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भक्ति शुद्धिश्चासनं च पञ्चांगस्यापि सेवनम्। आचार धारणे दिव्यदेशसेवनमित्यपि॥
 
भक्ति शुद्धिश्चासनं च पञ्चांगस्यापि सेवनम्। आचार धारणे दिव्यदेशसेवनमित्यपि॥
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प्राणक्रिया तथा मुद्रा तर्पणं हवनं बलिः। यागो जपस्तथा ध्यानं समधिश्चेति षोडशः॥<ref>गरिमा, दैव्यव्यपाश्रय चिकित्सा के परिप्रेक्ष्य में संस्कृत वांग्मय में वर्णित मन्त्रों का समीक्षात्मक अध्ययन, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय(२०२०) अध्याय-०२। http://hdl.handle.net/10603/377274</ref></blockquote>अर्थात् चन्द्रमा की १६ कलाओं के समान मन्त्रयोग के भी १६ अंग होते हैं। ये अंग इस प्रकार हैं- भक्ति, शुद्धि, आसन, पञ्चांगसेवन, आचार, धारणा, दिव्यदेशसेवन, प्राणक्रिया, मुद्रा, तर्पण, हवन, बलि, याग, जप, ध्यान और समाधि। सभी अंगों का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है-
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प्राणक्रिया तथा मुद्रा तर्पणं हवनं बलिः। यागो जपस्तथा ध्यानं समधिश्चेति षोडशः॥<ref name=":0">गरिमा, दैव्यव्यपाश्रय चिकित्सा के परिप्रेक्ष्य में संस्कृत वांग्मय में वर्णित मन्त्रों का समीक्षात्मक अध्ययन, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय(२०२०) अध्याय-०२। http://hdl.handle.net/10603/377274</ref></blockquote>अर्थात् चन्द्रमा की १६ कलाओं के समान मन्त्रयोग के भी १६ अंग होते हैं। ये अंग इस प्रकार हैं- भक्ति, शुद्धि, आसन, पञ्चांगसेवन, आचार, धारणा, दिव्यदेशसेवन, प्राणक्रिया, मुद्रा, तर्पण, हवन, बलि, याग, जप, ध्यान और समाधि। सभी अंगों का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है-
    
'''भक्ति-''' इष्टदेव मन्त्र आदि में परम अनुराग को भक्ति कहते हैं। भक्ति तीन प्रकार की होती है- वैधी, रागाअत्मिका और परा। शास्त्रीय विधि एवं निषेध द्वारा निर्णीत धीर साधकों के द्वारा अपनायी गयी भक्ति वैधी कहलाती है। जिस भक्ति के रस का आस्वादन कर साधक भाव-सागर में डूब जाता है, उसे रागात्मिका भक्ति कहते हैं। परम आनन्ददायक भक्ति को पराभक्ति कहते हैं।
 
'''भक्ति-''' इष्टदेव मन्त्र आदि में परम अनुराग को भक्ति कहते हैं। भक्ति तीन प्रकार की होती है- वैधी, रागाअत्मिका और परा। शास्त्रीय विधि एवं निषेध द्वारा निर्णीत धीर साधकों के द्वारा अपनायी गयी भक्ति वैधी कहलाती है। जिस भक्ति के रस का आस्वादन कर साधक भाव-सागर में डूब जाता है, उसे रागात्मिका भक्ति कहते हैं। परम आनन्ददायक भक्ति को पराभक्ति कहते हैं।
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'''धारणा-''' बाह्य एवं आभ्यन्तर भेद से धारणा दो प्रकार की होती है। बाह्य वस्तुओं के साथ मनोयोग होने से बहिर्धारणा एवं अन्तर्जगत् के सूक्ष्म द्रव्यों के साथ मनोयोग होने से अन्तर्धारणा बनती है। धारणा की सिद्धि हो जाने पर मन्त्रसाधक को ध्यानसिद्धि एवं मन्त्रसिद्धि दोनों मिल जाती है। धारणासिद्धि की स्थूल एवं सूक्ष्म सभी प्रक्रियाओं को योगमर्मज्ञ गुरु से विधिवत् सीखकर मन्त्र-साधना करनी चाहिये।
 
'''धारणा-''' बाह्य एवं आभ्यन्तर भेद से धारणा दो प्रकार की होती है। बाह्य वस्तुओं के साथ मनोयोग होने से बहिर्धारणा एवं अन्तर्जगत् के सूक्ष्म द्रव्यों के साथ मनोयोग होने से अन्तर्धारणा बनती है। धारणा की सिद्धि हो जाने पर मन्त्रसाधक को ध्यानसिद्धि एवं मन्त्रसिद्धि दोनों मिल जाती है। धारणासिद्धि की स्थूल एवं सूक्ष्म सभी प्रक्रियाओं को योगमर्मज्ञ गुरु से विधिवत् सीखकर मन्त्र-साधना करनी चाहिये।
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'''दिव्यदेशसेवन-'''  
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'''दिव्यदेशसेवन-''' तन्त्रों में वह्नि, अम्बु, लिंग, स्थण्डिल, कुण्ड, पट, मण्डल, विशिखा, नित्ययन्त्र, भावयन्त्र, पीठ, विग्रह, विभूति, नाभि, हृदय एवं मूर्धा- इन १६ को दिव्यदेश कहा गया है। साधक को अपने अधिकार के अनुसार दिव्यदेश में पूजा एवं उपासना करनी चाहिये। धारणा की सहायता से दिव्यदेश में पूजा एवं उपासना करनी चाहिये। धारणा की सहायता से दिव्यदेश में इष्टदेव का साक्षात्कार होता है।
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'''प्राणक्रिया-'''
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'''प्राणक्रिया-''' मन, प्राण एवं वायु में अभेद सम्बन्ध माना गया है तथा वायु एवं प्राण में कार्य-कारण का सम्बन्ध। इसलिये प्राणायामपूर्वक मन्त्रोक्त न्यासों को करना चाहिये।
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'''मुद्रा-'''
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'''मुद्रा-''' तन्त्र में मुद्रा शब्द का निर्वचन करते हुये कहा गया है कि मुद्रा शब्द का प्रथम अक्षर देवताओं की प्रसन्नता का तथा दूसरा अक्षर पापक्षय का सूचक है। इस प्रकार मुद्रा के प्रभाव से देवता प्रसन्न होते हैं तथा साधक पापरहित होता है। पूजन, जप, काम्यप्रयोग, स्नान, हवन और मन्त्र साधना आदि में सभी देवताओं की आराधना हेतु अनेक मुद्राओं का विधान किया गया है।
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'''तर्पण-'''
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'''तर्पण-''' तर्पण करने से देवता शीघ्र सन्तुष्ट एवं प्रसन्न होते हैं। यह तर्पण सकाम एवं निष्काम भेद से दो प्रकार का होता है।
    
'''हवन-'''
 
'''हवन-'''
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'''समाधि-'''
 
'''समाधि-'''
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=== मंत्र की शक्ति ===
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ऋषि हमें बताते हैं कि हमारी मूल प्रकृति सत्य, चेतना और आनंद है। मन्त्र शब्द की उत्पत्ति (निघण्टु के अनुसार) मनस् से बताया गया है। जिसका अर्थ है आर्ष कथन सामान्य रूप से मनन् से मन्त्र की उत्पत्ति माना गया है। मननात् मन्त्रः।
      
==मन्त्र के प्रकार==
 
==मन्त्र के प्रकार==
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'''न्यास-''' विना न्यास के मन्त्र जप करने से जप निष्फल और विघ्नदायक कहा गया है। मन्त्र साधना में सफलता का मूल आधार चित्त की एकाग्रता है। चित्त को एकाग्र करने के लिये मन्त्रांगों के साथ मन्त्र का जाप करना विहित है।
 
'''न्यास-''' विना न्यास के मन्त्र जप करने से जप निष्फल और विघ्नदायक कहा गया है। मन्त्र साधना में सफलता का मूल आधार चित्त की एकाग्रता है। चित्त को एकाग्र करने के लिये मन्त्रांगों के साथ मन्त्र का जाप करना विहित है।
 
==मंत्र जाप की विधि==
 
==मंत्र जाप की विधि==
मन्त्र विशेष को निरन्तर दोहराने को जप कहा जाता है। अग्निपुराण में जप के शाब्दिक अर्थ में ज को जन्म का विच्छेद और प को पापों का नाश बताया है। अर्थात् जिसके द्वारा जन्म-मरण एवं पापों का नाश हो वह जप है। जप को नित्य जप, नैमित्तिक जप, काम्य जप, निषिद्ध जप, प्रायश्चित्त जप, अचल जप, चल जप, वाचिक जप, उपांशु जप, भ्रामर जप, मानसिक जप, अखण्ड जप, अजपा जप एवं प्रदक्षिणा जप आदि से विभाजित किया गया है।
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मन्त्र विशेष को निरन्तर दोहराने को जप कहा जाता है। अग्निपुराण में जप के शाब्दिक अर्थ में ज को जन्म का विच्छेद और प को पापों का नाश बताया है। अर्थात् जिसके द्वारा जन्म-मरण एवं पापों का नाश हो वह जप है। जप को नित्य जप, नैमित्तिक जप, काम्य जप, निषिद्ध जप, प्रायश्चित्त जप, अचल जप, चल जप, वाचिक जप, उपांशु जप, भ्रामर जप, मानसिक जप, अखण्ड जप, अजपा जप एवं प्रदक्षिणा जप आदि से विभाजित किया गया है।<ref name=":0" />
    
अग्नि पुराण के अनुसार-<blockquote>उच्चैर्जपाद्विशिष्टः स्यादुपांशुर्दशभिर्गुणैः। जिह्वाजपे शतगुणः सहस्रो मानसः स्मृतः॥( अग्नि पु० २९३/९८)</blockquote>ऊँचे स्वर मेंकिये जाने वाले जाप की अपेक्षा मन्त्र का मूक जप दसगुणा विशिष्ट है। जिह्वा जप सौ गुणा श्रेष्ठ है और मानस जप हजार गुणा उत्तम है। अग्नि पुराण में वर्णन है कि मंत्र का आरम्भ पूर्वाभिमुख अथवा अधोमुख होकर करना चाहिये। समस्त मन्त्रों के प्रारम्भ में प्रणव का प्रयोग करना चाहिये। साधक के लिये देवालय, नदी व सरोवर मन्त्र साधन के लिये उपयुक्त स्थान माने गये हैं।
 
अग्नि पुराण के अनुसार-<blockquote>उच्चैर्जपाद्विशिष्टः स्यादुपांशुर्दशभिर्गुणैः। जिह्वाजपे शतगुणः सहस्रो मानसः स्मृतः॥( अग्नि पु० २९३/९८)</blockquote>ऊँचे स्वर मेंकिये जाने वाले जाप की अपेक्षा मन्त्र का मूक जप दसगुणा विशिष्ट है। जिह्वा जप सौ गुणा श्रेष्ठ है और मानस जप हजार गुणा उत्तम है। अग्नि पुराण में वर्णन है कि मंत्र का आरम्भ पूर्वाभिमुख अथवा अधोमुख होकर करना चाहिये। समस्त मन्त्रों के प्रारम्भ में प्रणव का प्रयोग करना चाहिये। साधक के लिये देवालय, नदी व सरोवर मन्त्र साधन के लिये उपयुक्त स्थान माने गये हैं।
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=== मंत्र की शक्ति ===
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ऋषि हमें बताते हैं कि हमारी मूल प्रकृति सत्य, चेतना और आनंद है। मन्त्र शब्द की उत्पत्ति (निघण्टु के अनुसार) मनस् से बताया गया है। जिसका अर्थ है आर्ष कथन सामान्य रूप से मनन् से मन्त्र की उत्पत्ति माना गया है। मननात् मन्त्रः।
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== मन्त्र चिकित्सा एवं आधुनिक अनुसंधान ==
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==उद्धरण॥ References==
 
==उद्धरण॥ References==
 
[[Category:Vedas]]
 
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[[Category:Yoga]]
 
[[Category:Yoga]]
 
[[Category:Ayurveda]]
 
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