों और प्रक्रियाओं में किस प्रकार एक ही है इसका निश्चय करना होगा और उस तत्त्व को व्यवहार में रूपान्तरित करते समय प्रक्रिया शुद्ध रही है कि नहीं इसका भी विचार करते रहना होगा। यह निश्चिति नहीं होती तब तक हमारा अध्ययन दुलमुल ही चलता रहेगा । हम विश्वास के साथ कुछ बोल नहीं पायेंगे ।
 
२३. अध्ययन और अनुसन्धान के समस्त ज्ञानव्यापार के लिये हमें प्रमाणव्यवस्था की भी आवश्यकता होगी । हमारे लिये यह मानसिक साहस का प्रश्न है, बौद्धिक साहस का नहीं । हम वेद और उपनिषदों को प्रमाण मान सकते हैं कि नहीं इसका निश्चय पहले करना होगा । भगवदूगीता प्रमाण है कि नहीं इसका निश्चय प्रथम करना होगा । जीवन के किस क्षेत्र में कौन सा ग्रन्थ हमारे लिये प्रमाण है इसका भी निश्चय करना होगा । जीवनदृष्टि किस ग्रन्थ में किस रूप में निरूपित हुई है और भिन्न भिन्न रूपों और प्रक्रियाओं में किस प्रकार एक ही है इसका निश्चय करना होगा और उस तत्त्व को व्यवहार में रूपान्तरित करते समय प्रक्रिया शुद्ध रही है कि नहीं इसका भी विचार करते रहना होगा। यह निश्चिति नहीं होती तब तक हमारा अध्ययन दुलमुल ही चलता रहेगा । हम विश्वास के साथ कुछ बोल नहीं पायेंगे ।
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२४. यदि हम वेद, उपनिषद्‌ आदि को प्रमाण मानते हैं तो उसका कारण क्या है ? क्या वह हमारे पूर्वजों ने रचा है इसलिये ? क्या उसकी रचना भारत में हुई है इसलिये ? क्या वह प्राचीन है, प्राचीनतम है इसलिये ? क्‍या हम पश्चिम का कुछ भी नहीं चाहते हैं इसलिये ? कया हम दुराग्रही और स्वमत आग्रही हैं इसलिये ? क्‍या हम पुराणपंथी हैं इसलिये ? क्या उनकी भाषा संस्कृत है इसलिये ?
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२४. यदि हम वेद, उपनिषद्‌ आदि को प्रमाण मानते हैं तो उसका कारण क्या है ? क्या वह हमारे पूर्वजों ने रचा है इसलिये ? क्या उसकी रचना भारत में हुई है इसलिये ? क्या वह प्राचीन है, प्राचीनतम है इसलिये ? क्‍या हम पश्चिम का कुछ भी नहीं चाहते हैं इसलिये ? क्या हम दुराग्रही और स्वमत आग्रही हैं इसलिये ? क्‍या हम पुराणपंथी हैं इसलिये ? क्या उनकी भाषा संस्कृत है इसलिये ?
    
२५. नहीं । ज्ञान वैश्विक होता है । ज्ञान के विश्व में कोई अपना पराया नहीं होता । स्वमत आग्रह तत्त्वचिन्तन में नहीं चलता । दुराग्रह तो बिल्कुल नहीं चलता । विवेक ही इसका अधिष्ठान है । निष्पक्षपाती होना ही अपेक्षित है । जहाँ भी जो कुछ भी सत्य है उसका स्वीकार करना ही ज्ञानविश्व का धर्म है । जो शाश्वत है उसमें प्राचीन और अर्वाचीन का भेद नहीं होता । वह चिरपुरातन और नित्यनूतन होता है । अतः जो सत्य है, शाश्वत है, वैश्विक है उसका ही प्रमाण के रूप में स्वीकार करना चाहिये । इस सिद्धान्त का स्वीकार तो सबको करना ही होगा । जो इसका स्वीकार नहीं करेगा वह ज्ञानविश्व से निष्कासित होगा ।
 
२५. नहीं । ज्ञान वैश्विक होता है । ज्ञान के विश्व में कोई अपना पराया नहीं होता । स्वमत आग्रह तत्त्वचिन्तन में नहीं चलता । दुराग्रह तो बिल्कुल नहीं चलता । विवेक ही इसका अधिष्ठान है । निष्पक्षपाती होना ही अपेक्षित है । जहाँ भी जो कुछ भी सत्य है उसका स्वीकार करना ही ज्ञानविश्व का धर्म है । जो शाश्वत है उसमें प्राचीन और अर्वाचीन का भेद नहीं होता । वह चिरपुरातन और नित्यनूतन होता है । अतः जो सत्य है, शाश्वत है, वैश्विक है उसका ही प्रमाण के रूप में स्वीकार करना चाहिये । इस सिद्धान्त का स्वीकार तो सबको करना ही होगा । जो इसका स्वीकार नहीं करेगा वह ज्ञानविश्व से निष्कासित होगा ।

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