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# वर्तमान प्रतिमान में बैल को हल में जोत कर खेती करने वाले किसान के लिये कोई स्थान नहीं है। यूरोप या अमरिका के किसी भी प्रगत देश में धार्मिक (धार्मिक) पद्दति से खेती करने वाला किसान ही शेष नहीं है। १०० वर्ष पहले ऐसे किसान विपुल मात्रा में हुआ करते थे। २०० वर्ष पहले तो ऐसे ही सब किसान थे। इस अधार्मिक (अधार्मिक) प्रतिमान को बदलकर धार्मिक (धार्मिक) प्रतिमान लाये बिना किसानों को बचाने के प्रयास करना हारने के लिए लड़ाई लड़ने जैसा ही होगा।
 
# वर्तमान प्रतिमान में बैल को हल में जोत कर खेती करने वाले किसान के लिये कोई स्थान नहीं है। यूरोप या अमरिका के किसी भी प्रगत देश में धार्मिक (धार्मिक) पद्दति से खेती करने वाला किसान ही शेष नहीं है। १०० वर्ष पहले ऐसे किसान विपुल मात्रा में हुआ करते थे। २०० वर्ष पहले तो ऐसे ही सब किसान थे। इस अधार्मिक (अधार्मिक) प्रतिमान को बदलकर धार्मिक (धार्मिक) प्रतिमान लाये बिना किसानों को बचाने के प्रयास करना हारने के लिए लड़ाई लड़ने जैसा ही होगा।
 
# वर्तमान प्रतिमान में हर वस्तु बिकाऊ है। अंग्रेजपूर्व भारत में अन्न, औषधि और शिक्षा बिकाऊ नहीं थे। लेकिन वर्तमान प्रतिमान ने उन्हें बिकाऊ बना दिया है। सत्य, प्रामाणिकता, ममता, शील, चारित्र्य जैसी मूल्य से परे जो बातें हैं या जो अनमोल हैं ऐसी बातों को हम विदेशियों की देखा देखी 'व्हॅल्यू’ या ‘मूल्य' कहने लगे हैं। 'जीवन मूल्य' या 'जीवन मूल्यों की शिक्षा' ये शब्द प्रयोग भी अधार्मिक (अधार्मिक) ही है। किसी भी प्राचीन धार्मिक (धार्मिक) साहित्य में मूल्य शब्द का श्रेष्ठ तत्व या सदाचार की दृष्टी से प्रयोग नहीं मिलता। जो मूल में है उसे मूल्य कहते हैं। जो मूल में है उसे प्रकृति कहते हैं। क्या हम मूल्याधारित याने प्राकृतिक जीवन जीना चाहते हैं। हम तो सदैव ही उन्नत सांस्कृतिक जीवन जीने का प्रयास करते रहे हैं।
 
# वर्तमान प्रतिमान में हर वस्तु बिकाऊ है। अंग्रेजपूर्व भारत में अन्न, औषधि और शिक्षा बिकाऊ नहीं थे। लेकिन वर्तमान प्रतिमान ने उन्हें बिकाऊ बना दिया है। सत्य, प्रामाणिकता, ममता, शील, चारित्र्य जैसी मूल्य से परे जो बातें हैं या जो अनमोल हैं ऐसी बातों को हम विदेशियों की देखा देखी 'व्हॅल्यू’ या ‘मूल्य' कहने लगे हैं। 'जीवन मूल्य' या 'जीवन मूल्यों की शिक्षा' ये शब्द प्रयोग भी अधार्मिक (अधार्मिक) ही है। किसी भी प्राचीन धार्मिक (धार्मिक) साहित्य में मूल्य शब्द का श्रेष्ठ तत्व या सदाचार की दृष्टी से प्रयोग नहीं मिलता। जो मूल में है उसे मूल्य कहते हैं। जो मूल में है उसे प्रकृति कहते हैं। क्या हम मूल्याधारित याने प्राकृतिक जीवन जीना चाहते हैं। हम तो सदैव ही उन्नत सांस्कृतिक जीवन जीने का प्रयास करते रहे हैं।
# वर्तमान प्रतिमान में बलवान का बोलबाला है। दुर्बल की कोई नहीं सुनता। कर्जा लेने के लिये आप बैंक में जाते हैं। जब आप २०० करोड का कर्जा माँगते हैं तब व्यवस्थापक आप से कहता है ' आपने यहाँ आने का कष्ट क्यों किया। मुझे बुला लेते।' आप को लगेगा जैसे आप व्यवस्थापक हैं और बैंक का व्यवस्थापक आप से कर्जा माँगने आया है। कई औपचारिकताओं की अनदेखी कर के भी कर्जा मिल जाता है। लेकिन आप जब केवल रू.२०.००० का कर्जा माँगने जाते हैं तो आप से इतने चक्कर लगवाये जाते हैं कि आप को लगने लग जाता है कि आपने कर्जा माँग कर कोई अपराध कर दिया है। अभी २००८ में यूरोप में असीम लोभी लोगों ने और वित्तीय संस्थानों ने जो वित्तीय घोटाले किये उन के कारण वहाँ की अर्थव्यवस्थाएं ध्वस्त होने (मेल्ट डाऊन या पिघलन) की स्थिति में आ गयीं थीं। इस स्थिति से उबरने के लिये वहाँ की सरकारों ने उन लोभी वित्तीय संस्थानों को भारी मात्रा में आर्थिक सहायता (सॅल्व्हेज पॅकेजेस salvage package) दी। सहायता का यह पैसा वहाँ की मजबूर सामान्य जनता जिस का इस पिघलन के संदर्भ में कोई दोष नहीं था, उस के परिश्रम की कमाई और बचत किये पैसे से लिया गया था। न्याय व्यवस्था में भी बुद्धिबल, बाहुबल, सत्ताबल या धनबल का प्रयोग हम न्याय को प्रभावित करने लिए होता देखते हैं।
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# वर्तमान प्रतिमान में बलवान का बोलबाला है। दुर्बल की कोई नहीं सुनता। कर्जा लेने के लिये आप बैंक में जाते हैं। जब आप २०० करोड का कर्जा माँगते हैं तब व्यवस्थापक आप से कहता है ' आपने यहाँ आने का कष्ट क्यों किया। मुझे बुला लेते।' आप को लगेगा जैसे आप व्यवस्थापक हैं और बैंक का व्यवस्थापक आप से कर्जा माँगने आया है। कई औपचारिकताओं की अनदेखी कर के भी कर्जा मिल जाता है। लेकिन आप जब केवल रू.२०.००० का कर्जा माँगने जाते हैं तो आप से इतने चक्कर लगवाये जाते हैं कि आप को लगने लग जाता है कि आपने कर्जा माँग कर कोई अपराध कर दिया है। अभी २००८ में यूरोप में असीम लोभी लोगोंं ने और वित्तीय संस्थानों ने जो वित्तीय घोटाले किये उन के कारण वहाँ की अर्थव्यवस्थाएं ध्वस्त होने (मेल्ट डाऊन या पिघलन) की स्थिति में आ गयीं थीं। इस स्थिति से उबरने के लिये वहाँ की सरकारों ने उन लोभी वित्तीय संस्थानों को भारी मात्रा में आर्थिक सहायता (सॅल्व्हेज पॅकेजेस salvage package) दी। सहायता का यह पैसा वहाँ की मजबूर सामान्य जनता जिस का इस पिघलन के संदर्भ में कोई दोष नहीं था, उस के परिश्रम की कमाई और बचत किये पैसे से लिया गया था। न्याय व्यवस्था में भी बुद्धिबल, बाहुबल, सत्ताबल या धनबल का प्रयोग हम न्याय को प्रभावित करने लिए होता देखते हैं।
 
# वर्तमान प्रतिमान मनुष्य के मन की स्वाभाविक सामाजिकता को नष्ट कर उसे व्यक्तिवादी बना देता है। इस तरह से समाज का विघटन अलग अलग व्यक्तियों में हो जाने से समाज के हर व्यक्ति में असुरक्षा की भावना होती है। मजदूर, किसान, उद्योगपति, सरकारी अधिकारी, शिक्षक आदि ही नहीं, सैनिक भी अपने संगठन बनाते हैं। धार्मिक (धार्मिक) प्रतिमान में ऐसे संगठनों की आवश्यकता ही नहीं रहती। जातियों की पंचायतें थीं। उनका स्वरूप कुटुम्ब जैसा ही होता है। उनका काम वर्तमान संगठनों के काम से भिन्न होता है। वे जातिगत अनुशासन, जातिधर्म आदि के अनुपालन पर ध्यान देती थी।
 
# वर्तमान प्रतिमान मनुष्य के मन की स्वाभाविक सामाजिकता को नष्ट कर उसे व्यक्तिवादी बना देता है। इस तरह से समाज का विघटन अलग अलग व्यक्तियों में हो जाने से समाज के हर व्यक्ति में असुरक्षा की भावना होती है। मजदूर, किसान, उद्योगपति, सरकारी अधिकारी, शिक्षक आदि ही नहीं, सैनिक भी अपने संगठन बनाते हैं। धार्मिक (धार्मिक) प्रतिमान में ऐसे संगठनों की आवश्यकता ही नहीं रहती। जातियों की पंचायतें थीं। उनका स्वरूप कुटुम्ब जैसा ही होता है। उनका काम वर्तमान संगठनों के काम से भिन्न होता है। वे जातिगत अनुशासन, जातिधर्म आदि के अनुपालन पर ध्यान देती थी।
 
# वर्तमान प्रतिमान में अधिकारों के लिये संघर्ष अनिवार्य होता है। मजदूर, किसान, उद्योगपति, सरकारी अधिकारी, शिक्षक आदि ही नहीं, यहाँ तो सैनिक भी अपने अधिकारों की रक्षा के लिये संगठन बनाने लग गये हैं। धार्मिक (धार्मिक) प्रतिमान में ऐसे अधिकारों के लिये लडने वाले संगठनों की आवश्यकता ही नहीं रहती। धार्मिक (धार्मिक) प्रतिमान में पहले तो संघर्ष नहीं होते और होते हैं तो वे कर्तव्य पालन (अन्यों के अधिकार) के लिये होते हैं। अपने अधिकारों के लिये नहीं। कर्तव्य पालन के लिए संघर्ष से प्रेम, सौहार्द, परस्पर विश्वास, सहानुभूति, कृतज्ञता आदि भाव बढ़ाते हैं। जो सुख और शान्ति को जन्म देते हैं।
 
# वर्तमान प्रतिमान में अधिकारों के लिये संघर्ष अनिवार्य होता है। मजदूर, किसान, उद्योगपति, सरकारी अधिकारी, शिक्षक आदि ही नहीं, यहाँ तो सैनिक भी अपने अधिकारों की रक्षा के लिये संगठन बनाने लग गये हैं। धार्मिक (धार्मिक) प्रतिमान में ऐसे अधिकारों के लिये लडने वाले संगठनों की आवश्यकता ही नहीं रहती। धार्मिक (धार्मिक) प्रतिमान में पहले तो संघर्ष नहीं होते और होते हैं तो वे कर्तव्य पालन (अन्यों के अधिकार) के लिये होते हैं। अपने अधिकारों के लिये नहीं। कर्तव्य पालन के लिए संघर्ष से प्रेम, सौहार्द, परस्पर विश्वास, सहानुभूति, कृतज्ञता आदि भाव बढ़ाते हैं। जो सुख और शान्ति को जन्म देते हैं।
 
# वर्तमान प्रतिमान में चार्वाक के तत्वज्ञान का बोलबाला हो गया है। ऋणं कृत्वा घृतं पिवेत्। कर्जा लेकर ऐश करना शिष्टाचार बन गया है। कर्जा लेनेवाला चाहता है कि पैसा अधिक से अधिक देरी से दे। इस के पीछे इहवादिता की सोच दिखाई देती है। कर्जे की राशि लौटाने से पहले ही यदि देने वाले की या लेने वाले की मृत्यु हो जाये तो कर्जा लौटाने की आवश्यकता ही नहीं रहेगी। धार्मिक (धार्मिक) प्रतिमान में तो पहले कर्जा लेना ही शर्म की बात माना गया है। कर्जा उतारने से पहले मर जाने से तो अगले जन्म में अधम गति प्राप्त होती है, ऐसी मान्यता है। इस लिये कर्जा ले भी लिया तो पहले सम्भव क्षण को यानी शीघ्रातिशीघ्र लौटाने का मानस होता है।
 
# वर्तमान प्रतिमान में चार्वाक के तत्वज्ञान का बोलबाला हो गया है। ऋणं कृत्वा घृतं पिवेत्। कर्जा लेकर ऐश करना शिष्टाचार बन गया है। कर्जा लेनेवाला चाहता है कि पैसा अधिक से अधिक देरी से दे। इस के पीछे इहवादिता की सोच दिखाई देती है। कर्जे की राशि लौटाने से पहले ही यदि देने वाले की या लेने वाले की मृत्यु हो जाये तो कर्जा लौटाने की आवश्यकता ही नहीं रहेगी। धार्मिक (धार्मिक) प्रतिमान में तो पहले कर्जा लेना ही शर्म की बात माना गया है। कर्जा उतारने से पहले मर जाने से तो अगले जन्म में अधम गति प्राप्त होती है, ऐसी मान्यता है। इस लिये कर्जा ले भी लिया तो पहले सम्भव क्षण को यानी शीघ्रातिशीघ्र लौटाने का मानस होता है।
 
# वर्तमान प्रतिमान में सामान्यत: सभी सामाजिक सम्बन्ध करार होते हैं। काँट्रॅक्ट होते हैं। एग्रीमेंट होते हैं। समझौते होते हैं। विवाह भी करार ही होता है। करार में दो व्यक्ति अपने अपने स्वार्थ के लिये साथ में आते हैं। स्वार्थ को ठेस पहुंचने पर करार तोड कर अलग हो जाते हैं। धार्मिक (धार्मिक) विवाह जैसे अधार्मिक (अधार्मिक) विवाह में हस्बण्ड और वाईफ यह दोनों मिलकर पूर्ण बनने वाले एक दूसरे के पूरक और पोषक ऐसे घटक नहीं होते। वे होते हैं एक दूसरे के ग्राहक और उपभोक्ता। धार्मिक (धार्मिक) प्रतिमान में सभी सामाजिक सम्बन्धों का आधार ' कुटुम्ब भावना ' होता है। धार्मिक (धार्मिक) विवाह दो भिन्न व्यक्तित्वों का 'एक बनने' का संस्कार होता है। दोनों की एकात्मता का संस्कार होता है। राजा और प्रजा के सम्बन्धों में, प्रजा शब्द का तो अर्थ ही संतान होता है। इस लिये राजा या शासक का जनता से सम्बन्धों में पिता और सन्तान जैसा होता है। शिक्षा क्षेत्र में गुरू शिष्य का मानस पिता होता है। एक ही व्यवसाय करने वाले लोग एक दूसरे के स्पर्धक नहीं होते। जाति-बांधव होते हैं। भाषण सुनने आये लोग 'माय डीयर लेडीज एँड जन्टलमेन’ नहीं होते। ‘मेरे प्रिय बहनों और भाईयों' होते हैं। चन्द्रमा चंन्दामामा और चूहा चूहामामा होता है। धरती, नदी, गाय, तुलसी आदि माताएं होतीं हैं। वर्तमान प्रतिमान में कुटुम्ब भी बाजार भावना से चलने लग गए हैं। लेकिन धार्मिक (धार्मिक) प्रतिमान में बाजार भी कुटुम्ब भावना से चलते थे। आज भी बाजार में ‘क्यों काकाजी! सब्जी कैसी दी?’ ऐसा प्रश्न बहुत सामान्य बात है।
 
# वर्तमान प्रतिमान में सामान्यत: सभी सामाजिक सम्बन्ध करार होते हैं। काँट्रॅक्ट होते हैं। एग्रीमेंट होते हैं। समझौते होते हैं। विवाह भी करार ही होता है। करार में दो व्यक्ति अपने अपने स्वार्थ के लिये साथ में आते हैं। स्वार्थ को ठेस पहुंचने पर करार तोड कर अलग हो जाते हैं। धार्मिक (धार्मिक) विवाह जैसे अधार्मिक (अधार्मिक) विवाह में हस्बण्ड और वाईफ यह दोनों मिलकर पूर्ण बनने वाले एक दूसरे के पूरक और पोषक ऐसे घटक नहीं होते। वे होते हैं एक दूसरे के ग्राहक और उपभोक्ता। धार्मिक (धार्मिक) प्रतिमान में सभी सामाजिक सम्बन्धों का आधार ' कुटुम्ब भावना ' होता है। धार्मिक (धार्मिक) विवाह दो भिन्न व्यक्तित्वों का 'एक बनने' का संस्कार होता है। दोनों की एकात्मता का संस्कार होता है। राजा और प्रजा के सम्बन्धों में, प्रजा शब्द का तो अर्थ ही संतान होता है। इस लिये राजा या शासक का जनता से सम्बन्धों में पिता और सन्तान जैसा होता है। शिक्षा क्षेत्र में गुरू शिष्य का मानस पिता होता है। एक ही व्यवसाय करने वाले लोग एक दूसरे के स्पर्धक नहीं होते। जाति-बांधव होते हैं। भाषण सुनने आये लोग 'माय डीयर लेडीज एँड जन्टलमेन’ नहीं होते। ‘मेरे प्रिय बहनों और भाईयों' होते हैं। चन्द्रमा चंन्दामामा और चूहा चूहामामा होता है। धरती, नदी, गाय, तुलसी आदि माताएं होतीं हैं। वर्तमान प्रतिमान में कुटुम्ब भी बाजार भावना से चलने लग गए हैं। लेकिन धार्मिक (धार्मिक) प्रतिमान में बाजार भी कुटुम्ब भावना से चलते थे। आज भी बाजार में ‘क्यों काकाजी! सब्जी कैसी दी?’ ऐसा प्रश्न बहुत सामान्य बात है।
# वर्तमान प्रतिमान में दुर्बल का शोषण होता है। बडा उद्योगपति छोटे उद्योगपति को चूसता है। और छोटा उद्योगपति उस से छोटे को। केवल पैसे वाले ही नहीं तो अवसर पाने पर दुर्बल भी मजबूरों का शोषण करते हैं। जब ऑटोरिक्षा बंद होते हैं, टांगेवाले अपनी दर बढ़ा कर लोगों की मजबूरी का लाभ लेते हैं। इस प्रतिमान में पति भी नौकरी करने वाली स्त्री का शोषण करता है। दोनों नौकरी से थक कर घर आते हैं। पुरूष तो आराम करता है। कितनी भी थकान हो, स्त्री को रसोई और बच्चों का काम करना पडता है। धार्मिक (धार्मिक) प्रतिमान में घरेलू सम्बन्ध, कौटुम्बिक बातें, संस्कार आदि से सम्बन्धित सभी बातों में गृहिणी प्रमुख होती है। गृहस्थ गृहिणी के कहे अनुसार व्यवहार करता है।
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# वर्तमान प्रतिमान में दुर्बल का शोषण होता है। बडा उद्योगपति छोटे उद्योगपति को चूसता है। और छोटा उद्योगपति उस से छोटे को। केवल पैसे वाले ही नहीं तो अवसर पाने पर दुर्बल भी मजबूरों का शोषण करते हैं। जब ऑटोरिक्षा बंद होते हैं, टांगेवाले अपनी दर बढ़ा कर लोगोंं की मजबूरी का लाभ लेते हैं। इस प्रतिमान में पति भी नौकरी करने वाली स्त्री का शोषण करता है। दोनों नौकरी से थक कर घर आते हैं। पुरूष तो आराम करता है। कितनी भी थकान हो, स्त्री को रसोई और बच्चों का काम करना पडता है। धार्मिक (धार्मिक) प्रतिमान में घरेलू सम्बन्ध, कौटुम्बिक बातें, संस्कार आदि से सम्बन्धित सभी बातों में गृहिणी प्रमुख होती है। गृहस्थ गृहिणी के कहे अनुसार व्यवहार करता है।
 
# वर्तमान प्रतिमान में मनुष्य का बस चले तो पूरे विश्व के संसाधन केवल मेरे अधिकार में रहें ऐसी राक्षसी महत्वाकांक्षा सार्वत्रिक हो गई है। इस लिये मनुष्य ने प्रकृति के शोषण के लिये बडे बडे यंत्र निर्माण किये हैं। धार्मिक (धार्मिक) प्रतिमान में अपनी आवश्यकताओं से अधिक प्रकृति से लेना पाप माना गया है। चोरी, डकैती माना गया है। प्रकृति को पवित्र माना जाता है, माता माना जाता है।
 
# वर्तमान प्रतिमान में मनुष्य का बस चले तो पूरे विश्व के संसाधन केवल मेरे अधिकार में रहें ऐसी राक्षसी महत्वाकांक्षा सार्वत्रिक हो गई है। इस लिये मनुष्य ने प्रकृति के शोषण के लिये बडे बडे यंत्र निर्माण किये हैं। धार्मिक (धार्मिक) प्रतिमान में अपनी आवश्यकताओं से अधिक प्रकृति से लेना पाप माना गया है। चोरी, डकैती माना गया है। प्रकृति को पवित्र माना जाता है, माता माना जाता है।
 
# वर्तमान प्रतिमान ने मानव को पगढीला बना दिया है। संस्कृति का विकास स्थिर समाज में ही होता है। वर्तमान प्रतिमान ने समाज को संस्कृति से तोडकर दर बदर घूमने वाला घुमन्तु जीव बना दिया है। पगढीला समाज मात्र भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति करने में और सुख के साधन जुटाने में ही पूरा समय खर्च कर देता है। पगढीलापन कौटुम्बिक भावना को, संस्कृति को नष्ट कर देता है।
 
# वर्तमान प्रतिमान ने मानव को पगढीला बना दिया है। संस्कृति का विकास स्थिर समाज में ही होता है। वर्तमान प्रतिमान ने समाज को संस्कृति से तोडकर दर बदर घूमने वाला घुमन्तु जीव बना दिया है। पगढीला समाज मात्र भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति करने में और सुख के साधन जुटाने में ही पूरा समय खर्च कर देता है। पगढीलापन कौटुम्बिक भावना को, संस्कृति को नष्ट कर देता है।
# वर्तमान प्रतिमान ने हमारे लिये संपर्क भाषा की भी गंभीर समस्या निर्माण कर रखी है। अंग्रेजपूर्व भारत में अटन केवल ज्ञानार्जन, कौशलार्जन, पुण्यार्जन आदि तक सीमित थे। नौकरी का तो चलन ही नहीं था। मनोरंजन के लिये अटन करनेवाले लोगों की संख्या नगण्य थी। संस्कृत भाषा के जानकारों के लिये तो संपर्क भाषा की समस्या लगभग थी ही नहीं। वर्तमान प्रतिमान में अधिक से अधिक पैसे के लिये सभी लोग नौकरी करते हैं। काम के स्वरूप का वर्ण (स्वभाव) से कोई सम्बन्ध  नहीं होता। इस लिये काम बोझ लगता है। मनोरंजन अनिवार्य हो जाता है। इस कारण अटन करने का प्रमाण बहुत अधिक हो गया है। अब करोडों की संख्या में लोग एक भाषिक प्रांत से निकलकर दूसरे भाषिक प्रान्त में नौकरी या उद्योग के लिए जाते हैं। अंग्रेजों की चलाई शिक्षा के कारण पैदा होने वाली गुलामी की मानसिकता इस समस्या को और बढावा देती है। इस प्रतिमान में भाषा की दृष्टि से अंग्रेजी जैसी निकृष्ट भाषा श्रेष्ठ धार्मिक (धार्मिक) भाषाओं को नष्ट कर रही है और नष्ट कर के रहेगी।
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# वर्तमान प्रतिमान ने हमारे लिये संपर्क भाषा की भी गंभीर समस्या निर्माण कर रखी है। अंग्रेजपूर्व भारत में अटन केवल ज्ञानार्जन, कौशलार्जन, पुण्यार्जन आदि तक सीमित थे। नौकरी का तो चलन ही नहीं था। मनोरंजन के लिये अटन करनेवाले लोगोंं की संख्या नगण्य थी। संस्कृत भाषा के जानकारों के लिये तो संपर्क भाषा की समस्या लगभग थी ही नहीं। वर्तमान प्रतिमान में अधिक से अधिक पैसे के लिये सभी लोग नौकरी करते हैं। काम के स्वरूप का वर्ण (स्वभाव) से कोई सम्बन्ध  नहीं होता। इस लिये काम बोझ लगता है। मनोरंजन अनिवार्य हो जाता है। इस कारण अटन करने का प्रमाण बहुत अधिक हो गया है। अब करोडों की संख्या में लोग एक भाषिक प्रांत से निकलकर दूसरे भाषिक प्रान्त में नौकरी या उद्योग के लिए जाते हैं। अंग्रेजों की चलाई शिक्षा के कारण पैदा होने वाली गुलामी की मानसिकता इस समस्या को और बढावा देती है। इस प्रतिमान में भाषा की दृष्टि से अंग्रेजी जैसी निकृष्ट भाषा श्रेष्ठ धार्मिक (धार्मिक) भाषाओं को नष्ट कर रही है और नष्ट कर के रहेगी।
 
# वर्तमान प्रतिमान में न्याय व्यवस्था में 'सत्य' की धार्मिक (धार्मिक) प्रतिमान की व्याख्या 'यद्भूतहितं अत्यंत' नहीं चल सकती। इस प्रतिमान में सत्य की व्याख्या 'जो साक्ष और प्रमाणों से सामने आया है' ऐसी बन गई है। शासन की, गुंडों की, पैसे की और बुध्दिमत्ता की शक्तियाँ साक्ष और प्रमाणों को तोडने मरोडने की क्षमता रखतीं हैं। इसलिये वर्तमान प्रतिमान में सत्य और न्याय भी बलवानों के आश्रित बन जाते हैं।
 
# वर्तमान प्रतिमान में न्याय व्यवस्था में 'सत्य' की धार्मिक (धार्मिक) प्रतिमान की व्याख्या 'यद्भूतहितं अत्यंत' नहीं चल सकती। इस प्रतिमान में सत्य की व्याख्या 'जो साक्ष और प्रमाणों से सामने आया है' ऐसी बन गई है। शासन की, गुंडों की, पैसे की और बुध्दिमत्ता की शक्तियाँ साक्ष और प्रमाणों को तोडने मरोडने की क्षमता रखतीं हैं। इसलिये वर्तमान प्रतिमान में सत्य और न्याय भी बलवानों के आश्रित बन जाते हैं।
 
# वर्तमान प्रतिमान में शासन, वह किंग का हो या लोकतन्त्रात्मक हो, सर्वसत्ताधीश होता है। लेकिन यह सरकार सर्व सक्षम नहीं होती। सत्ता के विषय में कहा गया है - 'पॉवर करप्ट्स् एँड अब्सोल्यूट पॉवर करप्ट्स् अब्सोल्यूटली' (power corrupts and absolute power corrupts absolutely) यानी सत्ता होती है तो आचार भ्रष्ट होता ही है और सत्ता यदि निरंकुश है तो भ्रष्टाचार की कोई सीमा नहीं रहती। धार्मिक (धार्मिक) प्रतिमान में भौतिक सत्ता हमेशा धर्मसत्ता से नियमित होती है, इस लिये वह बिगडने की सम्भावनाएँ अत्यंत कम होती है।
 
# वर्तमान प्रतिमान में शासन, वह किंग का हो या लोकतन्त्रात्मक हो, सर्वसत्ताधीश होता है। लेकिन यह सरकार सर्व सक्षम नहीं होती। सत्ता के विषय में कहा गया है - 'पॉवर करप्ट्स् एँड अब्सोल्यूट पॉवर करप्ट्स् अब्सोल्यूटली' (power corrupts and absolute power corrupts absolutely) यानी सत्ता होती है तो आचार भ्रष्ट होता ही है और सत्ता यदि निरंकुश है तो भ्रष्टाचार की कोई सीमा नहीं रहती। धार्मिक (धार्मिक) प्रतिमान में भौतिक सत्ता हमेशा धर्मसत्ता से नियमित होती है, इस लिये वह बिगडने की सम्भावनाएँ अत्यंत कम होती है।
# वर्तमान प्रतिमान में लोकतंत्रात्मक शासन का सब से श्रेष्ठ स्वरूप है बहुमत से शासक का चयन। बहुमत प्राप्ति का तो अर्थ ही है बलवान होना। ऐसी शासन प्रणालि में एक तो बहुमत के आधार पर चुन कर आया राजनीतिक दल अपने विचार और नीतियाँ पूरे समाज पर थोपता है। दूसरे इस में चुन कर आने के लिये निकष उस पद के लिये योग्यता नहीं होता। जनसंख्या और भौगोलिक विस्तार के कारण यह संभव भी नहीं होता। १०, १५ उमीदवारों में से फिर मतदाता अपनी जाति के, पहचान के, अपने मजहब के, अपने राजनीतिक दल के उमीदवार का चयन करता है। यह तो लोकतंत्र शब्द की विडंबना ही है। धार्मिक (धार्मिक) प्रतिमान में राजा का अर्थ ही जो लोगों के मन जीतता है, लोगों के हित में अपने हित का त्याग करता है, धर्मसत्ता ने बनाए नियमों के अनुसार शासन करता है, ऐसा है। लोकतंत्र के संबंध में भी सर्वसहमति का लोकतंत्र ही धार्मिक (धार्मिक) लोकतंत्र का स्वरूप होता है। अंग्रेज पूर्व भारत में हजारों वर्षों से बडे भौगोलिक क्षेत्र में राजा या सम्राट और ग्राम स्तर पर (ग्रामसभा) सर्वसहमति की लोकतंत्रात्मक शासन की व्यवस्था थी।  
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# वर्तमान प्रतिमान में लोकतंत्रात्मक शासन का सब से श्रेष्ठ स्वरूप है बहुमत से शासक का चयन। बहुमत प्राप्ति का तो अर्थ ही है बलवान होना। ऐसी शासन प्रणालि में एक तो बहुमत के आधार पर चुन कर आया राजनीतिक दल अपने विचार और नीतियाँ पूरे समाज पर थोपता है। दूसरे इस में चुन कर आने के लिये निकष उस पद के लिये योग्यता नहीं होता। जनसंख्या और भौगोलिक विस्तार के कारण यह संभव भी नहीं होता। १०, १५ उमीदवारों में से फिर मतदाता अपनी जाति के, पहचान के, अपने मजहब के, अपने राजनीतिक दल के उमीदवार का चयन करता है। यह तो लोकतंत्र शब्द की विडंबना ही है। धार्मिक (धार्मिक) प्रतिमान में राजा का अर्थ ही जो लोगोंं के मन जीतता है, लोगोंं के हित में अपने हित का त्याग करता है, धर्मसत्ता ने बनाए नियमों के अनुसार शासन करता है, ऐसा है। लोकतंत्र के संबंध में भी सर्वसहमति का लोकतंत्र ही धार्मिक (धार्मिक) लोकतंत्र का स्वरूप होता है। अंग्रेज पूर्व भारत में हजारों वर्षों से बडे भौगोलिक क्षेत्र में राजा या सम्राट और ग्राम स्तर पर (ग्रामसभा) सर्वसहमति की लोकतंत्रात्मक शासन की व्यवस्था थी।  
 
# वर्तमान प्रतिमान में प्रत्येक कानूनी मुकदमे में एक पक्ष सत्य का होता है। दूसरा पक्ष तो असत्य का ही होता है। दोनों पक्षों की ओर से वकील पैरवी करते हैं। यानी दोनों वकीलों में से एक वकील असत्य की जीत के लिये प्रयास करता है। इस का अर्थ यह है की कुल मिलाकर इस प्रतिमान की न्याय व्यवस्था में ५० प्रतिशत वकील हमेशा सत्य को झूठ और झूठ को सत्य सिध्द करने में अपनी बुद्धि का उपयोग करता है। यह न्याय व्यवस्था है या अन्याय व्यवस्था? धार्मिक (धार्मिक) प्रतिमान की न्याय व्यवस्था में मुकदमों के लम्बित होने से लाभान्वित होने वाला और इस लिये लम्बित करने में प्रयत्नशील और झूठ को सत्य तथा सत्य को झूठ सिध्द करने वाला वकील नहीं होता। सात्विक वृत्ति का निर्भय, नि:स्वार्थी, धर्मशास्त्र, न्यायशास्त्र जानने वाला न्यायाधीश ही दोनों पक्षों का अध्ययन कर सत्य को स्थापित करता है।
 
# वर्तमान प्रतिमान में प्रत्येक कानूनी मुकदमे में एक पक्ष सत्य का होता है। दूसरा पक्ष तो असत्य का ही होता है। दोनों पक्षों की ओर से वकील पैरवी करते हैं। यानी दोनों वकीलों में से एक वकील असत्य की जीत के लिये प्रयास करता है। इस का अर्थ यह है की कुल मिलाकर इस प्रतिमान की न्याय व्यवस्था में ५० प्रतिशत वकील हमेशा सत्य को झूठ और झूठ को सत्य सिध्द करने में अपनी बुद्धि का उपयोग करता है। यह न्याय व्यवस्था है या अन्याय व्यवस्था? धार्मिक (धार्मिक) प्रतिमान की न्याय व्यवस्था में मुकदमों के लम्बित होने से लाभान्वित होने वाला और इस लिये लम्बित करने में प्रयत्नशील और झूठ को सत्य तथा सत्य को झूठ सिध्द करने वाला वकील नहीं होता। सात्विक वृत्ति का निर्भय, नि:स्वार्थी, धर्मशास्त्र, न्यायशास्त्र जानने वाला न्यायाधीश ही दोनों पक्षों का अध्ययन कर सत्य को स्थापित करता है।
 
# वर्तमान प्रतिमान में अमर्याद व्यक्ति स्वातंत्र्य का आग्रह है। इस लिये स्त्री मुक्ति की समर्थक लड़कियाँ या महिलाएं अपनी मर्जी के अनुसार अंग प्रदर्शन करनेवाले या उत्तान कपडे पहन सकतीं हैं। लज्जा का कोई सामाजिक मापदंड उन्हें लागू नहीं लगाया जा सकता। ऐसे में यदि उन के प्रति कोई अपराध हो जाता है तो सरकार को कटघरे में खडा किया जाता है। कौटुम्बिक असंस्कारिता की समस्या का समाधान शासन के माध्यम से ढूंढा जाता है। धार्मिक (धार्मिक) प्रतिमान में स्त्री को हर स्थिति में रक्षण योग्य माना गया है। लज्जा और सुरक्षा की दृष्टि से स्त्री भी मर्यादा का पालन करे ऐसी मान्यता है।
 
# वर्तमान प्रतिमान में अमर्याद व्यक्ति स्वातंत्र्य का आग्रह है। इस लिये स्त्री मुक्ति की समर्थक लड़कियाँ या महिलाएं अपनी मर्जी के अनुसार अंग प्रदर्शन करनेवाले या उत्तान कपडे पहन सकतीं हैं। लज्जा का कोई सामाजिक मापदंड उन्हें लागू नहीं लगाया जा सकता। ऐसे में यदि उन के प्रति कोई अपराध हो जाता है तो सरकार को कटघरे में खडा किया जाता है। कौटुम्बिक असंस्कारिता की समस्या का समाधान शासन के माध्यम से ढूंढा जाता है। धार्मिक (धार्मिक) प्रतिमान में स्त्री को हर स्थिति में रक्षण योग्य माना गया है। लज्जा और सुरक्षा की दृष्टि से स्त्री भी मर्यादा का पालन करे ऐसी मान्यता है।
 
# वर्तमान प्रतिमान में इहवादिता का बोलबाला है। इस जन्म से पहले मैं नहीं था। और मृत्यू के उपरांत भी नहीं रहूंगा। इस लिये जो भी भोग भोगना है बस इसी जीवन में भोग लूं, ऐसी मानसिकता बन जाती है। इस कारण भोग की प्रवृत्ति, उपभोक्तावादिता बढते है। परिणाम स्वरूप प्रकृति का बिगाड या नाश होता है। धार्मिक (धार्मिक) प्रतिमान में पुनर्जन्म होता है ऐसा मानते हैं। इस लिये इसी जन्म में सब भोगने की लालसा नहीं रहती। प्रकृति को पवित्र माना जाता है। पूजनीय, देवता माना जाता है। संयमित उपभोग का आग्रह होता है। आवश्यकता से अधिक उपभोग चोरी या डकैति माना जाता है। इस लिये उपभोक्तावाद नहीं पनप पाता।
 
# वर्तमान प्रतिमान में इहवादिता का बोलबाला है। इस जन्म से पहले मैं नहीं था। और मृत्यू के उपरांत भी नहीं रहूंगा। इस लिये जो भी भोग भोगना है बस इसी जीवन में भोग लूं, ऐसी मानसिकता बन जाती है। इस कारण भोग की प्रवृत्ति, उपभोक्तावादिता बढते है। परिणाम स्वरूप प्रकृति का बिगाड या नाश होता है। धार्मिक (धार्मिक) प्रतिमान में पुनर्जन्म होता है ऐसा मानते हैं। इस लिये इसी जन्म में सब भोगने की लालसा नहीं रहती। प्रकृति को पवित्र माना जाता है। पूजनीय, देवता माना जाता है। संयमित उपभोग का आग्रह होता है। आवश्यकता से अधिक उपभोग चोरी या डकैति माना जाता है। इस लिये उपभोक्तावाद नहीं पनप पाता।
# वर्तमान प्रतिमान में भौतिक विज्ञान के क्षेत्र में अधार्मिक (अधार्मिक) सोच के लोगों के हाथों में नेतृत्व है। व्यक्तिवादी (स्वार्थी), इहवादी और जडवादी अधार्मिक (अधार्मिक) सोच के कारण भौतिक विज्ञान और तन्त्रज्ञान  का विकास प्रकृति और मानव जाति को अधिक और अधिक विनाश की दिशा में धकेल रहा है। पूरा विश्व जानता है कि कई सहस्रकों से १८ वीं सदी तक भारत पूरे विश्व में भौतिक विज्ञान और तन्त्रज्ञान  के क्षेत्र में अग्रणी रहा है। किन्तु भारत ने कभी ऐसे विध्वंसक विज्ञान और तन्त्रज्ञान  के विकास की नीति को आश्रय नहीं दिया। ब्रह्मास्त्र के दुरूपयोग की संभावनाओं के ध्यान में आते ही इस तन्त्रज्ञान को अगली पीढी को हस्तांतरित न कर उसे नष्ट होने दिया।
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# वर्तमान प्रतिमान में भौतिक विज्ञान के क्षेत्र में अधार्मिक (अधार्मिक) सोच के लोगोंं के हाथों में नेतृत्व है। व्यक्तिवादी (स्वार्थी), इहवादी और जडवादी अधार्मिक (अधार्मिक) सोच के कारण भौतिक विज्ञान और तन्त्रज्ञान  का विकास प्रकृति और मानव जाति को अधिक और अधिक विनाश की दिशा में धकेल रहा है। पूरा विश्व जानता है कि कई सहस्रकों से १८ वीं सदी तक भारत पूरे विश्व में भौतिक विज्ञान और तन्त्रज्ञान  के क्षेत्र में अग्रणी रहा है। किन्तु भारत ने कभी ऐसे विध्वंसक विज्ञान और तन्त्रज्ञान  के विकास की नीति को आश्रय नहीं दिया। ब्रह्मास्त्र के दुरूपयोग की संभावनाओं के ध्यान में आते ही इस तन्त्रज्ञान को अगली पीढी को हस्तांतरित न कर उसे नष्ट होने दिया।
 
# वर्तमान प्रतिमान में मुंह से दिये शब्द की कोई कीमत नहीं है। कानूनी लिखा पढ़ी अनिवार्य मानी जाती है। व्यक्तिवादिता (स्वार्थी मानसिकता) के कारण परस्पर अविश्वास इस प्रतिमान का लक्षण है। इस अविश्वास के कारण लिखना पढना आना प्रत्येक व्यक्ति के लिये अनिवार्य हो जाता है। समाज की बहुत बडी शक्ति और समय साक्षरता अभियान में लग जाता है। यदि लिखा पढी के स्थान पर मौखिक वचनों से काम चल जाये तो यह समय अनुत्पादक ही कहलाएगा। इस कानूनी लिखा पढी में जो विशाल मात्रा में कागजों के संचय और रखरखाव में व्यय होता है वह भी अनुत्पादक और प्रकृति का बिगाड करने वाला ही होता है। किन्तु वर्तमान प्रतिमान के कारण यह सब अनिवार्य है।
 
# वर्तमान प्रतिमान में मुंह से दिये शब्द की कोई कीमत नहीं है। कानूनी लिखा पढ़ी अनिवार्य मानी जाती है। व्यक्तिवादिता (स्वार्थी मानसिकता) के कारण परस्पर अविश्वास इस प्रतिमान का लक्षण है। इस अविश्वास के कारण लिखना पढना आना प्रत्येक व्यक्ति के लिये अनिवार्य हो जाता है। समाज की बहुत बडी शक्ति और समय साक्षरता अभियान में लग जाता है। यदि लिखा पढी के स्थान पर मौखिक वचनों से काम चल जाये तो यह समय अनुत्पादक ही कहलाएगा। इस कानूनी लिखा पढी में जो विशाल मात्रा में कागजों के संचय और रखरखाव में व्यय होता है वह भी अनुत्पादक और प्रकृति का बिगाड करने वाला ही होता है। किन्तु वर्तमान प्रतिमान के कारण यह सब अनिवार्य है।
 
# वर्तमान प्रतिमान में धर्म नाम की कोई संकल्पना नहीं है। काम पुरूषार्थ ही मनुष्य के जीवन का नियमन करता है। इस लिये परस्पर समायोजन कठिन हो जाता है। सामाजिक सन्तुलन बिगडता है। धार्मिक (धार्मिक) प्रतिमान में धर्मसत्ता सर्वोपरि होने से वह समाज को स्खलन से रोकती है। दुष्ट इच्छाओं (काम) और धर्म विरोधी धन, साधन, संसाधन और प्रयासों को (अर्थ पुरूषार्थ) को धर्म के दायरे में रखती है।
 
# वर्तमान प्रतिमान में धर्म नाम की कोई संकल्पना नहीं है। काम पुरूषार्थ ही मनुष्य के जीवन का नियमन करता है। इस लिये परस्पर समायोजन कठिन हो जाता है। सामाजिक सन्तुलन बिगडता है। धार्मिक (धार्मिक) प्रतिमान में धर्मसत्ता सर्वोपरि होने से वह समाज को स्खलन से रोकती है। दुष्ट इच्छाओं (काम) और धर्म विरोधी धन, साधन, संसाधन और प्रयासों को (अर्थ पुरूषार्थ) को धर्म के दायरे में रखती है।
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# वर्तमान प्रतिमान में अमर्याद व्यक्ति स्वातंत्र्य के चलते ज्ञान को व्यक्ति या संस्था के एकाधिकार में बाँधने (पेटंट) की व्यवस्था जन्म लेती है। धार्मिक (धार्मिक) प्रतिमान में ऐसे एकाधिकार को स्थान नहीं है।
 
# वर्तमान प्रतिमान में अमर्याद व्यक्ति स्वातंत्र्य के चलते ज्ञान को व्यक्ति या संस्था के एकाधिकार में बाँधने (पेटंट) की व्यवस्था जन्म लेती है। धार्मिक (धार्मिक) प्रतिमान में ऐसे एकाधिकार को स्थान नहीं है।
 
# वर्तमान प्रतिमान में प्रत्येक व्यक्ति व्यक्तिवादी है। इस लिये औरों के साथ स्पर्धा कर अपने लिये अधिक से अधिक कमाना प्रत्येक के लिये अनिवार्य है। इस में दुर्बलों का पिछडना और शोषण होना अपरिहार्य है। इस प्रतिमान के अर्थशास्त्र का सूत्र है 'जो कमाएगा वह खाएगा। जो नहीं कमाएगा वह भूखा मरेगा'। धार्मिक (धार्मिक) प्रतिमान के अर्थशास्त्र का सूत्र है 'जो कमाएगा वह खिलाएगा और जो जन्मा है वह खाएगा'।
 
# वर्तमान प्रतिमान में प्रत्येक व्यक्ति व्यक्तिवादी है। इस लिये औरों के साथ स्पर्धा कर अपने लिये अधिक से अधिक कमाना प्रत्येक के लिये अनिवार्य है। इस में दुर्बलों का पिछडना और शोषण होना अपरिहार्य है। इस प्रतिमान के अर्थशास्त्र का सूत्र है 'जो कमाएगा वह खाएगा। जो नहीं कमाएगा वह भूखा मरेगा'। धार्मिक (धार्मिक) प्रतिमान के अर्थशास्त्र का सूत्र है 'जो कमाएगा वह खिलाएगा और जो जन्मा है वह खाएगा'।
# वर्तमान प्रतिमान में बडे शहर अपराधों के बडे केन्द्र बन गये हैं। गाँवों से आकर इन में बसनेवाले लोगों के लिये ये शहर 'अपने' नहीं होते। इन लोगों का लगाव तो अपने मूल गाँवों से होता है। इस लिये ये शहर अच्छे बनें, साफ सूथरे रहें, महिलाओं के लिये भी सुरक्षित रहें इस की जिम्मेदारी इन की नहीं होती। इन में बेघर लोगों की संख्या अच्छी खासी होती है। सामान्यत: ऐसे बेघर लोगों में अपराधीकरण जल्दी फलता फूलता ही है।
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# वर्तमान प्रतिमान में बडे शहर अपराधों के बडे केन्द्र बन गये हैं। गाँवों से आकर इन में बसनेवाले लोगोंं के लिये ये शहर 'अपने' नहीं होते। इन लोगोंं का लगाव तो अपने मूल गाँवों से होता है। इस लिये ये शहर अच्छे बनें, साफ सूथरे रहें, महिलाओं के लिये भी सुरक्षित रहें इस की जिम्मेदारी इन की नहीं होती। इन में बेघर लोगोंं की संख्या अच्छी खासी होती है। सामान्यत: ऐसे बेघर लोगोंं में अपराधीकरण जल्दी फलता फूलता ही है।
 
# वर्तमान प्रतिमान में लोग अधिक पैसे का संचय होने पर इस अतिरिक्त धन को और अधिक धन-प्राप्ति के मदों में लगाते हैं। होटल बनाते हैं, मॉल बनाते हैं, कंपनियों के हिस्से ( शेयर) खरीदते हैं। मुष्किल से ८/१० पीढी पहले धार्मिक (धार्मिक) प्रतिमान में अतिरिक्त धन संचय होने पर उस से लोग धर्मशालाएं, अन्नछत्र, कुएँ बनवाना आदि लोकहित के काम करवाते थे।
 
# वर्तमान प्रतिमान में लोग अधिक पैसे का संचय होने पर इस अतिरिक्त धन को और अधिक धन-प्राप्ति के मदों में लगाते हैं। होटल बनाते हैं, मॉल बनाते हैं, कंपनियों के हिस्से ( शेयर) खरीदते हैं। मुष्किल से ८/१० पीढी पहले धार्मिक (धार्मिक) प्रतिमान में अतिरिक्त धन संचय होने पर उस से लोग धर्मशालाएं, अन्नछत्र, कुएँ बनवाना आदि लोकहित के काम करवाते थे।
 
# वर्तमान प्रतिमान में प्रकृति का प्रदूषण यह बहुत बड़ी समस्या बन गयी है। लेकिन अधार्मिक (अधार्मिक) सोच होने से हम भूमि, जल और वायु के प्रदूषण की ही बात करते रहते हैं। धार्मिक (धार्मिक) दृष्टी से तो प्रकृति अष्टधा होती है। पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश ये तीन महाभूत और मन, बुद्धि और अहंकार ये त्रिगुण मिलकर प्रकृति बनती है। प्रदूषण का विचार इन आठों के सन्दर्भ में होने की आवश्यकता है। विशेषत: मन और बुद्धि का प्रदूषण ही वास्तव में समूची समस्या की जड़ में हैं। इन का प्रदूषण दूर करने से सभी प्रदूषण दूर हो जायंगे। इसके लिए वायू, पृथ्वि, अग्नि, वरूण आदि देवता हैं ऐसे संस्कार करने होंगे। इन के प्रदूषण की कल्पना भी नहीं की जा सकती। लेकिन हमारे (तथाकथित सेक्युलर) अधार्मिक (अधार्मिक) प्रतिमान में ऐसा कहना असंवैधानिक माना जाएगा।
 
# वर्तमान प्रतिमान में प्रकृति का प्रदूषण यह बहुत बड़ी समस्या बन गयी है। लेकिन अधार्मिक (अधार्मिक) सोच होने से हम भूमि, जल और वायु के प्रदूषण की ही बात करते रहते हैं। धार्मिक (धार्मिक) दृष्टी से तो प्रकृति अष्टधा होती है। पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश ये तीन महाभूत और मन, बुद्धि और अहंकार ये त्रिगुण मिलकर प्रकृति बनती है। प्रदूषण का विचार इन आठों के सन्दर्भ में होने की आवश्यकता है। विशेषत: मन और बुद्धि का प्रदूषण ही वास्तव में समूची समस्या की जड़ में हैं। इन का प्रदूषण दूर करने से सभी प्रदूषण दूर हो जायंगे। इसके लिए वायू, पृथ्वि, अग्नि, वरूण आदि देवता हैं ऐसे संस्कार करने होंगे। इन के प्रदूषण की कल्पना भी नहीं की जा सकती। लेकिन हमारे (तथाकथित सेक्युलर) अधार्मिक (अधार्मिक) प्रतिमान में ऐसा कहना असंवैधानिक माना जाएगा।
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|लोगों को जबरन अपने जैसा बनाना,
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|लोगोंं को जबरन अपने जैसा बनाना,
 
यह कर्तव्य है (व्हाइट मॅन्स् बर्डन)
 
यह कर्तव्य है (व्हाइट मॅन्स् बर्डन)
 
|स्वं स्वं चरित्रं शिक्षेरन्' के माध्यम से विश्व को  
 
|स्वं स्वं चरित्रं शिक्षेरन्' के माध्यम से विश्व को  
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# यतो अभ्युदय नि:श्रेयस सिध्दि स धर्म:<ref>वैशेषिक सूत्र 1.1.2 </ref> : जो करने से मनुष्य को इस जन्म में प्रेय और अगले जन्म की दृष्टि से श्रेय की भी प्राप्ति हो वही 'धर्म' है। यहाँ प्रेय से तात्पर्य है जो मन और इंद्रियों को प्रिय लगता है याने भौतिक विकास। और श्रेय से तात्पर्य है कल्याण होने से। जीवन का अंतिम लक्ष्य जो मोक्ष है उस की प्राप्ति होने की दृष्टि से आगे बढना। ऐसे कर्म करना जिन से अगले जन्म में अधिक श्रेष्ठ जन्म या मोक्ष प्राप्त होगा। प्रत्येक मनुष्य के व्यक्तिगत जीवन का लक्ष्य मोक्ष है। साथ ही इस में एक पूर्व शर्त रखी गई है। वह है 'आत्मनो मोक्षार्थं जगत् हिताय च<ref>Swami Vivekananda Volume 6 page 473.</ref>' । मोक्ष प्राप्ति का मार्ग 'जगत् हिताय च' के रास्ते से जाता है, चराचर के सुख के रास्ते से जाता है।  
 
# यतो अभ्युदय नि:श्रेयस सिध्दि स धर्म:<ref>वैशेषिक सूत्र 1.1.2 </ref> : जो करने से मनुष्य को इस जन्म में प्रेय और अगले जन्म की दृष्टि से श्रेय की भी प्राप्ति हो वही 'धर्म' है। यहाँ प्रेय से तात्पर्य है जो मन और इंद्रियों को प्रिय लगता है याने भौतिक विकास। और श्रेय से तात्पर्य है कल्याण होने से। जीवन का अंतिम लक्ष्य जो मोक्ष है उस की प्राप्ति होने की दृष्टि से आगे बढना। ऐसे कर्म करना जिन से अगले जन्म में अधिक श्रेष्ठ जन्म या मोक्ष प्राप्त होगा। प्रत्येक मनुष्य के व्यक्तिगत जीवन का लक्ष्य मोक्ष है। साथ ही इस में एक पूर्व शर्त रखी गई है। वह है 'आत्मनो मोक्षार्थं जगत् हिताय च<ref>Swami Vivekananda Volume 6 page 473.</ref>' । मोक्ष प्राप्ति का मार्ग 'जगत् हिताय च' के रास्ते से जाता है, चराचर के सुख के रास्ते से जाता है।  
 
# आचार: प्रभवो धर्म:<ref>मनुस्मृति 1.108</ref> : केवल श्रेष्ठ तत्वज्ञान को धर्म नहीं कहते। धर्म आचरण के लिये होता है। जो आचरण में लाया जा सकता है, लाया जाना चाहिये ऐसे आचरण को ही धर्म कहते हैं।  
 
# आचार: प्रभवो धर्म:<ref>मनुस्मृति 1.108</ref> : केवल श्रेष्ठ तत्वज्ञान को धर्म नहीं कहते। धर्म आचरण के लिये होता है। जो आचरण में लाया जा सकता है, लाया जाना चाहिये ऐसे आचरण को ही धर्म कहते हैं।  
# सामाजिक संगठन प्रणालियाँ और सामाजिक व्यवस्थाएं भी ऐसी बनें जो इन धर्म की संकल्पनाओं की अविरोधी हों। मानव कृत परिवर्तन धर्म से सुसंगत, अविरोधी या विरोधी ऐसे कुछ भी हो सकते हैं। जब मानव कृत परिवर्तन धर्म सुसंगत होते हैं तब वे सब के लिये हितकारी होते हैं। जब ये परिवर्तन धर्म अविरोधी होते हैं तब वे कुछ लोगों के या बहुत सारे लोगों के हित में होते हैं किन्तु किसी को हानी नहीं पहुंचाते। लेकिन जब यह परिवर्तन धर्म विरोधी होते हैं तब वे कुछ लोगों के या सभी के अहित के होते हैं।  
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# सामाजिक संगठन प्रणालियाँ और सामाजिक व्यवस्थाएं भी ऐसी बनें जो इन धर्म की संकल्पनाओं की अविरोधी हों। मानव कृत परिवर्तन धर्म से सुसंगत, अविरोधी या विरोधी ऐसे कुछ भी हो सकते हैं। जब मानव कृत परिवर्तन धर्म सुसंगत होते हैं तब वे सब के लिये हितकारी होते हैं। जब ये परिवर्तन धर्म अविरोधी होते हैं तब वे कुछ लोगोंं के या बहुत सारे लोगोंं के हित में होते हैं किन्तु किसी को हानी नहीं पहुंचाते। लेकिन जब यह परिवर्तन धर्म विरोधी होते हैं तब वे कुछ लोगोंं के या सभी के अहित के होते हैं।  
किसी भी मानव कृत परिवर्तन की प्रक्रिया में यह परिवर्तन चराचर के हित में हो इस की सुनिश्चिति के लिये यह आवश्यक है कि परिवर्तन की योजना की प्रस्तुति करनेवाला, धर्म का अच्छा जानकार हो। ऐसे लोगों को धर्माचार्य कहते हैं। धर्माचार्यों द्वारा नियंत्रित, निर्देशित और नियमित शक्ति को धर्मसत्ता कहते हैं। धर्म सत्ता कोई संगठन नहीं होता। धर्मसत्ता यह धर्माचार्यों का जनजन पर जो नैतिक प्रभाव होता है उसका नाम है।  
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किसी भी मानव कृत परिवर्तन की प्रक्रिया में यह परिवर्तन चराचर के हित में हो इस की सुनिश्चिति के लिये यह आवश्यक है कि परिवर्तन की योजना की प्रस्तुति करनेवाला, धर्म का अच्छा जानकार हो। ऐसे लोगोंं को धर्माचार्य कहते हैं। धर्माचार्यों द्वारा नियंत्रित, निर्देशित और नियमित शक्ति को धर्मसत्ता कहते हैं। धर्म सत्ता कोई संगठन नहीं होता। धर्मसत्ता यह धर्माचार्यों का जनजन पर जो नैतिक प्रभाव होता है उसका नाम है।  
    
श्रीमद्भगवद्गीता (८- ४२,४३,४४) में चार वर्णों के गुण और कर्मों का वर्णन आता है। यह वर्ण उन के स्वभाव के अनुसार ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र ऐसे चार प्रकार के होते हैं। चराचर के हित में परिवर्तन करने के लिये यह आवश्यक है कि ब्राह्म-तेज और क्षात्रतेज का ठीक से समायोजन हो। ब्राह्मण वर्ग याने धर्मसत्ता का काम होगा चराचर के हित को ध्यान में रखते हुवे पुनरूत्थान की योजना (स्मृति) की प्रस्तुति करना। और धर्मशास्त्र के जानकार और अनुपालन कर्ता ऐसे क्षात्रतेज का यानी शासक का काम यह होगा कि वह धर्मसत्ता ने प्रस्तुत की हुई योजना को समाज में स्थापित करे।   
 
श्रीमद्भगवद्गीता (८- ४२,४३,४४) में चार वर्णों के गुण और कर्मों का वर्णन आता है। यह वर्ण उन के स्वभाव के अनुसार ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र ऐसे चार प्रकार के होते हैं। चराचर के हित में परिवर्तन करने के लिये यह आवश्यक है कि ब्राह्म-तेज और क्षात्रतेज का ठीक से समायोजन हो। ब्राह्मण वर्ग याने धर्मसत्ता का काम होगा चराचर के हित को ध्यान में रखते हुवे पुनरूत्थान की योजना (स्मृति) की प्रस्तुति करना। और धर्मशास्त्र के जानकार और अनुपालन कर्ता ऐसे क्षात्रतेज का यानी शासक का काम यह होगा कि वह धर्मसत्ता ने प्रस्तुत की हुई योजना को समाज में स्थापित करे।   
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# वर्तमान प्रजातंत्रात्मक शासन प्रणालि के कारण और मेकॉले शिक्षा के कारण हिंदू समाज भी धार्मिक (धार्मिक) 'धर्म' संकल्पना से अनभिज्ञ हो गया है। इस लिये सब से पहले तो 'धर्म' संकल्पना को सामान्य हिंदू समाज में स्थापित करने के प्रयास करने होंगे। धर्म यह समूचे समाज को जोडने वाली बात है। पंथ, संप्रदाय, मत आदि का भी महत्व है। लेकिन ये व्यक्तिगत बातें हैं। सामाजिक एकात्मता के संदर्भ में संप्रदाय समाज को अलग अलग पहचान देनेवाली संकल्पनाएं हैं। मजहब और रिलीजन तो समाज को तोडने वाली, अन्य समाजों से झगडे निर्माण करने वाली राजनीतिक संकल्पनाएं हैं। इन बातों को भी स्थपित करना होगा। इस लिये किसी भी मत, पंथ, संप्रदाय, रिलीजन या मजहब की पुस्तकों में धर्म के विपरीत यदि कुछ है तो योग्य विचारों के आधारपर जन-जागरण कर उन विपरीत विचारों को निष्प्रभ करना होगा। केवल मात्र हिंदू समाज धर्म की संकल्पना के करीब है इसे भी प्रचारित करना होगा। साथ ही में जिन हिन्दूओं का व्यवहार धर्म के विपरीत हो उन का प्रबोधन कर उन को भी बदलना होगा।  
 
# वर्तमान प्रजातंत्रात्मक शासन प्रणालि के कारण और मेकॉले शिक्षा के कारण हिंदू समाज भी धार्मिक (धार्मिक) 'धर्म' संकल्पना से अनभिज्ञ हो गया है। इस लिये सब से पहले तो 'धर्म' संकल्पना को सामान्य हिंदू समाज में स्थापित करने के प्रयास करने होंगे। धर्म यह समूचे समाज को जोडने वाली बात है। पंथ, संप्रदाय, मत आदि का भी महत्व है। लेकिन ये व्यक्तिगत बातें हैं। सामाजिक एकात्मता के संदर्भ में संप्रदाय समाज को अलग अलग पहचान देनेवाली संकल्पनाएं हैं। मजहब और रिलीजन तो समाज को तोडने वाली, अन्य समाजों से झगडे निर्माण करने वाली राजनीतिक संकल्पनाएं हैं। इन बातों को भी स्थपित करना होगा। इस लिये किसी भी मत, पंथ, संप्रदाय, रिलीजन या मजहब की पुस्तकों में धर्म के विपरीत यदि कुछ है तो योग्य विचारों के आधारपर जन-जागरण कर उन विपरीत विचारों को निष्प्रभ करना होगा। केवल मात्र हिंदू समाज धर्म की संकल्पना के करीब है इसे भी प्रचारित करना होगा। साथ ही में जिन हिन्दूओं का व्यवहार धर्म के विपरीत हो उन का प्रबोधन कर उन को भी बदलना होगा।  
 
# हमें अपने इतिहास से भी कुछ पाठ सीखने होंगे। स्व-धर्म और स्व-राज ये दोनों साथ में चलाने की बातें हैं। जब शासन धर्म का अधिष्ठान छोड देता है या धर्म व्यवस्था जब राज्य को धर्महीन या धर्म विरोधी बनने देती है तब ना तो स्व-धर्म बचता है और ना ही स्व-राज। इतिहास इस का साक्षी है कि हरिहर-बुक्कराय के साथ में स्वामी विद्यारण्य रहे, शिवाजी के साथ में रामदास रहे, राज करेगा खालसा के साथ सिख गुरू रहे तब ही स्व-धर्म की रक्षा भी हो पाई और स्व-राज्य की भी। तब ही स्व-राज वर्धिष्णू रहा। लेकिन जैसे ही और जब जब धर्म व्यवस्था और राज्यसत्ता में अन्तर निर्माण हुवा समाज गतानुगतिक स्थिति को प्राप्त हुवा।   
 
# हमें अपने इतिहास से भी कुछ पाठ सीखने होंगे। स्व-धर्म और स्व-राज ये दोनों साथ में चलाने की बातें हैं। जब शासन धर्म का अधिष्ठान छोड देता है या धर्म व्यवस्था जब राज्य को धर्महीन या धर्म विरोधी बनने देती है तब ना तो स्व-धर्म बचता है और ना ही स्व-राज। इतिहास इस का साक्षी है कि हरिहर-बुक्कराय के साथ में स्वामी विद्यारण्य रहे, शिवाजी के साथ में रामदास रहे, राज करेगा खालसा के साथ सिख गुरू रहे तब ही स्व-धर्म की रक्षा भी हो पाई और स्व-राज्य की भी। तब ही स्व-राज वर्धिष्णू रहा। लेकिन जैसे ही और जब जब धर्म व्यवस्था और राज्यसत्ता में अन्तर निर्माण हुवा समाज गतानुगतिक स्थिति को प्राप्त हुवा।   
# इस लिये जो धर्मशास्त्र (नव निर्मित स्मृति) का ज्ञाता, अनुपालन कर्ता और क्रियान्वयन करवाने वाला होगा ऐसा स्थिर शासन यह अपेक्षित परिवर्तन के लिये अनिवार्य ऐसी बात है। ऐसे शासन की स्थिरता भी इसमें महत्वपूर्ण है। किन्तु ऐसा शासक तभी संभव होगा जब धर्मसत्ता प्रबल होगी, असामाजिक, अधार्मिक तत्वों द्वारा शासन पर आने वाले दबावों का जनमत के आधारपर सक्षमता से विरोध कर शासक को धर्म के अनुपालन के लिये बल देगी। सामान्य लोगों में जडता होती है। इस लिये परिवर्तन का विरोध यह स्वाभाविक बात है। हम कुछ कमजोर या बीमार बच्चों को, उन की इच्छा के विरूध्द, उन के ही हित के लिये कडवी दवा भी पिलाते हैं। उसी प्रकार से शासक को, स्वभाव के या आलस के कारण अधर्माचरण करनेवाले लोगों से धर्म का अनुपालन करवाना होगा।  
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# इस लिये जो धर्मशास्त्र (नव निर्मित स्मृति) का ज्ञाता, अनुपालन कर्ता और क्रियान्वयन करवाने वाला होगा ऐसा स्थिर शासन यह अपेक्षित परिवर्तन के लिये अनिवार्य ऐसी बात है। ऐसे शासन की स्थिरता भी इसमें महत्वपूर्ण है। किन्तु ऐसा शासक तभी संभव होगा जब धर्मसत्ता प्रबल होगी, असामाजिक, अधार्मिक तत्वों द्वारा शासन पर आने वाले दबावों का जनमत के आधारपर सक्षमता से विरोध कर शासक को धर्म के अनुपालन के लिये बल देगी। सामान्य लोगोंं में जडता होती है। इस लिये परिवर्तन का विरोध यह स्वाभाविक बात है। हम कुछ कमजोर या बीमार बच्चों को, उन की इच्छा के विरूध्द, उन के ही हित के लिये कडवी दवा भी पिलाते हैं। उसी प्रकार से शासक को, स्वभाव के या आलस के कारण अधर्माचरण करनेवाले लोगोंं से धर्म का अनुपालन करवाना होगा।  
 
# इन प्रयासों के साथ या कुछ आगे ही शिक्षा व्यवस्था को चलना होगा। प्रभावी ढंग से समाज को धर्माचरण सिखाना होगा। समाज धर्म सिखाना होगा। प्रतिमान की शिक्षा देनी होगी। समाज जीवन की अन्य व्यवस्थाओं के संबंध में भी जीवन के धार्मिक (धार्मिक) प्रतिमान से सुसंगत ऐसे परिवर्तन के समानांतर प्रयास करने होंगे। धर्म व्यवस्था से मार्गदर्शित शिक्षा व्यवस्था परिवर्तन के लिये युवा शक्ति का निर्माण करेगी।   
 
# इन प्रयासों के साथ या कुछ आगे ही शिक्षा व्यवस्था को चलना होगा। प्रभावी ढंग से समाज को धर्माचरण सिखाना होगा। समाज धर्म सिखाना होगा। प्रतिमान की शिक्षा देनी होगी। समाज जीवन की अन्य व्यवस्थाओं के संबंध में भी जीवन के धार्मिक (धार्मिक) प्रतिमान से सुसंगत ऐसे परिवर्तन के समानांतर प्रयास करने होंगे। धर्म व्यवस्था से मार्गदर्शित शिक्षा व्यवस्था परिवर्तन के लिये युवा शक्ति का निर्माण करेगी।   
 
# धर्मशिक्षा की सुदृढ नींव डालनेवाली एकत्रित कुटुम्ब व्यवस्था को पुन: शक्तिशाली बनाना होगा।  
 
# धर्मशिक्षा की सुदृढ नींव डालनेवाली एकत्रित कुटुम्ब व्यवस्था को पुन: शक्तिशाली बनाना होगा।  

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