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| | == वास्तु शास्त्र एवं कला॥ Vaastu Shastra and Kala == | | == वास्तु शास्त्र एवं कला॥ Vaastu Shastra and Kala == |
| − | शुक्राचार्य जी ने शास्त्र और कला पर विस्तार से प्रकाश डाला है। उनके अनुसार वाणी द्वारा जो व्यक्त होती है वह विद्या है और मूक भी जिसे व्यक्त कर सकता है वह कला है। संस्कृत साहित्य में ६४ आभ्यन्तर और ६४ बाह्य कलाएं बतायी गयी हैं।<ref>शोध गंगा - ऋचा पाण्डेय, [https://shodhganga.inflibnet.ac.in/handle/10603/588927 वैदिक वास्तु एवं सैंधव वास्तुकला एक अध्ययन], सन २००७, शोध केन्द्र - लखनऊ विश्वविद्यालय, लखनऊ (पृ० १४)।</ref> | + | शुक्राचार्य जी ने शास्त्र और कला पर विस्तार से प्रकाश डाला है। उनके अनुसार वाणी द्वारा जो व्यक्त होती है वह विद्या है और मूक भी जिसे व्यक्त कर सकता है वह कला है। संस्कृत साहित्य में ६४ आभ्यन्तर और ६४ बाह्य कलाएं बतायी गयी हैं।<ref>शोध गंगा - ऋचा पाण्डेय, [https://shodhganga.inflibnet.ac.in/handle/10603/588927 वैदिक वास्तु एवं सैंधव वास्तुकला एक अध्ययन], सन २००७, शोध केन्द्र - लखनऊ विश्वविद्यालय, लखनऊ (पृ० १४)।</ref> पुराणों और शास्त्रों जैसे - अर्थशास्त्र और शुक्रनीति में भवनों , महलों, सेतुओं, नहरों, दुर्गों, बाँधों, जलाशयों, सड़कों, उद्यानों के निर्माण की कला या विज्ञान का उल्लेख किया गया है और इसको ही वास्तुविद्या या वास्तुशास्त्र कहा गया है।<ref>डॉ० निहारिका कुमार, [https://www.sieallahabad.org/hrt-admin/book/book_file/9aebed762a60ebedd4fa3ed8f2efb1ac.pdf वास्तु पुरुष का पौराणिक स्वरूप एवं उसका महत्व], सहायक उप शिक्षा निदेशक राज्य शिक्षा संस्थान, प्रयागराज (पृ० ५५)।</ref> |
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| | ==वास्तुशास्त्र का स्वरूप॥ Vastushastra ka Svarupa== | | ==वास्तुशास्त्र का स्वरूप॥ Vastushastra ka Svarupa== |
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| | यत्रा च येन गृहीतं विबुधेनाधिष्ठितः स तत्रैव। तदमरमयं विधता वास्तुनरं कल्पयामास॥ (बृहत्संहिता)</blockquote>अर्थात पूर्वकाल में कोई अद्भुत अज्ञात स्वरूप व नाम का एक प्राणी प्रकट हुआ, उसका विशाल(विकराल) शरीर भूमिसे आकाश तक व्याप्त था, उसे देवताओं ने देखकर सहसा पकड नीचे मुख करके उसके शरीर पर यथास्थान अपना निवास बना लिया(जिस देव ने उसके शरीर के जिस भाग को पकडा, वे उसी स्थान पर व्यवस्थित हो गये) उस अज्ञात प्राणी को ब्रह्मा जी ने देवमय वास्तु-पुरुष के नाम से उद्घोषित किया।<ref>शोध कर्ता - रितु चौधरी, [https://shodhganga.inflibnet.ac.in/handle/10603/139768 मयमतम् में वास्तु विज्ञान], अध्याय-०३, सन २०१४, बनस्थली यूनिवर्सिटी (पृ० १३२)।</ref> | | यत्रा च येन गृहीतं विबुधेनाधिष्ठितः स तत्रैव। तदमरमयं विधता वास्तुनरं कल्पयामास॥ (बृहत्संहिता)</blockquote>अर्थात पूर्वकाल में कोई अद्भुत अज्ञात स्वरूप व नाम का एक प्राणी प्रकट हुआ, उसका विशाल(विकराल) शरीर भूमिसे आकाश तक व्याप्त था, उसे देवताओं ने देखकर सहसा पकड नीचे मुख करके उसके शरीर पर यथास्थान अपना निवास बना लिया(जिस देव ने उसके शरीर के जिस भाग को पकडा, वे उसी स्थान पर व्यवस्थित हो गये) उस अज्ञात प्राणी को ब्रह्मा जी ने देवमय वास्तु-पुरुष के नाम से उद्घोषित किया।<ref>शोध कर्ता - रितु चौधरी, [https://shodhganga.inflibnet.ac.in/handle/10603/139768 मयमतम् में वास्तु विज्ञान], अध्याय-०३, सन २०१४, बनस्थली यूनिवर्सिटी (पृ० १३२)।</ref> |
| | ==वास्तु-पुरुष के उत्पत्ति की कथा॥ The story of the origin of Vastu-Purusha== | | ==वास्तु-पुरुष के उत्पत्ति की कथा॥ The story of the origin of Vastu-Purusha== |
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| | मतस्य पुराण के वास्तु-प्रादुर्भाव नामक अध्याय में वास्तु पुरुष की उत्पत्ति में वास्तु पुरुष के जन्म से सम्बंधित कथा का उल्लेख मिलता है-<blockquote>तदिदानीं प्रवक्ष्यामि वास्तुशास्त्रमनुतामम्। पुरान्धकवधे घोरे घोररूपस्य शूलिनः॥ | | मतस्य पुराण के वास्तु-प्रादुर्भाव नामक अध्याय में वास्तु पुरुष की उत्पत्ति में वास्तु पुरुष के जन्म से सम्बंधित कथा का उल्लेख मिलता है-<blockquote>तदिदानीं प्रवक्ष्यामि वास्तुशास्त्रमनुतामम्। पुरान्धकवधे घोरे घोररूपस्य शूलिनः॥ |
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| | !देवता | | !देवता |
| | !शरीर अंग | | !शरीर अंग |
| − | ! देवता | + | !देवता |
| | !शरीर में निवासांग | | !शरीर में निवासांग |
| | !देवता | | !देवता |
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| | |- | | |- |
| | |3. जयंत | | |3. जयंत |
| − | |लिंगमें | + | |लिंग |
| | |18.दौवारिक | | |18.दौवारिक |
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| | |10. पूष | | |10. पूष |
| | | | | | |
| − | | 25. रोग | + | |25. रोग |
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| | |40.बिबुधाधिप | | |40.बिबुधाधिप |
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| | वास्तुशास्त्र के अन्तर्गत सम्पूर्ण देश व नगरों के निर्माण की योजना से लेकर छोटे-छोटे भवनों और उनमें रखे जाने वाले फर्नीचर और वाहन निर्माण तक की योजना आ जाती है। सामान्यतः इसका मुख्य संबंध भवन निर्माण की कला है।<ref>डॉ० उमेश पुरी 'ज्ञानेश्वर', [https://archive.org/details/vastukalaaurbhavannirmandr.umeshpurigyaneshwar/page/15/mode/1up वास्तु कला और भवन निर्माण], सन २००१, रणधीर प्रकाशन, हरिद्वार (पृ० १५)।</ref> | | वास्तुशास्त्र के अन्तर्गत सम्पूर्ण देश व नगरों के निर्माण की योजना से लेकर छोटे-छोटे भवनों और उनमें रखे जाने वाले फर्नीचर और वाहन निर्माण तक की योजना आ जाती है। सामान्यतः इसका मुख्य संबंध भवन निर्माण की कला है।<ref>डॉ० उमेश पुरी 'ज्ञानेश्वर', [https://archive.org/details/vastukalaaurbhavannirmandr.umeshpurigyaneshwar/page/15/mode/1up वास्तु कला और भवन निर्माण], सन २००१, रणधीर प्रकाशन, हरिद्वार (पृ० १५)।</ref> |
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| − | === दक्षिण परम्परा एवं उत्तर परम्परा === | + | ===दक्षिण परम्परा एवं उत्तर परम्परा=== |
| | भारतीय वास्तुविद्या या स्थापत्य शिल्प की दो प्रमुख परंपरा मानी गई है। प्रथम दक्षिण परंपरा जो कि द्रविड़ शैली है दूसरी उत्तर परंपरा जिसे नागर शैली माना गया है। जहां दक्षिण की द्रविड़ शैली और उत्तर की नागर शैली दोनों शैलियों के अपने-अपने सुंदर निदर्शन होते रहे हैं वहीं दोनों एक दूसरे पर पारस्परिक प्रभाव भी डालते हैं। | | भारतीय वास्तुविद्या या स्थापत्य शिल्प की दो प्रमुख परंपरा मानी गई है। प्रथम दक्षिण परंपरा जो कि द्रविड़ शैली है दूसरी उत्तर परंपरा जिसे नागर शैली माना गया है। जहां दक्षिण की द्रविड़ शैली और उत्तर की नागर शैली दोनों शैलियों के अपने-अपने सुंदर निदर्शन होते रहे हैं वहीं दोनों एक दूसरे पर पारस्परिक प्रभाव भी डालते हैं। |
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| − | ==== दक्षिण परम्परा - द्रविड़ शैली के आचार्य ==== | + | ====दक्षिण परम्परा - द्रविड़ शैली के आचार्य==== |
| | दक्षिण परंपरा द्रविड़ शैली इस परंपरा के प्रवर्तक आचार्यों में विशेष रूप से उल्लेखनीय आचार्य इस प्रकार से हैं - | | दक्षिण परंपरा द्रविड़ शैली इस परंपरा के प्रवर्तक आचार्यों में विशेष रूप से उल्लेखनीय आचार्य इस प्रकार से हैं - |
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| | ब्रह्मा, त्वष्टा, मय, मातंग, भृगु, काश्यप, अगस्त, शुक्र, पराशर, भग्नजित, नारद, प्रह्लाद, शुक्र, बृहस्पति और मानसार। वहीं मत्स्य पुराण बृहत्संहिता में २५ आचार्यों का निर्देश मिलता है जिनमें से बहुसंख्यक आचार्य द्रविड़ परंपरा के प्रवर्तक माने जाते हैं तथा कुछ नागर परंपरा के। | | ब्रह्मा, त्वष्टा, मय, मातंग, भृगु, काश्यप, अगस्त, शुक्र, पराशर, भग्नजित, नारद, प्रह्लाद, शुक्र, बृहस्पति और मानसार। वहीं मत्स्य पुराण बृहत्संहिता में २५ आचार्यों का निर्देश मिलता है जिनमें से बहुसंख्यक आचार्य द्रविड़ परंपरा के प्रवर्तक माने जाते हैं तथा कुछ नागर परंपरा के। |
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| − | ==== दक्षिण परम्परा के वास्तु ग्रन्थ ==== | + | ====दक्षिण परम्परा के वास्तु ग्रन्थ==== |
| | जिनमें शैवागम, वैष्णव पंचरात्र, अत्रि संहिता, वैखानसागम, तंत्रग्रंथ, तंत्र समुच्चय, ईशान शिवगुरु, देव पद्धति इन सभी में आगम साहित्य अत्यधिक विशाल हैं इनमें वास्तुविद्या का वर्णन एवं विवेचन उत्कृष्ट प्रकार से किया गया है। | | जिनमें शैवागम, वैष्णव पंचरात्र, अत्रि संहिता, वैखानसागम, तंत्रग्रंथ, तंत्र समुच्चय, ईशान शिवगुरु, देव पद्धति इन सभी में आगम साहित्य अत्यधिक विशाल हैं इनमें वास्तुविद्या का वर्णन एवं विवेचन उत्कृष्ट प्रकार से किया गया है। |
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| − | === उत्तर परंपरा - नागर शैली आचार्य === | + | ===उत्तर परंपरा - नागर शैली आचार्य=== |
| | उत्तर परंपरा (नागर शैली) इस परंपरा के प्रवर्तक आचार्य विश्वकर्मा ने स्वयं पितामह से यह विद्या ग्रहण की है। मत्स्य पुराण में धर्म की १० पत्नियों में से वसु नाम की पत्नी से ८ पुत्रों में से प्रभास नामक पुत्र हुए प्रभास से विश्वकर्मा हुए जो शिल्प विद्या में अत्यंत निपुण थे और वे प्रजापति के रूप में प्रसिद्ध हुए। विश्वकर्मा, प्रासाद, भवन, उद्यान, प्रतिमा, आभूषण, वापी, जलाशय, बगीचा तथा कूप इत्यादि निर्माण में देवताओं के बडे ही हुए। | | उत्तर परंपरा (नागर शैली) इस परंपरा के प्रवर्तक आचार्य विश्वकर्मा ने स्वयं पितामह से यह विद्या ग्रहण की है। मत्स्य पुराण में धर्म की १० पत्नियों में से वसु नाम की पत्नी से ८ पुत्रों में से प्रभास नामक पुत्र हुए प्रभास से विश्वकर्मा हुए जो शिल्प विद्या में अत्यंत निपुण थे और वे प्रजापति के रूप में प्रसिद्ध हुए। विश्वकर्मा, प्रासाद, भवन, उद्यान, प्रतिमा, आभूषण, वापी, जलाशय, बगीचा तथा कूप इत्यादि निर्माण में देवताओं के बडे ही हुए। |
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| | + | '''उत्तर परम्परा के वास्तु ग्रन्थ''' |
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| | + | ==वास्तुशास्त्र एवं प्राकृतिक ऊर्जा== |
| | + | वास्तु शास्त्र भवन निर्माण के सन्दर्भ में एक ऐसा विज्ञान है, जो कि किसी भवन अथवा आवास के अन्दर स्थित अदृश्य ऊर्जाओं और उनके द्वारा भवन में रहने वाले लोगों पर पड़ने वाले प्रभाव के बारे में हमें जानकारी प्रदान करता है। हमारे चारों ओर विविध प्रकार की ऊर्जाओं के क्षेत्र (Energy Fields) विद्यमान हैं, जो कि हमें निरंतर प्रभावित कर रहे हैं। वास्तुशास्त्र का उपयोग किसी भवन विशेष में स्थित प्राकृतिक ऊर्जाओं में परस्पर समन्वय स्थापित कर भवन में सकारात्मक ऊर्जाओं का प्रवाह सुनिश्चित किया जाता है। वस्तुतः विविध प्रकार की ऊर्जा अथवा शक्तियां जैसे - <ref>डॉ० योगेंद्र शर्मा, [https://archive.org/details/block-2_202312/Block-4/page/321/mode/1up वास्तुशास्त्र की अवधारणा], सन २०२३, इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय, नई दिल्ली (पृ० ३१९)।</ref> |
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| | + | *सौर ऊर्जा (Solar Energy) |
| | + | *चन्द्र ऊर्जा (Lunar Energy) |
| | + | *पृथ्वी से निकलने वाली ऊर्जा (Earth Energy) |
| | + | *पृथ्वी का घूर्णन (Rotation of Earth) |
| | + | *पृथ्वी का परिक्रमण (Revolution of Earth) |
| | + | *गुरुत्वाकर्षणीय शक्ति (Gravitational Energy) |
| | + | *विद्युतीय ऊर्जा (Electric Energy) |
| | + | *चुम्बकीय ऊर्जा (Magnetic Energy) |
| | + | *पवन ऊर्जा (Wind Energy) |
| | + | *तापीय ऊर्जा (Thermal Energy) |
| | + | *ब्रह्माण्डीय ऊर्जा (Cosmic Energy) इत्यादि हमें सतत प्रभावित करती रहती हैं। |
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| | ==वास्तुशास्त्र के विभाग॥ Vastushastra ke Vibhaga== | | ==वास्तुशास्त्र के विभाग॥ Vastushastra ke Vibhaga== |
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| | वास्तुशास्त्रमें काल अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है और काल का ज्ञान कालविधानशास्त्र ज्योतिष के अधीन है अतः काल के ज्ञान के लिये ज्योतिषशास्त्र का ज्ञान होना आवश्यक है। वास्तुशास्त्र के अनेक आचार्यों ने ज्योतिष को वास्तुशास्त्र का अंग मानते हुये ज्योतिषशास्त्र का ज्ञान वास्तुशास्त्र के अध्येताओं के लिये अनिवार्य कहा है। समरांगणसूत्रधारकार ने वास्तुशास्त्र के आठ अंगों का वर्णन करते हुये अष्टांगवास्तुशास्त्र का विवेचन किया है, और इन आठ अंगों के ज्ञान के विना वास्तुशास्त्र का सम्यक् प्रकार से ज्ञान होना संभव नहीं है। वास्तुशास्त्र के आठ अंग इस प्रकार हैं -<blockquote>सामुद्रं गणितं चैव ज्योतिषं छन्द एव च। सिराज्ञानं तथा शिल्पं यन्त्रकर्म विधिस्तथा॥ | | वास्तुशास्त्रमें काल अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है और काल का ज्ञान कालविधानशास्त्र ज्योतिष के अधीन है अतः काल के ज्ञान के लिये ज्योतिषशास्त्र का ज्ञान होना आवश्यक है। वास्तुशास्त्र के अनेक आचार्यों ने ज्योतिष को वास्तुशास्त्र का अंग मानते हुये ज्योतिषशास्त्र का ज्ञान वास्तुशास्त्र के अध्येताओं के लिये अनिवार्य कहा है। समरांगणसूत्रधारकार ने वास्तुशास्त्र के आठ अंगों का वर्णन करते हुये अष्टांगवास्तुशास्त्र का विवेचन किया है, और इन आठ अंगों के ज्ञान के विना वास्तुशास्त्र का सम्यक् प्रकार से ज्ञान होना संभव नहीं है। वास्तुशास्त्र के आठ अंग इस प्रकार हैं -<blockquote>सामुद्रं गणितं चैव ज्योतिषं छन्द एव च। सिराज्ञानं तथा शिल्पं यन्त्रकर्म विधिस्तथा॥ |
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| | वृहद्रथाद्विश्वकर्मा प्राप्तवान् वास्तुशास्त्रकम् ।स एव विश्वकर्मा जगतो हितायाकथयत्पुनः॥ (विश्वकर्म वास्तुप्रकाश)</blockquote>इस प्रकार विश्वकर्माप्रकाश में उल्लिखित नामों के अनुसार गर्ग, पराशर, वृहद्रथ तथा विश्वकर्मा ये वास्तुशास्त्र के प्रवर्तक आचार्य हुये हैं। उपरोक्त विवरण से प्रतीत होता है कि मत्स्यपुराणोक्त वास्तुप्रवर्तकों की नामावली की अपेक्षा अग्नि पुराण की सूची काल्पनिक है जिसमें पुनरुक्ति दोष है। इन सूचियों के आचार्यों में कुछ ज्ञान-विज्ञान के देवता, कुछ वैदिक या पौराणिक ऋषि, कुछ असुर और कुछ सामान्य शिल्पज्ञ हैं।<ref>बलदेव उपाध्याय, संस्कृत वांग्मय का बृहद् इतिहास, प्रो०देवी प्रसाद त्रिपाठी, वास्तुविद्या, सन् २०१२, लखनऊःउत्तर प्रदेश संस्कृत संस्थान, (पृ०७६)।</ref> | | वृहद्रथाद्विश्वकर्मा प्राप्तवान् वास्तुशास्त्रकम् ।स एव विश्वकर्मा जगतो हितायाकथयत्पुनः॥ (विश्वकर्म वास्तुप्रकाश)</blockquote>इस प्रकार विश्वकर्माप्रकाश में उल्लिखित नामों के अनुसार गर्ग, पराशर, वृहद्रथ तथा विश्वकर्मा ये वास्तुशास्त्र के प्रवर्तक आचार्य हुये हैं। उपरोक्त विवरण से प्रतीत होता है कि मत्स्यपुराणोक्त वास्तुप्रवर्तकों की नामावली की अपेक्षा अग्नि पुराण की सूची काल्पनिक है जिसमें पुनरुक्ति दोष है। इन सूचियों के आचार्यों में कुछ ज्ञान-विज्ञान के देवता, कुछ वैदिक या पौराणिक ऋषि, कुछ असुर और कुछ सामान्य शिल्पज्ञ हैं।<ref>बलदेव उपाध्याय, संस्कृत वांग्मय का बृहद् इतिहास, प्रो०देवी प्रसाद त्रिपाठी, वास्तुविद्या, सन् २०१२, लखनऊःउत्तर प्रदेश संस्कृत संस्थान, (पृ०७६)।</ref> |
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| − | इसी प्रकार से रामायणकालमें वास्तुविद् के रूप मेंआचार्य नल और नील का वर्णन प्राप्त होता है। इन्होंने ही समुद्र पर सेतु का निर्माण किया था। एवं महाभारत कालमें लाक्षागृह का निर्माण करने वाले आचार्य पुरोचन प्रमुख वास्तुविद् थे। | + | इसी प्रकार से रामायणकालमें वास्तुविद् के रूप मेंआचार्य नल और नील का वर्णन प्राप्त होता है। इन्होंने ही समुद्र पर सेतु का निर्माण किया था। एवं महाभारत कालमें लाक्षागृह का निर्माण करने वाले आचार्य पुरोचन प्रमुख वास्तुविद थे। |
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| | ==वास्तुशास्त्र का प्रयोजन एवं उपयोगिता॥ Purpose and utility of Vastu Shastra== | | ==वास्तुशास्त्र का प्रयोजन एवं उपयोगिता॥ Purpose and utility of Vastu Shastra== |
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| | भारतीय मनीषियों ने सदैव प्रकृति रूपी माँ की गोद में ही जीवन व्यतीत करने का आदेश और उपदेश अपने ग्रन्थों में दिया है। वास्तुशास्त्र भी मनुष्य को यही उपदेश देता है। घर मनुष्य की मूलभूत आवश्यकताओं में से एक है। प्रत्येक प्राणी अपने लिये घर की व्यवस्था करता है। पक्षी भी अपने लिये घोंसले बनाते हैं। वस्तुतः निवासस्थान ही सुख प्राप्ति और आत्मरक्षा का उत्तम साधन है। जैसा कि कहा गया है-<ref>शैल त्रिपाठी, [https://shodhganga.inflibnet.ac.in/handle/10603/268604 संस्कृत वांङ्मय में निरूपित वास्तु के मूल तत्व], सन २०१४, छत्रपति साहूजी महाराज यूनिवर्सिटी (पृ० २)।</ref><blockquote>स्त्रीपुत्रादिकभोगसौख्यजननं धर्मार्थकामप्रदं। जन्तुनामयनं सुखास्पदमिदं शीताम्बुघर्मापहम्॥ | | भारतीय मनीषियों ने सदैव प्रकृति रूपी माँ की गोद में ही जीवन व्यतीत करने का आदेश और उपदेश अपने ग्रन्थों में दिया है। वास्तुशास्त्र भी मनुष्य को यही उपदेश देता है। घर मनुष्य की मूलभूत आवश्यकताओं में से एक है। प्रत्येक प्राणी अपने लिये घर की व्यवस्था करता है। पक्षी भी अपने लिये घोंसले बनाते हैं। वस्तुतः निवासस्थान ही सुख प्राप्ति और आत्मरक्षा का उत्तम साधन है। जैसा कि कहा गया है-<ref>शैल त्रिपाठी, [https://shodhganga.inflibnet.ac.in/handle/10603/268604 संस्कृत वांङ्मय में निरूपित वास्तु के मूल तत्व], सन २०१४, छत्रपति साहूजी महाराज यूनिवर्सिटी (पृ० २)।</ref><blockquote>स्त्रीपुत्रादिकभोगसौख्यजननं धर्मार्थकामप्रदं। जन्तुनामयनं सुखास्पदमिदं शीताम्बुघर्मापहम्॥ |
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| − | वापी देव गृहादिपुण्यमखिलं गेहात्समुत्पद्यते। गेहं पूर्वमुशन्ति तेन विबुधाः श्री विश्वकर्मादयः॥</blockquote>अर्थ- स्त्री, पुत्र आदि के भोग का सुख धर्म, अर्थ और काम की प्राप्ति, कुएँ, जलाशय और देवालय आदि के निर्माण का पुण्य, घर में ही प्राप्त होता है। | + | वापी देव गृहादिपुण्यमखिलं गेहात्समुत्पद्यते। गेहं पूर्वमुशन्ति तेन विबुधाः श्री विश्वकर्मादयः॥ (प्रासादमण्डनम्)</blockquote>अर्थ- स्त्री, पुत्र आदि के भोग का सुख धर्म, अर्थ और काम की प्राप्ति, कुएँ, जलाशय और देवालय आदि के निर्माण का पुण्य, घर में ही प्राप्त होता है। |
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| | इस प्रकार से घर सभी प्रकार के सुखों का साधन है। भारतीय संस्कृति में घर केवल ईंट-पत्थर और लकडी से निर्मित भवनमात्र ही नहीं है। किन्तु घर की प्रत्येक दिशा में, कोने में, प्रत्येक भाग में एक देवता का निवास है। जो कि घर को भी एक मंदिर की भाँति पूज्य बना देता है। जिसमें निवास करने वाला मनुष्य भौतिक उन्नति के साथ-साथ शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक उन्नति के पथ पर निरन्तर अग्रसर होते हुये धर्म, अर्थ और काम का उपभोग करते हुये अन्ततोगत्वा मोक्ष की प्राप्ति कर पुरुषार्थ चतुष्टय का सधक बन जाता है। ऐसे ही घर का निर्माण करना भारतीय वास्तुशास्त्र का वास्तविक प्रयोजन है। | | इस प्रकार से घर सभी प्रकार के सुखों का साधन है। भारतीय संस्कृति में घर केवल ईंट-पत्थर और लकडी से निर्मित भवनमात्र ही नहीं है। किन्तु घर की प्रत्येक दिशा में, कोने में, प्रत्येक भाग में एक देवता का निवास है। जो कि घर को भी एक मंदिर की भाँति पूज्य बना देता है। जिसमें निवास करने वाला मनुष्य भौतिक उन्नति के साथ-साथ शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक उन्नति के पथ पर निरन्तर अग्रसर होते हुये धर्म, अर्थ और काम का उपभोग करते हुये अन्ततोगत्वा मोक्ष की प्राप्ति कर पुरुषार्थ चतुष्टय का सधक बन जाता है। ऐसे ही घर का निर्माण करना भारतीय वास्तुशास्त्र का वास्तविक प्रयोजन है। |
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| | ऐसे वृक्ष जिन्हैं भवन के आस-पास लगाने से भवन-स्वामी को अनेक प्रकार के कष्ट हो सकते हैं, वे वृक्ष गृहवाटिका में त्याज्य रखने चाहिये। वराहमिहिर ने इस विषय में कहा है-<blockquote>आसन्नाः कण्टकिनो रिपुभयदाः क्षीरिणोऽर्थनाशाय। फलिनः प्रजाक्षयकराः दारुण्यपि वर्जयेदेषाम्॥ | | ऐसे वृक्ष जिन्हैं भवन के आस-पास लगाने से भवन-स्वामी को अनेक प्रकार के कष्ट हो सकते हैं, वे वृक्ष गृहवाटिका में त्याज्य रखने चाहिये। वराहमिहिर ने इस विषय में कहा है-<blockquote>आसन्नाः कण्टकिनो रिपुभयदाः क्षीरिणोऽर्थनाशाय। फलिनः प्रजाक्षयकराः दारुण्यपि वर्जयेदेषाम्॥ |
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| − | छिद्याद्यदि न तरुंस्ताँस्तदन्तरे पूजितान्वपेदन्यान्। पुन्नागाशोकारिष्टवकुलपनसान् शमीशालौ॥</blockquote>भाषार्थ- भवन के पास काँटेदार वृक्ष जैसे बेर, बबूल, कटारि आदि नहीं लगाने चाहिये। गृह-वाटिका में काँटेदार वृक्ष होने से गृह-स्वामी को शत्रुभय, दूध वाले वृक्षों से धन-हानि तथा फल वाले वृक्षों से सन्तति कष्ट होता है। अतः इन वृक्षों और मकान के बीच में शुभदायक वृक्ष जैसे-नागकेसर, अशोक, अरिष्ट, मौलश्री, दाडिम, कटहल, शमी और शाल इन वृक्षों को लगा देना चाहिये। ऐसा करने से अशुभ वृक्षों का दोष दूर हो जाता है। | + | छिद्याद्यदि न तरुंस्ताँस्तदन्तरे पूजितान्वपेदन्यान्। पुन्नागाशोकारिष्टवकुलपनसान् शमीशालौ॥ (बृहत्संहिता)</blockquote>भाषार्थ- भवन के पास काँटेदार वृक्ष जैसे बेर, बबूल, कटारि आदि नहीं लगाने चाहिये। गृह-वाटिका में काँटेदार वृक्ष होने से गृह-स्वामी को शत्रुभय, दूध वाले वृक्षों से धन-हानि तथा फल वाले वृक्षों से सन्तति कष्ट होता है। अतः इन वृक्षों और मकान के बीच में शुभदायक वृक्ष जैसे-नागकेसर, अशोक, अरिष्ट, मौलश्री, दाडिम, कटहल, शमी और शाल इन वृक्षों को लगा देना चाहिये। ऐसा करने से अशुभ वृक्षों का दोष दूर हो जाता है। |
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| | ==सारांश॥ Summary== | | ==सारांश॥ Summary== |