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च्यवनो यवनो गर्गः कश्यपश्च पराशरः। अष्टादशैते गम्भीरा ज्योतिश्शास्त्रप्रवर्तकाः॥(नारद संहिता)</blockquote>महर्षि कश्यपने आचार्योंकी नामावली इस प्रकार निरूपित की है-<blockquote>सूर्यः पितामहो व्यासो वसिष्ठोऽत्रिः पराशरः। कश्यपो नारदो गर्गो मरीचिर्मनुरङ्गिराः॥
 
च्यवनो यवनो गर्गः कश्यपश्च पराशरः। अष्टादशैते गम्भीरा ज्योतिश्शास्त्रप्रवर्तकाः॥(नारद संहिता)</blockquote>महर्षि कश्यपने आचार्योंकी नामावली इस प्रकार निरूपित की है-<blockquote>सूर्यः पितामहो व्यासो वसिष्ठोऽत्रिः पराशरः। कश्यपो नारदो गर्गो मरीचिर्मनुरङ्गिराः॥
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लोमशः पौलिशश्चैव च्यवनो यवनो भृगुः। शौनकोऽष्टादशाश्चैते ज्योतिःशास्त्रप्रवर्तकाः॥(काश्यप संहिता)</blockquote>पराशरजीके मतानुसार-<blockquote>विश्वसृङ् नारदो व्यासो वसिष्ठोऽत्रिः पराशरः। लोमशो यवनः सूर्यः च्यवनः कश्यपो भृगुः॥
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लोमशः पौलिशश्चैव च्यवनो यवनो भृगुः। शौनकोऽष्टादशाश्चैते ज्योतिःशास्त्रप्रवर्तकाः॥(काश्यप संहिता)</blockquote>पराशरजीके मतानुसार-<blockquote>विश्वसृङ् नारदो व्यासो वसिष्ठोऽत्रिः पराशरः। लोमशो यवनः सूर्यः च्यवनः कश्यपो भृगुः॥पुलस्त्यो मनुराचार्यः पौलिशः शौनकोऽङ्गिराः। गर्गो मरीचिरित्येते ज्ञेया ज्यौतिःप्रवर्तकाः॥</blockquote>पराशरजीके अनुसार पुलस्त्यनामके एक आद्य आचार्य भी हुये हैं इस प्रकार ज्योतिषशास्त्रके प्रवर्तक आचार्य उन्नीस हैं।
 
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पुलस्त्यो मनुराचार्यः पौलिशः शौनकोऽङ्गिराः। गर्गो मरीचिरित्येते ज्ञेया ज्यौतिःप्रवर्तकाः॥</blockquote>पराशरजीके अनुसार पुलस्त्यनामके एक आद्य आचार्य भी हुये हैं इस प्रकार ज्योतिषशास्त्रके प्रवर्तक आचार्य उन्नीस हैं।
      
== ज्योतिषशास्त्र की उपयोगिता ==
 
== ज्योतिषशास्त्र की उपयोगिता ==
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ग्रहण खगोलीयपिण्डों के भ्रमण वश आकाशमें उत्पन्न होने वाली एक अद्भुत घटना है। इससे अश्रुतपूर्व, अद्भुत ज्योतिष्क-ज्ञान और ग्रह उपग्रहोंकी गतिविधि  एवं स्वरूपका परिस्फुट परिचय प्राप्त हुआ है। ग्रहोंकी यह घटना भारतीय मनीषियोंको अत्यन्त प्राचीनकालसे अभिज्ञात रही है और इसपर धार्मिक तथा वैज्ञानिक विवेचन धार्मिक ग्रन्थों और ज्योतिष-ग्रन्थोंमें होता चला आया है। महर्षि अत्रिमुनि ग्रहण-ज्ञानके उपज्ञ (प्रथम ज्ञाता) आचार्य थे। ऋग्वेदीय प्रकाशकालसे ग्रहणके ऊपर अध्ययन, मनन और स्थापन होते चले आये हैं। गणितके बलपर ग्रहणका पूर्ण पर्यवेक्षण प्रायः पर्यवसित हो चुका है, जिसमें वैज्ञानिकोंका योगदान भी महत्वपूर्ण है।
 
ग्रहण खगोलीयपिण्डों के भ्रमण वश आकाशमें उत्पन्न होने वाली एक अद्भुत घटना है। इससे अश्रुतपूर्व, अद्भुत ज्योतिष्क-ज्ञान और ग्रह उपग्रहोंकी गतिविधि  एवं स्वरूपका परिस्फुट परिचय प्राप्त हुआ है। ग्रहोंकी यह घटना भारतीय मनीषियोंको अत्यन्त प्राचीनकालसे अभिज्ञात रही है और इसपर धार्मिक तथा वैज्ञानिक विवेचन धार्मिक ग्रन्थों और ज्योतिष-ग्रन्थोंमें होता चला आया है। महर्षि अत्रिमुनि ग्रहण-ज्ञानके उपज्ञ (प्रथम ज्ञाता) आचार्य थे। ऋग्वेदीय प्रकाशकालसे ग्रहणके ऊपर अध्ययन, मनन और स्थापन होते चले आये हैं। गणितके बलपर ग्रहणका पूर्ण पर्यवेक्षण प्रायः पर्यवसित हो चुका है, जिसमें वैज्ञानिकोंका योगदान भी महत्वपूर्ण है।
   −
== परिचय ॥ Introduction ==
+
=== परिचय ॥ Introduction ===
 
सूर्यः सोमो महीपुत्रः सोमपुत्रो बृहस्पतिः। शुक्रः शनैश्चरो राहुः केतुश्चेति ग्रहाः स्मृताः॥
 
सूर्यः सोमो महीपुत्रः सोमपुत्रो बृहस्पतिः। शुक्रः शनैश्चरो राहुः केतुश्चेति ग्रहाः स्मृताः॥
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स्वर्भानोरध यदिन्द्र माया अवो दिवो वर्तमाना अवाहन्। सूर्यं तमसापव्रतेन तुरीयेण गूळ्हं ब्रह्मणाविन्ददत्रिः ॥(ऋक्० ५/४०/५-६) </blockquote>अगले एक मन्त्रमें यह आता है कि 'इन्द्रने अत्रिकी सहायतासे ही राहुकी मायासे सूर्यकी रक्षा की थी।' इसी प्रकार ग्रहणके निरसनमें समर्थ महर्षि अत्रिके तप:सन्धानसे समुद्भूत अलौकिक प्रभावोंका वर्णन वेदके अनेक मन्त्रोंमें प्राप्त होता है। किंतु महर्षि अत्रि किस अद्भुत सामर्थ्यसे इस अलौकिक कार्यमें दक्ष माने गये, इस विषयमें दो मत हैं-प्रथम परम्परा-प्राप्त यह मत कि वे इस कार्यमें तपस्याके प्रभावसे समर्थ हुए और दूसरा यह कि वे कोई नया यन्त्र बनाकर उसकी सहायतासे ग्रहणसे उन्मुक्त हुए सूर्यको दिखलानेमें समर्थ हुए। यही कारण है कि महर्षि अत्रि ही भारतीयों ग्रहणके प्रथम आचार्य (उपज्ञ) माने गये।  
 
स्वर्भानोरध यदिन्द्र माया अवो दिवो वर्तमाना अवाहन्। सूर्यं तमसापव्रतेन तुरीयेण गूळ्हं ब्रह्मणाविन्ददत्रिः ॥(ऋक्० ५/४०/५-६) </blockquote>अगले एक मन्त्रमें यह आता है कि 'इन्द्रने अत्रिकी सहायतासे ही राहुकी मायासे सूर्यकी रक्षा की थी।' इसी प्रकार ग्रहणके निरसनमें समर्थ महर्षि अत्रिके तप:सन्धानसे समुद्भूत अलौकिक प्रभावोंका वर्णन वेदके अनेक मन्त्रोंमें प्राप्त होता है। किंतु महर्षि अत्रि किस अद्भुत सामर्थ्यसे इस अलौकिक कार्यमें दक्ष माने गये, इस विषयमें दो मत हैं-प्रथम परम्परा-प्राप्त यह मत कि वे इस कार्यमें तपस्याके प्रभावसे समर्थ हुए और दूसरा यह कि वे कोई नया यन्त्र बनाकर उसकी सहायतासे ग्रहणसे उन्मुक्त हुए सूर्यको दिखलानेमें समर्थ हुए। यही कारण है कि महर्षि अत्रि ही भारतीयों ग्रहणके प्रथम आचार्य (उपज्ञ) माने गये।  
      
भारतीय ज्योतिषके अनुसार सभी ग्रह पृथ्वी के चारों ओर वृत्ताकार कक्षाओं में भ्रमण करते हैं। भूकेन्द्रसे इन कक्षाओं की दूरी भी विलक्षण है। अर्थात् ग्रह कक्षाओं का केन्द्र बिन्दु पृथ्वी पर नहीं है।  
 
भारतीय ज्योतिषके अनुसार सभी ग्रह पृथ्वी के चारों ओर वृत्ताकार कक्षाओं में भ्रमण करते हैं। भूकेन्द्रसे इन कक्षाओं की दूरी भी विलक्षण है। अर्थात् ग्रह कक्षाओं का केन्द्र बिन्दु पृथ्वी पर नहीं है।  
    
== ज्योतिष शास्त्र में सृष्टि विषयक विचार ==
 
== ज्योतिष शास्त्र में सृष्टि विषयक विचार ==
ब्रह्माण्ड एवं अन्तरिक्ष से संबंधित प्रश्न मानव मात्र के लिये दुविधा का केन्द्र बने हुये हैं, परन्तु समाधान पूर्वक ज्योतिष शास्त्र के अनुसार इस सृष्टि की उत्पत्ति का कारण एकमात्र सूर्य हैं। अंशावतार सूर्य एवं मय के संवाद से स्पष्ट होता है कि समय-समय पर ज्योतिष शास्त्र का उपदेश भगवान् सूर्य द्वारा होता रहा है-  <blockquote>श्रणुष्वैकमनाः पूर्वं यदुक्तं ज्ञानमुत्तमम् । युगे युगे महर्षीणां स्वयमेव विवस्वता॥   
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ब्रह्माण्ड एवं अन्तरिक्ष से संबंधित प्रश्न मानव मात्र के लिये दुविधा का केन्द्र बने हुये हैं, परन्तु समाधान पूर्वक ज्योतिष शास्त्र के अनुसार इस सृष्टि की उत्पत्ति का कारण एकमात्र सूर्य हैं। अंशावतार सूर्य एवं मय के संवाद से स्पष्ट होता है कि समय-समय पर ज्योतिष शास्त्र का उपदेश भगवान् सूर्य द्वारा होता रहा है-  <blockquote>श्रणुष्वैकमनाः पूर्वं यदुक्तं ज्ञानमुत्तमम् । युगे युगे महर्षीणां स्वयमेव विवस्वता॥ शास्त्रमाद्यं तदेवेदं यत्पूर्वं प्राह भास्करः। युगानां परि वर्तेत कालभेदोऽत्र केवलः॥(सू० सि० मध्यमाधिकार,८/९) </blockquote>पराशर मुनिने भी संसार की उत्पत्ति का कारण सूर्यको ही माना है।(बृ०पा०हो० ४)
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==== भारतीय ज्योतिष एवं पंचांग ====
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== ज्योतिष एवं वृक्ष ==
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भारतभूमि प्रकृति एवं जीवन के प्रति सद्भाव एवं श्रद्धा पर केन्द्रित मानव जीवन का मुख्य केन्द्रबिन्दु रही है। हमारी संस्कृतिमें स्थित स्नेह एवं श्रद्धा ने मानवमात्र में प्रकृति के साथ सहभागिता एवं अंतरंगता का भाव सजा रखा है। हमारे शास्त्रों में मनुष्य की वृक्षों के साथ अंतरंगता एवं वनों पर निर्भरता का विस्तृत विवरण प्राप्त होता है। हमारे मनीषियों ने अपनी गहरी सूझ-बूझ तथा अनुभव के आधार पर मानव जीवन, खगोल पिण्डों तथा पेड-पौधों के बीच के परस्पर संबन्धों का वर्णन किया है।
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== परिचय ==
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पर्यावरण को हरा-भरा और प्रदूषण मुक्त बनाये रखने में वृक्षों का महत्वपूर्ण योगदान है। ज्योतिषशास्त्र में वृक्षों को देवताओं और ग्रहों के निमित्त लगाकर उनसे शुभफल प्राप्त किये जाने का उल्लेख प्राप्त होता है। शास्त्रों में एक वृक्ष सौ पुत्रों से भी बढकर बताया है क्योंकि वृक्ष जीवन पर्यन्त अपने पालक को समान एवं निःस्वार्थ भाव से लाभ पहुँचाता रहता है।
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 +
== शुभ मुहूर्त में वृक्षारोपण ==
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=== ग्रह शान्ति एवं वृक्ष ===
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ग्रहशान्ति के यज्ञीय कार्यों में सही पहचान के अभाव में अधिकतर लोगों को सही वनस्पति नहीं प्राप्त हो पाती, इसलिये नवग्रह वृक्षों को धार्मिक स्थलों के पास रोपित करना चाहिये जिससे यज्ञ कार्य के लिये लोगों को शुद्ध सामग्री मिल सके।
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 +
अर्चन-पूजन के लिये इन वृक्ष वनस्पतियों के सम्पर्क में आने पर भी ग्रहों के कुप्रभावों की शान्ति होती है अतः ग्रह शान्ति से वृक्षों का संबंध होने से वृक्षारोपण का महत्व और बढ जाता है।
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=== हवन समिधा एवं वृक्ष ===
 +
यज्ञ द्वारा ग्रह शान्ति के उपाय में हर ग्रह के लिये अलग-अलग विशिष्ट वनस्पति की समिधा(हवन काष्ठ) प्रयोग की जाती है, जैसा कि निम्न श्लोक में वर्णित है-
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 +
अर्कःपलाशःखदिरश्चापामार्गोऽथ पिप्पलः। औडमबरः शमी दूर्वा कुशश्च समिधः क्रमात् ॥(गरुड पुराण)
 +
 
 +
अर्थात् अर्क, पलाश, खदिर, अपामार्ग, पीपल, गूलर, शमी, दूब और कुश क्रमशः नवग्रहों की समिधायें हैं।
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=== दान हेतु वृक्ष ===
 +
 
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== नक्षत्र वन ==
 +
नक्षत्र वृक्षों का वर्णन नारदसंहिता, शारदातिलक, विद्यार्णवतन्त्र, नारदपुराण, मन्त्रमहार्णव और राजनिघण्टु आदि ग्रन्थों में विस्तार से किया गया है। बृहत्सुश्रुत व नारायणार्नव नामक ग्रन्थों में भी नक्षत्र वृक्षों का विस्तार से वर्णन किये जाने का संकेत राजनिघण्टु में प्राप्त होता है।
 +
 
 +
=== ज्योतिषीय महत्व ===
 +
'''नारद पुराण के अनुसार-''' जिस नक्षत्र में शनि विद्यमान हो उस समय उस नक्षत्र संबंधी वृक्ष का यत्नपूर्वक स्थापन, संवर्धन एवं पूजन करना चाहिये।
 +
 
 +
'''नारद संहिता के अनुसार-''' सुख शान्ति के लिये अपने जन्म नक्षत्र सबंधी वृक्ष की पूजा करनी चाहिये।
 +
{| class="wikitable"
 +
|+नक्षत्र वन
 +
!क्रम सं०
 +
!नक्षत्र
 +
!वृक्ष का हिन्दी नाम
 +
!वृक्ष का वैज्ञानिक नाम
 +
|-
 +
|1
 +
|अश्विनी
 +
|आंवला
 +
|Emblica officinalis
 +
|-
 +
|2
 +
|भरणी
 +
|यमक(युग्म वृक्ष)
 +
|Ficus spp.
 +
|-
 +
|3
 +
|कृत्तिका
 +
|उदुम्बर(गूलर)
 +
|Ficus glomerata
 +
|-
 +
|4
 +
|रोहिणी
 +
|जम्बु(जामुन)
 +
|Syzygium cumini
 +
|-
 +
|5
 +
|मृगशिरा
 +
|खदिर(खैर)
 +
|Acacia catechu
 +
|-
 +
|6
 +
|आर्द्रा
 +
|कृष्णप्लक्ष(पाकड)
 +
|Ficus infectoria
 +
|-
 +
|7
 +
|पुनर्वसु
 +
|वंश(बांस)
 +
|Dendrocalamus/Bambusa spp
 +
|-
 +
|8
 +
|पुष्य
 +
|पिप्पल(पीपल)
 +
|Ficus religiosa
 +
|-
 +
|9
 +
|आश्लेषा
 +
|नाग(नागकेसर)
 +
|Mesua ferrea
 +
|-
 +
|10
 +
|मघा
 +
|वट(बरगद)
 +
|Ficus bengalensis
 +
|-
 +
|11
 +
|पूर्वाफाल्गुनी
 +
|पलाश
 +
|Butea monosperma
 +
|-
 +
|12
 +
|उत्तराफाल्गुनी
 +
|अक्ष(रुद्राक्ष)
 +
|Elaeocarpus gantirus
 +
|-
 +
|13
 +
|हस्त
 +
|अरिष्ट(रीठा)
 +
|Sapindus mukorrossi
 +
|-
 +
|14
 +
|चित्रा
 +
|श्रीवृक्ष(बेल)
 +
|Aegle marmelos
 +
|-
 +
|15
 +
|स्वाती
 +
|अर्जुन
 +
|Terminelia arjuna
 +
|-
 +
|16
 +
|विशाखा
 +
|विकंकत
 +
|Flacourtia indica
 +
|-
 +
|17
 +
|अनुराधा
 +
|बकुल(मॉल श्री)
 +
|Mimusops elengi
 +
|-
 +
|18
 +
|ज्येष्ठा
 +
|विष्टि(चीड)
 +
|Pinus roxburghii
 +
|-
 +
|19
 +
|मूल
 +
|सर्ज्ज(साल)
 +
|Shorea robusta
 +
|-
 +
|20
 +
|पूर्वाषाढा
 +
|वंजुल(अशोक)
 +
|Saraca indica
 +
|-
 +
|21
 +
|उत्तराषाढा
 +
|पनस(कटहल)
 +
|Artocarpus heterophyllus
 +
|-
 +
|22
 +
|श्रवण
 +
|अर्क(अकवन)
 +
|Calotropis procera
 +
|-
 +
|23
 +
|धनिष्ठा
 +
|शमी
 +
|Prosopis spicigera
 +
|-
 +
|24
 +
|शतभिषा
 +
|कदम्ब
 +
|Anthocephlus cadamba
 +
|-
 +
|25
 +
|पूर्वाभाद्रपदा
 +
|आम
 +
|Magnifera indica
 +
|-
 +
|26
 +
|उत्तराभाद्रपदा
 +
|पिचुमन्द(नीम)
 +
|Azadirachta indica
 +
|-
 +
|27
 +
|रेवती
 +
|मधु(महुआ)
 +
|Madhuca indica
 +
|}
   −
शास्त्रमाद्यं तदेवेदं यत्पूर्वं प्राह भास्करः। युगानां परि वर्तेत कालभेदोऽत्र केवलः॥(सू० सि० मध्यमाधिकार,/) </blockquote>पराशर मुनिने भी संसार की उत्पत्ति का कारण सूर्यको ही माना है।(बृ०पा०हो० ४)
+
== नवग्रह और वृक्ष ==
 +
पृथ्वी से आकाश की ओर देखने पर आसमान में स्थिर दिखने वाले पिण्डों/छायाओं को, नक्षत्र और स्थिति बदलते रहने वाले पिण्डों/छायाओं को ग्रह कहते हैं। ग्रह का अर्थ है पकडना। सम्भवतः अन्तरिक्ष से आने वाले प्रवाहों को पृथ्वी पर पहुँचने से पहले ये पिण्ड और छायायें उन्हैं टी०वी० के अन्टीना की तरह आकर्षित कर पकड लेती हैं और पृथ्वी के जीवधारियों के जीवन को प्रभावित करती हैं।
 +
{| class="wikitable"
 +
|+नवग्रह वन
 +
!क्रम सं०
 +
!ग्रह नाम
 +
!वृक्ष का हिन्दी नाम
 +
!वृक्ष का वैज्ञानिक नाम
 +
|-
 +
|1
 +
|सूर्य
 +
|श्वेत अर्क(सफेद मदार)
 +
|Calotropis
 +
|-
 +
|2
 +
|चन्द्रमा
 +
|पलाश(ढाक)
 +
|Butea monosperma
 +
|-
 +
|3
 +
|मंगल
 +
|खदिर(खैर)
 +
|Acacia catechu
 +
|-
 +
|4
 +
|बुध
 +
|अपामार्ग(चिचिडा)
 +
|Achyranthus Aspera
 +
|-
 +
|5
 +
|बृहस्पति
 +
|अश्वत्थ(पीपल)
 +
|Ficus Religiosa
 +
|-
 +
|6
 +
|शुक्र
 +
|उदुम्बर(गूलर)
 +
|Ficus Racemosa
 +
|-
 +
|7
 +
|शनि
 +
|शमी(छ्योकर)
 +
|Prosopis Cenneraria
 +
|-
 +
|8
 +
|राहु
 +
|दूर्बा(दूब)
 +
|Cynodon Dactylon
 +
|-
 +
|9
 +
|केतु
 +
|कुशा(दर्भ)
 +
|Imperata cylindrica
 +
|}
 +
'''आक(मदार)- ढाक(पलास)-खदिर(खैर)-अपामार्ग(चिचिडा)-पिप्पल(पीपल)-औडम्बर(गूलर)-शमी(छ्योकर)-दूर्वा(दूब)-कुशा(दर्भ)।'''
 +
 
 +
== राशि एवं वृक्ष ==
 +
{| class="wikitable"
 +
|+राशि वृक्ष
 +
!क्रम सं०
 +
!राशि का नाम
 +
!वृक्ष का हिन्दी नाम
 +
!वृक्ष का वैज्ञानिक नाम
 +
|-
 +
|1
 +
|मेष(Arise)
 +
|रक्तचंदन
 +
|Peterocarpus santalinus
 +
|-
 +
|2
 +
|वृष(Taurus)
 +
|धतवन्
 +
|Alstonia scholaris
 +
|-
 +
|3
 +
|मिथुन(Gemini)
 +
|कटहल
 +
|Artocarpus heterophyllus
 +
|-
 +
|4
 +
|कर्क(Cancer)
 +
|पलास
 +
|Butea manosperma
 +
|-
 +
|5
 +
|सिंह(Leo)
 +
|वादल
 +
|Stereospermum chelenoides
 +
|-
 +
|6
 +
|कन्या(Virgo)
 +
|आम
 +
|Mangifera indica
 +
|-
 +
|7
 +
|तुला(Libra)
 +
|मॉलश्री
 +
|Mimusops elengi
 +
|-
 +
|8
 +
|वृश्चिक(Scorpio)
 +
|खैर
 +
|Acacia catechu
 +
|-
 +
|9
 +
|धनु(Sagittarius)
 +
|पीपल
 +
|Ficus religiosa
 +
|-
 +
|10
 +
|मकर(Capricornus)
 +
|कालाशीसम
 +
|Dalbergia latifolia
 +
|-
 +
|11
 +
|कुम्भ(Aquarius)
 +
|शमी
 +
|Prosopis spicigera
 +
|-
 +
|12
 +
|मीन(Pisces)
 +
|बरगद
 +
|Ficus bengalensis
 +
|}
 +
 
 +
== औषधि वन ==
 +
प्रायः नक्षत्र, ग्रह या राशि वन तो यहाँ-वहाँ प्रयत्न करने पर उपलब्ध हो जाते हैं किन्तु औषधि वन नहीं देखे जाते हैं। वर्तमान समय में सामान्य जनमानस को औषधि संबंधि जानकारी नहीं रहने के कारण अपने आस-पास उपलब्ध जडी-बूटियों के संबर्द्धन की भावना भी नहीं हो पाती है। जन मानस को औषधीय पौधों के संबंध में अपेक्षित जानकारी उपलब्ध कराने तथा उनकी पहचान के उद्देश्य से औषधिवन की स्थापना करनी चाहिये। इन्हैं वृक्ष प्रकृति के अनुरूप स्थलीय एवं जलीय भागों में विभक्त कर लगाना चाहिये। वृक्ष स्थापना के अनन्तर पौधे का नाम, वानस्पतिक नाम एवं किन-किन बीमारियों में उनका उपयोग होता है, ये उद्धरित होने से यहां से जानकारी प्राप्त कर अधिकाधिक लोग इसका लाभ उठा पायेंगे। वर्तमान के अतिवैज्ञानिक युग में भी अतिगम्भीर बीमारियों के उपचार हेतु औषधि युक्त पौधों की प्रासंगिकता एलोपैथी की तुलना में कुछ कम नहीं हैं। यदि आवश्यकता है तो सिर्फ एक जानकार व्यक्ति की जिन्हैं इन पौधों के द्वारा होने वाअले उपचार की अच्छी जानकारी हो।
 +
 
 +
=== वास्तु शास्त्र में वृक्षों का महत्व ===
 +
वास्तु शास्त्र के अनुसार प्रतिकूल वृक्षों को यदि ग्रह अनुकूलता हेतु अज्ञानतावश लगा देते हैं तो उन वृक्षों के द्वारा उत्पन्न होने वाला नकारात्मक प्रभाव
 +
 
 +
== पर्यावरणीय महत्व ==
 +
प्रत्येक वृक्ष के अपने अलग-अलग सूक्ष्म पर्यावरणीय प्रभाव होते हैं।किन्तु अकेले में ये एकांगी व अधूरे होते हैं। सभी नक्षत्र वन, नवग्रह वन या राशि वनों  के वृक्षों को एक साथ लगाने से इनके सूक्ष्म प्रभावों में संतुलन स्थापित रहता है, जो कि हर किसी के लिये लाभकारी होता है। अतः पर्यावरण में कल्याणकारी सन्तुलन स्थापित करने के लिये समस्त ग्रह, राशि एवं नक्षत्र संबन्धित वृक्षों को एक साथ स्थापित करना चाहिये।
 +
 
 +
=== वृक्षों से लाभ ===
 +
 
 +
==== वृक्षायुर्वेद ====
 +
 
 +
==== वृक्षारोपण का महत्व ====
 +
 
 +
==== प्रदूषण रोधक वृक्ष और औषधियाँ ====
 +
 
 +
== सन्दर्भ ==
    
== वेदाङ्गज्योतिष॥ Vedanga Jyotisha ==
 
== वेदाङ्गज्योतिष॥ Vedanga Jyotisha ==
Line 125: Line 438:  
=== शकुनस्कन्ध ===
 
=== शकुनस्कन्ध ===
   −
== Tithi (तिथि) ==
  −
तिथि भारतीय पंचांग का सबसे मुख्य अंग है। यह भारतीय चान्द्रमास का एक दिन होता है। तिथि के आधार पर ही वार, त्यौहार, जयन्ती और पुण्यतिथि आदि का निर्धारण होता है।
  −
  −
== परिचय ==
  −
चन्द्रमा की एक कलाको तिथि कहते हैं। तिथियाँ १ से ३० तक एक मास में ३० होती हैं। ये पक्षों में विभाजित हैं। प्रत्येक पक्ष में १५-१५ तिथियाँ होती हैं।
  −
  −
== परिभाषा ==
  −
तनोति विस्तारयति वर्द्धमानां क्षीयमाणांवा चन्द्रकलामेकां यः कालविशेषः सा तिथिः।
  −
  −
== तिथि भेद ==
  −
भारतवर्ष में दो प्रकार की तिथियाँ प्रचलित हैं। सौर तिथि एवं चान्द्र तिथि। सूर्य की गति के अनुसार मान्य तिथि को सौर तिथि तथा चन्द्रगति के अनुसार मान्य तिथि को चान्द्र तिथि कहते हैं।
  −
  −
'''सौर तिथि-''' सौर तिथि में सूर्य का राशि भ्रमण मुख्य हेतु है। सौर तिथि दो प्रकार से मानी जाती है। एक प्रकार यह है कि जिस-जिस दिन सूर्य की संक्रांति लगती है उस दिन को प्रथम तिथि माना जाये। दूसरा प्रकार यह है कि संक्रान्ति के दूसरे दिन से प्रथम तिथि माना जाय। बंगाल एवं पञ्जाब में इन तिथियों का प्रयोग विशेष रूप से होता है। अन्यत्र भी सौर तिथि के नाम से इनका प्रचलन है। किन्तु, भारत में प्रचलित व्रतों एवं उत्सवादि में इन तिथियों का प्रयोग प्रायः कम ही होता है।
  −
  −
'''चान्द्र तिथि-''' भारतीय धार्मिक कार्यों में विशेषरूप से चान्द्र तिथियों का ही प्रयोग होता है। इन तिथियों का नाम एवं तिथि स्वामी इस प्रकार हैं-
  −
{| class="wikitable"
  −
|+तिथि नाम एवं तिथि स्वामी तालिका
  −
!क्र०संख्या
  −
!तिथियों का नाम
  −
!तिथि स्वामी
  −
|-
  −
|1.
  −
|प्रतिपदा
  −
|अग्नि
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|2.
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|द्वितीया
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|विधि
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|3.
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|तृतीया
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|गौरी
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|4.
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|चतुर्थी
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|गणेश
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|5.
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|पञ्चमी
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|अहि(सर्प)
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|6.
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|षष्ठी
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|गुह(स्कन्द स्वामी)
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|7.
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|सप्तमी
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|रवि
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|8.
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|अष्टमी
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|शिव
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|9.
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|नवमी
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|दुर्गा
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|10.
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|दशमी
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|अन्तक(यम)
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|11.
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|एकादशी
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|विश्वेदेव
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|12.
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|द्वादशी
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|हरि
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|13.
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|त्रयोदशी
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|कामदेव
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|14.
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|चतुर्दशी
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|शिव
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|15.
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|अमावस्या(कृष्णपक्ष की पञ्चदशी)
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|पितृ देवता
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|16.
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|पूर्णिमा(शुक्लपक्ष की पञ्चदशी)
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|शशि( चन्द्रमा)
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|}
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सूर्य एवं चन्द्रमा जिस दिन एक बिन्दु पर आ जाते हैं उस तिथि को अमावस्या कहते हैं। उस दिन सूर्य और चन्द्रमाका गति अन्तर शून्य अक्षांश होता है। एवं इसी प्रकार सूर्य एवं चन्द्रमा परस्पर आमने-सामने अर्थात् ६राशि या १८० अंशके अन्तरपर होते हैं, उस तिथि को पूर्णिमा या पूर्णमासी कहते हैं।
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अमावस्या तिथि दो प्रकार की होती है-
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# '''सिनीवाली अमावस्या-''' जो चतुर्दशी तिथिमिश्रित अमावस्या हो वह सिनीवाली संज्ञक कहलाती है।
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# '''कुहू अमावस्या-''' जो प्रतिपदा तिथि मिश्रित अमावस्या हो वह कुहू संज्ञक कहलाती है। 
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पूर्णिमा तिथि के दो प्रकार हैं-
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# '''अनुमति पूर्णिमा-''' जो चतुर्दशी तिथिमिश्रित पूर्णिमा हो वह अनुमति संज्ञक कहलाती है।
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# '''राका पूर्णिमा-''' जो प्रतिपदा तिथि मिश्रित पूर्णिमा हो वह राका संज्ञक कहलाती है।
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शास्त्रों में अमावस्या तिथि की दर्श एवं पूर्णिमा तिथि की पर्व संज्ञा विहित है।
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== तिथि निर्माण ==
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चन्द्रमा की गति सूर्यसे प्रायः तेरह गुना अधिक है। जब इन दोनों की गति में १२ अंश का अन्तर आ जाता है, तब एक तिथि बनती है। इस प्रकार ३६० अंशवाले 'भचक्र'(आकाश मण्डल) में ३६०÷१२=३० तिथियों का निर्माण होता है। एक मास में ३० तिथियाँ होती हैं। यह नैसर्गिक क्रम निरन्तर चालू रहता है।
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== तिथिक्षय वृद्धि ==
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एक तिथिका मान १२ अंश होता है, कम न अधिक। सूर्योदयके साथ ही तिथि नाम एवं संख्या बदल जाती है। यदि किसी तिथिका अंशादि मान आगामी सूर्योदयकालसे पूर्व ही समाप्त रहा होता है तो वह तिथि समाप्त होकर आनेवाली तिथि प्रारम्भ मानी जायगी और सूर्योदयकालपर जो तिथि वर्तमान है, वही तिथि उस दिन आगे रहेगी। यदि तिथिका अंशादि मान आगामी सूर्योदयकालके उपरान्ततक, चाहे थोड़े ही कालके लिये सही रहता है तो वह तिथि- वृद्धि मानी जायगी। यदि दो सूर्योदयकालके भीतर दो तिथियाँ आ जाती हैं तो दूसरी तिथि का क्षय माना जायगा और उस क्षयतिथिकी क्रमसंख्या पंचांगमें नहीं लिखते, वह तिथि अंक छोड़ देते हैं। आशय यह है कि सूर्योदयकालतक जिस भी तिथिका अंशादि मान वर्तमान रहता है। चाहे कुछ मिनटोंके लिये ही सही, वही तिथि वर्तमानमें मानी जाती है। तिथि-क्षयवृद्धिका आधार सूर्योदयकाल है।
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== तिथि और तारीख ==
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तिथि और तारीख में अन्तर है। एक सूर्योदयकालसे अगले सूर्योदयकाल तक के समयको तिथि कहते हैं। तिथिका मान रेखांशके आधारपर विभिन्न स्थानोंपर कुछ मिनट या घण्टा घट-बढ सकता है। तारीख आधी रातसे अगली आधीरात तक के समयको कहते हैं। तारीख चौबीस घण्टेकी होती है। यह आधी रात बारह बजे प्रारम्भ होकर दूसरे दिन आधी रात बारह बजे समाप्त होती है। यह सब स्थानों पर एक समान चौबीस घण्टेकी है।
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== विचार-विमर्श ==
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उपलब्ध वैदिक संहिताओं में तिथियों का स्पष्ट उल्लेख नहीं होता। किन्तु वेदों के ब्राह्मण भागमें तिथियों का वर्णन प्राप्त होता है। जैसा कि बह्वृच ब्राह्मण में कहा गया है-<blockquote>या पर्यस्तमियादभ्युदियादिति सा तिथिः।</blockquote>अर्थात् जिस काल विशेष में चन्द्रमा का उदय अस्त होता है उसको तिथि कहते हैं। तैत्तिरीय ब्राह्मण में -<blockquote>चन्द्रमा वै पञ्चदशः। एष हि पञ्चदश्यामपक्षीयते। पञ्चदश्यामापूर्यते॥(तै० ब्रा० १/५/१०)</blockquote>इस प्रकार के कथन से पञ्चदशी शब्द के द्वारा प्रतिपदा आदि तिथियों की भी गणना की सम्भावना दिखाई देती है। इसी प्रकार सामविधान ब्राह्मण में भी कृष्णचतुर्दशी, कृष्णपञ्चमी, शुक्ल चतुर्दशी का भी उल्लेख प्राप्त होता है।
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== सन्दर्भ ==
      
== ज्योतिष एवं आयुर्वेद॥ Jyotisha And Ayurveda ==
 
== ज्योतिष एवं आयुर्वेद॥ Jyotisha And Ayurveda ==
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