श्रीमदू भगवदू गीता में कहा है<ref>श्रीमद भगवद गीता 4.34 </ref> -<blockquote>तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया ।। 4.34 ।।</blockquote><blockquote>अर्थात् ज्ञान प्राप्त करने के लिए प्रणिपात करना चाहिये, प्रश्न पूछने चाहिये और सेवा करनी चाहिये ।</blockquote>प्रणिपात करना चाहिये अर्थात् विनयशीलता होनी चाहिये । विनम्रता होनी चाहिये । वेशभूषा, भाषा, हलचल और व्यवहार में विनम्रता प्रकट होती है । विनम्र होने से ही ज्ञान ग्रहण किया जा सकता है। परिप्रश्न का अर्थ है उत्सुकता, अर्थात् जानने के लिए किए गए प्रश्न । भारतीय परंपरा में जिज्ञासा अर्थात् जानने की इच्छा और उसके लिये पूछे गये प्रश्न ही ज्ञानसरिता के प्रवाह का उद्गम है । साथ ही साथ सेवा भी ज्ञानप्राप्ति के लिए आवश्यक है । ज्ञान देने वाले के प्रति नम्रता के साथ साथ उसकी सक्रिय सेवा भी जरुरी है । | श्रीमदू भगवदू गीता में कहा है<ref>श्रीमद भगवद गीता 4.34 </ref> -<blockquote>तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया ।। 4.34 ।।</blockquote><blockquote>अर्थात् ज्ञान प्राप्त करने के लिए प्रणिपात करना चाहिये, प्रश्न पूछने चाहिये और सेवा करनी चाहिये ।</blockquote>प्रणिपात करना चाहिये अर्थात् विनयशीलता होनी चाहिये । विनम्रता होनी चाहिये । वेशभूषा, भाषा, हलचल और व्यवहार में विनम्रता प्रकट होती है । विनम्र होने से ही ज्ञान ग्रहण किया जा सकता है। परिप्रश्न का अर्थ है उत्सुकता, अर्थात् जानने के लिए किए गए प्रश्न । भारतीय परंपरा में जिज्ञासा अर्थात् जानने की इच्छा और उसके लिये पूछे गये प्रश्न ही ज्ञानसरिता के प्रवाह का उद्गम है । साथ ही साथ सेवा भी ज्ञानप्राप्ति के लिए आवश्यक है । ज्ञान देने वाले के प्रति नम्रता के साथ साथ उसकी सक्रिय सेवा भी जरुरी है । |