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| १९. हमारा कोई न कोई जीवनकार्य बनना चाहिये । अथर्जिन हेतु किया जाने वाला व्यवसाय भी जीवनकार्य बन सकता है । जिस कार्य में स्वार्थ केन्द्र में नहीं है वही जीवनकार्य होता है । ऐसे जीवनकार्य के प्रति निष्ठा नहीं रही तो वह जीवनकार्य नहीं कहा जाता । | | १९. हमारा कोई न कोई जीवनकार्य बनना चाहिये । अथर्जिन हेतु किया जाने वाला व्यवसाय भी जीवनकार्य बन सकता है । जिस कार्य में स्वार्थ केन्द्र में नहीं है वही जीवनकार्य होता है । ऐसे जीवनकार्य के प्रति निष्ठा नहीं रही तो वह जीवनकार्य नहीं कहा जाता । |
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− | २०. हमारे ध्यान में आयेगा कि भारतीय समाजव्यवस्था में प्रत्येक व्यवसाय को जीवनकार्य का श्रेष्ठ दर्जा ही प्राप्त था । उसे परमात्मा की अर्चना ही माना जाता था । उससे मोक्ष प्राप्त होने की सम्भावना थी । इसलिये उसे छोटा या क्षुद्र नहीं माना जाता था और किसी की उसे छोडने की वृत्ति नहीं बनती थी । भारत की मनीषा की अध्यात्मनिष्ठ व्यवहारबुद्धि का यह विलक्षण उदाहरण है । | + | २०. हमारे ध्यान में आयेगा कि धार्मिक समाजव्यवस्था में प्रत्येक व्यवसाय को जीवनकार्य का श्रेष्ठ दर्जा ही प्राप्त था । उसे परमात्मा की अर्चना ही माना जाता था । उससे मोक्ष प्राप्त होने की सम्भावना थी । इसलिये उसे छोटा या क्षुद्र नहीं माना जाता था और किसी की उसे छोडने की वृत्ति नहीं बनती थी । भारत की मनीषा की अध्यात्मनिष्ठ व्यवहारबुद्धि का यह विलक्षण उदाहरण है । |
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| २१. हमें खोया हुआ वैभव पुनः प्राप्त करना है। यह वैभव ज्ञान, संस्कार, व्यवहार, व्यवस्था और भौतिक समृद्धि का है । यह सब सामाजिक स्तर पर ही प्राप्त हो सकता है, सामाजिकता को अपनाने पर ही हो सकता है । समाज यह सब प्राप्त कर सके इस दृष्टि से व्यक्तिगत स्तर पर हमारा योगदान क्या हो सकता है इसका विचार करने पर जीवनकार्य निश्चित हो सकता | | २१. हमें खोया हुआ वैभव पुनः प्राप्त करना है। यह वैभव ज्ञान, संस्कार, व्यवहार, व्यवस्था और भौतिक समृद्धि का है । यह सब सामाजिक स्तर पर ही प्राप्त हो सकता है, सामाजिकता को अपनाने पर ही हो सकता है । समाज यह सब प्राप्त कर सके इस दृष्टि से व्यक्तिगत स्तर पर हमारा योगदान क्या हो सकता है इसका विचार करने पर जीवनकार्य निश्चित हो सकता |
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| ४२. इसी प्रकार स्वमान, स्वगौरव, स्वाधीनता और स्वतन्त्रता का आग्रह भी विकसित होना चाहिये । यह भी ध्यान में रहना चाहिये कि यदि इनकी समझ सही नहीं रही तो ये विकृतियों में परिवर्तित हो जाते हैं और सामाजिकता का नाश करते हैं । | | ४२. इसी प्रकार स्वमान, स्वगौरव, स्वाधीनता और स्वतन्त्रता का आग्रह भी विकसित होना चाहिये । यह भी ध्यान में रहना चाहिये कि यदि इनकी समझ सही नहीं रही तो ये विकृतियों में परिवर्तित हो जाते हैं और सामाजिकता का नाश करते हैं । |
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− | ४३. बुद्धिमानों के लिये भारतीय शाख्रग्रन्थों को प्रमाण मानने की निष्ठा विकसित होना आवश्यक है । शास्त्रों की समझ नहीं है तो शास्त्र जाननेवालों को आप अर्थात् श्रद्धा के पात्र मानना चाहिये | शास्त्र जानने वालों का चयन विचारपूर्वक करना चाहिये । | + | ४३. बुद्धिमानों के लिये धार्मिक शाख्रग्रन्थों को प्रमाण मानने की निष्ठा विकसित होना आवश्यक है । शास्त्रों की समझ नहीं है तो शास्त्र जाननेवालों को आप अर्थात् श्रद्धा के पात्र मानना चाहिये | शास्त्र जानने वालों का चयन विचारपूर्वक करना चाहिये । |
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| ४४. ऐसा चयन यदि नहीं कर सकते तो सन्तों और सजऊ्जनों की शरण में जाना चाहिये । हमारी बुद्धि यदि निःस्वार्थ है तो शासख्त्रज्ञ, सन्त, सज्जन को पहचानना बहुत कठिन नहीं होता है । | | ४४. ऐसा चयन यदि नहीं कर सकते तो सन्तों और सजऊ्जनों की शरण में जाना चाहिये । हमारी बुद्धि यदि निःस्वार्थ है तो शासख्त्रज्ञ, सन्त, सज्जन को पहचानना बहुत कठिन नहीं होता है । |
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| ५१. सादगी, सेवा और तप भी व्यक्तिगत जीवन का अंग बनना अपेक्षित है । उसके साथ ही सौन्दर्यबोध, रसिकता और उच्च स्तर का उपभोग भी अपेक्षित है । यह समझ भी बननी चाहिये कि ये सब एकदूसरे के विरोधी नहीं है । | | ५१. सादगी, सेवा और तप भी व्यक्तिगत जीवन का अंग बनना अपेक्षित है । उसके साथ ही सौन्दर्यबोध, रसिकता और उच्च स्तर का उपभोग भी अपेक्षित है । यह समझ भी बननी चाहिये कि ये सब एकदूसरे के विरोधी नहीं है । |
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− | ५१. विदेशी भाषा, विदेशी रहनसहन, विदेशी वस्तुओं के मोह में नहीं फैँसना चाहिये । विदेशों में हमारी पहचान एक सच्चे भारतीय के नाते कैसी बने इसकी स्पष्ट कल्पना बननी चाहिये । | + | ५१. विदेशी भाषा, विदेशी रहनसहन, विदेशी वस्तुओं के मोह में नहीं फैँसना चाहिये । विदेशों में हमारी पहचान एक सच्चे धार्मिक के नाते कैसी बने इसकी स्पष्ट कल्पना बननी चाहिये । |
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− | ५२. एक व्यक्ति के नाते स्वकेन्द्री बनकर दुनिया का विचार नहीं करना चाहिये । दुनिया मेरे लिये कितनी उपयोगी हो सकती है यह अधार्मिक विचार है, मैं दुनिया के लिये कितना उपयोगी बन सकता हूँ यह भारतीय विचार है । अपने व्यक्तिगत जीवन की रचना इस सूत्र पर आधारित होनी चाहिये । | + | ५२. एक व्यक्ति के नाते स्वकेन्द्री बनकर दुनिया का विचार नहीं करना चाहिये । दुनिया मेरे लिये कितनी उपयोगी हो सकती है यह अधार्मिक विचार है, मैं दुनिया के लिये कितना उपयोगी बन सकता हूँ यह धार्मिक विचार है । अपने व्यक्तिगत जीवन की रचना इस सूत्र पर आधारित होनी चाहिये । |
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| ५३. जात-पाँत का भेद नहीं रखना चाहिये । सभी जातियों का सम्मान करना चाहिये | | | ५३. जात-पाँत का भेद नहीं रखना चाहिये । सभी जातियों का सम्मान करना चाहिये | |
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| ७८. स्वस्थ शरीर, सज्जन मन और विवेकशील बुद्धि व्यक्ति की सच्ची सम्पत्ति है। ऐसे सम्पन्न व्यक्ति समाज की सच्ची सम्पत्ति है । ऐसा सम्पन्न समाज ही भारत को अपेक्षित है । इस अपेक्षा को पूर्ण करना व्यक्ति का दायित्व है, उसकी शिक्षा का सार है । | | ७८. स्वस्थ शरीर, सज्जन मन और विवेकशील बुद्धि व्यक्ति की सच्ची सम्पत्ति है। ऐसे सम्पन्न व्यक्ति समाज की सच्ची सम्पत्ति है । ऐसा सम्पन्न समाज ही भारत को अपेक्षित है । इस अपेक्षा को पूर्ण करना व्यक्ति का दायित्व है, उसकी शिक्षा का सार है । |
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− | ७९. यह सब करना धर्म का पालन करना है । धर्म का पालन करने से ही धर्म की रक्षा होती है । शिक्षा धर्म सिखाती है । भारतीय शिक्षा की पुनर्प्रतिष्ठा हेतु व्यक्तिगत स्तर पर यह सब करणीय कार्य है । | + | ७९. यह सब करना धर्म का पालन करना है । धर्म का पालन करने से ही धर्म की रक्षा होती है । शिक्षा धर्म सिखाती है । धार्मिक शिक्षा की पुनर्प्रतिष्ठा हेतु व्यक्तिगत स्तर पर यह सब करणीय कार्य है । |
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| ८०. कुशलता के कितने काम अधिक से अधिक मात्रा में हम कर सकते हैं इसका ध्यान रखना चाहिये । बहुत छोटे से कामों से शुरू कर बडे बडे और कठिन कामों | | ८०. कुशलता के कितने काम अधिक से अधिक मात्रा में हम कर सकते हैं इसका ध्यान रखना चाहिये । बहुत छोटे से कामों से शुरू कर बडे बडे और कठिन कामों |
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| ९३. घर में, समाज में, व्यवसाय में, किसी भी आयोजन में हमें प्राप्त भूमिका के कर्तव्यों और अधिकारों को ठीक से समझकर उसके लायक बनना हर व्यक्ति से अपेक्षित है । | | ९३. घर में, समाज में, व्यवसाय में, किसी भी आयोजन में हमें प्राप्त भूमिका के कर्तव्यों और अधिकारों को ठीक से समझकर उसके लायक बनना हर व्यक्ति से अपेक्षित है । |
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− | ९४. संस्कृत नहीं जानना भारतीय जीवनविचार के ज्ञान की दृष्टि से बडी कमी है । किसी भी आयु में उसका ज्ञान प्राप्त करने का प्रयास करना चाहिये । | + | ९४. संस्कृत नहीं जानना धार्मिक जीवनविचार के ज्ञान की दृष्टि से बडी कमी है । किसी भी आयु में उसका ज्ञान प्राप्त करने का प्रयास करना चाहिये । |
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| ९५. हमारी पहचान विचारशील, बुद्धिमान, कर्तव्य परायण, सेवाभावी व्यक्ति के रूप में है या उसके विपरीत इसका पता हमें चलना चाहिये । | | ९५. हमारी पहचान विचारशील, बुद्धिमान, कर्तव्य परायण, सेवाभावी व्यक्ति के रूप में है या उसके विपरीत इसका पता हमें चलना चाहिये । |
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| १०५, हमारा इस जन्म का जीवन कैसा है इसको पहचान कर हमारा पूर्वजन्म कैसा होगा इसका और हमारा अगला जन्म कैसा होगा इसका भी अनुमान लगाना चाहिये, क्योंकि हमारा इस जन्म का जीवन पूर्वजन्म का परिणाम है और अगला जन्म इस जन्म का परिणाम होगा । | | १०५, हमारा इस जन्म का जीवन कैसा है इसको पहचान कर हमारा पूर्वजन्म कैसा होगा इसका और हमारा अगला जन्म कैसा होगा इसका भी अनुमान लगाना चाहिये, क्योंकि हमारा इस जन्म का जीवन पूर्वजन्म का परिणाम है और अगला जन्म इस जन्म का परिणाम होगा । |
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− | १०६, एक भारतीय हमेशा मोक्ष चाहता है । मोक्ष का अर्थ है मुक्ति । हम किन किन बातों से मुक्ति चाहते हैं इसकी ही प्रथम तो स्पष्टता कर लेनी चाहिये । वह चाह कितनी स्थिर है यह भी देखना चाहिये । यह चाह कितनी उचित है इसका भी विवेक होना चाहिये । इसके बाद मुक्ति की चाह पूर्ण कैसे होगी उसका विचार होगा और उसे प्राप्त करने हेतु प्रयास भी होगा । | + | १०६, एक धार्मिक हमेशा मोक्ष चाहता है । मोक्ष का अर्थ है मुक्ति । हम किन किन बातों से मुक्ति चाहते हैं इसकी ही प्रथम तो स्पष्टता कर लेनी चाहिये । वह चाह कितनी स्थिर है यह भी देखना चाहिये । यह चाह कितनी उचित है इसका भी विवेक होना चाहिये । इसके बाद मुक्ति की चाह पूर्ण कैसे होगी उसका विचार होगा और उसे प्राप्त करने हेतु प्रयास भी होगा । |
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| === कौशलविकास === | | === कौशलविकास === |