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| === २. भारत को भारत बनने की आवश्यकता === | | === २. भारत को भारत बनने की आवश्यकता === |
− | भारत को विश्वगुरु बनना है। यह विश्व की आवश्यकता है और भारत की नियति । परन्तु अपना यह दायित्व निभाने के लिये भारत को भारत बनना होगा । आज जैसा है वैसा भारत विश्व का मार्गदर्शन नहीं कर सकता । आज भारत स्वयं यूरोअमरिकी तन्त्र से चल रहा है । यह तन्त्र यूरोअमेरिकी जीवनदृष्टि के आधार पर तो विकसित हुआ ही है, साथ ही भारत के तन्त्र को तोड़ने के लिये, भारत को लूटने के लिये, भारत को अपने नियन्त्रण में रखने के लिये और भारत का यूरोपीकरण करने के लिये थोपा गया है । इस तन्त्र को थोपने की प्रक्रिया कम से कम दो शतक तक चली है। दो प्रक्रियायें साथ साथ चली हैं। एक है भारतीय व्यवस्थायें तोडने की और दूसरी उसके स्थान पर यूरोअमेरिकी व्यवस्था स्थापित करने की। दैनन्दिन राष्ट्रजीवन को संचालित करने वाली ये व्यवस्थायें हैं। | + | भारत को विश्वगुरु बनना है। यह विश्व की आवश्यकता है और भारत की नियति । परन्तु अपना यह दायित्व निभाने के लिये भारत को भारत बनना होगा । आज जैसा है वैसा भारत विश्व का मार्गदर्शन नहीं कर सकता । आज भारत स्वयं यूरोअमरिकी तन्त्र से चल रहा है । यह तन्त्र यूरोअमेरिकी जीवनदृष्टि के आधार पर तो विकसित हुआ ही है, साथ ही भारत के तन्त्र को तोड़ने के लिये, भारत को लूटने के लिये, भारत को अपने नियन्त्रण में रखने के लिये और भारत का यूरोपीकरण करने के लिये थोपा गया है । इस तन्त्र को थोपने की प्रक्रिया कम से कम दो शतक तक चली है। दो प्रक्रियायें साथ साथ चली हैं। एक है धार्मिक व्यवस्थायें तोडने की और दूसरी उसके स्थान पर यूरोअमेरिकी व्यवस्था स्थापित करने की। दैनन्दिन राष्ट्रजीवन को संचालित करने वाली ये व्यवस्थायें हैं। |
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| एक सरकारी दृष्टि से देखें तो दो शतकों में भारत में क्या हुआ है। ब्रिटीश आये तब और अपना आधिपत्य जमा रहे थे तब भारत में लोकतन्त्र नहीं था । हिन्दू राजा और मुसलमान नवाब अपने अपने राज्यों पर राज्य करते थे। यह तो ज्ञात इतिहास है कि भारत स्वाधीन हआ तब देश में पाँच सौ सैंतालीस राज्य थे जिनके विलीनीकरण का श्रेय सरदार वल्लभभाई पटेल को दिया जाता है। भारत में युगों से राजाशाही थी, गणराज्यों के बारे में भी इतिहास में हमने पढ़ा है, परन्तु आज के जैसा लोकतन्त्र भारत में कभी नहीं रहा । भारत के लिये यह संकल्पना सर्वथा अपरिचित है। भारत में लोकतन्त्र संज्ञा तो सुपरिचित है । वास्तव में 'लोक' सभी क्षेत्रों में प्रतिष्टित रहा है, परन्तु भारत का 'लोकतन्त्र' और वर्तमान डेमोक्रसी' मे कोई साम्य नहीं है। फिर भी स्वाधीन भारत में एक बार भी प्रश्न नहीं पूछा गया कि यह 'लोकतन्त्र' अचानक से कैसे आ गया । हमने उसे इतनी सहजता से अपना लिया जैसे हमेशा से हम इसी व्यवस्था में जी रहे हैं। | | एक सरकारी दृष्टि से देखें तो दो शतकों में भारत में क्या हुआ है। ब्रिटीश आये तब और अपना आधिपत्य जमा रहे थे तब भारत में लोकतन्त्र नहीं था । हिन्दू राजा और मुसलमान नवाब अपने अपने राज्यों पर राज्य करते थे। यह तो ज्ञात इतिहास है कि भारत स्वाधीन हआ तब देश में पाँच सौ सैंतालीस राज्य थे जिनके विलीनीकरण का श्रेय सरदार वल्लभभाई पटेल को दिया जाता है। भारत में युगों से राजाशाही थी, गणराज्यों के बारे में भी इतिहास में हमने पढ़ा है, परन्तु आज के जैसा लोकतन्त्र भारत में कभी नहीं रहा । भारत के लिये यह संकल्पना सर्वथा अपरिचित है। भारत में लोकतन्त्र संज्ञा तो सुपरिचित है । वास्तव में 'लोक' सभी क्षेत्रों में प्रतिष्टित रहा है, परन्तु भारत का 'लोकतन्त्र' और वर्तमान डेमोक्रसी' मे कोई साम्य नहीं है। फिर भी स्वाधीन भारत में एक बार भी प्रश्न नहीं पूछा गया कि यह 'लोकतन्त्र' अचानक से कैसे आ गया । हमने उसे इतनी सहजता से अपना लिया जैसे हमेशा से हम इसी व्यवस्था में जी रहे हैं। |
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− | ऐसी ही दूसरी व्यवस्था शिक्षा की है। वर्तमान में शिक्षा का जो तन्त्र चल रहा है वह भी भारत के लिये सर्वथा अपरिचित है। सरकार शिक्षा को नियन्त्रित और नियोजित करे ऐसा भारतीय जन ने स्वप्न में भी सोचा नहीं होगा । परन्तु आज वह प्रस्थापित तन्त्र हो गया है। | + | ऐसी ही दूसरी व्यवस्था शिक्षा की है। वर्तमान में शिक्षा का जो तन्त्र चल रहा है वह भी भारत के लिये सर्वथा अपरिचित है। सरकार शिक्षा को नियन्त्रित और नियोजित करे ऐसा धार्मिक जन ने स्वप्न में भी सोचा नहीं होगा । परन्तु आज वह प्रस्थापित तन्त्र हो गया है। |
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| ऐसा ही अर्थतन्त्र है। राज्य का व्यापार के क्षेत्र में सक्रिय होना भारत में सर्वथा अनपेक्षित और अवांछनीय रहा है। परन्तु ब्रिटीशों का तो राज्य ही व्यापार के लिये था । स्वाधीनता के बाद वह व्यवस्था भी वैसी ही रह गई। | | ऐसा ही अर्थतन्त्र है। राज्य का व्यापार के क्षेत्र में सक्रिय होना भारत में सर्वथा अनपेक्षित और अवांछनीय रहा है। परन्तु ब्रिटीशों का तो राज्य ही व्यापार के लिये था । स्वाधीनता के बाद वह व्यवस्था भी वैसी ही रह गई। |
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| अर्थात् बाहर से देखें तो भारत भारत नहीं रहा। | | अर्थात् बाहर से देखें तो भारत भारत नहीं रहा। |
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− | परन्तु भारत की एक विशेषता है। विश्व के कई देश यूरोप के आधिपत्य के परिणाम स्वरूप अन्दर बाहर पूर्ण बदल गये । अमेरिका स्वयं अब रेड इन्डियनों का देश नहीं रहा, यूरोपीय देश बन गया। ऑस्ट्रेलिया, आफ्रिका भी यूरोपीय बन गये । चीन, जापान आदि ने अमेरिका के साथ स्पर्धा शुरू कर दी है। परन्तु भारत अभी भी अन्दर से भारतीय रहा है। | + | परन्तु भारत की एक विशेषता है। विश्व के कई देश यूरोप के आधिपत्य के परिणाम स्वरूप अन्दर बाहर पूर्ण बदल गये । अमेरिका स्वयं अब रेड इन्डियनों का देश नहीं रहा, यूरोपीय देश बन गया। ऑस्ट्रेलिया, आफ्रिका भी यूरोपीय बन गये । चीन, जापान आदि ने अमेरिका के साथ स्पर्धा शुरू कर दी है। परन्तु भारत अभी भी अन्दर से धार्मिक रहा है। |
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| भारत के अन्तरंग और बहिरंग में बिना जाने समझे संघर्ष चल रहा है। भारत का अन्तरंग इतना बलवान रहा है कि सारी बहिरंग व्यवस्थाओं के बदल जाने के बाद भी वह बदला नहीं है। | | भारत के अन्तरंग और बहिरंग में बिना जाने समझे संघर्ष चल रहा है। भारत का अन्तरंग इतना बलवान रहा है कि सारी बहिरंग व्यवस्थाओं के बदल जाने के बाद भी वह बदला नहीं है। |
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| वर्तमान विश्व के संकटों को दूर करने हेतु भारत को अपनी भूमिका निभाने हेतु सिद्ध होना होगा। इसके लिये भारत क्या करे ? | | वर्तमान विश्व के संकटों को दूर करने हेतु भारत को अपनी भूमिका निभाने हेतु सिद्ध होना होगा। इसके लिये भारत क्या करे ? |
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− | सर्वप्रथम तो भारत को निश्चयपूर्वक अपनी भूमिका का स्वीकार करना होगा। संकट इतने भयावह हैं कि अब उनके निवारण हेतु हमें कुछ करना ही चाहिये ऐसा विचार भारत के मन में आना ही चाहिये । विश्व में अनेक देश हैं, वे बड़े हैं, समर्थ हैं अनेक तो अपने आपको महासमर्थ मानते हैं, सामर्थ्य को लेकर एकदूसरे से स्पर्धा करते हैं, वे यदि संकटों के निवारण की बात नहीं करते तो फिर हम क्यों करें ऐसा विचार नहीं करना चाहिये । कोई नहीं करता तो मैं क्यों करूं यह भारतीय विचार ही नहीं है, कोई नहीं करता तब भी मुझे करना चाहिये, और कोई नहीं करता तब तो मुझे करना ही चाहिये यह भारतीय विचार है। इसलिये विश्व के देश संकटों के निवारण का विचार करे न करें भारत को तो सिद्ध होना ही चाहिये । | + | सर्वप्रथम तो भारत को निश्चयपूर्वक अपनी भूमिका का स्वीकार करना होगा। संकट इतने भयावह हैं कि अब उनके निवारण हेतु हमें कुछ करना ही चाहिये ऐसा विचार भारत के मन में आना ही चाहिये । विश्व में अनेक देश हैं, वे बड़े हैं, समर्थ हैं अनेक तो अपने आपको महासमर्थ मानते हैं, सामर्थ्य को लेकर एकदूसरे से स्पर्धा करते हैं, वे यदि संकटों के निवारण की बात नहीं करते तो फिर हम क्यों करें ऐसा विचार नहीं करना चाहिये । कोई नहीं करता तो मैं क्यों करूं यह धार्मिक विचार ही नहीं है, कोई नहीं करता तब भी मुझे करना चाहिये, और कोई नहीं करता तब तो मुझे करना ही चाहिये यह धार्मिक विचार है। इसलिये विश्व के देश संकटों के निवारण का विचार करे न करें भारत को तो सिद्ध होना ही चाहिये । |
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| दूसरा कारण यह है कि विश्व भी आज संकटों का अनुभव तो कर ही रहा है और उनके निवारण हेतु प्रयास भी कर रहा है। उदाहरण के लिये पर्यावरण के प्रदूषण के संकट के निवारण हेतु विश्वस्तर के सम्मेलन हो रहे हैं, प्रस्ताव पारित हो रहे हैं, जनमानस प्रबोधन हेतु सूचनायें प्रसारित की जा रही हैं, संचार माध्यमों के द्वारा प्रचार हो रहा है परन्तु प्रदूषण कम नहीं हो रहा है (अर्थात् संकटों की भी वही स्थिति है। इससे सिद्ध होता है कि अनेक प्रयासों के बाद भी संकट दूर नहीं हो रहे हैं । भारत की सादी समझ तो यही कहती है कि संकटों के निवारण का प्रस्थान बिन्दु ही यदि ठीक नहीं है तो निवारण होना ही सम्भव नहीं । प्रदूषण करने वाला यदि अपने आपको बचाकर दूसरों को ही उपदेश देगा तो निवारण हो कैसे सकेगा ? अतः भारत को विश्व के अन्य देशों से अपेक्षा न करते हुए अपने आपको ही अग्रसर होकर संकट निवारण का विचार करना चाहिये । | | दूसरा कारण यह है कि विश्व भी आज संकटों का अनुभव तो कर ही रहा है और उनके निवारण हेतु प्रयास भी कर रहा है। उदाहरण के लिये पर्यावरण के प्रदूषण के संकट के निवारण हेतु विश्वस्तर के सम्मेलन हो रहे हैं, प्रस्ताव पारित हो रहे हैं, जनमानस प्रबोधन हेतु सूचनायें प्रसारित की जा रही हैं, संचार माध्यमों के द्वारा प्रचार हो रहा है परन्तु प्रदूषण कम नहीं हो रहा है (अर्थात् संकटों की भी वही स्थिति है। इससे सिद्ध होता है कि अनेक प्रयासों के बाद भी संकट दूर नहीं हो रहे हैं । भारत की सादी समझ तो यही कहती है कि संकटों के निवारण का प्रस्थान बिन्दु ही यदि ठीक नहीं है तो निवारण होना ही सम्भव नहीं । प्रदूषण करने वाला यदि अपने आपको बचाकर दूसरों को ही उपदेश देगा तो निवारण हो कैसे सकेगा ? अतः भारत को विश्व के अन्य देशों से अपेक्षा न करते हुए अपने आपको ही अग्रसर होकर संकट निवारण का विचार करना चाहिये । |
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| सर्वंकष विनाश की ओर कितना शीघ्र गति से विश्व धंस रहा है, विकास की कितनी अनुचित संकल्पना को साकार करने का प्रयास हो रहा है उसे कितना जल्दी त्याग कर देना चाहिये यह समझना आवश्यक है। विश्वस्थिति का केवल अध्ययन करने से काम नहीं चलेगा, भारत की दृष्टि से अध्ययन करना होगा। आज हम यूरोअमेरिकी दृष्टि से अध्ययन कर रहे हैं। इसके स्थान पर अपनी दृष्टि से अध्ययन करना होगा। | | सर्वंकष विनाश की ओर कितना शीघ्र गति से विश्व धंस रहा है, विकास की कितनी अनुचित संकल्पना को साकार करने का प्रयास हो रहा है उसे कितना जल्दी त्याग कर देना चाहिये यह समझना आवश्यक है। विश्वस्थिति का केवल अध्ययन करने से काम नहीं चलेगा, भारत की दृष्टि से अध्ययन करना होगा। आज हम यूरोअमेरिकी दृष्टि से अध्ययन कर रहे हैं। इसके स्थान पर अपनी दृष्टि से अध्ययन करना होगा। |
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− | इसके लिये हमें यूरोअमेरिकी और भारतीय जीवनदृष्टि का तुलनात्मक अध्ययन करना होगा। | + | इसके लिये हमें यूरोअमेरिकी और धार्मिक जीवनदृष्टि का तुलनात्मक अध्ययन करना होगा। |
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| भारत को सिद्ध होने के लिये संगठित होना होगा। आज की भाषा में जिसे युनियन कहते हैं ऐसा इस संगठित का अर्थ नहीं है। समाज संचालन करने वाले जितने भी वर्ग हैं उन सबको आन्तरिक सहमति और समरसता निर्माण करनी होगी। भारत एक राष्ट्र है, वह सार्वभौम प्रजासत्ताक राष्ट्र है इस सूत्र का स्वीकार कर एक सार्वभौम, स्वतन्त्र, समर्थ, सम्पन्न राष्ट्र बनाने हेतु सभी वर्गों का स्वेच्छापूर्वक सक्रिय योगदान होना आवश्यक है। ये वर्ग हैं सरकार, प्रशासन, विश्वविद्यालय, उद्योग, परिवार, धर्माचार्य एवं सैन्य । न्यायालय और पुलीस सरकार का ही हिस्सा है। इन सब की समरसता से ही सामर्थ्य निर्माण होगा। संगठन के मूल सूत्र निर्माण करना धर्मसंस्था और ज्ञानसंस्था का कार्य है। इन दोनों ने पहल करनी होगी। सरकार और सभी समाजसेवी संगठनों ने इन्हें आग्रहपूर्वक निवेदन करना होगा कि वे अपने राष्ट्र को समर्थ बनाने हेतु दायित्व का स्वीकार करें। | | भारत को सिद्ध होने के लिये संगठित होना होगा। आज की भाषा में जिसे युनियन कहते हैं ऐसा इस संगठित का अर्थ नहीं है। समाज संचालन करने वाले जितने भी वर्ग हैं उन सबको आन्तरिक सहमति और समरसता निर्माण करनी होगी। भारत एक राष्ट्र है, वह सार्वभौम प्रजासत्ताक राष्ट्र है इस सूत्र का स्वीकार कर एक सार्वभौम, स्वतन्त्र, समर्थ, सम्पन्न राष्ट्र बनाने हेतु सभी वर्गों का स्वेच्छापूर्वक सक्रिय योगदान होना आवश्यक है। ये वर्ग हैं सरकार, प्रशासन, विश्वविद्यालय, उद्योग, परिवार, धर्माचार्य एवं सैन्य । न्यायालय और पुलीस सरकार का ही हिस्सा है। इन सब की समरसता से ही सामर्थ्य निर्माण होगा। संगठन के मूल सूत्र निर्माण करना धर्मसंस्था और ज्ञानसंस्था का कार्य है। इन दोनों ने पहल करनी होगी। सरकार और सभी समाजसेवी संगठनों ने इन्हें आग्रहपूर्वक निवेदन करना होगा कि वे अपने राष्ट्र को समर्थ बनाने हेतु दायित्व का स्वीकार करें। |
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| === ४. विश्व के सन्दर्भ में विचार === | | === ४. विश्व के सन्दर्भ में विचार === |
− | विश्व के सन्दर्भ में भारतीय शिक्षा की स्थिति को देखते हैं तब हमें बहुत ही दारुण चित्र दिखाई देता है। आन्तर्राष्ट्रीय सूचकांक दर्शाते हैं कि विश्व के श्रेष्ठ दो सौ विद्यालयों की सूची में भारत का एक भी विश्वविद्यालय नहीं है। इसका अर्थ यह हुआ कि हम शिक्षा के मामले में बहुत पिछडे हुए हैं। | + | विश्व के सन्दर्भ में धार्मिक शिक्षा की स्थिति को देखते हैं तब हमें बहुत ही दारुण चित्र दिखाई देता है। आन्तर्राष्ट्रीय सूचकांक दर्शाते हैं कि विश्व के श्रेष्ठ दो सौ विद्यालयों की सूची में भारत का एक भी विश्वविद्यालय नहीं है। इसका अर्थ यह हुआ कि हम शिक्षा के मामले में बहुत पिछडे हुए हैं। |
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| फिर हम स्वप्न देखना शुरू करते हैं कि भारत में भी हम आन्तर्राष्ट्रीय स्तर के विश्वविद्यालय शुरू करेंगे। परन्तु बहुत जल्दी हमारा स्वप्न भंग हो जाता है। हमें प्रतीति होती है कि हमारे पास न पैसा है न नीयत, न बुद्धि प्रतिभा जिनके बल पर हम आन्तर्राष्ट्रीय स्तर के विश्वविद्यालय बना सकें। | | फिर हम स्वप्न देखना शुरू करते हैं कि भारत में भी हम आन्तर्राष्ट्रीय स्तर के विश्वविद्यालय शुरू करेंगे। परन्तु बहुत जल्दी हमारा स्वप्न भंग हो जाता है। हमें प्रतीति होती है कि हमारे पास न पैसा है न नीयत, न बुद्धि प्रतिभा जिनके बल पर हम आन्तर्राष्ट्रीय स्तर के विश्वविद्यालय बना सकें। |
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| १. विश्व के श्रेष्ठ दस विश्वविद्यालयों में कदाचित सात या आठ तो केवल अमेरिका में हैं। इसका अर्थ हैं वहाँ अध्ययन और अनुसन्धान का श्रेष्ठ कार्य हो रहा है। वहीं अत्यन्त मेधावी विद्यार्थी निर्माण हो रहे हैं। अमेरिका तो आर्थिक दृष्टि से भी अत्यन्त विकसित देश है । भारत उसकी तुलना में कहीं नहीं आता । फिर ऐसा क्यों है कि अमेरिका की लगभग दो सौ बहुराष्ट्रीय कम्पनियों में सीईओ अमेरिका के नहीं हैं। वे एशिया के, विशेषकर भारत के, हैं। ये कम्पनियाँ खूब कमाई करनेवाली कम्पनियाँ हैं। अमेरिका के प्रतिभावान विद्यार्थियों का क्या हो रहा है? | | १. विश्व के श्रेष्ठ दस विश्वविद्यालयों में कदाचित सात या आठ तो केवल अमेरिका में हैं। इसका अर्थ हैं वहाँ अध्ययन और अनुसन्धान का श्रेष्ठ कार्य हो रहा है। वहीं अत्यन्त मेधावी विद्यार्थी निर्माण हो रहे हैं। अमेरिका तो आर्थिक दृष्टि से भी अत्यन्त विकसित देश है । भारत उसकी तुलना में कहीं नहीं आता । फिर ऐसा क्यों है कि अमेरिका की लगभग दो सौ बहुराष्ट्रीय कम्पनियों में सीईओ अमेरिका के नहीं हैं। वे एशिया के, विशेषकर भारत के, हैं। ये कम्पनियाँ खूब कमाई करनेवाली कम्पनियाँ हैं। अमेरिका के प्रतिभावान विद्यार्थियों का क्या हो रहा है? |
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− | यह आज की बात नहीं है। दो पीटी पूर्व से स्थिति तो यही है। कुछ वर्ष पूर्व एक वृत्त आया था कि केवल एक न्यूयोर्क में सातसौ डॉक्टर भारतीय हैं। यही बात इन्जिनीयरों, मैनेजरों, संगणक निष्णातों, व्यापारियों आदि की है। विश्व के श्रेष्ठ विश्वविद्यालयों में पढे विद्यार्थी क्या देश नहीं चला सकते ? भारत में तो इतनी बड़ी संख्या में यूरोअमेरिकी विश्वविद्यालयों मे पढे लोग डॉक्टर का या अन्य व्यवसाय करते नहीं दिखाई देते । | + | यह आज की बात नहीं है। दो पीटी पूर्व से स्थिति तो यही है। कुछ वर्ष पूर्व एक वृत्त आया था कि केवल एक न्यूयोर्क में सातसौ डॉक्टर धार्मिक हैं। यही बात इन्जिनीयरों, मैनेजरों, संगणक निष्णातों, व्यापारियों आदि की है। विश्व के श्रेष्ठ विश्वविद्यालयों में पढे विद्यार्थी क्या देश नहीं चला सकते ? भारत में तो इतनी बड़ी संख्या में यूरोअमेरिकी विश्वविद्यालयों मे पढे लोग डॉक्टर का या अन्य व्यवसाय करते नहीं दिखाई देते । |
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| लोग कहते हैं कि भारत तो गरीब देश है। यहां आकर वे क्या कमाई करेंगे ? तो विचार यह करना है कि क्या डॉक्टर या अध्यापक समाज की सेवा करने के लिये बनना है या केवल कमाई करने के लिये ? अमेरिका तो सब कुछ केवल कमाई करने के लिये कर रहा है। तो वह अपने ही लोगों के स्थान पर विदेशियों को कमाई के अवसर क्यों दे रहा है ? केवल इसलिये कि उसके विश्वविद्यालय जनसंख्या और आवश्यकता के अनुपात में पर्याप्त कुशल डॉक्टर, इन्जिनीयर आदि निर्माण नहीं कर सकते । ऐसे देश के विश्वविद्यालय यदि विश्व के श्रेष्ठ विश्वविद्यालय हैं तो बात विचार करने योग्य बन जाती है। क्या अमेरिका स्वयं के लिये नहीं अपितु अन्य देशों के लिये ही विश्वविद्यालय चलाता है ? यदि हाँ, तो इसका अर्थ यह हुआ कि अमेरिकी ज्ञानविज्ञान के प्रसार से विश्व का अमेरिकीकरण करना चाहता है। | | लोग कहते हैं कि भारत तो गरीब देश है। यहां आकर वे क्या कमाई करेंगे ? तो विचार यह करना है कि क्या डॉक्टर या अध्यापक समाज की सेवा करने के लिये बनना है या केवल कमाई करने के लिये ? अमेरिका तो सब कुछ केवल कमाई करने के लिये कर रहा है। तो वह अपने ही लोगों के स्थान पर विदेशियों को कमाई के अवसर क्यों दे रहा है ? केवल इसलिये कि उसके विश्वविद्यालय जनसंख्या और आवश्यकता के अनुपात में पर्याप्त कुशल डॉक्टर, इन्जिनीयर आदि निर्माण नहीं कर सकते । ऐसे देश के विश्वविद्यालय यदि विश्व के श्रेष्ठ विश्वविद्यालय हैं तो बात विचार करने योग्य बन जाती है। क्या अमेरिका स्वयं के लिये नहीं अपितु अन्य देशों के लिये ही विश्वविद्यालय चलाता है ? यदि हाँ, तो इसका अर्थ यह हुआ कि अमेरिकी ज्ञानविज्ञान के प्रसार से विश्व का अमेरिकीकरण करना चाहता है। |
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| इस संकल्प का संकेत यह है कि हम अपने आपको सम्पूर्ण सृष्टि और सनातन काल के साथ जोडे रखते हैं । हम जानते हैं कि हमारे किसी भी कार्य का परिणाम वैश्विक होगा। यह सृष्टिनियम है। यह भौतिक विज्ञान का भी नियम है और अध्यात्मविज्ञान का भी । सृष्टि के किसी भी कोने में किये गये विचार, इच्छा या कृति का परिणाम विश्वव्यापी ही होता है । इस नियम का भी हम रोज स्मरण करते हैं। | | इस संकल्प का संकेत यह है कि हम अपने आपको सम्पूर्ण सृष्टि और सनातन काल के साथ जोडे रखते हैं । हम जानते हैं कि हमारे किसी भी कार्य का परिणाम वैश्विक होगा। यह सृष्टिनियम है। यह भौतिक विज्ञान का भी नियम है और अध्यात्मविज्ञान का भी । सृष्टि के किसी भी कोने में किये गये विचार, इच्छा या कृति का परिणाम विश्वव्यापी ही होता है । इस नियम का भी हम रोज स्मरण करते हैं। |
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− | तात्पर्य यह है कि भारतीयों का विचार और व्यवहार हमेशा से वैश्विक ही रहा है। हम अपने निजी सुख और हित की कामना भी विश्व के अविरोधी बनकर ही करते हैं। केवल अविरोधी नहीं तो विश्व के सुख और हित के लिये भी करते हैं। | + | तात्पर्य यह है कि धार्मिकों का विचार और व्यवहार हमेशा से वैश्विक ही रहा है। हम अपने निजी सुख और हित की कामना भी विश्व के अविरोधी बनकर ही करते हैं। केवल अविरोधी नहीं तो विश्व के सुख और हित के लिये भी करते हैं। |
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| यहाँ कोई प्रश्न कर सकता है कि इस संकल्प में जम्बूद्वीप की ही बात की गई है, सम्पूर्ण सृष्टि की नहीं । | | यहाँ कोई प्रश्न कर सकता है कि इस संकल्प में जम्बूद्वीप की ही बात की गई है, सम्पूर्ण सृष्टि की नहीं । |
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| गन्धवती पृथ्वी, रसयुक्त जल, स्पर्शगुण युक्त वायु, उष्णता और प्रकाश देने वाला तेज और शब्दगुणवाला आकाश मेरे प्रभात को अच्छा करें। | | गन्धवती पृथ्वी, रसयुक्त जल, स्पर्शगुण युक्त वायु, उष्णता और प्रकाश देने वाला तेज और शब्दगुणवाला आकाश मेरे प्रभात को अच्छा करें। |
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− | अर्थात् प्रातःकाल उठते ही व्यक्ति समस्त प्रकृति का स्मरण करता है । अर्थात् पंचमहाभूत, प्राणी, वनस्पति और मनुष्य आदि सबसे सम्बन्धित होकर, सबसे अविरोधी रहकर ही भारतीय व्यक्ति अपने सुख और हित की कामना करता है। | + | अर्थात् प्रातःकाल उठते ही व्यक्ति समस्त प्रकृति का स्मरण करता है । अर्थात् पंचमहाभूत, प्राणी, वनस्पति और मनुष्य आदि सबसे सम्बन्धित होकर, सबसे अविरोधी रहकर ही धार्मिक व्यक्ति अपने सुख और हित की कामना करता है। |
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| भारत के दीर्घतम आयुष्य ने, और इसी कारण से दीर्घतम इतिहास ने, यह सिद्ध किया है कि जो इस प्रकार का 'सर्वेषाम् अविरोधेन' विचार और व्यवहार करता है वह चिरंजीव होता है। सनातनता का प्रत्यक्ष उदाहरण ही भारत ने प्रस्तुत किया है। | | भारत के दीर्घतम आयुष्य ने, और इसी कारण से दीर्घतम इतिहास ने, यह सिद्ध किया है कि जो इस प्रकार का 'सर्वेषाम् अविरोधेन' विचार और व्यवहार करता है वह चिरंजीव होता है। सनातनता का प्रत्यक्ष उदाहरण ही भारत ने प्रस्तुत किया है। |