Line 231: |
Line 231: |
| १, हम मनुष्य हैं । मनुष्य के जीवन का कोई न कोई लक्ष्य होना चाहिये, उद्देश्य होना चाहिये, उद्देश्य की सिद्धि और लक्ष्य की प्राप्ति के लिये प्रवृत्ति और गतिविधि बननी चाहिये । इस गतिविधि के अनुसार जीवनकार्य होना चाहिये । | | १, हम मनुष्य हैं । मनुष्य के जीवन का कोई न कोई लक्ष्य होना चाहिये, उद्देश्य होना चाहिये, उद्देश्य की सिद्धि और लक्ष्य की प्राप्ति के लिये प्रवृत्ति और गतिविधि बननी चाहिये । इस गतिविधि के अनुसार जीवनकार्य होना चाहिये । |
| | | |
− | २... आयु की अवस्था के अनुसार जीवन का कोई न कोई मुख्य और केन्द्रवर्ती कार्य होना चाहिये । उदाहरण के लिये विद्यार्थियों का मुख्य कार्य अध्ययन करना है, गृहस्थाश्रमी का मुख्य कार्य अधथर्जिन हेतु अपने स्वभाव और क्षमता के अनुसार व्यवसाय करना है | + | २... आयु की अवस्था के अनुसार जीवन का कोई न कोई मुख्य और केन्द्रवर्ती कार्य होना चाहिये । उदाहरण के लिये विद्यार्थियों का मुख्य कार्य अध्ययन करना है, गृहस्थाश्रमी का मुख्य कार्य अधथर्जिन हेतु अपने स्वभाव और क्षमता के अनुसार व्यवसाय करना है तथा गृहस्थी के कर्तव्य निभाना है, वानप्रस्थी का मुख्य कार्य धर्मचिन्तन और समाजसेवा है, संन्यासी का मुख्य कार्य मोक्षचिन्तन, तपश्चर्या और समाज का कल्याण है । जीवन की अन्य सारी गतिविधियाँ इस मुख्य कार्य के अनुरूप और अनुकूल बिठानी होती हैं । उदाहरण के लिये विद्यार्थी को ऐसा ही सबकुछ करना चाहिए जो अध्ययन के अनुरूप और अनुकूल हो और ऐसा कुछ भी नहीं करना चाहिये जो अध्ययन के अनुरूप और अनुकूल न हो । पुस्तकालय में जाना अध्ययन के अनुकूल है परन्तु फिल्म देखने के लिये जाना अनुकूल नहीं है । मैदानी खेल खेलना अनुकूल है परन्तु विडियो गेम खेलना नहीं । श्रम करना अनुकूल है परन्तु विलास नहीं । |
| | | |
− | तथा गृहस्थी के कर्तव्य निभाना है, वानप्रस्थी का
| + | किसी भी आयु में, किसी भी मुख्य जीवनकार्य में, किसी भी लक्ष्य में सेवा, स्वाध्याय और सत्संग, तप, दान और यज्ञ तो जीवनचर्या के अभिन्न अंग होने ही चाहिये । ये सब आयु, परिस्थिति और आवश्यकता के अनुरूप होने चाहिये । तभी वे युगानुकूल और सार्थक होंगे । |
| | | |
− | मुख्य कार्य धर्मचिन्तन और समाजसेवा है, संन्यासी का
| + | अपने परिवार, समाज और संस्कृति के अनुरूप ही हमारी जीवनचर्या होती है । उदाहरण के लिये हम भारतीय हैं, हम संकुचित और स्वार्थी नहीं हो सकते, विश्व कल्याण हो सके ऐसी ही हमारी जीवनचर्या होगी । हम पृथ्वी, पानी, वनस्पति, प्राणी और मनुष्यों का शोषण नहीं कर सकते | |
− | | |
− | मुख्य कार्य मोक्षचिन्तन, तपश्चर्या और समाज का
| |
− | | |
− | कल्याण है । जीवन की अन्य सारी गतिविधियाँ इस
| |
− | | |
− | मुख्य कार्य के अनुरूप और अनुकूल बिठानी होती
| |
− | | |
− | हैं । उदाहरण के लिये विद्यार्थी को ऐसा ही सबकुछ
| |
− | | |
− | करना चाहिए जो अध्ययन के अनुरूप और अनुकूल
| |
− | | |
− | हो और ऐसा कुछ भी नहीं करना चाहिये जो अध्ययन
| |
− | | |
− | के अनुरूप और अनुकूल न हो । पुस्तकालय में जाना
| |
− | | |
− | अध्ययन के अनुकूल है परन्तु फिल्म देखने के लिये
| |
− | | |
− | जाना अनुकूल नहीं है । मैदानी खेल खेलना अनुकूल
| |
− | | |
− | है परन्तु विडियो गेम खेलना नहीं । श्रम करना
| |
− | | |
− | अनुकूल है परन्तु विलास नहीं ।
| |
− | | |
− | किसी भी आयु में, किसी भी मुख्य जीवनकार्य में,
| |
− | | |
− | किसी भी लक्ष्य में सेवा, स्वाध्याय और सत्संग, तप, दान
| |
− | | |
− | और यज्ञ तो जीवनचर्या के अभिन्न अंग होने ही चाहिये । ये
| |
− | | |
− | सब आयु, परिस्थिति और आवश्यकता के अनुरूप होने
| |
− | | |
− | चाहिये । तभी वे युगानुकूल और सार्थक होंगे ।
| |
− | | |
− | अपने परिवार, समाज और संस्कृति के अनुरूप ही | |
− | | |
− | हमारी जीवनचर्या होती है । उदाहरण के लिये हम भारतीय | |
− | | |
− | हैं, हम संकुच | |
− | | |
− | ित और स्वार्थी नहीं हो सकते, विश्व कल्याण
| |
− | | |
− | हो सके ऐसी ही हमारी जीवनचर्या होगी । हम पृथ्वी, | |
− | | |
− | पानी, वनस्पति, प्राणी और मनुष्यों का शोषण नहीं कर | |
− | | |
− | सकते | | |
| | | |
| इस प्रकार हमारी दिनचर्या, ऋतुचर्या और जीवनचर्या | | इस प्रकार हमारी दिनचर्या, ऋतुचर्या और जीवनचर्या |