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→‎आदर्श विद्यार्थी: लेख संपादित किया
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विद्या प्राप्ति के लिए साधना करनी पड़ती है । सुख और आराम में रहकर विद्या प्राप्त नहीं की जा सकती । इस संदर्भ में एक सुभाषित है {{Citation needed}}- <blockquote>सुखार्थी चेत्‌ त्यजेत्‌ विद्यां विद्यार्थी चेत्‌ त्यजेत सुखम्‌ ।</blockquote><blockquote>सुखार्थिन कुतो विद्या विद्यार्थिन: कुत्तो सुखम्‌ ।।</blockquote><blockquote>अर्थात्‌ सुख की कामना करने वाले ने विद्याप्राप्ति को छोड देना चाहिये और अगर विद्याप्राप्ति की कामना है तो सुख की कामना छोड़ देनी चाहिये, क्योंकि सुखार्थी को विद्या और विद्या के अर्थी को सुख कैसे प्राप्त हो सकता है?</blockquote>विद्यार्थी सुखशैय्या पर नहीं सोता, मिष्टान्न या भाँति भाँति के भोजन नहीं करता, मनोरंजन के पीछे समय बर्बाद नहीं करता । यही उपदेश उसे दिया जाता है ।  
 
विद्या प्राप्ति के लिए साधना करनी पड़ती है । सुख और आराम में रहकर विद्या प्राप्त नहीं की जा सकती । इस संदर्भ में एक सुभाषित है {{Citation needed}}- <blockquote>सुखार्थी चेत्‌ त्यजेत्‌ विद्यां विद्यार्थी चेत्‌ त्यजेत सुखम्‌ ।</blockquote><blockquote>सुखार्थिन कुतो विद्या विद्यार्थिन: कुत्तो सुखम्‌ ।।</blockquote><blockquote>अर्थात्‌ सुख की कामना करने वाले ने विद्याप्राप्ति को छोड देना चाहिये और अगर विद्याप्राप्ति की कामना है तो सुख की कामना छोड़ देनी चाहिये, क्योंकि सुखार्थी को विद्या और विद्या के अर्थी को सुख कैसे प्राप्त हो सकता है?</blockquote>विद्यार्थी सुखशैय्या पर नहीं सोता, मिष्टान्न या भाँति भाँति के भोजन नहीं करता, मनोरंजन के पीछे समय बर्बाद नहीं करता । यही उपदेश उसे दिया जाता है ।  
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ज्ञान प्राप्त करने के लिए धन की नहीं अपितु कुछ विशेष गुर्णों की आवश्यकता होती है । इन गुणों के कारण ज्ञानप्राप्ति की पात्रता प्राप्त होती है । श्रीमदू भगवदू गीता में कहा है -<blockquote>श्रद्धावान्‌ लभते ज्ञान तत्पर: संयतेन्द्रिय: ।</blockquote><blockquote>अर्थात्‌ जिसमें श्रद्धा, तत्परता और इंद्रियसंयम  है वही ज्ञान प्राप्त कर सकता है ।</blockquote>श्रद्धा अर्थात्‌ ज्ञान में श्रद्धा, अपने आप में श्रद्धा और ज्ञान देने वाले में श्रद्धा होनी चाहिये |
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ज्ञान प्राप्त करने के लिए धन की नहीं अपितु कुछ विशेष गुर्णों की आवश्यकता होती है । इन गुणों के कारण ज्ञानप्राप्ति की पात्रता प्राप्त होती है । श्रीमदू भगवदू गीता में कहा है <ref>श्रीमद भगवद गीता 4.39  </ref>-<blockquote>श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः ।। 4.39 ।। </blockquote><blockquote>अर्थात्‌ जिसमें श्रद्धा, तत्परता और इंद्रियसंयम  है वही ज्ञान प्राप्त कर सकता है ।</blockquote>श्रद्धा अर्थात्‌ ज्ञान में श्रद्धा, अपने आप में श्रद्धा और ज्ञान देने वाले में श्रद्धा होनी चाहिये ।तत्परता अर्थात्‌ नित्यसिद्धता, अर्थात्‌ ज्ञानप्राप्ति के लिए कुछ भी करने के लिए हंमेशा तैयार, तत्पर रहना । इंद्रियसंयम  अर्थात्‌ मौजशौक का संपूर्ण त्याग । यह ज्ञान प्राप्ति की सबसे बड़ी पात्रता है ।
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तत्परता अर्थात्‌ नित्यसिद्धता, अर्थात्‌ ज्ञानप्राप्ति के लिए कुछ भी करने के लिए हंमेशा तैयार, तत्पर रहना ।
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श्रीमदू भगवदू गीता में कहा है<ref>श्रीमद भगवद गीता 4.34  </ref> -<blockquote>तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया ।। 4.34 ।।</blockquote><blockquote>अर्थात्‌ ज्ञान प्राप्त करने के लिए प्रणिपात करना चाहिये, प्रश्न पूछने चाहिये और सेवा करनी चाहिये ।</blockquote>प्रणिपात करना चाहिये अर्थात्‌ विनयशीलता होनी चाहिये । विनम्रता होनी चाहिये । वेशभूषा, भाषा, हलचल और व्यवहार में विनम्रता प्रकट होती है । विनम्र होने से ही ज्ञान ग्रहण किया जा सकता है। परिप्रश्न का अर्थ है उत्सुकता, अर्थात्‌ जानने के लिए किए गए प्रश्न । भारतीय परंपरा में जिज्ञासा अर्थात्‌ जानने की इच्छा और उसके लिये पूछे गये प्रश्न ही ज्ञानसरिता के प्रवाह का उद्गम है । साथ ही साथ सेवा भी ज्ञानप्राप्ति के लिए आवश्यक है । ज्ञान देने वाले के प्रति नम्रता के साथ साथ उसकी सक्रिय सेवा भी जरुरी है ।
 
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इंद्रियसंयम  अर्थात्‌ मौजशौक का संपूर्ण त्याग । यह ज्ञान प्राप्ति की सबसे बड़ी पात्रता है ।
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श्रीमदू भगवदू गीता में कहा है -<blockquote>'''तद्रिद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया ।'''</blockquote><blockquote>अर्थात्‌ ज्ञान प्राप्त करने के लिए प्रणिपात करना चाहिये, प्रश्न पूछने चाहिये और सेवा करनी चाहिये ।</blockquote>प्रणिपात करना चाहिये अर्थात्‌ विनयशीलता होनी चाहिये । विनम्रता होनी चाहिये । वेशभूषा, भाषा, हलचल और व्यवहार में विनम्रता प्रकट होती है । विनम्र होने से ही ज्ञान ग्रहण किया जा सकता है। परिप्रश्न का अर्थ है उत्सुकता, अर्थात्‌ जानने के लिए किए गए प्रश्न । भारतीय परंपरा में जिज्ञासा अर्थात्‌ जानने की इच्छा और उसके लिये पूछे गये प्रश्न ही ज्ञानसरिता के प्रवाह का उद्गम है । साथ ही साथ सेवा भी ज्ञानप्राप्ति के लिए आवश्यक है । ज्ञान देने वाले के प्रति नम्रता के साथ साथ उसकी सक्रिय सेवा भी जरुरी है ।
      
नम्रता मन का भाव है । जिज्ञासा बुद्धि का गुण है और सेवा शरीर का कार्य है । इस प्रकार विद्यार्थी शरीर, मन, बुद्धि तीनों से ही ज्ञान प्राप्त करने के लिए लायक बनता है । विद्यार्थी के व्यवहार के लिए एक सुभाषित है -
 
नम्रता मन का भाव है । जिज्ञासा बुद्धि का गुण है और सेवा शरीर का कार्य है । इस प्रकार विद्यार्थी शरीर, मन, बुद्धि तीनों से ही ज्ञान प्राप्त करने के लिए लायक बनता है । विद्यार्थी के व्यवहार के लिए एक सुभाषित है -

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