| ११. अतः अंग्रेजों की प्रथम वरीयता लूट करना, लूट दीर्घ काल तक निरन्तर रूप से कर सकें इस हेतु से व्यापार करना और व्यापार के सारे अवरोध दूर करने हेतु राज्य हस्तगत करना तीसरे क्रम में आता है । इसके साथ ही सुलभ थे इसलिये और दो उद्देश्य जुड गये । एक था यूरोपीकरण और दूसरा था ईसाईकरण । अतः उनके उद्देश्यों का क्रम कुछ इस प्रकार बनता है - १, लूट करना, २. व्यापार करना, ३. राज्य करना, ४. युरोपीकरण करना और ५. ईसाईकरण करना | | | ११. अतः अंग्रेजों की प्रथम वरीयता लूट करना, लूट दीर्घ काल तक निरन्तर रूप से कर सकें इस हेतु से व्यापार करना और व्यापार के सारे अवरोध दूर करने हेतु राज्य हस्तगत करना तीसरे क्रम में आता है । इसके साथ ही सुलभ थे इसलिये और दो उद्देश्य जुड गये । एक था यूरोपीकरण और दूसरा था ईसाईकरण । अतः उनके उद्देश्यों का क्रम कुछ इस प्रकार बनता है - १, लूट करना, २. व्यापार करना, ३. राज्य करना, ४. युरोपीकरण करना और ५. ईसाईकरण करना | |
− | २१. यूरोपीकरण का एक आयाम है साम्यवाद का संकट | संकल्पनात्मक शब्दों के अंग्रेजी और भारतीय भाषाओं में परस्पर अनुवाद का परिणाम होता है शब्दों के अर्थ के बारे में सम्ध्रम और विपरीतता । साम्यवाद ने धर्म को अफीम बताया, सेकुलर को धर्मनिरपेक्ष कहा. और धर्मको भावात्मकता का रूप देकर धर्म निरपेक्षता को बौद्धिक बताया । इससे निधर्मिकता और अधार्मिकता की प्रतिष्ठा हुई । संस्कृति को धर्म से अलग कर उसका. राजनीतिकरण किया । 'राजनीति' *पोलीटीक्स' का अनुवाद है। परन्तु धर्म और रिलीजन, संस्कृति और कल्चर, राष्ट्र और नेशन की तरह राजनीति और पोलीटीक्स का भी घोटाला ही है । राजनीति बहुत ही विधायक अर्थवाला शब्द है, उसकी प्रतिष्ठा है, शासक और प्रशासक - मुख्य रूप से प्रशासक - राजनीतिनिपुण होना चाहिये परन्तु जिस रूप में आज पोलीटीक्स अर्थात् राजनीति को समझा जाता है और व्यवहार में लाया जाता है वह अर्थ है शठता और धूर्तता जिसका लक्ष्य है येनकेन प्रकारेण स्वार्थसिद्धि । साम्यवाद ने दैनन्दिन व्यवहार में संस्कृति के नाम पर स्वार्थ सिद्धि हेतु शठता और धूर्तता को मान्यता दे दी । अब, पोलीटीक्स नहीं चाहिये परन्तु संस्कृति चाहिये । शठता और धूर्तता स्वार्थसिद्धि के साधन के रूप में प्रयुक्त होते हैं तो आपत्ति नहीं । | + | २१. यूरोपीकरण का एक आयाम है साम्यवाद का संकट | संकल्पनात्मक शब्दों के अंग्रेजी और धार्मिक भाषाओं में परस्पर अनुवाद का परिणाम होता है शब्दों के अर्थ के बारे में सम्ध्रम और विपरीतता । साम्यवाद ने धर्म को अफीम बताया, सेकुलर को धर्मनिरपेक्ष कहा. और धर्मको भावात्मकता का रूप देकर धर्म निरपेक्षता को बौद्धिक बताया । इससे निधर्मिकता और अधार्मिकता की प्रतिष्ठा हुई । संस्कृति को धर्म से अलग कर उसका. राजनीतिकरण किया । 'राजनीति' *पोलीटीक्स' का अनुवाद है। परन्तु धर्म और रिलीजन, संस्कृति और कल्चर, राष्ट्र और नेशन की तरह राजनीति और पोलीटीक्स का भी घोटाला ही है । राजनीति बहुत ही विधायक अर्थवाला शब्द है, उसकी प्रतिष्ठा है, शासक और प्रशासक - मुख्य रूप से प्रशासक - राजनीतिनिपुण होना चाहिये परन्तु जिस रूप में आज पोलीटीक्स अर्थात् राजनीति को समझा जाता है और व्यवहार में लाया जाता है वह अर्थ है शठता और धूर्तता जिसका लक्ष्य है येनकेन प्रकारेण स्वार्थसिद्धि । साम्यवाद ने दैनन्दिन व्यवहार में संस्कृति के नाम पर स्वार्थ सिद्धि हेतु शठता और धूर्तता को मान्यता दे दी । अब, पोलीटीक्स नहीं चाहिये परन्तु संस्कृति चाहिये । शठता और धूर्तता स्वार्थसिद्धि के साधन के रूप में प्रयुक्त होते हैं तो आपत्ति नहीं । |
| २२. अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के नाम पर कला, संगीत, साहित्य, मनोरंजन आदि के क्षेत्र में मूल्यों पर आघात करना साम्यवादी तरीका है। राम ने सीता को अन्याय किया कहकर पुरुष जाति के स्त्रीजाति पर अन्याय को मुखर बनाना, देवी देवताओं के अश्लील चित्र बनाना, स्त्रियो को लिव इन रिलेशनशीप तक पहुँचा देना, मनोविकृतियाँ पैदा करनेवाले टीवी धारावाहिक बनाना, वेदों की. निन््दा करना, यूरोपीकरण का साम्यवादी तरीका है । समानता के नाम पर ख्त्रीयों को पुरुषों के, गरीबों को आमीरों के, प्रजा को शासकों के, शूट्रों को ब्राह्मणों के, विद्यार्थियों को शिक्षकों के और सन्तानों को मातापिता के विरुद्ध भडकाकर वर्गविग्रह निर्माण करना, आशांति फैलाना और समाज को तोडना यूरोपीकरण का साम्यवादी तरीका है । आधुनिकता के नाम पर सर्व प्रकार के रीतिरिवाजों की निन््दा करना, उनका अपहास करना, उनको अआवैज्ञानिक बताना, अपनी भाषा, वेशभूषा, समारोहों को यूरोपीय बनाना, अनुशासन, आज्ञापालकता, नियमपालन, संस्कारिता, शिष्टता आदि छोड़कर नई पीढी आधुनिक बन सकती है ऐसा प्रचार करना यह संस्कारिता नष्ट करने का साम्यवादी तरीका है । इतिहास के अध्ययन का नाम लेकर हमारे पूर्वजों को काल्पनिक पात्र बताना, पुराणों तथा रामायण, महाभारत, उपनिषद आदि को प्रमाण नहीं मानना, हमारी सारी व्यवस्थायें, विशेष रूप से समाजव्यवस्था पिछडेपन की, अर्थव्यवस्था शोषण की, धर्मव्यवस्था पोंगापन और भोंदुगीरी की ही निशानी है। हमारे शासक विलासी और व्यभिचारी थे, ब्राह्मण सामाजिक अन्याय का प्रतीक थे कहकर राज्यव्यवस्था को गाली देना, ज्ञानव्यवस्था को निकृष्ट बताना 'ज्ञानात्मक' तोड़फोड़ का साम्यवादी तरीके है । इस प्रकार से यूरोपीकरण का तोडफोड के तन्त्र आज भी चल रहा है। इसका सबसे प्रभावी माध्यम शिक्षा है, सबसे कामयाब केन्द्र विश्वविद्यालय है । | | २२. अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के नाम पर कला, संगीत, साहित्य, मनोरंजन आदि के क्षेत्र में मूल्यों पर आघात करना साम्यवादी तरीका है। राम ने सीता को अन्याय किया कहकर पुरुष जाति के स्त्रीजाति पर अन्याय को मुखर बनाना, देवी देवताओं के अश्लील चित्र बनाना, स्त्रियो को लिव इन रिलेशनशीप तक पहुँचा देना, मनोविकृतियाँ पैदा करनेवाले टीवी धारावाहिक बनाना, वेदों की. निन््दा करना, यूरोपीकरण का साम्यवादी तरीका है । समानता के नाम पर ख्त्रीयों को पुरुषों के, गरीबों को आमीरों के, प्रजा को शासकों के, शूट्रों को ब्राह्मणों के, विद्यार्थियों को शिक्षकों के और सन्तानों को मातापिता के विरुद्ध भडकाकर वर्गविग्रह निर्माण करना, आशांति फैलाना और समाज को तोडना यूरोपीकरण का साम्यवादी तरीका है । आधुनिकता के नाम पर सर्व प्रकार के रीतिरिवाजों की निन््दा करना, उनका अपहास करना, उनको अआवैज्ञानिक बताना, अपनी भाषा, वेशभूषा, समारोहों को यूरोपीय बनाना, अनुशासन, आज्ञापालकता, नियमपालन, संस्कारिता, शिष्टता आदि छोड़कर नई पीढी आधुनिक बन सकती है ऐसा प्रचार करना यह संस्कारिता नष्ट करने का साम्यवादी तरीका है । इतिहास के अध्ययन का नाम लेकर हमारे पूर्वजों को काल्पनिक पात्र बताना, पुराणों तथा रामायण, महाभारत, उपनिषद आदि को प्रमाण नहीं मानना, हमारी सारी व्यवस्थायें, विशेष रूप से समाजव्यवस्था पिछडेपन की, अर्थव्यवस्था शोषण की, धर्मव्यवस्था पोंगापन और भोंदुगीरी की ही निशानी है। हमारे शासक विलासी और व्यभिचारी थे, ब्राह्मण सामाजिक अन्याय का प्रतीक थे कहकर राज्यव्यवस्था को गाली देना, ज्ञानव्यवस्था को निकृष्ट बताना 'ज्ञानात्मक' तोड़फोड़ का साम्यवादी तरीके है । इस प्रकार से यूरोपीकरण का तोडफोड के तन्त्र आज भी चल रहा है। इसका सबसे प्रभावी माध्यम शिक्षा है, सबसे कामयाब केन्द्र विश्वविद्यालय है । |
| २५. हमने अपने स्वयं के लिये विचित्र समस्या निर्माण कर ली है । विदेशी शत्रु के आक्रमण के सामने लडने के लिये हमारे पास सेना है । विदेशी जासूसों को पकडने के लिये हमारे पास जासूसी तन्त्र है । देश में भी जो आतंकवादी हैं उन्हें पकडने के लिये सेना और पुलीस है । गुंडों को पकडने और सजा करने के लिये पुलीस और न्यायालय है । किसी भी प्रकार के सामाजिक और आर्थिक अपराधों के लिये पुलीस और न्यायालय है । परन्तु धर्म और संस्कृति के क्षेत्र में सुरक्षा का कोई प्रावधान नहीं है । कानूनी अर्थ में जो सामाजिकता है, नैतिकता है उसकी ही रक्षा का प्रावधान है । सांस्कृतिक दृष्टि से जो सामाजिकता है उसकी रक्षा के लिये कोई व्यवस्था नहीं है । धर्म, संस्कृति और ज्ञान ही यदि सुरक्षित नहीं है तो और कौन सी बात सुरक्षित रह सकती है । धर्म, संस्कृति और ज्ञान की रक्षा करना राष्ट्रीय कर्तव्य है ऐसा सरकार को लगता ही नहीं है । धर्म जिनका कार्यक्षेत्र है उन्हें इस मुद्दे की ठीक से समझ नहीं है । यह इसलिये कहना प्राप्त है क्योंकि वे प्रजा को धर्मप्रवण बनाने का तो प्रयास करते हैं परन्तु अर्थक्षेत्र, ज्ञानक्षेत्र और राज्यक्षेत्र की धर्मविमुखता को अपने कार्यक्षेत्र में समाविष्ट नहीं करते । जीवन के इन तीनों महात्त्वपूर्ण क्षेत्रों में यूरोपीकरण के शिकार बने लोगों को वास्तव में धर्मप्रवण कैसे बनाया जा सकता है ? | | २५. हमने अपने स्वयं के लिये विचित्र समस्या निर्माण कर ली है । विदेशी शत्रु के आक्रमण के सामने लडने के लिये हमारे पास सेना है । विदेशी जासूसों को पकडने के लिये हमारे पास जासूसी तन्त्र है । देश में भी जो आतंकवादी हैं उन्हें पकडने के लिये सेना और पुलीस है । गुंडों को पकडने और सजा करने के लिये पुलीस और न्यायालय है । किसी भी प्रकार के सामाजिक और आर्थिक अपराधों के लिये पुलीस और न्यायालय है । परन्तु धर्म और संस्कृति के क्षेत्र में सुरक्षा का कोई प्रावधान नहीं है । कानूनी अर्थ में जो सामाजिकता है, नैतिकता है उसकी ही रक्षा का प्रावधान है । सांस्कृतिक दृष्टि से जो सामाजिकता है उसकी रक्षा के लिये कोई व्यवस्था नहीं है । धर्म, संस्कृति और ज्ञान ही यदि सुरक्षित नहीं है तो और कौन सी बात सुरक्षित रह सकती है । धर्म, संस्कृति और ज्ञान की रक्षा करना राष्ट्रीय कर्तव्य है ऐसा सरकार को लगता ही नहीं है । धर्म जिनका कार्यक्षेत्र है उन्हें इस मुद्दे की ठीक से समझ नहीं है । यह इसलिये कहना प्राप्त है क्योंकि वे प्रजा को धर्मप्रवण बनाने का तो प्रयास करते हैं परन्तु अर्थक्षेत्र, ज्ञानक्षेत्र और राज्यक्षेत्र की धर्मविमुखता को अपने कार्यक्षेत्र में समाविष्ट नहीं करते । जीवन के इन तीनों महात्त्वपूर्ण क्षेत्रों में यूरोपीकरण के शिकार बने लोगों को वास्तव में धर्मप्रवण कैसे बनाया जा सकता है ? |