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८. पश्चिम में चर्च, राज्य, विज्ञान और प्रजा में परस्पर सामंजस्य नहीं है। चर्च की और विज्ञान की जीवनदृष्टि एकदूसरे से भिन्न हैं । चर्च की साम्प्रदायिक है, विज्ञान की भौतिक । राज्य कानून से चलता है, समाज करार व्यवस्था से । व्यक्ति और समाज के हित भी एकदूसरे से टकराते हैं। चर्च का विश्व आदम, हवा, पापपुण्य, ईश्वर और शैतान माफी और मुक्ति की कल्पना ओं से भरा हुआ है। विज्ञान का इलैक्ट्रोन, न्यूट्रोन, प्रोटोन और विविध प्रकार के संयोजनों की प्रक्रियाओं, गुरुत्वाकर्षणका तथा सापेक्षता का, उत्क्रान्ति का और एकरेखीय गति का सिद्धान्त लेकर कार्यरत है । राज्य सर्वत्र अधिसत्ता चाहता है और व्यक्ति व्यक्ति से बना समाज कामनाओं की पूर्ति । ऐसे अपनी अपनी दुनिया में मस्त, एकदूसरे को समझने की, समन्वय करने की स्वीकार करने की परवाह नहीं करने वाली प्रजा का राष्ट्र कैसे बन सकता है ? ब्रिटीशों के सिखाने से भारत के शिक्षित शिरोमणी कहते थे कि 'वी आर अ नेशन इन मेकिंग - हम अभी राष्ट्र बनने की प्रक्रिया में से गुजर रहे हैं। परन्तु पश्चिम की ओर देखकर लगता है कि उन्हें तो राष्ट्र की संकल्पना की गन्ध तक नहीं है। भारत में तो अबोध शिशु भी पूर्वजन्मों के पुण्यों के परिणामस्वरूप राष्ट्रीयता का संस्कार लिये हुए होता है और वहाँ पूरी की पूरी प्रजा राष्ट्र संकल्पना से अनभिज्ञ है। ऐसी स्थिति में भारत पश्चिम की चिन्ता करे यह अपेक्षित है। परन्तु यह चिन्ता एक शिक्षक जैसी अथवा वैद्य जैसी होनी चाहिये । रुग्ण की चिकित्सा करते समय वैद्य रुग्ण के धन का, सत्ता का , उससे मिलने वाले लाभ का विचार नहीं करता, न सत्ता या धन से दबता या डरता है, वह रु ग्ण की बात नहीं मानता, अपनी बुद्धि पर विश्वास कर दृढतापूर्वक चिकित्सा करता है। एक शिक्षक अपने विद्यार्थी की अथवा उसके अभिभावक की सत्ता या धन नहीं देखता अपितु विद्यार्थी की बुद्धि, व्यवहार, भावना के अनुसार पात्रता देखता है और शिक्षायोजना करता है । उसी प्रकार पश्चिम का बल, सत्ता, अहंकार, चमकदमक आदि से प्रभावित हुए बिना, दबे बिना, सत्य और धर्म का, करुणा और दया का आश्रय लेकर पश्चिम के लिये शिक्षा योजना बनानी चाहिये।
 
८. पश्चिम में चर्च, राज्य, विज्ञान और प्रजा में परस्पर सामंजस्य नहीं है। चर्च की और विज्ञान की जीवनदृष्टि एकदूसरे से भिन्न हैं । चर्च की साम्प्रदायिक है, विज्ञान की भौतिक । राज्य कानून से चलता है, समाज करार व्यवस्था से । व्यक्ति और समाज के हित भी एकदूसरे से टकराते हैं। चर्च का विश्व आदम, हवा, पापपुण्य, ईश्वर और शैतान माफी और मुक्ति की कल्पना ओं से भरा हुआ है। विज्ञान का इलैक्ट्रोन, न्यूट्रोन, प्रोटोन और विविध प्रकार के संयोजनों की प्रक्रियाओं, गुरुत्वाकर्षणका तथा सापेक्षता का, उत्क्रान्ति का और एकरेखीय गति का सिद्धान्त लेकर कार्यरत है । राज्य सर्वत्र अधिसत्ता चाहता है और व्यक्ति व्यक्ति से बना समाज कामनाओं की पूर्ति । ऐसे अपनी अपनी दुनिया में मस्त, एकदूसरे को समझने की, समन्वय करने की स्वीकार करने की परवाह नहीं करने वाली प्रजा का राष्ट्र कैसे बन सकता है ? ब्रिटीशों के सिखाने से भारत के शिक्षित शिरोमणी कहते थे कि 'वी आर अ नेशन इन मेकिंग - हम अभी राष्ट्र बनने की प्रक्रिया में से गुजर रहे हैं। परन्तु पश्चिम की ओर देखकर लगता है कि उन्हें तो राष्ट्र की संकल्पना की गन्ध तक नहीं है। भारत में तो अबोध शिशु भी पूर्वजन्मों के पुण्यों के परिणामस्वरूप राष्ट्रीयता का संस्कार लिये हुए होता है और वहाँ पूरी की पूरी प्रजा राष्ट्र संकल्पना से अनभिज्ञ है। ऐसी स्थिति में भारत पश्चिम की चिन्ता करे यह अपेक्षित है। परन्तु यह चिन्ता एक शिक्षक जैसी अथवा वैद्य जैसी होनी चाहिये । रुग्ण की चिकित्सा करते समय वैद्य रुग्ण के धन का, सत्ता का , उससे मिलने वाले लाभ का विचार नहीं करता, न सत्ता या धन से दबता या डरता है, वह रु ग्ण की बात नहीं मानता, अपनी बुद्धि पर विश्वास कर दृढतापूर्वक चिकित्सा करता है। एक शिक्षक अपने विद्यार्थी की अथवा उसके अभिभावक की सत्ता या धन नहीं देखता अपितु विद्यार्थी की बुद्धि, व्यवहार, भावना के अनुसार पात्रता देखता है और शिक्षायोजना करता है । उसी प्रकार पश्चिम का बल, सत्ता, अहंकार, चमकदमक आदि से प्रभावित हुए बिना, दबे बिना, सत्य और धर्म का, करुणा और दया का आश्रय लेकर पश्चिम के लिये शिक्षा योजना बनानी चाहिये।
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[[Category:Education Series]]
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[[Category:Dharmik Shiksha Granthmala(धार्मिक शिक्षा ग्रन्थमाला)]]
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[[Category:धार्मिक शिक्षा ग्रंथमाला 5: वैश्विक संकटों का निवारण धार्मिक शिक्षा]]
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[[Category:धार्मिक शिक्षा ग्रंथमाला 5: पर्व 4: भारत की भूमिका]]

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