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| == ऐतरेय उपनिषद् का शान्ति पाठ == | | == ऐतरेय उपनिषद् का शान्ति पाठ == |
− | ॐ वाङ् मे मनसि प्रतिष्ठिता मनो मे वाचि प्रतिष्ठितमाविरावीर्म एधि ॥ वेदस्य म आणीस्थः श्रुतं मे मा प्रहासीरनेनाधीतेनाहोरात्रान् सन्दधाम्यृतं वदिष्यामि सत्यं वदिष्यामि ॥ तन्मामवतु तद्वक्तारमवत्ववतु मामवतु वक्तारमवतु वक्तारम्॥ ॥ ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः॥ | + | ॐ वाङ् मे मनसि प्रतिष्ठिता मनो मे वाचि प्रतिष्ठितमाविरावीर्म एधि ॥ वेदस्य म आणीस्थः श्रुतं मे मा प्रहासीरनेनाधीतेनाहोरात्रान् सन्दधाम्यृतं वदिष्यामि सत्यं वदिष्यामि ॥ तन्मामवतु तद्वक्तारमवत्ववतु मामवतु वक्तारमवतु वक्तारम्॥ ॥ ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः॥<ref>[https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%90%E0%A4%A4%E0%A4%B0%E0%A5%87%E0%A4%AF%E0%A5%8B%E0%A4%AA%E0%A4%A8%E0%A4%BF%E0%A4%B7%E0%A4%A6%E0%A5%8D ऐतरेय उपनिषद्] </ref> |
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| सभी उपनिषद् अध्ययन की दृष्टि से एक दूसरे के पूरक हैं। देवर्षि नारद और सनत्कुमार जी के संवाद के सन्दर्भ में हम लोगों ने देखा कि सम्पूर्ण विद्यायें नामरूप ब्रह्म के रूप में हैं लेकिन उनकी प्रतिष्ठा वाक् अर्थात् वाणी में है। | | सभी उपनिषद् अध्ययन की दृष्टि से एक दूसरे के पूरक हैं। देवर्षि नारद और सनत्कुमार जी के संवाद के सन्दर्भ में हम लोगों ने देखा कि सम्पूर्ण विद्यायें नामरूप ब्रह्म के रूप में हैं लेकिन उनकी प्रतिष्ठा वाक् अर्थात् वाणी में है। |
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| यह उपनिषद् साक्षात् रूप से ब्रह्मविद्या का वर्णन न करते हुए भी उसके माहात्म्य का विशद विवेचन करने के कारण उपनिषद् - साहित्य में महत्वपूर्ण स्थान पर है।<ref>बलदेव उपाध्याय, [https://archive.org/details/1.SanskritVangmayaKaBrihatItihasVedas/page/482/mode/1up संस्कृत वांग्मय का बृहद् इतिहास - वेद खण्ड], सन् १९९६, उत्तर प्रदेश संस्कृत संस्थान - लखनऊ, (पृ० ४८३)।</ref> | | यह उपनिषद् साक्षात् रूप से ब्रह्मविद्या का वर्णन न करते हुए भी उसके माहात्म्य का विशद विवेचन करने के कारण उपनिषद् - साहित्य में महत्वपूर्ण स्थान पर है।<ref>बलदेव उपाध्याय, [https://archive.org/details/1.SanskritVangmayaKaBrihatItihasVedas/page/482/mode/1up संस्कृत वांग्मय का बृहद् इतिहास - वेद खण्ड], सन् १९९६, उत्तर प्रदेश संस्कृत संस्थान - लखनऊ, (पृ० ४८३)।</ref> |
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− | '''प्रथम अध्याय - प्रथम खण्ड विवेचन -''' | + | '''प्रथम अध्याय - प्रथम खण्ड विवेचन''' |
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| + | परमात्मा के ईक्षण से सृष्टि। सर्वप्रथम जल की सृष्टि। शरीर में सभी देवों का विभिन्न रूप में निवास। विदृति द्वार (ब्रह्मरन्ध्र) से आत्मा का इस शरीर में प्रवेश। ब्रह्मरन्ध्र ही नन्दन वन है। शरीर में व्याप्त ब्रह्म के दर्शन से ही जीवात्मा का नाम 'इन्द्र' पडा। |
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| ब्रह्म के द्वारा विभिन्न लोकों की सृष्टि | | ब्रह्म के द्वारा विभिन्न लोकों की सृष्टि |
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| '''द्वितीय एवं तृतीय अध्याय की कथावस्तु''' | | '''द्वितीय एवं तृतीय अध्याय की कथावस्तु''' |
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| + | इसमें पुनर्जन्म के सिद्धान्त का प्रतिपादन है और कर्मानुसार विभिन्न योनियों में जन्म का वर्णन है। |
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| पुरुष का प्रथम एवं द्वितीय जन्म | | पुरुष का प्रथम एवं द्वितीय जन्म |
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| '''तृतीय अध्याय की कथावस्तु''' | | '''तृतीय अध्याय की कथावस्तु''' |
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− | == सारांश == | + | इसमें प्रज्ञान-ब्रह्म का वर्णन है। मनोविज्ञान की दृष्टि से यह अध्याय महत्वपूर्ण है। मन ही ब्रह्मा, इन्द्र और प्रजापति है। मन के ही ये विभिन्न नाम हैं - विज्ञान, प्रज्ञान, मेधा, धृति, मति, मनीषा, स्मृति, संकल्प, काम, प्रान आदि। |
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| + | ४ प्रकार की सृष्टि - अण्डज , पक्षी आदि, २, जरायुज : मनुष्य आदि। ३, स्वेदज : जूँ आदि। उद्भिज्ज : वृक्ष आदि। |
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| + | ==सारांश== |
| + | तीन अध्यायों में विभक्त यह उपनिषद् सृष्टि विद्या को समझने के लिये महत्त्वपूर्ण है। प्रथम अध्याय में तीन खण्ड हैं। दूसरे अध्याय में एक खण्ड और तीसरे में भी एक खण्ड है। प्रथम अध्याय में ही पर ब्रह्म यह निश्चित कर देता है कि वह एक है कि वह एक है। लोक की रचना के लिये अकेला ही चिन्तन करता है। सृष्टिक्रम का निरूपण इसी अध्याय में है।<ref>कपिलदेव द्विवेदी, [https://archive.org/details/vedicsahityaevamsanskritidr.kapildevdwivedi/page/n4/mode/1up वैदिक साहित्य एवं संस्कृति], सन् २०००, विश्वविद्यालय प्रकाशन (पृ० १८०)।</ref> |
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| + | अध्याय एक के द्वितीय खण्ड में पाँच श्रुतियाँ हैं। इनके द्वारा अग्नि आदि देवता कैसे इन्द्रियों में अपना स्थान बनाते हैं, इसका प्रतिपादन किया गया है। क्षुधा और पिपासा को भी इनसे युक्त किया गया। |
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| + | तृतीय खण्ड में अन्न की रचना का प्रसंग है। अन्न के पलायन का सन्दर्भ बहुत ही महत्वपूर्ण है। |
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| + | द्वितीय अध्याय में छः श्रुतियाँ हैं। जहाँ ब्रह्म सर्वशक्तिमान, सर्वज्ञ और असंसारी के रूप में है। |
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| + | तृतीय अध्याय में भी एक ही खण्ड है। उसके अन्तर्गत यह विषय उपस्थित होता है कि - जिसके माध्यम से सुनते हैं, वाणी का विवेचन करते हैं, स्वादु-अस्वादु का ज्ञान प्राप्त करते हैं, वह कौन सा आत्मा है। |
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| + | अन्त में यही कहा गया है कि प्रज्ञानरूप आत्मा की एकता को स्पष्ट करने के लिये है। आत्मा का भेद कर के कारण है। जब कर्म दृष्टि हट जाती है तो वही आत्मा अभेद रूप से उपासनीय है। आत्मा में कोई भेदात्मक सम्बन्ध नहीं है। भेद केवल वाणी का है। यही सनातन ब्रह्म है। |
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− | == उद्धरण == | + | ==उद्धरण== |
| + | <references /> |
| + | [[Category:Upanishads]] |
| + | [[Category:Hindi Articles]] |
| + | [[Category:Vedanta]] |