Changes

Jump to navigation Jump to search
m
Text replacement - "मदद" to "सहायता"
Line 15: Line 15:  
# वर्तमान प्रतिमान में बैल को हल में जोत कर खेती करने वाले किसान के लिये कोई स्थान नहीं है। यूरोप या अमरिका के किसी भी प्रगत देश में धार्मिक (धार्मिक) पद्दति से खेती करने वाला किसान ही शेष नहीं है। १०० वर्ष पहले ऐसे किसान विपुल मात्रा में हुआ करते थे। २०० वर्ष पहले तो ऐसे ही सब किसान थे। इस अधार्मिक (अधार्मिक) प्रतिमान को बदलकर धार्मिक (धार्मिक) प्रतिमान लाये बिना किसानों को बचाने के प्रयास करना हारने के लिए लड़ाई लड़ने जैसा ही होगा।
 
# वर्तमान प्रतिमान में बैल को हल में जोत कर खेती करने वाले किसान के लिये कोई स्थान नहीं है। यूरोप या अमरिका के किसी भी प्रगत देश में धार्मिक (धार्मिक) पद्दति से खेती करने वाला किसान ही शेष नहीं है। १०० वर्ष पहले ऐसे किसान विपुल मात्रा में हुआ करते थे। २०० वर्ष पहले तो ऐसे ही सब किसान थे। इस अधार्मिक (अधार्मिक) प्रतिमान को बदलकर धार्मिक (धार्मिक) प्रतिमान लाये बिना किसानों को बचाने के प्रयास करना हारने के लिए लड़ाई लड़ने जैसा ही होगा।
 
# वर्तमान प्रतिमान में हर वस्तु बिकाऊ है। अंग्रेजपूर्व भारत में अन्न, औषधि और शिक्षा बिकाऊ नहीं थे। लेकिन वर्तमान प्रतिमान ने उन्हें बिकाऊ बना दिया है। सत्य, प्रामाणिकता, ममता, शील, चारित्र्य जैसी मूल्य से परे जो बातें हैं या जो अनमोल हैं ऐसी बातों को हम विदेशियों की देखा देखी 'व्हॅल्यू’ या ‘मूल्य' कहने लगे हैं। 'जीवन मूल्य' या 'जीवन मूल्यों की शिक्षा' ये शब्द प्रयोग भी अधार्मिक (अधार्मिक) ही है। किसी भी प्राचीन धार्मिक (धार्मिक) साहित्य में मूल्य शब्द का श्रेष्ठ तत्व या सदाचार की दृष्टी से प्रयोग नहीं मिलता। जो मूल में है उसे मूल्य कहते हैं। जो मूल में है उसे प्रकृति कहते हैं। क्या हम मूल्याधारित याने प्राकृतिक जीवन जीना चाहते हैं। हम तो सदैव ही उन्नत सांस्कृतिक जीवन जीने का प्रयास करते रहे हैं।
 
# वर्तमान प्रतिमान में हर वस्तु बिकाऊ है। अंग्रेजपूर्व भारत में अन्न, औषधि और शिक्षा बिकाऊ नहीं थे। लेकिन वर्तमान प्रतिमान ने उन्हें बिकाऊ बना दिया है। सत्य, प्रामाणिकता, ममता, शील, चारित्र्य जैसी मूल्य से परे जो बातें हैं या जो अनमोल हैं ऐसी बातों को हम विदेशियों की देखा देखी 'व्हॅल्यू’ या ‘मूल्य' कहने लगे हैं। 'जीवन मूल्य' या 'जीवन मूल्यों की शिक्षा' ये शब्द प्रयोग भी अधार्मिक (अधार्मिक) ही है। किसी भी प्राचीन धार्मिक (धार्मिक) साहित्य में मूल्य शब्द का श्रेष्ठ तत्व या सदाचार की दृष्टी से प्रयोग नहीं मिलता। जो मूल में है उसे मूल्य कहते हैं। जो मूल में है उसे प्रकृति कहते हैं। क्या हम मूल्याधारित याने प्राकृतिक जीवन जीना चाहते हैं। हम तो सदैव ही उन्नत सांस्कृतिक जीवन जीने का प्रयास करते रहे हैं।
# वर्तमान प्रतिमान में बलवान का बोलबाला है। दुर्बल की कोई नहीं सुनता। कर्जा लेने के लिये आप बैंक में जाते हैं। जब आप २०० करोड का कर्जा माँगते हैं तब व्यवस्थापक आप से कहता है ' आपने यहाँ आने का कष्ट क्यों किया। मुझे बुला लेते।' आप को लगेगा जैसे आप व्यवस्थापक हैं और बैंक का व्यवस्थापक आप से कर्जा माँगने आया है। कई औपचारिकताओं की अनदेखी कर के भी कर्जा मिल जाता है। लेकिन आप जब केवल रू.२०.००० का कर्जा माँगने जाते हैं तो आप से इतने चक्कर लगवाये जाते हैं कि आप को लगने लग जाता है कि आपने कर्जा माँग कर कोई अपराध कर दिया है। अभी २००८ में यूरोप में असीम लोभी लोगों ने और वित्तीय संस्थानों ने जो वित्तीय घोटाले किये उन के कारण वहाँ की अर्थव्यवस्थाएं ध्वस्त होने (मेल्ट डाऊन या पिघलन) की स्थिति में आ गयीं थीं। इस स्थिति से उबरने के लिये वहाँ की सरकारों ने उन लोभी वित्तीय संस्थानों को भारी मात्रा में आर्थिक मदद (सॅल्व्हेज पॅकेजेस salvage package) दी। मदद का यह पैसा वहाँ की मजबूर सामान्य जनता जिस का इस पिघलन के संदर्भ में कोई दोष नहीं था, उस के परिश्रम की कमाई और बचत किये पैसे से लिया गया था। न्याय व्यवस्था में भी बुद्धिबल, बाहुबल, सत्ताबल या धनबल का प्रयोग हम न्याय को प्रभावित करने लिए होता देखते हैं।
+
# वर्तमान प्रतिमान में बलवान का बोलबाला है। दुर्बल की कोई नहीं सुनता। कर्जा लेने के लिये आप बैंक में जाते हैं। जब आप २०० करोड का कर्जा माँगते हैं तब व्यवस्थापक आप से कहता है ' आपने यहाँ आने का कष्ट क्यों किया। मुझे बुला लेते।' आप को लगेगा जैसे आप व्यवस्थापक हैं और बैंक का व्यवस्थापक आप से कर्जा माँगने आया है। कई औपचारिकताओं की अनदेखी कर के भी कर्जा मिल जाता है। लेकिन आप जब केवल रू.२०.००० का कर्जा माँगने जाते हैं तो आप से इतने चक्कर लगवाये जाते हैं कि आप को लगने लग जाता है कि आपने कर्जा माँग कर कोई अपराध कर दिया है। अभी २००८ में यूरोप में असीम लोभी लोगों ने और वित्तीय संस्थानों ने जो वित्तीय घोटाले किये उन के कारण वहाँ की अर्थव्यवस्थाएं ध्वस्त होने (मेल्ट डाऊन या पिघलन) की स्थिति में आ गयीं थीं। इस स्थिति से उबरने के लिये वहाँ की सरकारों ने उन लोभी वित्तीय संस्थानों को भारी मात्रा में आर्थिक सहायता (सॅल्व्हेज पॅकेजेस salvage package) दी। सहायता का यह पैसा वहाँ की मजबूर सामान्य जनता जिस का इस पिघलन के संदर्भ में कोई दोष नहीं था, उस के परिश्रम की कमाई और बचत किये पैसे से लिया गया था। न्याय व्यवस्था में भी बुद्धिबल, बाहुबल, सत्ताबल या धनबल का प्रयोग हम न्याय को प्रभावित करने लिए होता देखते हैं।
 
# वर्तमान प्रतिमान मनुष्य के मन की स्वाभाविक सामाजिकता को नष्ट कर उसे व्यक्तिवादी बना देता है। इस तरह से समाज का विघटन अलग अलग व्यक्तियों में हो जाने से समाज के हर व्यक्ति में असुरक्षा की भावना होती है। मजदूर, किसान, उद्योगपति, सरकारी अधिकारी, शिक्षक आदि ही नहीं, सैनिक भी अपने संगठन बनाते हैं। धार्मिक (धार्मिक) प्रतिमान में ऐसे संगठनों की आवश्यकता ही नहीं रहती। जातियों की पंचायतें थीं। उनका स्वरूप कुटुम्ब जैसा ही होता है। उनका काम वर्तमान संगठनों के काम से भिन्न होता है। वे जातिगत अनुशासन, जातिधर्म आदि के अनुपालन पर ध्यान देती थी।
 
# वर्तमान प्रतिमान मनुष्य के मन की स्वाभाविक सामाजिकता को नष्ट कर उसे व्यक्तिवादी बना देता है। इस तरह से समाज का विघटन अलग अलग व्यक्तियों में हो जाने से समाज के हर व्यक्ति में असुरक्षा की भावना होती है। मजदूर, किसान, उद्योगपति, सरकारी अधिकारी, शिक्षक आदि ही नहीं, सैनिक भी अपने संगठन बनाते हैं। धार्मिक (धार्मिक) प्रतिमान में ऐसे संगठनों की आवश्यकता ही नहीं रहती। जातियों की पंचायतें थीं। उनका स्वरूप कुटुम्ब जैसा ही होता है। उनका काम वर्तमान संगठनों के काम से भिन्न होता है। वे जातिगत अनुशासन, जातिधर्म आदि के अनुपालन पर ध्यान देती थी।
 
# वर्तमान प्रतिमान में अधिकारों के लिये संघर्ष अनिवार्य होता है। मजदूर, किसान, उद्योगपति, सरकारी अधिकारी, शिक्षक आदि ही नहीं, यहाँ तो सैनिक भी अपने अधिकारों की रक्षा के लिये संगठन बनाने लग गये हैं। धार्मिक (धार्मिक) प्रतिमान में ऐसे अधिकारों के लिये लडने वाले संगठनों की आवश्यकता ही नहीं रहती। धार्मिक (धार्मिक) प्रतिमान में पहले तो संघर्ष नहीं होते और होते हैं तो वे कर्तव्य पालन (अन्यों के अधिकार) के लिये होते हैं। अपने अधिकारों के लिये नहीं। कर्तव्य पालन के लिए संघर्ष से प्रेम, सौहार्द, परस्पर विश्वास, सहानुभूति, कृतज्ञता आदि भाव बढ़ाते हैं। जो सुख और शान्ति को जन्म देते हैं।
 
# वर्तमान प्रतिमान में अधिकारों के लिये संघर्ष अनिवार्य होता है। मजदूर, किसान, उद्योगपति, सरकारी अधिकारी, शिक्षक आदि ही नहीं, यहाँ तो सैनिक भी अपने अधिकारों की रक्षा के लिये संगठन बनाने लग गये हैं। धार्मिक (धार्मिक) प्रतिमान में ऐसे अधिकारों के लिये लडने वाले संगठनों की आवश्यकता ही नहीं रहती। धार्मिक (धार्मिक) प्रतिमान में पहले तो संघर्ष नहीं होते और होते हैं तो वे कर्तव्य पालन (अन्यों के अधिकार) के लिये होते हैं। अपने अधिकारों के लिये नहीं। कर्तव्य पालन के लिए संघर्ष से प्रेम, सौहार्द, परस्पर विश्वास, सहानुभूति, कृतज्ञता आदि भाव बढ़ाते हैं। जो सुख और शान्ति को जन्म देते हैं।

Navigation menu