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ग्राम, नगर, पुर, भवन आदि के निर्माण कार्य में दिक्साधन के बिना यहाँ वास्तुपदों के माध्यम से किये जाने वाले कार्यों की सम्यक् क्रियान्विति लगभग असम्भव है। अतः दिक् साधन करना वास्तुशास्त्र की ऐतिहासिक परम्परा में निर्बाध गति से होता आ रहा है। शंकु के माध्यम से दिशा साधन का वैज्ञानिक महत्त्व भी है। दिशाओं में पूर्व दिशा का भी आध्यात्मिक व वैज्ञानिक महत्त्व भी है।
 
ग्राम, नगर, पुर, भवन आदि के निर्माण कार्य में दिक्साधन के बिना यहाँ वास्तुपदों के माध्यम से किये जाने वाले कार्यों की सम्यक् क्रियान्विति लगभग असम्भव है। अतः दिक् साधन करना वास्तुशास्त्र की ऐतिहासिक परम्परा में निर्बाध गति से होता आ रहा है। शंकु के माध्यम से दिशा साधन का वैज्ञानिक महत्त्व भी है। दिशाओं में पूर्व दिशा का भी आध्यात्मिक व वैज्ञानिक महत्त्व भी है।
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प्रातः कालीन रश्मियां हमें आरोग्य देती है, पुष्टता देती है, हमारे वातावरण को स्वच्छ व निर्मल बनाती है। इसलिये किसी भी निर्माण से पूर्व हमें यह सुनिश्चित कर लेना चाहिये कि प्रातःकालीन सूर्य की रश्मियां उस निर्माण पर निर्बाध गति से पडे अर्थात् कोई अवरोध न रहे।
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प्रातः कालीन रश्मियां हमें आरोग्य देती है, पुष्टता देती है, हमारे वातावरण को स्वच्छ व निर्मल बनाती है। इसलिये किसी भी निर्माण से पूर्व हमें यह सुनिश्चित कर लेना चाहिये कि प्रातःकालीन सूर्य की रश्मियां उस निर्माण पर निर्बाध गति से पडे अर्थात् कोई अवरोध न रहे।<ref name=":0" />
    
वस्तुतः क्षितिज पर जहां नित्य हमें सूर्योदय होता दिखाई देता है वह पूर्व दिशा तथा जहां नित्य सूर्य अस्त होता दिखाई देता है उसे हम पश्चिम के नाम से जानते हैं। इसमें दिग्ज्ञान की व्यावहारिक उपयोगिता भी दृष्टिगोचर हो रही है। अतः इसी पूर्व व पश्चिम बिन्दु को अच्छे से जानने के लिये हमारे आचार्यों के द्वारा अनेक विधियों का प्रतिपादन किया गया है।  
 
वस्तुतः क्षितिज पर जहां नित्य हमें सूर्योदय होता दिखाई देता है वह पूर्व दिशा तथा जहां नित्य सूर्य अस्त होता दिखाई देता है उसे हम पश्चिम के नाम से जानते हैं। इसमें दिग्ज्ञान की व्यावहारिक उपयोगिता भी दृष्टिगोचर हो रही है। अतः इसी पूर्व व पश्चिम बिन्दु को अच्छे से जानने के लिये हमारे आचार्यों के द्वारा अनेक विधियों का प्रतिपादन किया गया है।  
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अभी तक हमने दिशाओं को पूर्वादि भेद से दश प्रकार की होती हैं। जिनका उपयोग किसी भी एक स्थान से दूसरे स्थान का निर्धारण करने में किया जाता है। वर्तमान समाज वैज्ञानिक एवं सामाजिक दृष्टि से अति उन्नत हो गया है अतः आजकल सभी लोग कम्पास नामक या अन्य किसी आधुनिक यन्त्र से पूर्वादि दिशाओं का ज्ञान प्राप्त करते हैं, परन्तु पुरातन काल में जब विज्ञान इतना उन्नत नहीं था तथा इससे सम्बन्धित सुविधाएँ सबके लिए सुलभ नहीं थी तब भी हमारे ऋषि-महर्षि एवं आचार्यगण ग्रह-नक्षत्रादि के वेध के द्वारा अथवा सूर्य की छाया के द्वारा पूर्वादि दिशाओं का ज्ञान करते थे। अतः हमारे प्राचीन शास्त्रों में दिग् ज्ञान की जो विधियाँ महत्त्वपूर्ण बतलायी गई हैं उनका हम उपस्थापन यहाँ कर रहे हैं-
 
अभी तक हमने दिशाओं को पूर्वादि भेद से दश प्रकार की होती हैं। जिनका उपयोग किसी भी एक स्थान से दूसरे स्थान का निर्धारण करने में किया जाता है। वर्तमान समाज वैज्ञानिक एवं सामाजिक दृष्टि से अति उन्नत हो गया है अतः आजकल सभी लोग कम्पास नामक या अन्य किसी आधुनिक यन्त्र से पूर्वादि दिशाओं का ज्ञान प्राप्त करते हैं, परन्तु पुरातन काल में जब विज्ञान इतना उन्नत नहीं था तथा इससे सम्बन्धित सुविधाएँ सबके लिए सुलभ नहीं थी तब भी हमारे ऋषि-महर्षि एवं आचार्यगण ग्रह-नक्षत्रादि के वेध के द्वारा अथवा सूर्य की छाया के द्वारा पूर्वादि दिशाओं का ज्ञान करते थे। अतः हमारे प्राचीन शास्त्रों में दिग् ज्ञान की जो विधियाँ महत्त्वपूर्ण बतलायी गई हैं उनका हम उपस्थापन यहाँ कर रहे हैं-
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विदित हो कि दिग्ज्ञान की दो विधियाँ  शास्त्रों में वर्णित हैं, जिसमें प्रथम स्थूल दिग्ज्ञान विधि है जिसके द्वारा सामान्य कार्य व्यवहार हेतु सरल विधियों से दिग्ज्ञान किया जाता है तथा द्वितीय दिग्ज्ञान की विधि सूक्ष्म होती है जिसमें श्रमपूर्वक गणित व्यवहार एवं सूक्ष्म कार्यों के सम्पादन हेतु सूक्ष्म दिग्ज्ञान होता है। आचार्यों ने सिद्धान्त ग्रन्थों में स्थूल एवं गणितीय प्रयोग हेतु सूक्ष्म दिग्ज्ञान विधि का विचार पूर्वक प्रतिपादन किया है।
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विदित हो कि दिग्ज्ञान की दो विधियाँ  शास्त्रों में वर्णित हैं, जिसमें प्रथम स्थूल दिग्ज्ञान विधि है जिसके द्वारा सामान्य कार्य व्यवहार हेतु सरल विधियों से दिग्ज्ञान किया जाता है तथा द्वितीय दिग्ज्ञान की विधि सूक्ष्म होती है जिसमें श्रमपूर्वक गणित व्यवहार एवं सूक्ष्म कार्यों के सम्पादन हेतु सूक्ष्म दिग्ज्ञान होता है। आचार्यों ने सिद्धान्त ग्रन्थों में स्थूल एवं गणितीय प्रयोग हेतु सूक्ष्म दिग्ज्ञान विधि का विचार पूर्वक प्रतिपादन किया है।<ref name=":0" />
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ज्ञात्वा पूर्वं धरित्री दहनखननसम्प्लावनैः संविशोध्य, पश्चात्कृत्वा समानां मुकुरजठरवद्वाचायित्वाद्विजेन्द्रेः।<blockquote>पुण्याहं कूर्मशेषो क्षितिमपि कुसुमाद्यैः समाराध्य शुद्धे, वारे व्यतिथ्यां च कुर्मात् सुरपतिककुभः साधनं मण्डपार्थम् ॥(बृ०वा०मा०अ०दि०सा०श्लो०सं०३) </blockquote>
 
ज्ञात्वा पूर्वं धरित्री दहनखननसम्प्लावनैः संविशोध्य, पश्चात्कृत्वा समानां मुकुरजठरवद्वाचायित्वाद्विजेन्द्रेः।<blockquote>पुण्याहं कूर्मशेषो क्षितिमपि कुसुमाद्यैः समाराध्य शुद्धे, वारे व्यतिथ्यां च कुर्मात् सुरपतिककुभः साधनं मण्डपार्थम् ॥(बृ०वा०मा०अ०दि०सा०श्लो०सं०३) </blockquote>
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वर्तमान में दिक् साधन हेतु प्राचीन विधियों के साथ-साथ कुछ आधुनिक विधियां भी प्रयोग में हैं। वस्तुतः सर्वविदित है कि वर्तमान काल यंत्रप्रधान काल है अतः लगभग हर कार्य यन्त्रों के द्वारा करने का प्रयास हो रहा है। इसलिये यह स्वाभाविक है कि दिक्साधन हेतु भी यंत्रों का सहारा लिया है। इसलिये वर्तमान काल में प्राचीन विधियों के द्वारा दिक्साधन करने की विविध प्रक्रियाओं से बचकर केवल कुतुबनुमा जिसको कम्पास (Compass) के नाम से जानते हैं, का प्रयोग करते हैं। कम्पास के द्वारा दिक्साधन बहुत सरल तरीके से कर लिया जाता है। इसमें चुम्बक का प्रयोग होता है। अतः उत्तरीध्रुव के पास चुम्बकीय ध्रुव, ऊर्जा से भरपूर एक क्षेत्र विशेष है जिसका सम्पूर्ण पृथ्वी पर प्रभाव पड़ता है। ये उत्तर से दक्षिण दिशा की ओर सतत चलने वाली चुम्बकीय तरंगे हैं जो मानव मन मस्तिष्क व समस्त शरीर तथा जीव जगत पर अपना प्रभाव डालती है। इसी आधार पर दिक्सूचक यन्त्र का आविष्कार किया गया था।  
 
वर्तमान में दिक् साधन हेतु प्राचीन विधियों के साथ-साथ कुछ आधुनिक विधियां भी प्रयोग में हैं। वस्तुतः सर्वविदित है कि वर्तमान काल यंत्रप्रधान काल है अतः लगभग हर कार्य यन्त्रों के द्वारा करने का प्रयास हो रहा है। इसलिये यह स्वाभाविक है कि दिक्साधन हेतु भी यंत्रों का सहारा लिया है। इसलिये वर्तमान काल में प्राचीन विधियों के द्वारा दिक्साधन करने की विविध प्रक्रियाओं से बचकर केवल कुतुबनुमा जिसको कम्पास (Compass) के नाम से जानते हैं, का प्रयोग करते हैं। कम्पास के द्वारा दिक्साधन बहुत सरल तरीके से कर लिया जाता है। इसमें चुम्बक का प्रयोग होता है। अतः उत्तरीध्रुव के पास चुम्बकीय ध्रुव, ऊर्जा से भरपूर एक क्षेत्र विशेष है जिसका सम्पूर्ण पृथ्वी पर प्रभाव पड़ता है। ये उत्तर से दक्षिण दिशा की ओर सतत चलने वाली चुम्बकीय तरंगे हैं जो मानव मन मस्तिष्क व समस्त शरीर तथा जीव जगत पर अपना प्रभाव डालती है। इसी आधार पर दिक्सूचक यन्त्र का आविष्कार किया गया था।  
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इस यन्त्र द्वारा हम सरलता से उत्तर दिशा का पता कर सकते हैं। हमें यदि एक दिशा का पता लग जाता है तो हम बाकी अन्य दिशाओं का भी पता लगा सकते हैं। जैसे उत्तर दिशा का पता लगते ही हम उत्तराभिमुख होकर खडे होगे तो उत्तर से ९०॰ अंश दायीं तरफ पूर्व व ९०॰ अंश बायीं तरफ पश्चिम हो जाएगी तथा उत्तर से ठीक १८०॰ अंश दूरी पर दक्षिण दिशा आयेगी। इस प्रकार हम चारों दिशाओं का ज्ञान कम्पास द्वारा कर सकते हैं।  
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इस यन्त्र द्वारा हम सरलता से उत्तर दिशा का पता कर सकते हैं। हमें यदि एक दिशा का पता लग जाता है तो हम बाकी अन्य दिशाओं का भी पता लगा सकते हैं। जैसे उत्तर दिशा का पता लगते ही हम उत्तराभिमुख होकर खडे होगे तो उत्तर से ९०॰ अंश दायीं तरफ पूर्व व ९०॰ अंश बायीं तरफ पश्चिम हो जाएगी तथा उत्तर से ठीक १८०॰ अंश दूरी पर दक्षिण दिशा आयेगी। इस प्रकार हम चारों दिशाओं का ज्ञान कम्पास द्वारा कर सकते हैं।<ref name=":0" />
    
वस्तुतः इस चुम्बकीय दिक्सूचक यन्त्र का आधार पृथ्वी का घूर्णन है क्योंकि पृथ्वी के घूर्णन से एक प्रकार का चुम्बकीय क्षेत्र उत्पन्न होता है। यह चुम्बकीय क्षेत्र उत्तर से दक्षिण की तरफ सदा प्रवाहित रहता है। इसलिये हम उत्तरी ध्रुव व दक्षिणी ध्रुव के नाम से इस चुम्बकीय ऊर्जा क्षेत्र को समझते आ रहे हैं परन्तु अभी नई शोध से पता चला है कि ये दोनों चुम्बकीय ऊर्जा क्षेत्र भी स्थिर नहीं है तथा लगभग ४० से ५० किलोमीटर की गति से प्रतिवर्ष खिसक रहा है, अतः दिक्सूचक यन्त्र से गलती होना भी स्वाभाविक हैं। अतः यह यन्त्र आधुनिक तो  है परन्तु इससे दिक्साधन करने में दोष आ सकता है अतः यह यन्त्र आधुनिक तो है परन्तु इससे दिक्साधन करने में दोष आ सकता है अतः हमारी प्राचीन शास्त्रीय विधियों का प्रयोग करते हुए हम अगर दिक्साधन करते हैं तो सही रहेगा क्योंकि इन पद्धतियों में शंकु की छाया से दिशा ज्ञान किया जाता है। दोनों विधियों से किया गया दिक्साधन उपयुक्त और सटीक होगा।
 
वस्तुतः इस चुम्बकीय दिक्सूचक यन्त्र का आधार पृथ्वी का घूर्णन है क्योंकि पृथ्वी के घूर्णन से एक प्रकार का चुम्बकीय क्षेत्र उत्पन्न होता है। यह चुम्बकीय क्षेत्र उत्तर से दक्षिण की तरफ सदा प्रवाहित रहता है। इसलिये हम उत्तरी ध्रुव व दक्षिणी ध्रुव के नाम से इस चुम्बकीय ऊर्जा क्षेत्र को समझते आ रहे हैं परन्तु अभी नई शोध से पता चला है कि ये दोनों चुम्बकीय ऊर्जा क्षेत्र भी स्थिर नहीं है तथा लगभग ४० से ५० किलोमीटर की गति से प्रतिवर्ष खिसक रहा है, अतः दिक्सूचक यन्त्र से गलती होना भी स्वाभाविक हैं। अतः यह यन्त्र आधुनिक तो  है परन्तु इससे दिक्साधन करने में दोष आ सकता है अतः यह यन्त्र आधुनिक तो है परन्तु इससे दिक्साधन करने में दोष आ सकता है अतः हमारी प्राचीन शास्त्रीय विधियों का प्रयोग करते हुए हम अगर दिक्साधन करते हैं तो सही रहेगा क्योंकि इन पद्धतियों में शंकु की छाया से दिशा ज्ञान किया जाता है। दोनों विधियों से किया गया दिक्साधन उपयुक्त और सटीक होगा।
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== दिक् साधन का महत्व ==
 
== दिक् साधन का महत्व ==
विभिन्न शास्त्रकार दिशाओं के महत्व को समझाते हुये कहते हैं कि कोई भी निर्माण जो मानवों द्वारा किया जाता है जैसे भवन, राजाप्रसाद, द्वार, बरामदा, यज्ञमण्डप आदि में दिक्शोधन करना प्रथम व अपरिहार्य है क्योंकि दिक्भ्रम होने पर यदि निर्माण हो तो कुल का नाश होता है।<ref>योगेंद्र कुमार शर्मा,  [http://egyankosh.ac.in//handle/123456789/80829 दिक् की अवधारणा एवं भेद], सन् 2021, इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय, नई दिल्ली (पृ० २९४)।</ref><blockquote>प्रसादे सदनेsलिन्दे द्वारे कुण्डे विशेषताः। दिङ्मूढे कुलनाशः स्यात्तस्मात् संसाधयेद्दिशः॥(वास्तुरत्नावली-३/१)</blockquote>वस्तुतः प्राचीन ज्योतिषशास्त्र के ज्ञान के आधार पर आज हर कोई समझदार व्यक्ति दिग् ज्ञान से परिचित हैं। लगभग हर व्यक्ति पूर्व-पश्चिम-उत्तर-दक्षिण दिशा का ज्ञान रखता है परन्तु फिर भी हमारे शास्त्रों में इन चार दिशाओं के अतिरिक्त भी अन्य चार दिशाओं का भी वर्णन विद्यमान है, जिनका नाम क्रमशः ईशान, आग्नेय, नैरृत्य व पश्चिम उत्तर के मध्य वायव्य तथा उत्तर पूर्व के मध्य ईशान दिशा है। इन चारों को विदिशा अथवा कोणीय दिशा के नाम से भी जाना जाता है। इस प्रकार से क्रमशः प्रदक्षिण क्रम अर्थात् सृष्टिक्रम या दक्षिणावर्त क्रमशः पूर्व-आग्नेय-दक्षिण-नैरृत्य-पश्चिम-वायव्य-उत्तर ईशान आदि दिशाओं का उल्लेख हमें शास्त्रों में मिलता है।
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विभिन्न शास्त्रकार दिशाओं के महत्व को समझाते हुये कहते हैं कि कोई भी निर्माण जो मानवों द्वारा किया जाता है जैसे भवन, राजाप्रसाद, द्वार, बरामदा, यज्ञमण्डप आदि में दिक्शोधन करना प्रथम व अपरिहार्य है क्योंकि दिक्भ्रम होने पर यदि निर्माण हो तो कुल का नाश होता है।<ref name=":0">योगेंद्र कुमार शर्मा,  [http://egyankosh.ac.in//handle/123456789/80829 दिक् की अवधारणा एवं भेद], सन् 2021, इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय, नई दिल्ली (पृ० २९४)।</ref><blockquote>प्रसादे सदनेsलिन्दे द्वारे कुण्डे विशेषताः। दिङ्मूढे कुलनाशः स्यात्तस्मात् संसाधयेद्दिशः॥(वास्तुरत्नावली-३/१)</blockquote>वस्तुतः प्राचीन ज्योतिषशास्त्र के ज्ञान के आधार पर आज हर कोई समझदार व्यक्ति दिग् ज्ञान से परिचित हैं। लगभग हर व्यक्ति पूर्व-पश्चिम-उत्तर-दक्षिण दिशा का ज्ञान रखता है परन्तु फिर भी हमारे शास्त्रों में इन चार दिशाओं के अतिरिक्त भी अन्य चार दिशाओं का भी वर्णन विद्यमान है, जिनका नाम क्रमशः ईशान, आग्नेय, नैरृत्य व पश्चिम उत्तर के मध्य वायव्य तथा उत्तर पूर्व के मध्य ईशान दिशा है। इन चारों को विदिशा अथवा कोणीय दिशा के नाम से भी जाना जाता है। इस प्रकार से क्रमशः प्रदक्षिण क्रम अर्थात् सृष्टिक्रम या दक्षिणावर्त क्रमशः पूर्व-आग्नेय-दक्षिण-नैरृत्य-पश्चिम-वायव्य-उत्तर ईशान आदि दिशाओं का उल्लेख हमें शास्त्रों में मिलता है।
    
== सारांश ==
 
== सारांश ==
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