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बारह बजे के बाद की दो घण्टे की नींद के बराबर होती है । इसलिये जल्दी सोने से कम समय सोने पर भी अधिक नींद मिलती है ।
बारह बजे के बाद की दो घण्टे की नींद के बराबर होती है । इसलिये जल्दी सोने से कम समय सोने पर भी अधिक नींद मिलती है ।
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रात्रि में सोने के समय का सायंकाल के भोजन के समय के साथ सम्बन्ध है । सायंकाल को किया हुआ भोजन पच जाने के बाद ही सोना चाहिये । भोजन पचने से पहले सोना स्वास्थ्य के लिये अत्यन्त हानिकारक है । सायंकाल को सूर्यास्त से पूर्व भोजन करना चाहिये यह हमने भोजन की चर्चा करते समय देखा है। सायंकाल का भोजन हल्का ही होना चाहिये जिसे पचने में ढाई घण्टे से अधिक समय न लगे । सायंकाल के भोजन का समय ऋतु के अनुसार
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रात्रि में सोने के समय का सायंकाल के भोजन के समय के साथ सम्बन्ध है । सायंकाल को किया हुआ भोजन पच जाने के बाद ही सोना चाहिये । भोजन पचने से पहले सोना स्वास्थ्य के लिये अत्यन्त हानिकारक है । सायंकाल को सूर्यास्त से पूर्व भोजन करना चाहिये यह हमने भोजन की चर्चा करते समय देखा है। सायंकाल का भोजन हल्का ही होना चाहिये जिसे पचने में ढाई घण्टे से अधिक समय न लगे । सायंकाल के भोजन का समय ऋतु के अनुसार छः से लेकर साडे सात का होता है । अतः सोने का समय रात्रि में साडे आठ से दस बजे का है । दस से अधिक देरी कभी भी नहीं होनी चाहिये ।
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छः से लेकर साडे सात का होता है । अतः सोने का
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हम देखते हैं कि हमारी काम करने की व्यवस्था और पद्धति, टीवी कार्यक्रमों का समय, भोजन का समय हमें रात्रि में उचित समय पर सोने नहीं देते । नींद की गुणवत्ता खराब होने का प्रारम्भ वहीं से हो जाता है । सोते समय दूध पीने की, प्राणायाम और ध्यान करने की या प्रार्थना करने की प्रवृत्ति नहीं रही तो शान्त और गहरी निद्रा नहीं आती । शान्त, गहरी, सुखकारक निद्रा नहीं हुई तो चेतातन्त्र का तनाव बढता है और मन की अशान्ति, रक्तचाप आदि पैदा होते हैं । इसलिये पहला नियम रात्रि में जल्दी सोने का है।
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समय रात्रि में साडे आठ से दस बजे का है । दस से
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रात्रि में जल्दी सोने से स्वाभाविक रूप में ही प्रातःकाल जल्दी उठा जा सकता है । स्वस्थ व्यक्ति को आयु के अनुसार छः से आठ घण्टे की नींद चाहिये । रात्रि में नौ बजे सोयें तो प्रातः तीन से पाँच बजे तक उठा जाता है । प्रातःकाल जगने का समय सूर्योदय से कम से कम चार घडी और अधिक से अधिक छः घडी होता है । एक घडी चौबीस मिनिट की होती है । अतः सूर्योदय से लगभग देढ से सवा दो घण्टे पूर्व जगना चाहिये । सूर्योदय ऋतु अनुसार प्रात: साड़े पाँच से साड़े सात बजे तक होता है । अतः प्रात: जगने का समय साडे तीन से लेकर साडे पाँच बजे तक का होता है। जिन्हे आठ या छः घण्टे की अवधि चाहिये । उन्होंने इस प्रकार गिनती कर रात्रि में सोने का समय निश्चित करना चाहिये ।
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अधिक देरी कभी भी नहीं होनी चाहिये ।
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किसी भी स्थिति में नींद पूरी होनी ही चाहिये । शरीर के सभी तन्त्रों को सुख और आराम नींद से ही मिलते हैं । रात्रि में जल्दी सोने और प्रातः जल्दी उठने से बल, बुद्धि और स्वास्थ्य तीनों बढते हैं ऐसा बुद्धिमान लोगों को शास्त्र से और सामान्य जन को परम्परा से ज्ञान मिलता है ।
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हम देखते हैं कि हमारी काम करने की व्यवस्था
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प्रातत्काल सूर्योदय के पूर्व के डेढ घण्टे को ब्रह्ममुहूर्त कहते हैं । यह समय ध्यान, चिन्तन, कण्ठस्थीकरण आदि के लिये श्रेष्ठ समय है। इस समय सोते रहना अत्यन्त हानिकारक है । और कुछ भी न करो तो भी जागते रहो ऐसा सुधी जन अग्रहपूर्वक कहते हैं ।
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और पद्धति, टीवी कार्यक्रमों का समय, भोजन का
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३. सुबह और शाम छः से दस बजे तक का काल अध्ययन के लिये उत्तम होता है । आयु के अनुसार दिन में चार से सात घण्टे अध्ययन करना चाहिये, छः से आठ घण्टे सोना चाहिये, तीन से पाँच घण्टे श्रम करना चाहिये, दो घण्टे विश्रान्ति लेना चाहिये, दो घण्टे मनोविनोद् के लिये होने चाहिये, शेष अन्य कार्यों के लिये होने चाहिये। आयु, स्वास्थ्य, क्षमता, आवश्यकता आदि के अनुसार यह समय कुछ मात्रा में कमअधिक हो सकता है, ये सामान्य निर्देश हैं ।
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समय हमें रात्रि में उचित समय पर सोने नहीं देते ।
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भोजन के तुरन्त बाद चार घडी तक शारीरिक और बौद्धिक श्रम नहीं करना चाहिये । इस दृष्टि से सुबह ग्यारह बजे शुरू होकर शाम पाँच या छः बजे तक चलने वाले विद्यालयों और कार्यालयों का समय अत्यन्त अवैज्ञानिक है । ये दोनों ऋतु के अनुसार प्रातः आठ या नौ को शुरू होकर साडे ग्यारह तक और दोपहर में तीन से छः बजे तक चलने चाहिये । अध्ययन के समय को तो आवासी विद्यालयों के अभाव में किसी भी प्रकार से उचित रूप से नहीं बिठा सकते । विद्यालय घर से इतना समीप हो कि दस मिनट में घर से विद्यालय जा आ सकें तभी उचित व्यवस्था हो सकती है । हमारी पारम्परिक व्यवस्था उचित दिनचर्या से युक्त ही होती थी । सम्पूर्ण समाज इसका पालन करता था इसलिये व्यवस्था बनी रहती थी । हमारी आज की व्यक्तिगत, पारिवारिक और सामाजिक दिनचर्या अत्यन्त अवैज्ञानिक बन गई है ।
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नींद की गुणवत्ता खराब होने का प्रारम्भ वहीं से हो
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इसी प्रकार क्रतुचर्या भी अस्तव्यस्त हो गई है । ऋतु के अनुसार आहारविहार का नियमन होता है । आहार का समय और आहार की सामग्री ऋतु के अनुसार बदलते हैं । फल, सब्जी, पेय पदार्थ, मिष्टान्नर, नमकीन आदि सब ऋतु के अनुसार भिन्न भिन्न होते हैं । उदाहरण के लिये वर्षा के समय में घी की और गरम, ठण्ड के दिनों में दूध की और गर्मी के दिनों में दही की तथा ठण्डी और खटाई युक्त मिठाइयाँ उचित रहती हैं । केले वर्षाक्तु में, आम गर्मियों में, सूखा मेवा ठण्ड के लिये अनुकूल है । पचने में भारी पदार्थ ठण्ड के दिनों में ही चलते हैं । कम खाना वर्षाऋतु के लिये अनुकूल है । बैंगन, प्याज, पत्तों वाली सब्जी वर्षक्रतु में नहीं खानी चाहिये । बैंगन तो गर्मियों में भी नहीं खा सकते, केवल ठण्ड के दिनों के लिये अनुकूल हैं । गर्मी के दिनों में दोपहर में बना खाना चार घण्टे के बाद भी नहीं खाना चाहिये। वर्षक्रतु में ठण्डा भोजन नहीं करना चाहिये । बसन्त ऋतु में दहीं नहीं खाना चाहिये ।
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जाता है । सोते समय दूध पीने की, प्राणायाम और
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ये तो केवल उदाहरण हैं । क्रतुचर्या आहारशास्त्र का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हिस्सा है । आहार के साथ साथ वस्त्र, खेल, काम आदि का भी ऋऋतुचर्या में समावेश होता है ।
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ध्यान करने की या प्रार्थना करने की प्रवृत्ति नहीं रही
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किसी भी ऋतु में दिन में एक बार तो पसीना निकल आये ऐसा काम, व्यायाम या खेल होना ही चाहिये । पसीने के साथ शरीर और मन का मैल निकल जाता है और वे शुद्ध होते हैं जिससे सुख, आराम और प्रसन्नता प्राप्त होते हैं ।
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तो शान्त और गहरी निद्रा नहीं आती । शान्त, गहरी,
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दिनचर्या और कऋऋतुचर्या की तरह जीवनचर्या भी महत्त्वपूर्ण विषय है । जीवन जीने की पद्धति को जीवनचर्या कहते हैं । जीवनचर्या के बारे में कुछ इस प्रकार से विचार किया जा सकता है ।
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सुखकारक निद्रा नहीं हुई तो चेतातन्त्र का तनाव
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१, हम मनुष्य हैं । मनुष्य के जीवन का कोई न कोई लक्ष्य होना चाहिये, उद्देश्य होना चाहिये, उद्देश्य की सिद्धि और लक्ष्य की प्राप्ति के लिये प्रवृत्ति और गतिविधि बननी चाहिये । इस गतिविधि के अनुसार जीवनकार्य होना चाहिये ।
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बढता है और मन की अशान्ति, रक्तचाप आदि पैदा
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२... आयु की अवस्था के अनुसार जीवन का कोई न कोई मुख्य और केन्द्रवर्ती कार्य होना चाहिये । उदाहरण के लिये विद्यार्थियों का मुख्य कार्य अध्ययन करना है, गृहस्थाश्रमी का मुख्य कार्य अधथर्जिन हेतु अपने स्वभाव और क्षमता के अनुसार व्यवसाय करना है
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होते हैं । इसलिये पहला नियम रात्रि में जल्दी सोने
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का है।
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रात्रि में जल्दी सोने से स्वाभाविक रूप में ही
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प्रातःकाल जल्दी उठा जा सकता है । स्वस्थ व्यक्ति
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को आयु के अनुसार छः से आठ घण्टे की नींद
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चाहिये । रात्रि में नौ बजे सोयें तो प्रातः तीन से पाँच
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बजे तक उठा जाता है । प्रातःकाल जगने का समय
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सूर्योदय से कम से कम चार घडी और अधिक से
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अधिक छः घडी होता है । एक घडी चौबीस मिनिट
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की होती है । अतः सूर्योदय से लगभग देढ से सवा
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दो घण्टे पूर्व जगना चाहिये । सूर्योदय ऋतु अनुसार
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रे
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प्रात: साड़े पाँच से साड़े सात
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बजे तक होता है । अतः प्रात: जगने का समय साडे
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तीन से लेकर साडे पाँच बजे तक का होता है।
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जिन्हे आठ या छः घण्टे की अवधि चाहिये । उन्होंने
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इस प्रकार गिनती कर रात्रि में सोने का समय निश्चित
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करना चाहिये ।
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किसी भी स्थिति में नींद पूरी होनी ही चाहिये ।
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शरीर के सभी तन्त्रों को सुख और आराम नींद से ही
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मिलते हैं । रात्रि में जल्दी सोने और प्रातः जल्दी
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उठने से बल, बुद्धि और स्वास्थ्य तीनों बढते हैं ऐसा
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बुद्धिमान लोगों को शास्त्र से और सामान्य जन को
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परम्परा से ज्ञान मिलता है ।
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प्रातत्काल सूर्योदय के पूर्व के डेढ घण्टे को
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weet कहते हैं । यह समय ध्यान, चिन्तन,
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कण्ठस्थीकरण आदि के लिये श्रेष्ठ समय है। इस
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समय सोते रहना अत्यन्त हानिकारक है । और कुछ
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भी न करो तो भी जागते रहो ऐसा सुधी जन
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अग्रहपूर्वक कहते हैं ।
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३. सुबह और शाम छः से दस बजे तक का काल
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अध्ययन के लिये उत्तम होता है । आयु के अनुसार
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दिन में चार से सात घण्टे अध्ययन करना चाहिये, छः
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से आठ घण्टे सोना चाहिये, तीन से पाँच घण्टे श्रम
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करना चाहिये, दो घण्टे विश्रान्ति लेना चाहिये, दो
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घण्टे मनोविनोद् के लिये होने चाहिये, शेष अन्य
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कार्यों के लिये होने चाहिये। आयु, स्वास्थ्य,
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क्षमता, आवश्यकता आदि के अनुसार यह समय कुछ
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मात्रा में कमअधिक हो सकता है, ये सामान्य निर्देश
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हैं ।
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भोजन के तुरन्त बाद चार घडी तक शारीरिक और
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बौद्धिक श्रम नहीं करना चाहिये । इस दृष्टि से सुबह ग्यारह
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बजे शुरू होकर शाम पाँच या छः बजे तक चलने वाले
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विद्यालयों और कार्यालयों का समय अत्यन्त अवैज्ञानिक
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है । ये दोनों ऋतु के अनुसार प्रातः आठ या नौ को शुरू
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होकर साडे ग्यारह तक और दोपहर में तीन से छः बजे तक
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चलने चाहिये । अध्ययन के समय को तो आवासी
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विद्यालयों के अभाव में किसी भी
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प्रकार से उचित रूप से नहीं बिठा सकते । विद्यालय घर से
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इतना समीप हो कि दस मिनट में घर से विद्यालय जा आ
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सकें तभी उचित व्यवस्था हो सकती है । हमारी पारम्परिक
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व्यवस्था उचित दिनचर्या से युक्त ही होती थी । सम्पूर्ण
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समाज इसका पालन करता था इसलिये व्यवस्था बनी रहती
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थी । हमारी आज की व्यक्तिगत, पारिवारिक और सामाजिक
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दिनचर्या अत्यन्त अवैज्ञानिक बन गई है ।
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इसी प्रकार क्रतुचर्या भी अस्तव्यस्त हो गई है । ऋतु
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के अनुसार आहारविहार का नियमन होता है । आहार का
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समय और आहार की सामग्री ऋतु के अनुसार बदलते हैं ।
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फल, सब्जी, पेय पदार्थ, मिष्टान्नर, नमकीन आदि सब ऋतु
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के अनुसार भिन्न भिन्न होते हैं । उदाहरण के लिये वर्षा के
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समय में घी की और गरम, ठण्ड के दिनों में दूध की और
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गर्मी के दिनों में दही की तथा ठण्डी और खटाई युक्त
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मिठाइयाँ उचित रहती हैं । केले वर्षाक्तु में, आम गर्मियों
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में, सूखा मेवा ठण्ड के लिये अनुकूल है । पचने में भारी
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पदार्थ ठण्ड के दिनों में ही चलते हैं । कम खाना ashag
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के लिये अनुकूल है । बैंगन, प्याज, पत्तों वाली सब्जी
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वर्षक्रतु में नहीं खानी चाहिये । बैंगन तो गर्मियों में भी नहीं
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खा सकते, केवल ठण्ड के दिनों के लिये अनुकूल हैं । गर्मी
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के दिनों में दोपहर में बना खाना चार घण्टे के बाद भी नहीं
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खाना चाहिये। वर्षक्रतु में ठण्डा भोजन नहीं करना
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चाहिये । बसन्त ऋतु में दहीं नहीं खाना चाहिये ।
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ये तो केवल उदाहरण हैं । क्रतुचर्या आहारशास्त्र का
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अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हिस्सा है । आहार के साथ साथ वस्त्र,
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खेल, काम आदि का भी ऋऋतुचर्या में समावेश होता है ।
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किसी भी ऋतु में दिन में एक बार तो पसीना निकल
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आये ऐसा काम, व्यायाम या खेल होना ही चाहिये । पसीने
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के साथ शरीर और मन का मैल निकल जाता है और वे शुद्ध
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होते हैं जिससे सुख, आराम और प्रसन्नता प्राप्त होते हैं ।
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दिनचर्या और कऋऋतुचर्या की तरह जीवनचर्या भी
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महत्त्वपूर्ण विषय है । जीवन जीने की पद्धति को जीवनचर्या
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कहते हैं । जीवनचर्या के बारे में कुछ इस प्रकार से विचार
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किया जा सकता है ।
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RR
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भारतीय शिक्षा के व्यावहारिक आयाम
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१, हम मनुष्य हैं । मनुष्य के जीवन का कोई न कोई
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लक्ष्य होना चाहिये, उद्देश्य होना चाहिये, उद्देश्य की
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सिद्धि और लक्ष्य की प्राप्ति के लिये प्रवृत्ति और
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गतिविधि बननी चाहिये । इस गतिविधि के अनुसार
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जीवनकार्य होना चाहिये ।
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२... आयु की अवस्था के अनुसार जीवन का कोई न कोई
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मुख्य और केन्द्रवर्ती कार्य होना चाहिये । उदाहरण के
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लिये विद्यार्थियों का मुख्य कार्य अध्ययन करना है,
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गृहस्थाश्रमी का मुख्य कार्य अधथर्जिन हेतु अपने
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स्वभाव और क्षमता के अनुसार व्यवसाय करना है
तथा गृहस्थी के कर्तव्य निभाना है, वानप्रस्थी का
तथा गृहस्थी के कर्तव्य निभाना है, वानप्रस्थी का