Difference between revisions of "भारत की दृष्टि से देखें"

From Dharmawiki
Jump to navigation Jump to search
m (Text replacement - "भारतीय" to "धार्मिक")
Tags: Mobile edit Mobile web edit
(re-categorising)
Line 218: Line 218:
  
 
८. पश्चिम में चर्च, राज्य, विज्ञान और प्रजा में परस्पर सामंजस्य नहीं है। चर्च की और विज्ञान की जीवनदृष्टि एकदूसरे से भिन्न हैं । चर्च की साम्प्रदायिक है, विज्ञान की भौतिक । राज्य कानून से चलता है, समाज करार व्यवस्था से । व्यक्ति और समाज के हित भी एकदूसरे से टकराते हैं। चर्च का विश्व आदम, हवा, पापपुण्य, ईश्वर और शैतान माफी और मुक्ति की कल्पना ओं से भरा हुआ है। विज्ञान का इलैक्ट्रोन, न्यूट्रोन, प्रोटोन और विविध प्रकार के संयोजनों की प्रक्रियाओं, गुरुत्वाकर्षणका तथा सापेक्षता का, उत्क्रान्ति का और एकरेखीय गति का सिद्धान्त लेकर कार्यरत है । राज्य सर्वत्र अधिसत्ता चाहता है और व्यक्ति व्यक्ति से बना समाज कामनाओं की पूर्ति । ऐसे अपनी अपनी दुनिया में मस्त, एकदूसरे को समझने की, समन्वय करने की स्वीकार करने की परवाह नहीं करने वाली प्रजा का राष्ट्र कैसे बन सकता है ? ब्रिटीशों के सिखाने से भारत के शिक्षित शिरोमणी कहते थे कि 'वी आर अ नेशन इन मेकिंग - हम अभी राष्ट्र बनने की प्रक्रिया में से गुजर रहे हैं। परन्तु पश्चिम की ओर देखकर लगता है कि उन्हें तो राष्ट्र की संकल्पना की गन्ध तक नहीं है। भारत में तो अबोध शिशु भी पूर्वजन्मों के पुण्यों के परिणामस्वरूप राष्ट्रीयता का संस्कार लिये हुए होता है और वहाँ पूरी की पूरी प्रजा राष्ट्र संकल्पना से अनभिज्ञ है। ऐसी स्थिति में भारत पश्चिम की चिन्ता करे यह अपेक्षित है। परन्तु यह चिन्ता एक शिक्षक जैसी अथवा वैद्य जैसी होनी चाहिये । रुग्ण की चिकित्सा करते समय वैद्य रुग्ण के धन का, सत्ता का , उससे मिलने वाले लाभ का विचार नहीं करता, न सत्ता या धन से दबता या डरता है, वह रु ग्ण की बात नहीं मानता, अपनी बुद्धि पर विश्वास कर दृढतापूर्वक चिकित्सा करता है। एक शिक्षक अपने विद्यार्थी की अथवा उसके अभिभावक की सत्ता या धन नहीं देखता अपितु विद्यार्थी की बुद्धि, व्यवहार, भावना के अनुसार पात्रता देखता है और शिक्षायोजना करता है । उसी प्रकार पश्चिम का बल, सत्ता, अहंकार, चमकदमक आदि से प्रभावित हुए बिना, दबे बिना, सत्य और धर्म का, करुणा और दया का आश्रय लेकर पश्चिम के लिये शिक्षा योजना बनानी चाहिये।
 
८. पश्चिम में चर्च, राज्य, विज्ञान और प्रजा में परस्पर सामंजस्य नहीं है। चर्च की और विज्ञान की जीवनदृष्टि एकदूसरे से भिन्न हैं । चर्च की साम्प्रदायिक है, विज्ञान की भौतिक । राज्य कानून से चलता है, समाज करार व्यवस्था से । व्यक्ति और समाज के हित भी एकदूसरे से टकराते हैं। चर्च का विश्व आदम, हवा, पापपुण्य, ईश्वर और शैतान माफी और मुक्ति की कल्पना ओं से भरा हुआ है। विज्ञान का इलैक्ट्रोन, न्यूट्रोन, प्रोटोन और विविध प्रकार के संयोजनों की प्रक्रियाओं, गुरुत्वाकर्षणका तथा सापेक्षता का, उत्क्रान्ति का और एकरेखीय गति का सिद्धान्त लेकर कार्यरत है । राज्य सर्वत्र अधिसत्ता चाहता है और व्यक्ति व्यक्ति से बना समाज कामनाओं की पूर्ति । ऐसे अपनी अपनी दुनिया में मस्त, एकदूसरे को समझने की, समन्वय करने की स्वीकार करने की परवाह नहीं करने वाली प्रजा का राष्ट्र कैसे बन सकता है ? ब्रिटीशों के सिखाने से भारत के शिक्षित शिरोमणी कहते थे कि 'वी आर अ नेशन इन मेकिंग - हम अभी राष्ट्र बनने की प्रक्रिया में से गुजर रहे हैं। परन्तु पश्चिम की ओर देखकर लगता है कि उन्हें तो राष्ट्र की संकल्पना की गन्ध तक नहीं है। भारत में तो अबोध शिशु भी पूर्वजन्मों के पुण्यों के परिणामस्वरूप राष्ट्रीयता का संस्कार लिये हुए होता है और वहाँ पूरी की पूरी प्रजा राष्ट्र संकल्पना से अनभिज्ञ है। ऐसी स्थिति में भारत पश्चिम की चिन्ता करे यह अपेक्षित है। परन्तु यह चिन्ता एक शिक्षक जैसी अथवा वैद्य जैसी होनी चाहिये । रुग्ण की चिकित्सा करते समय वैद्य रुग्ण के धन का, सत्ता का , उससे मिलने वाले लाभ का विचार नहीं करता, न सत्ता या धन से दबता या डरता है, वह रु ग्ण की बात नहीं मानता, अपनी बुद्धि पर विश्वास कर दृढतापूर्वक चिकित्सा करता है। एक शिक्षक अपने विद्यार्थी की अथवा उसके अभिभावक की सत्ता या धन नहीं देखता अपितु विद्यार्थी की बुद्धि, व्यवहार, भावना के अनुसार पात्रता देखता है और शिक्षायोजना करता है । उसी प्रकार पश्चिम का बल, सत्ता, अहंकार, चमकदमक आदि से प्रभावित हुए बिना, दबे बिना, सत्य और धर्म का, करुणा और दया का आश्रय लेकर पश्चिम के लिये शिक्षा योजना बनानी चाहिये।
 +
 +
[[Category:Education Series]]
 +
[[Category:Dharmik Shiksha Granthmala(धार्मिक शिक्षा ग्रन्थमाला)]]
 +
[[Category:धार्मिक शिक्षा ग्रंथमाला 5: वैश्विक संकटों का निवारण धार्मिक शिक्षा]]
 +
[[Category:धार्मिक शिक्षा ग्रंथमाला 5: पर्व 4: भारत की भूमिका]]

Revision as of 22:03, 24 June 2020

ToBeEdited.png
This article needs editing.

Add and improvise the content from reliable sources.

अध्याय ३३

१. भारत की दॄष्टि से क्यों देखना

भारत विश्व को पश्चिम और पूर्व में बाँटता नहीं है। यूरोप के लोग भारत में आने के लिये निकले तब पूर्व दिशा में उन्होंने यात्रा शुरू की। इसलिये भारत उनके लिये पूर्वी देश है। आज विश्व में युरोपीय शब्दावली रूढ हुई है इसलिये यूरोप और विशेष रूप से इंग्लैण्ड के सन्दर्भ से पूर्वपश्चिम दिशायें तय होती हैं । इसलिये भारत के लिये भी यूरोप और अमेरिका पश्चिम के देश हैं।

सांस्कृतिक दृष्टि से भारत विश्व को एक मानता है। इसलिये भारत सभी बातों का वैश्विक सन्दर्भ में ही विचार करता है। विश्व के सन्दर्भ में भारत के मूल विचार कुछ इस प्रकार हैं..

अयं निज परोवेत्ति गणना लघुचेतसाम् ।

उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम् ।।

अर्थात्

यह अपना है और यह पराया ऐसी सोच छोटे मन वाले लोगों की होती है, जिनका अन्तःकरण उदार है उनके लिये तो सम्पूर्ण पृथ्वी एक कुटुम्ब है।

कुटुम्ब कहते ही आत्मीयता का सम्बन्ध निहित है। अर्थात् भारत सम्पूर्ण विश्व के साथ आत्मीयता से युक्त व्यवहार करता है।

यद् भूतहितमत्यन्तं तत्सत्यमभिधीयते ।

अर्थात् जो भूतमात्र का हित कहता है वही सत्य है। यहां भी केवल अपने ही हित की बात नहीं सोची गई है, केवल मनुष्य के हित की बात भी नहीं सोची गई है अपितु चराचर के हित का विचार करना ही सही माना गया

सर्वेभवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः ।

सर्वेभद्राणि पश्यन्तु मा कश्चित् दुःखभाग् भवेत् ।

अर्थात्

सब सुखी हों, सब निरामय हों, सब का कल्याण हों, कोई भी दुःखी न हो।

यहाँ भी सबका अर्थात् सम्पूर्ण सृष्टि का विचार किया गया है। भारत के लिये सृष्टि में केवल मनुष्य ही नहीं है, प्राणीसृष्टि, वनस्पतिसृष्टि और पंचमहाभूत भी हैं।

ऐसे तो और भी अनेक कथन मिलेंगे जो यह दर्शायेंगे कि भारत हमेशा ही सम्पूर्ण सृष्टि को एक मानकर ही अपना विचार, व्यवस्था और व्यवहार निश्चित करता रहा है। वर्तमान में विश्व को यूरोपीय दृष्टि से देखना स्वीकृत हो गया है। इसका परिणाम यह हुआ है कि विश्व अनेक प्रकार के संकटों में फंसकर विनाश की ओर बढ़ रहा है। इस विनाश से विश्व को उबारने के लिये अब विश्व को भारत की दृष्टि से देखना आवश्यक हो गया है। हमेशा ही विश्व के भले का विचार करने वाले भारत का वह स्वाभाविक कर्तव्य है । वर्तमान परिस्थिति में वह भारत का अधिकार भी है । विश्व की यह आवश्यकता बन गई है।

धीरे धीरे पश्चिमी देशों को भी इसकी प्रतीति हो रही है। जिस मार्ग पर विश्व चल रहा है वह विनाश की ओर ले जा रहा है इसकी शत-प्रतिशत निश्चिति न भी हुई हो तो भी कुछ भारी गडबड चल रही है ऐसा तो लगने लगा है। तथापि सही मार्ग कौन सा होगा यह भी ध्यान में नहीं आ रहा है। पश्चिम में भी अनेक समझदार और बुद्धिमान लोग मार्ग खोजने का प्रयास कर रहे हैं। भारत विश्व को मार्ग दिखा सकता है ऐसा भी पश्चिम को लगने लगा है। इस स्थिति में भारत को ओर ध्यान देना ही होगा। अपने शाश्वत चिन्तन के प्रकाश में विश्व के संकटों को समझकर उन्हें दूर करने के उपाय विश्व के समक्ष प्रस्तुत करने होंगे।

दूसरा भी एक सहज कारण है। भारत विश्व में सबसे प्राचीन देश है। अपने दीर्घ इतिहास में भारत ने अनेक चडाव उतार देखे हैं, अनेक आक्रमणों को झेला है और उन्हें परास्त भी किया है । विश्व के अनेक देशों के साथ भारत सम्पर्क में भी आया है। विश्व के अनेक देशों में ज्ञान, संस्कार, कलाकारीगरी को लेकर भारत गया है। विश्व की अनेक संस्कृतियों की अच्छी बातों का स्वीकार कर भारत ने अपने आपको समृद्ध बनाया है। भारत की विशेषता यह रही है कि इतनी दीर्घ आयु में भारतने भारतत्व गँवाया नहीं है। आज भी भारत का बहिरंग कुछ बदला सा दिखाई दे रहा है परन्तु अन्तरंग वही है। इस मामले में भारत विश्व का एक मात्र देश है । इस दीर्घ अनुभव के कारण और अपनापन बनाये रखने के कारण भी भारत अपनी दृष्टि से विश्व को समझने का अधिकार रखता है।

२. भारत को भारत बनने की आवश्यकता

भारत को विश्वगुरु बनना है। यह विश्व की आवश्यकता है और भारत की नियति । परन्तु अपना यह दायित्व निभाने के लिये भारत को भारत बनना होगा । आज जैसा है वैसा भारत विश्व का मार्गदर्शन नहीं कर सकता । आज भारत स्वयं यूरोअमरिकी तन्त्र से चल रहा है । यह तन्त्र यूरोअमेरिकी जीवनदृष्टि के आधार पर तो विकसित हुआ ही है, साथ ही भारत के तन्त्र को तोड़ने के लिये, भारत को लूटने के लिये, भारत को अपने नियन्त्रण में रखने के लिये और भारत का यूरोपीकरण करने के लिये थोपा गया है । इस तन्त्र को थोपने की प्रक्रिया कम से कम दो शतक तक चली है। दो प्रक्रियायें साथ साथ चली हैं। एक है धार्मिक व्यवस्थायें तोडने की और दूसरी उसके स्थान पर यूरोअमेरिकी व्यवस्था स्थापित करने की। दैनन्दिन राष्ट्रजीवन को संचालित करने वाली ये व्यवस्थायें हैं।

एक सरकारी दृष्टि से देखें तो दो शतकों में भारत में क्या हुआ है। ब्रिटीश आये तब और अपना आधिपत्य जमा रहे थे तब भारत में लोकतन्त्र नहीं था । हिन्दू राजा और मुसलमान नवाब अपने अपने राज्यों पर राज्य करते थे। यह तो ज्ञात इतिहास है कि भारत स्वाधीन हआ तब देश में पाँच सौ सैंतालीस राज्य थे जिनके विलीनीकरण का श्रेय सरदार वल्लभभाई पटेल को दिया जाता है। भारत में युगों से राजाशाही थी, गणराज्यों के बारे में भी इतिहास में हमने पढ़ा है, परन्तु आज के जैसा लोकतन्त्र भारत में कभी नहीं रहा । भारत के लिये यह संकल्पना सर्वथा अपरिचित है। भारत में लोकतन्त्र संज्ञा तो सुपरिचित है । वास्तव में 'लोक' सभी क्षेत्रों में प्रतिष्टित रहा है, परन्तु भारत का 'लोकतन्त्र' और वर्तमान डेमोक्रसी' मे कोई साम्य नहीं है। फिर भी स्वाधीन भारत में एक बार भी प्रश्न नहीं पूछा गया कि यह 'लोकतन्त्र' अचानक से कैसे आ गया । हमने उसे इतनी सहजता से अपना लिया जैसे हमेशा से हम इसी व्यवस्था में जी रहे हैं।

ऐसी ही दूसरी व्यवस्था शिक्षा की है। वर्तमान में शिक्षा का जो तन्त्र चल रहा है वह भी भारत के लिये सर्वथा अपरिचित है। सरकार शिक्षा को नियन्त्रित और नियोजित करे ऐसा धार्मिक जन ने स्वप्न में भी सोचा नहीं होगा । परन्तु आज वह प्रस्थापित तन्त्र हो गया है।

ऐसा ही अर्थतन्त्र है। राज्य का व्यापार के क्षेत्र में सक्रिय होना भारत में सर्वथा अनपेक्षित और अवांछनीय रहा है। परन्तु ब्रिटीशों का तो राज्य ही व्यापार के लिये था । स्वाधीनता के बाद वह व्यवस्था भी वैसी ही रह गई।

अर्थव्यवस्था, अर्थनीति, अर्थार्जन आदि सब धर्म के स्थान पर आ गये । इससे सारी व्यवस्था इतनी उलट पुलट हो गई कि हम आज तक न उसे ठीक से समझ पा रहे है न उससे उबर पा रहे हैं।

उसी प्रकार से समाजव्यवस्था के मूल आधार छिन्नभिन्न हो गये हैं। जिस प्रकार खम्भे गिर जाने से सारा का सारा भवन ध्वस्त हो जाता है उसी प्रकार समाज व्यवस्था खण्डहर बन गई है। अन्य व्यवस्थाओं की तो पर्यायी व्यवस्था हुई भी है, भले ही वह यूरोअमेरिकी हो, पर समाज के लिये तो कोई व्यवस्था ही नहीं है।

ऐसी मुख्य व्यवस्थाओं के साथ साथ छोटी छोटी परन्तु महत्त्वपूर्ण व्यवस्थाओं में भी परिवर्तन होना स्वाभाविक है । ये व्यवस्थायें हैं भाषा, खानपान, दिनचर्या, वेशभूषा, मनोरंजन आदि।

अर्थात् बाहर से देखें तो भारत भारत नहीं रहा।

परन्तु भारत की एक विशेषता है। विश्व के कई देश यूरोप के आधिपत्य के परिणाम स्वरूप अन्दर बाहर पूर्ण बदल गये । अमेरिका स्वयं अब रेड इन्डियनों का देश नहीं रहा, यूरोपीय देश बन गया। ऑस्ट्रेलिया, आफ्रिका भी यूरोपीय बन गये । चीन, जापान आदि ने अमेरिका के साथ स्पर्धा शुरू कर दी है। परन्तु भारत अभी भी अन्दर से धार्मिक रहा है।

भारत के अन्तरंग और बहिरंग में बिना जाने समझे संघर्ष चल रहा है। भारत का अन्तरंग इतना बलवान रहा है कि सारी बहिरंग व्यवस्थाओं के बदल जाने के बाद भी वह बदला नहीं है।

जब तक भारत का अन्तरंग नहीं बदला है तब तक भारत की भारत बनने की आशा है। यदि अन्य देशों के समान अन्तरंग भी बदल गया तो भारत बनना असम्भव हो जायेगा।

अतः भारत को भारत बनने का पुरुषार्थ करना होगा। इस दृष्टि से भारी परिवर्तन करने होंगे। वर्तमान की व्यवस्थाओं को समझना, उनके दुष्परिणामों से अवगत होना, उन व्यवस्थाओं को निरस्त करने के उपाय खोजना, अधार्मिक व्यवस्थाओं को समझना, उन्हें वर्तमान सन्दर्भ में नियोजित करना और अपनाना - ऐसा एक महान प्रयास करना होगा। यह एक बडा चुनौती पूर्ण कार्य है परन्तु अनिवार्य रूप से करणीय है।

यह इतना कठिन है, साथ ही इतना अनिवार्य है कि येन केन प्रकारेण उसे करना ही होगा।

जब भारत में परिवर्तन की बात चलती है तब एक तबका कहता है कि भारत को हम वापस अन्धकारयुगमें ले जायेंगे क्या । घडी की सुई उल्टी नहीं घूम सकती ऐसा भी कहा जाता है । संकेत यह है कि भारत को भारत बनने का मार्ग सरल नहीं है। वह आन्तरिक विरोध से भरा हुआ है। इसे भी समझकर उसका उपाय करना होगा।

३. अपनी भूमिका निभाने की सिद्धता

वर्तमान विश्व के संकटों को दूर करने हेतु भारत को अपनी भूमिका निभाने हेतु सिद्ध होना होगा। इसके लिये भारत क्या करे ?

सर्वप्रथम तो भारत को निश्चयपूर्वक अपनी भूमिका का स्वीकार करना होगा। संकट इतने भयावह हैं कि अब उनके निवारण हेतु हमें कुछ करना ही चाहिये ऐसा विचार भारत के मन में आना ही चाहिये । विश्व में अनेक देश हैं, वे बड़े हैं, समर्थ हैं अनेक तो अपने आपको महासमर्थ मानते हैं, सामर्थ्य को लेकर एकदूसरे से स्पर्धा करते हैं, वे यदि संकटों के निवारण की बात नहीं करते तो फिर हम क्यों करें ऐसा विचार नहीं करना चाहिये । कोई नहीं करता तो मैं क्यों करूं यह धार्मिक विचार ही नहीं है, कोई नहीं करता तब भी मुझे करना चाहिये, और कोई नहीं करता तब तो मुझे करना ही चाहिये यह धार्मिक विचार है। इसलिये विश्व के देश संकटों के निवारण का विचार करे न करें भारत को तो सिद्ध होना ही चाहिये ।

दूसरा कारण यह है कि विश्व भी आज संकटों का अनुभव तो कर ही रहा है और उनके निवारण हेतु प्रयास भी कर रहा है। उदाहरण के लिये पर्यावरण के प्रदूषण के संकट के निवारण हेतु विश्वस्तर के सम्मेलन हो रहे हैं, प्रस्ताव पारित हो रहे हैं, जनमानस प्रबोधन हेतु सूचनायें प्रसारित की जा रही हैं, संचार माध्यमों के द्वारा प्रचार हो रहा है परन्तु प्रदूषण कम नहीं हो रहा है (अर्थात् संकटों की भी वही स्थिति है। इससे सिद्ध होता है कि अनेक प्रयासों के बाद भी संकट दूर नहीं हो रहे हैं । भारत की सादी समझ तो यही कहती है कि संकटों के निवारण का प्रस्थान बिन्दु ही यदि ठीक नहीं है तो निवारण होना ही सम्भव नहीं । प्रदूषण करने वाला यदि अपने आपको बचाकर दूसरों को ही उपदेश देगा तो निवारण हो कैसे सकेगा ? अतः भारत को विश्व के अन्य देशों से अपेक्षा न करते हुए अपने आपको ही अग्रसर होकर संकट निवारण का विचार करना चाहिये ।

भारत को आत्मविश्वास से युक्त होना चाहिये । इतना भव्य अतीत, इतनी अध्यात्म और धर्म की सम्पदा, इतनी श्रेष्ठ विश्वकल्याण की भावना, इतनी अमाप समृद्धि, इतना दक्षतापूर्ण व्यवहारज्ञान, इतनी ज्ञानविज्ञान के क्षेत्र की साधना होने के बाद भी भारत को अपने सामर्थ्य में विश्वास क्यों नहीं होना चाहिये ? विश्व भारत को गुरु मानता आया है। आज भी विश्व संस्कार, ज्ञान, समझदारी, परिवारभावना के क्षेत्र में भारत से सीखने के लिये प्रस्तुत है। दूर के अतीत में, आसन्न अतीत में और वर्तमान में विश्व के अनेक मनीषी भारत की प्रशंसा करते ही रहे हैं, भारत से अपेक्षा करते ही रहे हैं । फिर भारत अपने आपको समर्थ माने यही स्वाभाविक है । हम देने वाले ही हैं छीनने वाले नहीं, हम बचाने वाले ही हैं, मारने वाले नहीं; हम उद्धारक ही हैं, संहारक नहीं, हम विश्वसनीय ही रहे हैं, विश्वासघाती नहीं यह हमारे इतिहास ने सिद्ध किया है । इतिहास के इस तथ्य का हमें स्वीकार करना चाहिये और आत्मविश्वासपूर्वक अपना दायित्व निभाने के लिये सिद्ध होना चाहिये ।

आत्मविश्वास प्राप्त करने का उपाय है हीनताबोध से मुक्त होना । बिना किसी तर्कपूर्ण कारण से हम आज हीनताबोध से ग्रस्त हो गये हैं। ब्रिटीशों के शासन के परिणामस्वरूप और दैवयोग से हम हीनताबोध से ग्रस्त हए हैं । हीनताबोध के कारण हमारे सामर्थ्य की विस्मृति हो रही है. हमारे सामर्थ्य का क्षरण भी होता है। यह एक मानसिक रोग है जिसका उपचार शारीरिक या बौद्धिक स्तर पर नहीं हो सकता। मानसिक स्तर पर उपचार करने की आवश्यकता है । यद्यपि यह अत्यन्त कठिन होता है तथापि इसे किये बिना हमारा काम नहीं चलेगा। हीनताबोध दूर करना विद्वानों या वैद्यों का काम नहीं है, योगियों और धर्मचार्यों का है। दोनों भारत में हैं । हमें इन्हें निवेदन करना होगा कि वे हमारा हीनताबोध दूर करने के उपाय करें ।

हीनताबोध दूर कर आत्मविश्वास प्राप्त करने हेतु भारत को अपने आपको जानने की आवश्यकता है। इस विषय में हमारी अपरिमित हानि हुई है। शास्त्रीय ज्ञान और लोकज्ञान की हमारी व्यवस्था इतनी सर्वव्यापी थी कि सामान्य तथा अशिक्षित व्यक्ति भी आध्यात्मिक सत्यों को जानता था । ज्ञान क्रिया के बिना निरर्थक है, कभी कभी तो अनर्थक है यह जानकर वह बिना शास्त्र जाने, बिना कानून के भय से ज्ञानयुक्त व्यवहार करता था और उसे धर्माचरण कहता था। आज भारत में न तो शास्त्रीय ज्ञान देने की व्यवस्था है न लोकज्ञान देने की। ज्ञान से वंचित हो जाने से और विपरीत ज्ञान के आक्रमण से बुद्धिविभ्रम पैदा हुआ है जिससे असत्य को सत्य, अधर्म को धर्म, अनुचित को उचित मानने की स्थिति में हम पहुँच गये हैं । अतः सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य तो हमारी अपनी शिक्षाव्यवस्था को स्थापित करने का होगा। शिक्षा के माध्यम से अपने स्वभाव को, अपने चरित्र को, अपने इतिहास को, अपनी व्यवस्थाओं को, अपनी परम्पराओं को जानना और समझना होगा। विश्व के अनेक मनीषियों ने भारत की प्रशंसा की है, उसी प्रकार यूरोप के अनेक महत्त्वपूर्ण व्यक्तियों ने भारत की निन्दा भी की है। दोनों प्रकार के कथनों को समझना होगा । निन्दा के प्रेरक तत्त्व क्या हैं, उनमें तथ्य कितना है यह भी समझना होगा । आज विश्व में भारत की स्थिति क्या है, विश्व भारत को कैसे देखता है, विश्व के अनेक देशों का भारत के साथ कैसा व्यवहार है इसे भी समझना होगा। अपने बारे में सम्यक ज्ञान प्राप्त कर अपने आपको ठीक करना होगा और विश्व में उचित स्थान प्राप्त करना होगा । धर्म की ग्लानि के कारण, बुद्धिविभ्रम से पैदा हुई धर्म की उपेक्षा के कारण, अपने ही व्यवहार की विशृंखलता के कारण हमने अपनी बहुत हानि की है। हमें अपने आपको जानकर अपना खोया हुआ सामर्थ्य प्राप्त करना होगा। अपने आपको जाने बिना न हम अपना भला कर सकते हैं न विश्व के कल्याण का स्वप्न देख सकते हैं।

अपने आपको जानने के साथ साथ विश्व को भी ठीक से जानना चाहिये । यह तभी सम्भव हो सकता है जब हम प्रथम तीन बातें सिद्ध करें, अर्थात् अपने आपको जानें, अपना हीनताबोध दूर करें और आत्मविश्वास प्राप्त करें। तब हमें समझ में आयेगा कि भारत की दृष्टि से विश्व को जानना और उसका मूल्यांकन करना कितना आवश्यक है।

सर्वंकष विनाश की ओर कितना शीघ्र गति से विश्व धंस रहा है, विकास की कितनी अनुचित संकल्पना को साकार करने का प्रयास हो रहा है उसे कितना जल्दी त्याग कर देना चाहिये यह समझना आवश्यक है। विश्वस्थिति का केवल अध्ययन करने से काम नहीं चलेगा, भारत की दृष्टि से अध्ययन करना होगा। आज हम यूरोअमेरिकी दृष्टि से अध्ययन कर रहे हैं। इसके स्थान पर अपनी दृष्टि से अध्ययन करना होगा।

इसके लिये हमें यूरोअमेरिकी और धार्मिक जीवनदृष्टि का तुलनात्मक अध्ययन करना होगा।

भारत को सिद्ध होने के लिये संगठित होना होगा। आज की भाषा में जिसे युनियन कहते हैं ऐसा इस संगठित का अर्थ नहीं है। समाज संचालन करने वाले जितने भी वर्ग हैं उन सबको आन्तरिक सहमति और समरसता निर्माण करनी होगी। भारत एक राष्ट्र है, वह सार्वभौम प्रजासत्ताक राष्ट्र है इस सूत्र का स्वीकार कर एक सार्वभौम, स्वतन्त्र, समर्थ, सम्पन्न राष्ट्र बनाने हेतु सभी वर्गों का स्वेच्छापूर्वक सक्रिय योगदान होना आवश्यक है। ये वर्ग हैं सरकार, प्रशासन, विश्वविद्यालय, उद्योग, परिवार, धर्माचार्य एवं सैन्य । न्यायालय और पुलीस सरकार का ही हिस्सा है। इन सब की समरसता से ही सामर्थ्य निर्माण होगा। संगठन के मूल सूत्र निर्माण करना धर्मसंस्था और ज्ञानसंस्था का कार्य है। इन दोनों ने पहल करनी होगी। सरकार और सभी समाजसेवी संगठनों ने इन्हें आग्रहपूर्वक निवेदन करना होगा कि वे अपने राष्ट्र को समर्थ बनाने हेतु दायित्व का स्वीकार करें।

४. विश्व के सन्दर्भ में विचार

विश्व के सन्दर्भ में धार्मिक शिक्षा की स्थिति को देखते हैं तब हमें बहुत ही दारुण चित्र दिखाई देता है। आन्तर्राष्ट्रीय सूचकांक दर्शाते हैं कि विश्व के श्रेष्ठ दो सौ विद्यालयों की सूची में भारत का एक भी विश्वविद्यालय नहीं है। इसका अर्थ यह हुआ कि हम शिक्षा के मामले में बहुत पिछडे हुए हैं।

फिर हम स्वप्न देखना शुरू करते हैं कि भारत में भी हम आन्तर्राष्ट्रीय स्तर के विश्वविद्यालय शुरू करेंगे। परन्तु बहुत जल्दी हमारा स्वप्न भंग हो जाता है। हमें प्रतीति होती है कि हमारे पास न पैसा है न नीयत, न बुद्धि प्रतिभा जिनके बल पर हम आन्तर्राष्ट्रीय स्तर के विश्वविद्यालय बना सकें।

फिर हम कुछ अराष्ट्रीय बातों पर खेद का अनुभव करते हैं। हमें दुःख होता है कि हमारी बुद्धिप्रतिभा देश में रहना नहीं चाहती। वह अन्य देशों के विश्वविद्यालयों में प्रगत अध्ययन के लिये जाती है। अपने तेजस्वी विद्यार्थी पढाई भी वहाँ करते हैं और व्यवसाय भी क्योंकि उन्हें भारत में अनुसन्धान के लिये कोई अवसर नहीं है। भारत में उनकी प्रतिभा की कोई कदर नहीं है। यह स्थिति हमारे हीनताबोध में वृद्धि करती है।

हमारे हीनताबोध को दूर करने के मनोवैज्ञानिक उपाय तो हमें करने ही होंगे। अन्यत्र (ग्रन्थ - ४ में) इस विषय की चर्चा भी की गई है। हीनताबोध से मुक्त होने के बाद कुछ प्रश्नों पर स्थिर बुद्धि से विचार करना चाहिये ।

१. विश्व के श्रेष्ठ दस विश्वविद्यालयों में कदाचित सात या आठ तो केवल अमेरिका में हैं। इसका अर्थ हैं वहाँ अध्ययन और अनुसन्धान का श्रेष्ठ कार्य हो रहा है। वहीं अत्यन्त मेधावी विद्यार्थी निर्माण हो रहे हैं। अमेरिका तो आर्थिक दृष्टि से भी अत्यन्त विकसित देश है । भारत उसकी तुलना में कहीं नहीं आता । फिर ऐसा क्यों है कि अमेरिका की लगभग दो सौ बहुराष्ट्रीय कम्पनियों में सीईओ अमेरिका के नहीं हैं। वे एशिया के, विशेषकर भारत के, हैं। ये कम्पनियाँ खूब कमाई करनेवाली कम्पनियाँ हैं। अमेरिका के प्रतिभावान विद्यार्थियों का क्या हो रहा है?

यह आज की बात नहीं है। दो पीटी पूर्व से स्थिति तो यही है। कुछ वर्ष पूर्व एक वृत्त आया था कि केवल एक न्यूयोर्क में सातसौ डॉक्टर धार्मिक हैं। यही बात इन्जिनीयरों, मैनेजरों, संगणक निष्णातों, व्यापारियों आदि की है। विश्व के श्रेष्ठ विश्वविद्यालयों में पढे विद्यार्थी क्या देश नहीं चला सकते ? भारत में तो इतनी बड़ी संख्या में यूरोअमेरिकी विश्वविद्यालयों मे पढे लोग डॉक्टर का या अन्य व्यवसाय करते नहीं दिखाई देते ।

लोग कहते हैं कि भारत तो गरीब देश है। यहां आकर वे क्या कमाई करेंगे ? तो विचार यह करना है कि क्या डॉक्टर या अध्यापक समाज की सेवा करने के लिये बनना है या केवल कमाई करने के लिये ? अमेरिका तो सब कुछ केवल कमाई करने के लिये कर रहा है। तो वह अपने ही लोगों के स्थान पर विदेशियों को कमाई के अवसर क्यों दे रहा है ? केवल इसलिये कि उसके विश्वविद्यालय जनसंख्या और आवश्यकता के अनुपात में पर्याप्त कुशल डॉक्टर, इन्जिनीयर आदि निर्माण नहीं कर सकते । ऐसे देश के विश्वविद्यालय यदि विश्व के श्रेष्ठ विश्वविद्यालय हैं तो बात विचार करने योग्य बन जाती है। क्या अमेरिका स्वयं के लिये नहीं अपितु अन्य देशों के लिये ही विश्वविद्यालय चलाता है ? यदि हाँ, तो इसका अर्थ यह हुआ कि अमेरिकी ज्ञानविज्ञान के प्रसार से विश्व का अमेरिकीकरण करना चाहता है।

२. ज्ञानविज्ञान के प्रसार के माध्यम से विश्व का अमेरिकीकरण करने में भी कोई बुराई नहीं है। श्रेष्ठ ज्ञान का प्रसार होना ही चाहिये । विश्व उससे लाभान्वित होना ही चाहिये । परन्तु कैसा है यह ज्ञानविज्ञान ?

विश्व के जितने भी प्राकृतिक और सांस्कृतिक संकट हैं वे सर्वाधिक मात्रा में अमेरिका में हैं। विश्व के लगभग सभी संकटों का उद्गमस्थान अमेरिका है। उसकी जीवनदृष्टि ही इन संकटों को जन्म देती है, उसके अपने लिये भी और विश्व के लिये भी।

जिस देश में ज्ञानविज्ञान की इतनी श्रेष्ठता हो उस देश की स्थिति इतनी संकटग्रस्त कैसे हो सकती है ? विज्ञान के अध्ययन और अनुसन्धान से प्राकृतिक संकट दर होने चाहिये और सामाजिक विषयों के अध्ययन से सांस्कृतिक । ज्ञान ही तो सुख, शान्ति, समृद्धि, स्वास्थ्य आदि का मूल कारण है। यदि अमेरिका के विश्वश्रेष्ठ विश्वविद्यालय अमेरिका को ही संकटमुक्त नहीं कर सकते तो विश्व की सहायता कैसे करेंगे ? विश्व क्यों उन्हें श्रेष्ठ माने ?

३. अमेरिका का भौगोलिक विस्तार भारत से तीन गुना अधिक है और जनसंख्या भारत से तीन गुना कम । अमेरिका विश्वसंसाधनों का सबसे अधिक उपभोग इतनी कम जनसंख्या के लिये कर रहा है। प्रकृति का और विश्व के देशों का शोषण कर रहा है। विश्व के देशों पर आर्थिक और सामरिक दबाव बढ़ा रहा है। ऐसे देश के विश्वविद्यालयों की ज्ञानसाधना शोषण और दबाव में ही सहायक बन रही है तो इन विश्वविद्यालयों को हम श्रेष्ठ कैसे मान सकते हैं । अमेरिका - या पश्चिम - विश्व का अपराधी है। उसे अपराधों के लिये ही तो श्रेष्ठ नहीं माना जा सकता । मान लें कि वर्तमान में अमेरिका सबसे धनवान देश हैं। परन्तु किस कीमत पर वह धनवान बनता है इसका तो विचार करना चाहिये । केवल धनवान होना श्रेष्ठता नहीं है। विश्व को लूटकर धनवान बनना हिंसा है। विश्व के लिये अमेरिका उद्धारक नहीं अपितु संहारक है। ऐसे संहारक देश के विश्वविद्यालयों को श्रेष्ठ नहीं मानना चाहिये । अतः भारत को चाहिये कि वह श्रेष्ठता के अपने मानक तैयार करे और उसके आधार पर विश्व के विश्वविद्यालयों का मूल्यांकन करे।

पश्चिमी प्रभाव के चलते हम भी एकांगी विचार करने लगे हैं । एक सामान्य सा उदाहरण प्रस्तुत है।

अंग्रेजी व्याकरण पढाते समय भूतकाल का उदाहरण देने हेतु एक विद्यार्थीने लिखा -

रावण किल्ड राम - रावण ने राम को मारा । अध्यापक कहते हैं कि यह वाक्य तथ्य की दृष्टि से गलत है परन्तु व्याकरण की दृष्टि से सही है । व्याकरण की दृष्टि और इतिहास की दृष्टि यदि परस्पर विरोधी है और जिस उत्तर को इतिहास की परीक्षा में शून्य अंक मिलेंगे उस उत्तर को व्याकरण की परीक्षा में पूर्ण अंक मिलेंगे तो हमारी अध्ययन की दृष्टि को एकांगी ही कहा जायेगा। यह तो बहुत ही सामान्य उदाहरण है परन्तु बुद्दिमान अध्यापकों में यह बडे विवाद का विषय बन सकता है। इसी एकांगी दृष्टि से निर्देशित होकर हम कहते हैं कि 'मैं परिक्षा में फेल हुआ इस वाक्य को सही मानना चाहिये, भले ही उसमें भाषा की दृष्टि से दो गलतियाँ हैं, एक है ‘परिक्षा' के स्थान पर 'परीक्षा' होना चाहिये और दसरी है 'फेल' के स्थान पर 'अनुत्तीर्ण' कहना चाहिये, परन्तु कहने का आशय समझ में आता है इसलिये भाषा की गलतियों की ओर ध्यान नहीं देना चाहिये । यह एकांगी दृष्टि है जो पश्चिमी विचार पद्धति का लक्षण है। यह संगणकीय पद्धति है। हर बात को विभाजित करते करते ऐसी स्थिति तक पहुँचना जहाँ किसी का भी किसी के साथ किसी प्रकार का सम्बन्ध न रहे । इस प्रकार की एकांगी दृष्टि से कभी भी ज्ञान तक नहीं पहुँचा जाता । अध्ययन में समग्रता की दृष्टि होनी चाहिये । समग्र दृष्टि से अध्ययन करने पर ही ज्ञान प्रकट होता है और जीवन और जगत की एकात्मता का साक्षात्कार होता है। यूरोअमेरिकी जीवनदृष्टि से अनुप्राणित जितने भी विश्वविद्यालय चल रहे हैं वे सब अपने आपमें कितने ही श्रेष्ठ हों तो भी विश्वकल्याण की दृष्टि से वे श्रेष्ठ नहीं हो सकते । भारत को इस विचार पर दृढ होना चाहिये ।

एकांगी दृष्टि वर्तमान भारत की तो है परन्तु सनातन भारत की नहीं। हमें सनातन भारत की समग्र दृष्टि प्राप्त करने की आवश्यकता है। पूर्व में हमने इसका विचार किया ही है।

४. इस ग्रन्थ के प्रथम विभाग में हमने विश्व के श्रेष्ठ विश्वविद्यालयों की सूची बनाने हेतु जिन मानकों का प्रयोग किया जाता है उनके बारे में पढा है । ध्यान में आता है कि ये मानक शैक्षिक भी हैं और भौतिक भी । भौतिक में भी दो प्रकार हैं। एक है भौतिक सुविधायें और दूसरा है आर्थिक पक्ष । प्रथम आर्थिक पक्ष का विचार करें। जिस विश्वविद्यालय का बजट बडा है वह श्रेष्ठ है । परन्तु केवल बजट बडा है इसलिये वह बडा नहीं हो जाता । आजकल कार्यक्रमों के मूल्यांकन में भी बड़े बजट की चर्चा की जाती है। बजट में खर्च की तो गणना होती है परन्तु फिजूलखर्ची, महँगाई और निःशुल्क सेवा की गणना नहीं होती। भारत में फिजूजलखर्ची नहीं करना, महँगाई नहीं होना, कल्पनाशीलता का पैसा नहीं लेना, निःशुल्क सेवा करना बडे सद्गुण माने जाते हैं जिनके कारण बजट कम होता है। बजट कम होते ही अमेरिकी दृष्टि से उसका क्रम पीछे जाता है। भारत में कभी सुविधाओं को अर्थात् बडे भवनों को, आरामदेह फर्नीचर को, वाहनों को आवश्यक भले ही माना जाता हो, मूल्यांकन में वरीयता नहीं दी जाती। उल्टे विद्याभ्यास के लिये सुविधायें नहीं होना, मनोरंजन के प्रति ध्यान आकर्षित नहीं होना, स्वैच्छिक सादगी होना ही अच्छा माना जाता है। पश्चिम की तर्ज पर भारत में बने विश्वविद्यालय के बडे बडे भवनों को देखने पर ध्यान में आता है कि ये भवन दिन के कितने घण्टे और वर्ष में कितने अधिक दिन खाली ही रहते हैं। यह राष्ट्रीय सम्पत्ति का अपव्यय है, श्रेष्ठता का लक्षण नहीं । अतः भौतिक सुविधाओं का मापदण्ड उचित नहीं है।

अध्यापकों को वेतन, शोधकार्य के परिणाम स्वरूप प्रकाशित होने वाली सामग्री का विक्रय, शोध से प्राप्त पेटण्ट के माध्यम से मिलने वाला धन, शोधकार्य के परिणाम सवरूप चलाये जाने वाले प्रकल्पों से विश्वविद्यालय को प्राप्त होने वाला धन विश्वविद्यालय की कमाई है। इस कमाई के आधार पर श्रेष्ठता प्राप्त होती है। भारत का मानस इससे सर्वथा भिन्न है। भारत की ज्ञानदृष्टि अर्थसापेक्ष नहीं है। ज्ञान के क्षेत्र में कोई एकाधिकार नहीं होता है। एकाधिकार प्राप्त कर बाजार में उसकी कीमत वसूल करना बाजारीकरण है। भारत ज्ञान के बाजारीकरण का समर्थन कदापि नहीं कर सकता। वर्तमान भारत में विश्वविद्यालय पश्चिम की तर्ज पर चलने का प्रयास तो करते हैं परन्तु अपने अन्तःकरण की प्रवृत्ति बाजारीकरण के विरुद्ध होने के कारण एकाधिकार और अर्थार्जन की गतिविधियों में पीछे रह जाते हैं।

उदाहरण के लिये विश्वविद्यालयों में अनेक विषयों पर व्याख्यान मालायें होती हैं। अध्यापक और आमन्त्रित विद्वान उसमें व्याख्यान देते हैं । उन व्याख्यानों की पुस्तिका भी प्रकाशित होती है। परन्तु इन व्याख्याताओं को पैसे नहीं दिये जाते, अथवा ये पुसतिकायें निःशुल्क वितरित की जाती हैं। विश्वविद्यालयों के अध्यापक अन्यत्र व्याख्यान देते हैं। अनेक सेवाकीय संस्थाओं में पढाने की सेवा करते हैं जहाँ पैसे का लेनदेन नहीं होता है। समाज प्रबोधन के अनेक कार्यक्रम निःशुल्क होते हैं। कुल मिलाकर जहाँ सेवाकीय गतिविधियाँ अधिक होती हैं वहाँ अर्थार्जन कम ही होता है। भारत में ऐसी संस्थायें अच्छी मानी जाती हैं परन्तु अमेरिकी दृष्टि में ये बैठती ही नहीं हैं । इस कारण से आर्थिक मापदण्ड भारत को स्वीकार्य नहीं है।

विश्वविद्यालयों को श्रेष्ठता के शैक्षिक मापदण्ड की ओर भी ध्यान देना चाहिये । शैक्षिक श्रेष्ठता अध्यापकों और विद्यार्थियों की ज्ञानसाधना पर निर्भर करती है । ज्ञानसाधना का मापदण्ड अन्ततोगत्वा आर्थिक ही होता है । होता यह है कि भौतिक और आर्थिक दृष्टि से यह ज्ञान बहुत श्रेष्ठ होने पर भी उसके सामाजिक सांस्कृतिक सन्दर्भ निहित स्वार्थक ही होते हैं। इसलिये भौतिक विज्ञान और तन्त्रज्ञान के एकांगी दृष्टि से किये गये अध्ययन में वे श्रेष्ठ होते हैं परन्तु उनका मूल्यांकन आर्थिक दृष्टि से ही होता है। अतः शैक्षिक दृष्टि का मापदण्ड अधूरा माना जायेगा । समग्रता की दृष्टि से तो सारी ज्ञानसाधना विफल मानी जानी चाहिये । भगवद्गीता की दृष्टि से यह तामसी अथवा बहुत हुआ तो राजसी ज्ञानसाधना मानी जानी चाहिये ।।

भारत पश्चिम की शोधप्रक्रिया को भी मान्य नहीं कर सकता। जिस प्रक्रिया में केवल विश्लेषणात्मक पद्धति ही हो और संश्लेषण नहीं किया जाता हो, जिस प्रक्रिया में सम्पूर्ण सृष्टि के भले का विचार न किया जाता हो वह ज्ञानात्मक दृष्टि से भी कम मूल्यवान और सामाजिक दृष्टि से भी कम उपयोगी माना जाना चाहिये ।

५. भारत का विश्वकल्याणकारी मानस

हम जब भी कोई शुभ कार्य करते हैं तब प्रथम संकल्प करते हैं। शुभ कार्य हम रोज करते हैं। अपने इष्टदेवता, कुलदेवता या ग्रामदेवता की प्रतिदिन होने वाली पूजा, सन्ध्यावन्दन, अग्निहोत्र आदि नित्य होने वाले शुभ कार्य हैं। यह संकल्प इस प्रकार है...

अद्य ब्रह्मणो द्वितीये परार्धे विष्णुपदे श्री श्वेतवाराहकल्पे वैवस्वते मन्वन्तरे अष्टाविंशति - तमे कलियुगे कलि प्रथम चरणे एक वृन्दः सप्तनवति कोटिः नवविंशति लक्षः नवचत्वारिंशतसहस्रः सप्तदशाधिक संवत्सरे चैत्र मासे शुक्ल पक्षे त्रयोदश्यां तिथौ भानुवासरे शुभमुहूर्ते जम्बूद्वीपे भरतखण्डे आर्यावर्तन्तर्गते प्रभासक्षेत्रे कर्णावती जनपदे बोडकदेवनगरे पुनरुत्थान विद्यापीठे चराचर श्रेयपे यसाधनार्थे अस्माभिः ज्ञानयज्ञः क्रियते ।

अर्थात्

यह संकल्प हमारे इतिहास और भूगोल के सन्दर्भो को दर्शानेवाला है । हम सृष्टि के प्रारम्भ से लेकर आज के इस क्षण तक के काल का नित्य स्मरण करते हैं । हम सम्पूर्ण जम्बूद्वीप, अर्थात् एशिया महाद्वीप से लेकर जहाँ बैठे हैं वहाँ तक के स्थान को स्मरण करते हैं । देश और काल के साथ साथ हम जो शुभकार्य कर रहे हैं उसका उद्देश्य भी स्पष्ट रूप से बोलते हैं।

इस संकल्प का संकेत यह है कि हम अपने आपको सम्पूर्ण सृष्टि और सनातन काल के साथ जोडे रखते हैं । हम जानते हैं कि हमारे किसी भी कार्य का परिणाम वैश्विक होगा। यह सृष्टिनियम है। यह भौतिक विज्ञान का भी नियम है और अध्यात्मविज्ञान का भी । सृष्टि के किसी भी कोने में किये गये विचार, इच्छा या कृति का परिणाम विश्वव्यापी ही होता है । इस नियम का भी हम रोज स्मरण करते हैं।

तात्पर्य यह है कि धार्मिकों का विचार और व्यवहार हमेशा से वैश्विक ही रहा है। हम अपने निजी सुख और हित की कामना भी विश्व के अविरोधी बनकर ही करते हैं। केवल अविरोधी नहीं तो विश्व के सुख और हित के लिये भी करते हैं।

यहाँ कोई प्रश्न कर सकता है कि इस संकल्प में जम्बूद्वीप की ही बात की गई है, सम्पूर्ण सृष्टि की नहीं ।

जम्बूद्वीप आज का एशिया महाद्वीप है। तो क्या पृथ्वी के शेष महाद्वीपों से हमारा सम्बन्ध नहीं है ?

यह वैदिक काल का मन्त्र है। हो सकता है कि यह ऐसा काल है जब जम्बूद्वीप के अलावा एक भी द्वीप पर मनुष्य का निवास ही न हो । क्रमशः भारत से ही लोग अन्य द्वीपों पर जाकर बसे हो । अर्थात् यह कल्पना का विषय है, और कदाचित शोध का भी, कि भारत में जब संस्कृति का इतना अधिक विकास हुआ था तब विश्व के शेष महाद्वीपों की स्थिति क्या थी । दूसरा संकेत यह भी हो सकता है कि सम्पूर्ण जम्बूद्वीप सांस्कृतिक दृष्टि से एक है इसलिये हम अपने आपको जम्बूद्वीप निवासी कहते हैं।

यह वैदिक मन्त्र है । दूसरा पौराणिक कथन भी स्मरण करने योग्य है । प्रातःकाल उठकर स्मरण किया जाता है...

सप्तार्णवा सप्तकुला चलाश्च

सप्तर्षयो द्वीपवनानि सप्त ।

सप्तस्वराः सप्तरसातलानि

कुर्वन्तु सर्वे मम सुप्रभातम् ।।

पृथ्वी सगन्धा सरसास्तथावः

स्पर्शी च वायुर्व्वलनं च तेजः ।

नभः सशब्दं महता सहैव

कुर्वन्तु सर्वे मम सुभप्रभातम् ।।

अर्थात्

सात समुद्र, सात पर्वत, सात ऋषि (आकाश के सप्तर्षि नक्षत्र), सात द्वीपों के सात वन, सात स्वर, सात रसातल मेरे प्रभात को अच्छा करें।

गन्धवती पृथ्वी, रसयुक्त जल, स्पर्शगुण युक्त वायु, उष्णता और प्रकाश देने वाला तेज और शब्दगुणवाला आकाश मेरे प्रभात को अच्छा करें।

अर्थात् प्रातःकाल उठते ही व्यक्ति समस्त प्रकृति का स्मरण करता है । अर्थात् पंचमहाभूत, प्राणी, वनस्पति और मनुष्य आदि सबसे सम्बन्धित होकर, सबसे अविरोधी रहकर ही धार्मिक व्यक्ति अपने सुख और हित की कामना करता है।

भारत के दीर्घतम आयुष्य ने, और इसी कारण से दीर्घतम इतिहास ने, यह सिद्ध किया है कि जो इस प्रकार का 'सर्वेषाम् अविरोधेन' विचार और व्यवहार करता है वह चिरंजीव होता है। सनातनता का प्रत्यक्ष उदाहरण ही भारत ने प्रस्तुत किया है।

इसलिये भारत को आज भी विश्व के सन्दर्भ में विचार करना चाहिये, अपने हित और सुख के साथ साथ विश्व के हित और सुख का विचार करना चाहिये ।

अपने किसी भी विचार या व्यवहार से जगत का अकल्याण नहीं होना चाहिये यह एक बात है, अपने विचार और व्यवहार से जगत का हित और सुख होना चाहिये यह दूसरी बात है, जगत की किसी भी प्रजा के विचार और व्यवहार से हमारा या किसी का अकल्याण नहीं होना चाहिये यह तीसरी बात है और जगत के किसी भी विचार और व्यवहार से हमारा और दूसरों का कल्याण होना चाहिये यह चौथी बात है।

इन चारों बातों को ध्यान में रखकर भारत ने हमेशा विचार और व्यवहार किया है। अपने पर होनवाले सांस्कृतिक और भौतिक आक्रमणों को परास्त किया है। स्वयं के व्यवहार में हित और हित के अविरोधी सुख को प्राप्त करने हेतु ज्ञानसाधना और धर्मसाधना की है। धर्म और संस्कृति के वैश्विक स्वरूप की कल्पना की है। अपनी संस्कृति को लेकर विश्व में संचार किया है। विश्व के लगभग सभी देशों में जाकर ज्ञान, संस्कार, कलाकौशल, सभ्यता, शिष्टाचार का प्रसार किया है। विश्वसंचार हेतु भारत ने अपनाया हुआ सूत्र है 'कृण्वन्तो विश्वमार्यम्' - विश्व को आर्य बनायें। 'आर्य' संज्ञा श्रेष्ठतावाचक है, जातिवाचक नहीं । अर्थात् भारत ने हमेशा विचार किया है कि हम श्रेष्ठ बनें और विश्व को भी श्रेष्ठ बनायें।

भारत ने कभी सर्वश्रेष्ठ बनना नहीं चाहा, अर्थात् किसी के साथ स्पर्धा में उतरकर उससे श्रेष्ठ सिद्ध होने का विचार नहीं किया। अतः भारत ने कभी संघर्ष का प्रारम्भ नहीं किया, अपना विचार किसी पर थोपा नहीं, ज्यादती नहीं की, अपने व्यवहार और भावना से अन्यों को भी श्रेष्ठ बनने की प्रेरणा दी।

कर्तव्य और दायित्व के सन्दर्भ में भारत हमेशा अपना विचार करता है जबकि अधिकार और लाभ के सन्दर्भ में सम्पूर्ण विश्व का | विचार और व्यवहार का यह समायोजन भारत की विशाल बुद्धि और दीर्घदृष्टि का परिचय देता है।

मनुस्मृति का यह सन्दर्भ देखने योग्य है, एतद्देशप्रसूतस्य सकाशादग्रजन्मनः ।

स्वं स्वं चरित्रं शिक्षेरन् पृथिव्यां सर्वमानवाः ।।

अर्थात्

इस देश में प्रथम जन्मे हुए लोगों से पृथ्वी के सर्व मनुष्य अपने अपने चरित्र की शिक्षा ग्रहण करें।

वर्तमान सन्दर्भ में भी भारत को इस कथन को स्मरण में रखते हुए अपनी स्थिति को ठीक करने की आवश्यकता है।

६. आंतराष्ट्रीय मानक कैसे होने चाहीये !

  1. आन्तर्राष्ट्रीय मानक ऐसे होने चाहिये जो विश्व के सभी देशों को समान रूप से लागू हो ।
  2. वे ऐसे होने चाहिये जो विश्व के किसी भी देश के हित के विरोधी न हों।
  3. वे ऐसे होने चाहिये जिनका अस्वीकार विश्व का कोई भी देश न कर सके । उदाहरण के लिये मनुष्य के स्वास्थ्य की हानि न करे यह औषधिनिर्माण की शर्त रखना सबके लिये स्वीकार्य ही होना चाहिये ।
  4. वे ऐसे होने चाहिये जो विश्व के सभी सम्प्रदायों से परे हों परन्तु एक भी सम्प्रदाय के विरोधी न हों ।
  5. वे ऐसे होने चाहिये जिन्हें सभी देश विकास की दिशा में आगे बढ़ने के लिये लक्ष्य के रूप में स्वीकार करें।
  6. वे ऐसे होने चाहिये जिसमें ज्ञान संस्कार, चरित्र, कर्तव्य स्वार्थकेन्द्री न हों और अर्थ से नापे न जाते हों।
  7. वे ऐसे नहीं होने चाहिये जिससे एक देश को दूसरे देश अथवा देशों को दबाने का अवसर मिल सके।
  8. आन्तर्राष्ट्रीय मानक किसी एक देश द्वारा बनाये गये नहीं अपितु सबने मिलकर बनाये हुए होने चाहिये ।
  9. वे ऐसे लोगों के द्वारा बनने चाहिये जो पूरे विश्व को एक मानते हों और स्वयं निःस्वार्थ हो ।
  10. विद्वान, बुद्धिमान, हृदयवान, पवित्र और करुणापूर्ण अन्तःकरण से बने मानक ही वैश्विक हो सकते हैं। सत्ता या धन के प्रभाव से दबे हुए लोगों द्वारा बनाये गये नहीं।

७. भारत अपने मानक तैयार करे

विश्व के सन्दर्भ में प्रस्तुत होने के लिये यह आवश्यक है कि भारत शिक्षा विषयक अपने मापदण्ड निश्चित कर ले । स्वाभाविक ही ये मापदण्ड अपनी जीवनदृष्टि के अनुसार ही होंगे । भारत एक बार विश्वास कर ले कि अपनी जीवनदृष्टि के अनुसार चलने वाली शिक्षा ही विश्व का कल्याण करने वाली है। इस दृष्टि से हमें विश्व को बताना होगा कि..

१. जो शिक्षा मनुष्य को दूसरों का विचार करना नहीं सिखाती वह उसके अपने लिये भी हानिकारक ही होती है। अपने ही स्वार्थ का विचार करने वाला मानवता का भी अपराधी होता है और सृष्टि का, और सृष्टि चूँकि परमात्माने बनाई है इसलिये परमात्मा का भी।

२. जो शिक्षा जीवन के केवल भौतिक पक्ष का ही विचार करना सिखाती है वह अत्यन्त अधूरी है। मनुष्य के जीवन में भौतिक समृद्धि का भी महत्त्व है परन्तु वह एकमात्र प्राप्तव्य वस्तु नहीं है। मनुष्य का अन्तःकरण केवल भौतिक पदार्थों से सन्तुष्ट नहीं होता। अन्तःकरण को सन्तुष्ट और प्रसन्न रखने के लिये पश्चिम की शिक्षा में आमूल परिवर्तन की आवश्यकता है।

३. किसी भी देश की शिक्षा को सही सिद्ध होने के लिये वैश्विक मापदंडों का स्वीकार करना होता है । वैश्विक मापदण्डों में सर्वप्रथम होगा सबका सुख और सबका हित । सब में समस्त ब्रह्मांड के चराचर सर्व पदार्थों, प्राणीमात्र और मनुष्यों का समावेश होता है । अपने सामर्थ्य के अनुसार कृति में, भावना में, विचार में, वाणी में, उद्देश्यों में व्यक्ति या देश समस्त ब्रह्माण्ड के अविरोधी होना अपेक्षित है। वह जितनी मात्रा में अविरोधी है उतनी मात्रा में सही और श्रेष्ठ है। अमेरिका, इंग्लैण्ड, भारत, चीन, जापान, ऑस्ट्रेलिया - कोई भी देश अन्यों का अविरोधी होकर ही अपना हित और सुख चाह सकता है । अपने हित और सुख को साधने के साथ साथ वह अन्यों का भी हित और सुख साधने में सहयोगी बनता है तो और भी अच्छा है। भर्तृहरि का निम्नलिखित सुभाषित केवल व्यक्तियों को ही नहीं तो राष्ट्रों को भी लागू होता

एते सत्पुरुषा परार्थघटका स्वार्थन्परित्यज्य ये

सामान्यास्तु परार्थमुद्यमभृता स्वार्थाऽविरोधेन य ।।

तेऽमी मानुषराक्षसा परहित स्वार्थाय निध्नन्ति ये

ये निघ्नन्ति निरर्थक परहितं ते के न जानी महे ।।

अर्थात्

एक तो सत्पुरुष होते हैं जो अपने स्वार्थ को छोडकर दूसरों का विचार करते हैं। दूसरे सामान्य पुरुष होते हैं जो अपने स्वार्थ के अविरोधी रहकर दूसरों का विचार करते हैं। तीसरे ऐसे पुरुष होते हैं जो अपने स्वार्थ के लिये दूसरों का अहित करते हैं। ये तीन तो समझ में आते हैं परन्तु चौथे ऐसे मनुष्य होते हैं जो बिना किसी कारण से दूसरों के हित का नाश करते हैं । उन्हें क्या कहना यह हमारी समझ में नहीं आता।

जिस देश की शिक्षा दूसरे राष्ट्रों का अहित करने हेतु अपने राज्य और प्रजा को समर्थ बनाती है उसे श्रेष्ठ तो क्या, सही भी नहीं कहा जा सकता। ऐसे देश की शिक्षा को, शिक्षादर्शन को भारत से बहुत कुछ सीखने की आवश्यकता है। ऐसे देशों को ही भर्तृहरि ने राक्षस की संज्ञा दी है और गीता ने आसुरी सम्पद् युक्त देशों की । हमें गीता के आधार पर उनका मूल्यांकन करने में संकोच नहीं करना चाहिये । उनकी शिक्षा में और जिस जीवनदृष्टि के आधार पर उनकी शिक्षा का विकास हुआ है उस जीवनदृष्टि में एकसौ अस्सी अंश परिवर्तन करने की आवश्यकता है यह स्पष्टतापूर्वक, आग्रहपूर्वक और दृढतापूर्वक बताना चाहिये।

४. जो शिक्षा चरित्रनिर्माण को विषयों के अध्ययन का आधार नहीं बनाती वह निरर्थक ही नहीं तो अनर्थक है। विश्वविद्यालय भौतिक विज्ञान, तन्त्रज्ञान, खगोल, व्यापार आदि विषयों में सर्वश्रेष्ठ अध्ययन और अनुसन्धान कर रहे हैं परन्तु ऐसे विद्वान लोग व्यक्तिगत रूप से और प्रजा के रूप में पंचमहाभूतों का, प्राणियों का, गरीबों का, खियों का नाश करने वाले हैं, क्षुद्र लालसाओं से ग्रस्त हैं और सर्वसामान्य लोगों के स्वास्थ्य का नाश करनेवाले हैं तो उन विश्वविद्यालयों को श्रेष्ठ नहीं कहा जा सकता। उदाहरण के लिये भौतिक विज्ञान के क्षेत्र में ऐसे किसी रसायण की खोज हुई जिसका उपयोग कर बने शस्त्र आसपास के दोसो कीलोमीटर के क्षेत्र का वातावरण जहरीला बना देते हैं तो वह अनर्थ है। ऐसे रसायण की खोज हो भी जाय तो उसे दुर्घटना समझकर उसका नाश कर देना चाहिये । ऐसे रसायण की विनाशक शक्ति को ध्यान में रखकर ही खोज करना तो अमानवीय ही है। ऐसे वैज्ञानिक की खोज की, अनुसन्धान की क्षमता की कदर करते हुए भी उसे वैज्ञानिक के रूप में काम करने की अनुमति नहीं मिलनी चाहिये।

सामाजिकता और वैज्ञानिकता को एकदसरे से पृथक् रखकर केवल वैज्ञानिकता का समर्थन करना खास पश्चिमी दृष्टि है। एक ही यन्त्र की खोज में विज्ञान की दृष्टि से तो बडी सिद्धि है परन्तु स्वास्थ्य और पर्यावरण के लिये घोर हानि होती है तो उसका किस प्रकार मूल्यांकन करना चाहिये ? इस प्रश्न का उत्तर सरल नहीं है।

उदाहरण के लिये घर घर में रसोई में माइक्रोवेव का प्रयोग होता है । कभी भी खाना गरम मिलता है इतनी सुविधा इसमें है परन्तु स्वास्थ्य के लिये यह अकल्प्य मात्रा में हानिकारक है। इस यन्त्र की खोज करनेवाला यह तथ्य जानता है तो भी इसे बनाता है। बाजार में व्यापारी आकर्षक विज्ञापन देकर प्रचारित करता है। उसके हानिकारक तथ्यों को छिपाता है, बताता नहीं है। खरीद करनेवाला सुविधा का विचार करता है और लेता है। वैज्ञानिक दृष्टि से परखने पर हानिकारक तथ्य भी समझ में आते हैं। तो भी खरीदने वाला खरीदता है और उसका उपयोग करता है। हानिकारक होने पर भी खरीदता है क्योंकि उसका मन दुर्बल है। इस सम्पूर्ण घटना को हम क्या कहेंगे

क्या ऐसे यन्त्र की खोज करनेवाले को नई खोज हेतु पुरस्कृत किया जायेगा ? क्या उसे उसका पेटण्ट मिलेगा और आर्थिक लाभ मिलेगा ? क्या इसका विज्ञापन बताने वाले को विज्ञापन कला के श्रेष्ठ नमूने का पुरस्कार मिलेगा ? या वैज्ञानिक, व्यापारी और विज्ञापन बनानेवाले को स्वास्थ्य और पर्यावरण की हानि करने हेतु दण्डित किया जायेगा ? या पहले पुरस्कार और बाद में दण्ड ऐसी दोनों बातें होंगी ?

जीवन के सभी क्षेत्रों में ऐसा घमासान आज मचा है। औषधि, अन्न, सुविधा के साधन, दैनन्दिन उपयोग की वस्तुयें आदि सभी खोजों में वैज्ञानिकता के नाम पर प्रशंसा प्राप्त हो रही है परन्तु उनसे होने वाली हानि को अनदेखा किया जा रहा है । हानिके बारे में स्वतन्त्र विचार किया जाता है। चिन्ता तो खूब जताई जाती है और उपाय भी बताये जाते हैं। उपायों को लेकर क्रियान्वयन किया जाता है परन्तु स्थिति में सुधार होता नहीं है क्योंकि जिस कारण से समस्या निर्माण हुई है उसे दर करने की कल्पना तक नहीं की जाती । समस्या का कारण विज्ञान के क्षेत्र की सिद्धि है जिस का गौरव किया जाता है ।

एलोपथी की औषधियाँ, संकर अनाज, रासायणिक खाद, अजननक्षम बीज (टर्निमेटेड सीड) रसोई में उपयोग में आनेवाले यन्त्र, सर्व प्रकार के अन्नसंरक्षक (फूड प्रिझर्वेटिव), अण्वास्त्र, वातानुकूलन आदि की यही कहानी है । एकांगी और खण्ड खण्ड में चिन्तन करने का, शिक्षायोजना करने का, अनुसन्धान करने का यह परिणाम है। यह सब करना सिखाने वाली शिक्षा को श्रेष्ठ शिक्षा नहीं कहा जाता।

५. पश्चिम में मन की शिक्षा का सर्वथा अभाव है। इसलिये उत्तेजना, तनाव, अशान्ति, अधीरता, आक्रोश आदि की मात्रा वातावरण में भी बहुत है और मनुष्य के व्यवहार में भी अत्यधिक है। इसका एक परिणाम मनोविकारजन्य रोगों में होने वाली वृद्धि है। मधुमेह, उच्चरक्तचाप, कर्करोग और हृदयविकार पश्चिमने विश्व को दी हुई भेंट है। अब पश्चिम में इन बिमारियों की औषधियों की भी खोज हो रही है। बिमारी भी उनकी और खोजें भी उनकी । परन्तु विश्व उनके उपहार स्वरूप बिमारियों से परेशान है और उनकी औषधियों के खोजों की प्रशंसा कर रहा है, उससे अभिभूत हो रहा है। बलिहारी यह है कि मनोविकारजन्य बिमारियों का जो अत्यन्त कारगर उपाय मन को शान्त करना और सज्जन बनाना है। परन्तु उस एक मूलगामी उपाय को छोडकर शारीरिक स्तर के अनेकानेक उपाय किये जाते हैं। ये सारी बिमारियाँ तो असाध्य हो ही गई हैं। उन्हें असाध्य ही माना जाता है। मूलकारण दूर नहीं करना और निरर्थक और अनर्थक उपाय करते रहना, परेशान भी होते रहना, बिमारियों के सूचकांक तैयार करना, इन बिमारियों को लेकर विश्व के देशों को तलनात्मक स्थिति दर्शानवाले आँकडे तैयार करना, स्वास्थ्यलक्षी सूचकांक तैयार करना - ऐसे फल नहीं परन्तु फल के छिलके खाने का उद्यम सर्वत्र चल रहा है, विज्ञान के क्षेत्र में प्रगति हो रही है, विकास हो रहा है।

इसे दुर्बुद्धि कहें, विकृत बुद्धि कहें या निर्बुद्धि यह तय करना कठिन है।

परन्तु ऐसी शिक्षा से स्वयं मुक्त होकर अमेरिका को भी मुक्त करने का सेवाकीय पुरुषार्थ तो भारत को करना ही होगा।

मन की शिक्षा के अभाव में व्यक्तिगत स्तर पर अनाचार से प्रारम्भ होकर लूट, शोषण, प्रदूषण और आतंकवाद तक उसका विस्तार होता है। जो शिक्षा इन दुष्कृत्यों को जन्म देती है, अथवा इन्हें रोक नहीं सकती ऐसी शिक्षा को श्रेष्ठ कैसे कहा जा सकता है ?

६. अर्थात् शिक्षा में सर्वत्र मन को सज्जन बनाने की, व्यक्ति को चरित्रवान बनाने की शिक्षा का अन्तर्भाव होने की अनिवार्यता है यह बात पश्चिम को आग्रहपूर्वक बताने की आवश्यकता है। अनुभूति का क्षेत्र पश्चिम में पूर्ण रूप से अनुपस्थित है। इस कारण से पश्चिम के अध्ययन और अनुसन्धान का स्तर बुद्धि प्रामाण्य तक ही पहुँचता है। सब कुछ केवल तर्क पर आधारित है। परन्तु पश्चिम की इस विषय में अपरिहार्य कठिनाई है । जिस प्रकार जन्मान्ध व्यक्ति को रंगों का, जन्म से बधिर व्यक्ति को वाणी का या सूंघने की शक्ति बिना लिये जन्मे व्यक्ति को गन्ध का अनुभव कल्पना में भी नहीं होता उस प्रकार जिसे अनुभूति जैसा कुछ होता है इसकी कल्पना तक नहीं होती उसके साथ अनुभूति के प्रमाण की चर्चा तक नहीं हो सकती। परन्तु इसका परिणाम यह होता है कि पश्चिम का शास्त्र न तर्कातीत होता है न शाश्वत । बुद्धि के स्तर के अनुसार शास्त्र रचे जाते हैं, कुछ समय तक प्रतिष्ठित और प्रचलित होते हैं, फिर कोई आता है और नये शास्त्र की रचना होती है । थिअरी बदलती रहती हैं। परिवर्तन भारत में भी होता है परन्तु वह केवल परिवर्तनशील बाहरी बातों का होता है, शाश्वत तत्त्वों का नहीं । पश्चिम में शाश्वत और परिवर्तनीय ऐसे दो आयाम हैं ही नहीं, सब कुछ परिवर्तनीय है। हमने कभी हमारी दृष्टि से पश्चिम को देखा ही नहीं है इसलिये उसका अधूरापन हमें समझ में नहीं आता ।

पश्चिम की स्थिति ऐसी है कि अनुभूति की शिक्षा का अनुभव करने हेतु भी उसे भारत में जन्म लेना पडेगा । पुनर्जन्म में, भाग्य में, जन्मजन्मान्तर में और आत्मतत्त्व की सत्ता में विश्वास करना पडेगा। भारत में जन्म नहीं होता तब तक भारत की चिरंजीविता को विचार में लेकर ज्ञानक्षेत्र के सिद्धान्तों को मानना पड़ेगा।

७. पश्चिम में शिक्षा बाजार के अधीन है क्योंकि उनकी जीवनशैली अर्थनिष्ठ है। भारत में एक अर्थनिष्ठा को उपालम्भ देने वाला सुभाषित है -

यस्यास्ति वित्तं स नरः कुलीनः

सः पण्डितः सः श्रुतवान गुणज्ञः ।

स एव वक्ता स च दर्शनीयः

सर्वे गुणाः काञ्चनमाश्रयन्ते ।।

अर्थात्

जिसके पास धन है वही व्यक्ति कुलीन है, वही ज्ञानी है, वही गुणों को जानने वाला है, वही वक्ता है, वही सुन्दर है क्योंकि सभी गुणकांचन का आश्रय करके ही रहते हैं।

पश्चिम का अनुभव करके ही इस सुभाषित की रचना कदाचित हुई होगी।

परन्तु जीवन जब अर्थकन्द्री व्यवस्थावाला हो जाता है और सारी उत्तम बातें उसके अधीन हो जाती है तब समाजजीवन में कितने भीषण संकट निर्माण होते हैं इसका अनुभव तो विश्व कर रहा है केवल कारण नहीं जानता। भारत का ही दायित्व है कि इस मूल कारण को विश्व तथा पश्चिम के समक्ष स्पष्ट करे।

८. पश्चिम में चर्च, राज्य, विज्ञान और प्रजा में परस्पर सामंजस्य नहीं है। चर्च की और विज्ञान की जीवनदृष्टि एकदूसरे से भिन्न हैं । चर्च की साम्प्रदायिक है, विज्ञान की भौतिक । राज्य कानून से चलता है, समाज करार व्यवस्था से । व्यक्ति और समाज के हित भी एकदूसरे से टकराते हैं। चर्च का विश्व आदम, हवा, पापपुण्य, ईश्वर और शैतान माफी और मुक्ति की कल्पना ओं से भरा हुआ है। विज्ञान का इलैक्ट्रोन, न्यूट्रोन, प्रोटोन और विविध प्रकार के संयोजनों की प्रक्रियाओं, गुरुत्वाकर्षणका तथा सापेक्षता का, उत्क्रान्ति का और एकरेखीय गति का सिद्धान्त लेकर कार्यरत है । राज्य सर्वत्र अधिसत्ता चाहता है और व्यक्ति व्यक्ति से बना समाज कामनाओं की पूर्ति । ऐसे अपनी अपनी दुनिया में मस्त, एकदूसरे को समझने की, समन्वय करने की स्वीकार करने की परवाह नहीं करने वाली प्रजा का राष्ट्र कैसे बन सकता है ? ब्रिटीशों के सिखाने से भारत के शिक्षित शिरोमणी कहते थे कि 'वी आर अ नेशन इन मेकिंग - हम अभी राष्ट्र बनने की प्रक्रिया में से गुजर रहे हैं। परन्तु पश्चिम की ओर देखकर लगता है कि उन्हें तो राष्ट्र की संकल्पना की गन्ध तक नहीं है। भारत में तो अबोध शिशु भी पूर्वजन्मों के पुण्यों के परिणामस्वरूप राष्ट्रीयता का संस्कार लिये हुए होता है और वहाँ पूरी की पूरी प्रजा राष्ट्र संकल्पना से अनभिज्ञ है। ऐसी स्थिति में भारत पश्चिम की चिन्ता करे यह अपेक्षित है। परन्तु यह चिन्ता एक शिक्षक जैसी अथवा वैद्य जैसी होनी चाहिये । रुग्ण की चिकित्सा करते समय वैद्य रुग्ण के धन का, सत्ता का , उससे मिलने वाले लाभ का विचार नहीं करता, न सत्ता या धन से दबता या डरता है, वह रु ग्ण की बात नहीं मानता, अपनी बुद्धि पर विश्वास कर दृढतापूर्वक चिकित्सा करता है। एक शिक्षक अपने विद्यार्थी की अथवा उसके अभिभावक की सत्ता या धन नहीं देखता अपितु विद्यार्थी की बुद्धि, व्यवहार, भावना के अनुसार पात्रता देखता है और शिक्षायोजना करता है । उसी प्रकार पश्चिम का बल, सत्ता, अहंकार, चमकदमक आदि से प्रभावित हुए बिना, दबे बिना, सत्य और धर्म का, करुणा और दया का आश्रय लेकर पश्चिम के लिये शिक्षा योजना बनानी चाहिये।