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| + | ज्योतिष को वेद पुरुष का चक्षुः(नयन) कहा जाता है, क्योंकि बिना ज्योतिष के हम समय की गणना, ऋतुओं का ज्ञान, ग्रह नक्षत्र आदि की जानकारी नहीं प्राप्त कर सकते। |
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| ज्योतिषशास्त्रके द्वारा आकाशमें स्थित ग्रह नक्षत्र आदि की गति, परिमाण, दूरी आदिका निश्चय किया जाता है। प्रायः समस्त भारतीय विज्ञान का लक्ष्य एकमात्र अपनी आत्माका विकासकर उसे परमात्मा में मिला देना या तत्तुल्य बना लेना है। दर्शन या विज्ञान सभी का ध्येय विश्व के अनसुलझे रहस्य को सुलझाना है। ज्योतिष भी विज्ञान होने के कारण समस्त ब्रह्माण्ड के रहस्य को व्यक्त करनेका प्रयत्न करता है। ज्योतिषशास्त्रका अर्थ प्रकाश देने वाला या प्रकाशके सम्बन्ध में बतलाने वाला शास्त्र होता है। अर्थात् जिस शास्त्रसे संसार का मर्म, जीवन-मरण का रहस्य और जीवन के सुख-दुःख के सम्बन्ध में पूर्ण प्रकाश मिले वह ज्योतिषशास्त्र है। भारतीय परम्परा के अनुसार ज्योतिष शास्त्र की उत्पत्ति ब्रह्माजी के द्वारा हुई है। ऐसा माना जाता है कि ब्रह्माजी ने सर्वप्रथम नारदजी को ज्योतिषशास्त्र का ज्ञान प्रदान किया तथा नारदजी ने लोक में ज्योतिषशास्त्र का प्रचार-प्रसार किया। | | ज्योतिषशास्त्रके द्वारा आकाशमें स्थित ग्रह नक्षत्र आदि की गति, परिमाण, दूरी आदिका निश्चय किया जाता है। प्रायः समस्त भारतीय विज्ञान का लक्ष्य एकमात्र अपनी आत्माका विकासकर उसे परमात्मा में मिला देना या तत्तुल्य बना लेना है। दर्शन या विज्ञान सभी का ध्येय विश्व के अनसुलझे रहस्य को सुलझाना है। ज्योतिष भी विज्ञान होने के कारण समस्त ब्रह्माण्ड के रहस्य को व्यक्त करनेका प्रयत्न करता है। ज्योतिषशास्त्रका अर्थ प्रकाश देने वाला या प्रकाशके सम्बन्ध में बतलाने वाला शास्त्र होता है। अर्थात् जिस शास्त्रसे संसार का मर्म, जीवन-मरण का रहस्य और जीवन के सुख-दुःख के सम्बन्ध में पूर्ण प्रकाश मिले वह ज्योतिषशास्त्र है। भारतीय परम्परा के अनुसार ज्योतिष शास्त्र की उत्पत्ति ब्रह्माजी के द्वारा हुई है। ऐसा माना जाता है कि ब्रह्माजी ने सर्वप्रथम नारदजी को ज्योतिषशास्त्र का ज्ञान प्रदान किया तथा नारदजी ने लोक में ज्योतिषशास्त्र का प्रचार-प्रसार किया। |
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| == ज्योतिषशास्त्र प्रवर्तक == | | == ज्योतिषशास्त्र प्रवर्तक == |
− | सृष्टिकर्ता ब्रह्माजीके द्वारा वेदोंके साथ ही ज्योतिषशास्त्रकी उत्पत्ति हुई। यज्ञोंका सम्पादन काल ज्ञानके आधारपर ही सम्भव होता है अतः यज्ञकी सिद्धिके लिये ब्रह्माजीने काल अवबोधक ज्योतिषशास्त्रका प्रणयनकर अपने पुत्र नारदजी को दिया। नारदजीने ज्योतिषशास्त्रके महत्व समझते हुये लोकमें इसका प्रवर्तन किया। नारदजी कहते हैं-<blockquote>विनैतदखिलं श्रौतं स्मार्तं कर्म न सिद्ध्यति। तस्माज्जगद्धितायेदं ब्रह्मणा रचितं पुरा॥(नारद संहिता १/७)</blockquote>ज्योतिषशास्त्रके ज्ञानके विना श्रौतस्मार्त कर्मोंकी सिद्धि नहीं होती। अतः जगत् के कल्याणके लिये ब्रह्माजीने प्राचीनकालमें इस शास्त्रकी रचना की। ज्योतिषकी आर्ष संहिताओं में ज्योतिषशास्त्रके अट्ठारह कहीं कहीं उन्तीस आद्य आचार्यों का परिगणन हुआ है, उनमें श्रीब्रह्माजी का नाम प्रारम्भमें ही लिया गया है। नारदजीके अनुसार अट्ठारह प्रवर्तक इस प्रकार हैं-<blockquote>ब्रह्माचार्यो वसिष्ठोऽत्रर्मनुः पौलस्त्यरोमशौ। मरीचिरङ्गिरा व्यासो नारदो शौनको भृगुः॥ | + | सृष्टिकर्ता ब्रह्माजीके द्वारा वेदोंके साथ ही ज्योतिषशास्त्रकी उत्पत्ति हुई। यज्ञोंका सम्पादन काल ज्ञानके आधारपर ही सम्भव होता है अतः यज्ञकी सिद्धिके लिये ब्रह्माजीने काल अवबोधक ज्योतिषशास्त्रका प्रणयनकर अपने पुत्र नारदजी को दिया। नारदजीने ज्योतिषशास्त्रके महत्व समझते हुये लोकमें इसका प्रवर्तन किया। नारदजी कहते हैं-<blockquote>विनैतदखिलं श्रौतं स्मार्तं कर्म न सिद्ध्यति। तस्माज्जगद्धितायेदं ब्रह्मणा रचितं पुरा॥(नारद संहिता १/७)</blockquote>ज्योतिषशास्त्रके ज्ञानके विना श्रौतस्मार्त कर्मोंकी सिद्धि नहीं होती। अतः जगत् के कल्याणके लिये ब्रह्माजीने प्राचीनकालमें इस शास्त्रकी रचना की। ज्योतिषकी आर्ष संहिताओं में ज्योतिषशास्त्रके अट्ठारह कहीं कहीं उन्तीस आद्य आचार्यों का परिगणन हुआ है, उनमें श्रीब्रह्माजी का नाम प्रारम्भमें ही लिया गया है। नारदजीके अनुसार अट्ठारह प्रवर्तक इस प्रकार हैं-<blockquote>ब्रह्माचार्यो वसिष्ठोऽत्रर्मनुः पौलस्त्यरोमशौ। मरीचिरङ्गिरा व्यासो नारदो शौनको भृगुः॥च्यवनो यवनो गर्गः कश्यपश्च पराशरः। अष्टादशैते गम्भीरा ज्योतिश्शास्त्रप्रवर्तकाः॥(नारद संहिता)</blockquote>महर्षि कश्यपने आचार्योंकी नामावली इस प्रकार निरूपित की है-<blockquote>सूर्यः पितामहो व्यासो वसिष्ठोऽत्रिः पराशरः। कश्यपो नारदो गर्गो मरीचिर्मनुरङ्गिराः॥लोमशः पौलिशश्चैव च्यवनो यवनो भृगुः। शौनकोऽष्टादशाश्चैते ज्योतिःशास्त्रप्रवर्तकाः॥(काश्यप संहिता)</blockquote>पराशरजीके मतानुसार-<blockquote>विश्वसृङ् नारदो व्यासो वसिष्ठोऽत्रिः पराशरः। लोमशो यवनः सूर्यः च्यवनः कश्यपो भृगुः॥पुलस्त्यो मनुराचार्यः पौलिशः शौनकोऽङ्गिराः। गर्गो मरीचिरित्येते ज्ञेया ज्यौतिःप्रवर्तकाः॥</blockquote>पराशरजीके अनुसार पुलस्त्यनामके एक आद्य आचार्य भी हुये हैं इस प्रकार ज्योतिषशास्त्रके प्रवर्तक आचार्य उन्नीस हैं। |
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− | च्यवनो यवनो गर्गः कश्यपश्च पराशरः। अष्टादशैते गम्भीरा ज्योतिश्शास्त्रप्रवर्तकाः॥(नारद संहिता)</blockquote>महर्षि कश्यपने आचार्योंकी नामावली इस प्रकार निरूपित की है-<blockquote>सूर्यः पितामहो व्यासो वसिष्ठोऽत्रिः पराशरः। कश्यपो नारदो गर्गो मरीचिर्मनुरङ्गिराः॥
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− | लोमशः पौलिशश्चैव च्यवनो यवनो भृगुः। शौनकोऽष्टादशाश्चैते ज्योतिःशास्त्रप्रवर्तकाः॥(काश्यप संहिता)</blockquote>पराशरजीके मतानुसार-<blockquote>विश्वसृङ् नारदो व्यासो वसिष्ठोऽत्रिः पराशरः। लोमशो यवनः सूर्यः च्यवनः कश्यपो भृगुः॥पुलस्त्यो मनुराचार्यः पौलिशः शौनकोऽङ्गिराः। गर्गो मरीचिरित्येते ज्ञेया ज्यौतिःप्रवर्तकाः॥</blockquote>पराशरजीके अनुसार पुलस्त्यनामके एक आद्य आचार्य भी हुये हैं इस प्रकार ज्योतिषशास्त्रके प्रवर्तक आचार्य उन्नीस हैं।
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| == ज्योतिषशास्त्र की उपयोगिता == | | == ज्योतिषशास्त्र की उपयोगिता == |
| मनुष्यके समस्त कार्य ज्योतिषके द्वारा ही सम्पादित होते हैं। व्यवहारके लिये अत्यन्त उपयोगी दिन, सप्ताह, पक्ष, मास, अयन, ऋतु, वर्ष एवं उत्सवतिथि आदि का परिज्ञान इसी शास्त्रसे होता है। | | मनुष्यके समस्त कार्य ज्योतिषके द्वारा ही सम्पादित होते हैं। व्यवहारके लिये अत्यन्त उपयोगी दिन, सप्ताह, पक्ष, मास, अयन, ऋतु, वर्ष एवं उत्सवतिथि आदि का परिज्ञान इसी शास्त्रसे होता है। |
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− | == नवग्रह॥ Navagrah == | + | == नवग्रह(Navagrah) == |
| नवग्रहों का इतिहास ब्रह्नाण्डकी उत्पत्ति के साथ ही प्रारम्भ होता है। ब्रह्माण्ड में स्थित ग्रह अपनी विशेषताओं के कारण मनुष्यों के आकर्षण का केन्द्र रहे हैं। ग्रह नक्षत्रों के स्वरूपको जाननेके लिये प्राचीन काल से ही प्राणि जगत् में जिज्ञासा देखी गई है। इसीलिये वेद, ब्राह्मण आदि समस्त संस्कृत-वाग्मय में ग्रह संबंधित तथ्य प्राप्त होते हैं। | | नवग्रहों का इतिहास ब्रह्नाण्डकी उत्पत्ति के साथ ही प्रारम्भ होता है। ब्रह्माण्ड में स्थित ग्रह अपनी विशेषताओं के कारण मनुष्यों के आकर्षण का केन्द्र रहे हैं। ग्रह नक्षत्रों के स्वरूपको जाननेके लिये प्राचीन काल से ही प्राणि जगत् में जिज्ञासा देखी गई है। इसीलिये वेद, ब्राह्मण आदि समस्त संस्कृत-वाग्मय में ग्रह संबंधित तथ्य प्राप्त होते हैं। |
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− | नवग्रह की परिभाषा | + | == नवग्रह की परिभाषा == |
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− | ग्रह धातु में अच् प्रत्यय लगाने से निष्पन्न ग्रह शब्द के अर्थ हैं- पकडना, ग्रहण, प्राप्त करना, चुराना, ग्रहण लगाना एवं सूर्यादि नवग्रह आदि।<blockquote>गृह्णाति गतिविशेषानिति यद्वा गृह्णाति फलदातृत्वेन जीवानिति॥</blockquote>अर्थात् जो गति विशेषों को ग्रहण करता है या फलदातृत्व द्वारा जीवों का ग्रहण करता है उसे ग्रह कहा जाता है। मुख्यतः इनकि संख्या नव होने के कारण ये नवग्रह कह लाते हैं।
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− | परिचय | + | ग्रह धातु में अच् प्रत्यय लगाने से निष्पन्न ग्रह शब्द के अर्थ हैं- पकडना, ग्रहण, प्राप्त करना, चुराना, ग्रहण लगाना एवं सूर्यादि नवग्रह आदि।<blockquote>गृह्णाति गतिविशेषानिति यद्वा गृह्णाति फलदातृत्वेन जीवानिति।(ज्योति०तत्त्वा०)</blockquote>अर्थात् जो गति विशेषों को ग्रहण करता है या फलदातृत्व द्वारा जीवों का ग्रहण करता है उसे ग्रह कहा जाता है। मुख्यतः इनकि संख्या नव होने के कारण ये नवग्रह कह लाते हैं। |
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| + | == परिचय == |
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| + | === ग्रह एवं मानव जीवन === |
| + | ग्रहों का संबंध अन्तरिक्ष एवं मानव जीवन का संबंध भूलोक से है। इन दोनों लोकों का परस्पर में घनिष्ठ संबंध है। सौरमण्डल में स्थित ग्रहों का परस्पर संबंध अवश्य ही होता है। यद्यपि भूसापेक्ष ग्रह इतने दूर स्थित होते हैं कि उनका संबंध हम पूरी तरह से देख और समझ नहीं पाते हैं। किन्तु फिर भी सूर्य का प्रभाव प्रत्यक्ष रूप से पृथ्वी पर देखते ही हैं। भूलोक के समस्त चराचर प्राणी सूर्य के रश्मियों(किरणों) से प्रभावित होते हैं और उनका जीवनचक्र भी सूर्य की रश्मियों पर ही आश्रित होता है। इसी प्रकार सूर्य के अतिरिक्त अन्य ग्रह भी मानव-जीवन को निरन्तर प्रभावित करते रहते हैं। |
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| + | == ग्रह दान एवं उसका स्वरूप == |
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| ज्योतिष शास्त्र का इतिहास | | ज्योतिष शास्त्र का इतिहास |
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| ==== भारतीय ज्योतिष एवं पंचांग ==== | | ==== भारतीय ज्योतिष एवं पंचांग ==== |
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− | == ज्योतिष एवं वृक्ष == | + | == (ज्योतिषशास्त्र में वृक्षों का महत्व) == |
| भारतभूमि प्रकृति एवं जीवन के प्रति सद्भाव एवं श्रद्धा पर केन्द्रित मानव जीवन का मुख्य केन्द्रबिन्दु रही है। हमारी संस्कृतिमें स्थित स्नेह एवं श्रद्धा ने मानवमात्र में प्रकृति के साथ सहभागिता एवं अंतरंगता का भाव सजा रखा है। हमारे शास्त्रों में मनुष्य की वृक्षों के साथ अंतरंगता एवं वनों पर निर्भरता का विस्तृत विवरण प्राप्त होता है। हमारे मनीषियों ने अपनी गहरी सूझ-बूझ तथा अनुभव के आधार पर मानव जीवन, खगोल पिण्डों तथा पेड-पौधों के बीच के परस्पर संबन्धों का वर्णन किया है। | | भारतभूमि प्रकृति एवं जीवन के प्रति सद्भाव एवं श्रद्धा पर केन्द्रित मानव जीवन का मुख्य केन्द्रबिन्दु रही है। हमारी संस्कृतिमें स्थित स्नेह एवं श्रद्धा ने मानवमात्र में प्रकृति के साथ सहभागिता एवं अंतरंगता का भाव सजा रखा है। हमारे शास्त्रों में मनुष्य की वृक्षों के साथ अंतरंगता एवं वनों पर निर्भरता का विस्तृत विवरण प्राप्त होता है। हमारे मनीषियों ने अपनी गहरी सूझ-बूझ तथा अनुभव के आधार पर मानव जीवन, खगोल पिण्डों तथा पेड-पौधों के बीच के परस्पर संबन्धों का वर्णन किया है। |
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| + | == Yoga in Panchanga (पंचांग में यो) == |
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| + | == [[Karana in Panchanga (पंचांग में करण)]] == |
| + | पंचांग के अन्तर्गत करण का पञ्चम स्थान में समावेश होता है। तिथि का आधा भाग करण होता है। करण दो प्रकार के होते हैं। एक स्थिर एवं द्वितीय चलायमान। स्थिर करणों की संख्या ४ तथा चलायमान करणों की संख्या ७ है। इस लेख का मुख्य उद्देश्य करण ज्ञान, करण का मान एवं साधन। |
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| == परिचय == | | == परिचय == |
− | पर्यावरण को हरा-भरा और प्रदूषण मुक्त बनाये रखने में वृक्षों का महत्वपूर्ण योगदान है। ज्योतिषशास्त्र में वृक्षों को देवताओं और ग्रहों के निमित्त लगाकर उनसे शुभफल प्राप्त किये जाने का उल्लेख प्राप्त होता है। शास्त्रों में एक वृक्ष सौ पुत्रों से भी बढकर बताया है क्योंकि वृक्ष जीवन पर्यन्त अपने पालक को समान एवं निःस्वार्थ भाव से लाभ पहुँचाता रहता है।
| + | भारतवर्ष में पंचांगों का प्रयोग भविष्यज्ञान तथा धर्मशास्त्र विषयक ज्ञान के लिये होता चला आ रहा है। जिसमें लुप्ततिथि में श्राद्ध का निर्णय करने में करण नियामक होता है। अतः करण का धार्मिक तथा अदृश्य महत्व है। श्राद्ध, होलिका दाह, यात्रा और अन्यान्य शुभ कर्मों एवं संस्कारों में करण नियन्त्रण ही शुभत्व को स्थिर करता है। तिथि चौबीस घण्टे की स्थिति को बतलाती है |
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− | == शुभ मुहूर्त में वृक्षारोपण == | + | == षड् ऋतु == |
| + | ऋतु |
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− | === ग्रह शान्ति एवं वृक्ष === | + | == अधिकमास एवं क्षयमास == |
− | ग्रहशान्ति के यज्ञीय कार्यों में सही पहचान के अभाव में अधिकतर लोगों को सही वनस्पति नहीं प्राप्त हो पाती, इसलिये नवग्रह वृक्षों को धार्मिक स्थलों के पास रोपित करना चाहिये जिससे यज्ञ कार्य के लिये लोगों को शुद्ध सामग्री मिल सके।
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− | अर्चन-पूजन के लिये इन वृक्ष वनस्पतियों के सम्पर्क में आने पर भी ग्रहों के कुप्रभावों की शान्ति होती है अतः ग्रह शान्ति से वृक्षों का संबंध होने से वृक्षारोपण का महत्व और बढ जाता है।
| + | == वेदाङ्गज्योतिष॥ Vedanga Jyotisha == |
| + | {{Main|Vedanga Jyotish (वेदाङ्गज्योतिष)}} |
| + | ज्योतिष वेदका एक अङ्ग हैं। अङ्ग शब्दका अर्थ सहायक होता है अर्थात् वेदोंके वास्तविक अर्थका बोध करानेवाला। तात्पर्य यह है कि वेदोंके यथार्थ ज्ञानमें और उनमें वर्णित विषयोंके प्रतिपादनमें सहयोग प्रदान करनेवाले शास्त्रका नाम वेदांङ्ग है। वेद संसारके प्राचीनतम धर्मग्रन्थ हैं, जो ज्ञान-विज्ञानमय एवं अत्यन्त गंभीर हैं। अतः वेदकी वेदताको जानने के लिये शिक्षा आदि छः अङ्गोंकी प्रवृत्ति हुई है। नेत्राङ्ग होनेके कारण ज्योतिष का स्थान सर्वोपरि माना गया है। वेदाङ्गज्योतिष ग्रन्थ में यज्ञ उपयोगी कालका विधान किया गया है। वेदाङ्गज्योतिष के रचयिता महात्मा लगध हैं। उन्होंने ज्योतिषको सर्वोत्कृष्ट मानते हुये कहा है कि-<blockquote>यथा शिखा मयूराणां नागानां मणयो यथा। तद्वद्वेदाङ्ग शास्त्राणां ज्योतिषं मूर्ध्नि संस्थितम् ॥( वेदाङ्ग ज्योतिष)</blockquote>अर्थ- जिस प्रकार मयूर की शिखा उसके सिरपर ही रहती है, सर्पों की मणि उनके मस्तकपर ही निवास करती है, उसी प्रकार षडङ्गोंमें ज्योतिषको सर्वश्रेष्ठ स्थान प्राप्त है। भास्कराचार्यजी ने सिद्धान्तशिरोमणि ग्रन्थमें कहा है कि-<blockquote>वेदास्तावत् यज्ञकर्मप्रवृत्ता यज्ञाः प्रोक्ताः ते तु कालाश्रेण। शास्त्राद्यस्मात् कालबोधो यतः स्यात्वेदाङ्गत्वं ज्योतिषस्योक्तमस्मात् ॥(सिद्धान्त शोरोमणि)</blockquote>वेद यज्ञ कर्म में प्रयुक्त होते हैं और यज्ञ कालके आश्रित होते हैं तथा ज्योतिष शास्त्र से कालकाज्ञान होता है, इससे ज्योतिष का वेदाङ्गत्व सिद्ध होता है। |
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− | === हवन समिधा एवं वृक्ष === | + | == ज्योतिषशास्त्र का विस्तार == |
− | यज्ञ द्वारा ग्रह शान्ति के उपाय में हर ग्रह के लिये अलग-अलग विशिष्ट वनस्पति की समिधा(हवन काष्ठ) प्रयोग की जाती है, जैसा कि निम्न श्लोक में वर्णित है-
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− | अर्कःपलाशःखदिरश्चापामार्गोऽथ पिप्पलः। औडमबरः शमी दूर्वा कुशश्च समिधः क्रमात् ॥(गरुड पुराण)
| + | ज्योतिषशास्त्र काल गणना के आधार पर समस्त ब्रह्माण्ड को अन्तर्गर्भित किये हुये है। ज्योतिषशास्त्र को सर्वप्रथम गणित एवं फलितके रूप मे स्वीकार किया गया है। ज्योतिष के प्रणेताओं ने ग्रह-गणित और ग्रह-रश्मि के प्रभावों दोनों को मिलाकर गणित एवं फलितको त्रिस्कन्ध के रूप में जाना जाता है, जो सिद्धान्त, संहिता व होरा इन तीन भागोंमें विभाजित हैं। संहिता एवं होरा फलितज्योतिष के अन्तर्गत ही आते हैं। इस प्रकार ज्योतिष शास्त्र के मुख्यतः दो ही स्कन्ध हैं- गणित एवं फलित। |
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− | अर्थात् अर्क, पलाश, खदिर, अपामार्ग, पीपल, गूलर, शमी, दूब और कुश क्रमशः नवग्रहों की समिधायें हैं।
| + | '''गणितशास्त्र''' – गणितशास्त्र गणना शब्द से बना है। जिसका अर्थ गिनना है। परन्तु गणना के बिना कोई भी क्रिया आसानी से सम्पन्न नहीं हो सकती। गणितशास्त्र का हमारे भारतीय आचार्यों ने दो भेद किया है- |
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− | === दान हेतु वृक्ष ===
| + | # '''व्यक्त गणित'''- अंक गणित, रेखागणित (ज्यामिति), त्रिकोणमिति, चलन कलनादि माने जा सकते हैं। |
| + | # '''अव्यक्त गणित-''' में बीजगणित (अलज़ेबरा) कहा जाता है। |
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− | == नक्षत्र वन ==
| + | व्यक्त गणित में अंकों द्वारा गणित क्रिया करके जोड़, घटाव, गुणा, भाग, वर्ग, वर्गमूल, घन, घनमूल, गुणन खण्ड तथा अन्य आवश्यक गणितीय क्रियाएँ की जाती हैं। आजकल आधुनिक जगत् में गणित का विस्तार अनेक रूपों में किया गया है । हमारे वेदों में भी वैदिक गणित बताया गया है । वैदिक मैथमेटिक्स की पुस्तकें भी प्रकाशित हैं ।<ref>श्रीरामचन्द्र पाठक, बृहज्जातकम् , ज्योति हिन्दी टीका, वाराणसीः चौखम्बा प्रकाशन (पृ०११-१३)।</ref> |
− | नक्षत्र वृक्षों का वर्णन नारदसंहिता, शारदातिलक, विद्यार्णवतन्त्र, नारदपुराण, मन्त्रमहार्णव और राजनिघण्टु आदि ग्रन्थों में विस्तार से किया गया है। बृहत्सुश्रुत व नारायणार्नव नामक ग्रन्थों में भी नक्षत्र वृक्षों का विस्तार से वर्णन किये जाने का संकेत राजनिघण्टु में प्राप्त होता है।
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− | === ज्योतिषीय महत्व ===
| + | '''फलित ज्योतिष-''' फलादेश कथन की विद्या का नाम फलित ज्योतिष है। शुभाशुभ फलोंको बताना ही इस शास्त्र का परम लक्ष्य रहा है। इसकी भी अनेक विधाएँ आज प्रचलित हैं। जैसे चिकित्सा शास्त्र का मूल आयुर्वेद है परन्तु आज होमोपैथ तथा एलोपैथ भी प्रचलित हैं और इन विधाओं के द्वार भी रोगमुक्ति मिलती है। उसी तरह फलित ज्योतिष की भी कई विधाएँ जिनके द्वारा शुभाशुभ फल कहे जाते हैं। ये विधाएँ मुख्यतः निम्नलिखित हैं- |
− | '''नारद पुराण के अनुसार-''' जिस नक्षत्र में शनि विद्यमान हो उस समय उस नक्षत्र संबंधी वृक्ष का यत्नपूर्वक स्थापन, संवर्धन एवं पूजन करना चाहिये। | + | #'''जातकशास्त्र''' – मानव के आजन्म मृत्युपर्यन्त समग्र जीवन का भविष् ज्ञान प्रतिपादक फलित ज्योतिष का नाम जातक ज्योतिष है । वाराह नारचन्द्र, सिद्धसेन, ढुण्ढिराज, केशव, श्रीपति, श्रीधर आदि होरा ज्योतिष आचार्य हैं । |
| + | #'''संहिता ज्योतिष''' - संहिता ज्योतिष में सूर्य, चन्द्र, राहु, बुध, गुरु शुक्र, शनि, केतु, सप्तर्षिचार, कूर्म नक्षत्र, ग्रहयुद्ध, ग्रहवर्ष, गर्भ लक्षण गर्भधारण, सन्ध्या लक्षण, भूकम्प, उल्का, परिवेश, इन्द्रायुध् रजोलक्षण, उत्पाताध्याय, अंगविद्या, वास्तुविद्या, वृक्षायुर्वेद, प्रसादलक्षण वज्रलेप (छत बनाने का मसाला), गो, महिष, कुत्ता, अज, हरि काकशकुन, श्वान, शृगाल, अश्व, हाथी प्रभृति जीवों की चेष्टाएं आदि भवि ज्ञान के साथ सुन्दर भोजन, निर्माण के विविध प्रकार (पाकशास्त्र) आ विषयों का जिस शास्त्र से ज्ञान किया जाता है वह फलित ज्योतिष का संहि ज्योतिष कहा गया है। |
| + | #'''मुहूर्त्तशास्त्र''' – मुहूर्त्त शास्त्र फलित ज्योतिष का वह अंग है जिस द्वारा जातक के कथित संस्कारों के मुहूर्त्त, नामकरण, भूमि उपवेशन, कटि बन्धन, अन्नप्राशन, मुण्डन, उपनयन, समावर्त्तन आदि संस्कारों के समय ज्ञान किया जाता है। |
| + | #'''ताजिकशास्त्र''' – मानव के आयु में प्रत्येक नवीन वर्ष प्रवेश का समय का ज्ञानकर तदनुसार कुण्डली द्वारा वर्ष पर्यन्त प्रत्येक दिन, मास का फल ज्ञान प्रतिपादन फलित ज्योतिष का ताजिकशास्त्र कहलाता है। |
| + | #'''रमलशास्त्र''' – इस शास्त्र के अन्तर्गत पाशा डालने की प्रक्रिया होती है । इसके द्वारा फल कथन की विधि का नाम रमलशास्त्र है। |
| + | #'''स्वरशास्त्र''' – स्वस्थ मनुष्य के स्वांस निःसरण के द्वारा दक्षिण या वाम स्वांस गति की जानकारी कर फलादेश किया जाता है । इसे फलितशास्त्र में स्वरशास्त्र नाम से कहा जाता है । |
| + | #'''अंग विद्या''' – शरीर के अवयवों को देखकर जैसे ललाट, मस्तक, बाहु तथा वक्ष को देखकर फलादेश किया जाता है । साथ ही हाथ या पैर की रेखाएँ भी देख कर फलादेश कहने की विधि को अंग विद्या (पामेस्ट्री) के नाम से कहा जाता है। |
| + | #'''प्रश्नशास्त्र''' – आकस्मिक किसी समय की ग्रहस्थितिवश भविष्यफल ज्ञापक शास्त्र का नाम प्रश्न ज्योतिष है । इसका सम्बन्ध मनोविज्ञान से भी है । इसी का सहयोगी केरल ज्योतिष भी है। |
| + | इस प्रकार हमारे फलित ज्योतिष के अनेकों विभाग हैं जिसके द्वारा फल कथन किया जाता है। इन सभी शाखाओं का मूलस्त्रोत ग्रहगणित है। इस ग्रहगणित स्कन्ध को सिद्धान्त स्कन्ध भी कहा जाता है। ज्योतिष कल्पवृक्ष का मूल ग्रहगणित है जो खगोल विद्या से जाना जाता है। अंकगणित, बीजगणित, रेखागणित, त्रिकोणमिति गणित, गोलीय रेखागणित इस स्कन्ध के अन्तर्गत आते हैं। किसी भी अभीष्ट समय के क्षितिज, क्रान्तवृत्त सम्पात रूप लग्न बिन्दु के ज्ञान से विश्व के चराचर जीवों का, मानव सृष्टि में उत्पन्न जातक को शुभाशुभ ज्ञान की भूमिका होती है । इस प्रकार ज्योतिष की महिमा वेद, वेदाङ्ग तथा पुराण एवं धर्मशास्त्रों में सर्वत्र उपलब्ध है। |
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| + | == त्रिस्कन्ध ज्योतिष ॥Triskandha Jyotisha == |
| + | ज्योतिषशास्त्र वेद एवं वेदांग काल में त्रिस्कन्ध के रूपमें विभक्त नहीं था, जैसा कि पूर्व में वेदाङ्गज्योतिष के विषयमें कह ही दिया गया है, लगधमुनि प्रणीत वेदाङ्गज्योतिषको ज्योतिषशास्त्रका प्रथम ग्रन्थ कहा गया है, वेदाङ्गज्योतिषमें सामूहिकज्योतिषशास्त्र की ही चर्चा की गई है। आचार्यों ने ज्योतिष शास्त्र को तीन स्कन्धों में विभक्त किया है- सिद्धान्त, संहिता और होरा। महर्षिनारद जी कहते हैं- <blockquote>सिद्धान्त संहिता होरा रूपस्कन्ध त्रयात्मकम् । वेदस्य निर्मलं चक्षुः ज्योतिषशास्त्रमकल्मषम् ॥ |
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| + | विनैतदखिलं श्रौतंस्मार्तं कर्म न सिद्ध्यति। तस्माज्जगध्दितायेदं ब्रह्मणा निर्मितं पुरा॥(नारद पुराण) </blockquote>अर्थात सिद्धान्त, संहिता और होरा तीन स्कन्ध रूप ज्योतिषशास्त्र वेदका निर्मल और दोषरहित नेत्र कहा गया है। इस ज्योतिषशास्त्र के विना कोई भी श्रौत और स्मार्त कर्म सिद्ध नहीं हो सकता। अतः ब्रह्माने संसारके कल्याणार्थ सर्वप्रथम ज्योतिषशास्त्रका निर्माण किया। |
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| + | === सिद्धान्त स्कन्ध === |
| + | यह स्कन्ध गणित नाम से भी जाना जाता है। इसके अन्तर्गत त्रुटि(कालकी लघुत्तम इकाई) से लेकर कल्पकाल तक की कालगणना, पर्व आनयन, अब्द विचार, ग्रहगतिनिरूपण, मासगणना, ग्रहों का उदयास्त, वक्रमार्ग, सूर्य वा चन्द्रमा के ग्रहण प्रारंभ एवं अस्त ग्रहण की दिशा, ग्रहयुति, ग्रहों की कक्ष स्थिति, उसका परिमाण, देश भेद, देशान्तर, पृथ्वी का भ्रमण, पृथ्वी की दैनिक गति, वार्षिक गति, ध्रुव प्रदेश आदि, अक्षांश, लम्बांश, गुरुत्वाकर्षण, नक्षत्र, संस्थान, अन्यग्रहों की स्थिति, भगण, चरखण्ड, द्युज्या, चापांश, लग्न, पृथ्वी की छाया, पलभा, नाडी, आदि विषय सिद्धान्त स्कन्ध के अन्तर्गत आते हैं। |
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| + | सिद्धान्तके क्षेत्रमें पितामह, वसिष्ठ, रोमक, पौलिश तथा सूर्य-इनके नामसे गणितकी पॉंचसिद्धान्त पद्धतियॉं प्रमुख हैं, जिनका विवचन आचार्यवराहमिहिरने अपने पंचसिद्धान्तिका नामक ग्रन्थमें किया है। |
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| + | * आर्यभट्टका आर्यभट्टीयम् महत्त्वपूर्ण गणितसिद्धान्त है। इन्होंने पृथ्वीको स्थिर न मानकर चल बताया। आर्यभट्ट प्रथमगणितज्ञ हुये और आर्यभट्टीयम् प्रथम पौरुष ग्रन्थ है। |
| + | * आचार्य ब्रह्मगुप्तका ब्रह्मस्फुटसिद्धान्त भी अत्यन्त प्रसिद्ध है। |
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| + | प्रायः आर्यभट्ट एवं ब्रह्मगुप्तके सिद्धान्तोंको आधार बनाकर सिद्धान्त ज्योतिषके क्षेत्रमें पर्याप्त ग्रन्थ रचना हुई। पाटी(अंक) गणितमें लीलावती(भास्कराचार्य) एवं बीजगणितमें चापीयत्रिकोणगणितम् (नीलाम्बरदैवज्ञ) प्रमुख हैं। |
| + | |
| + | === संहिता होरा === |
| + | ज्योतिष शास्त्र के दूसरे स्कन्ध संहिता का भी विशेष महत्त्व है। इन ग्रन्थों में मुख्यतः फलादेश संबंधी विषयों का बाहुल्य होता है। आचार्य वराहमिहिरने बृहत्संहिता में कहा है कि जो व्यक्ति संहिता के समस्त विषयों को जानता है, वही दैवज्ञ होता है। |
| + | |
| + | संहिता ग्रन्थों में भूशोधन, दिक् शोधन, मेलापक, जलाशय निर्माण, मांगलिक कार्यों के मुहूर्त, वृक्षायुर्वेद, दर्कागल, सूर्यादि ग्रहों के संचार, ग्रहों के स्वभाव, विकार, प्रमाण, गृहों का नक्षत्रों की युति से फल, परिवेष, परिघ, वायु लक्षण, भूकम्प, उल्कापात, वृष्टि वर्षण, अंगविद्या, पशु-पक्षियों तथा मनुष्यों के लक्षण पर विचार, रत्नपरीक्षा, दीपलक्षण नक्षत्राचार, ग्रहों का देश एवं प्राणियों पर आधिपत्य, दन्तकाष्ठ के द्वारा शुभ अशुभ फल का कथन आदि विषय वर्णित किये जाते हैं। संहिता ग्रन्थों में उपरोक्त विषयों के अतिरिक्त एक अन्य विशेषता होती है कि इन ग्रन्थों में व्यक्ति विषयक फलादेश के स्थान पर राष्ट्र विषयक फलादेश किया जाता है। |
| | | |
− | '''नारद संहिता के अनुसार-''' सुख शान्ति के लिये अपने जन्म नक्षत्र सबंधी वृक्ष की पूजा करनी चाहिये।
| + | === होरा स्कन्ध === |
| + | यह ज्योतिषशास्त्र का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण स्कन्ध है। व्यवहार की दृष्टिसे यह जनसामान्यमें सर्वाधिक लोकप्रिय है। इसे जातक शास्त्र भी कहते हैं। होरा शब्द की उत्पत्ति अहोरात्र शब्द से हुई है। अहोरात्र शब्द के प्रथम तथा अन्तिम शब्द का लोप होने से होरा शब्द की उत्पत्ति हुई है। इस शास्त्र के अन्तर्गत मनुष्य की जन्मकालीन गृहस्थिति या तिथि नक्षत्रादि के द्वारा उसके जीवन के सुख-दुःख आदि का निर्णय किया जाता है। आचार्य वराहमिहिर के अनुसार होराशास्त्र में राशि, होरा, द्रेष्काण, नवांश, द्वादशांश, त्रिंशांश, ग्रहों का बलाबल, ग्रहों की दिक्काल, चेष्टादि अनेक प्रकार का बल, ग्रहों की प्रकृति, धातु, द्रव्य, जाति चेष्टा, अरिष्ट, आयुर्दाय, दशान्तर्दशा, अष्टकवर्ग, राजयोग, चान्द्रयोग, नाभसयोग, आश्रययोग, तात्कालिक प्रश्न, शुभाशुभ निमित्त वा चेष्टाएं, विवाह आदि विषयों का उल्लेख एवं इनका सागोंपाग विवेचन किया जाता है। |
| + | |
| + | कालान्तर में त्रिस्कन्ध पञ्चस्कन्ध में विभक्त हो गया और उपरोक्त के अतिरिक्त इसमें प्रश्न और शकुन नामक दो स्कन्ध और सम्मिलित हो गये हैं- |
| + | |
| + | === प्रश्नस्कन्ध === |
| + | |
| + | === शकुनस्कन्ध === |
| + | |
| + | |
| + | == ज्योतिष एवं आयुर्वेद॥ Jyotisha And Ayurveda == |
| + | {{Main|Jyotisha And Ayurveda (ज्योतिष एवं आयुर्वेद)}} |
| + | ज्योतिष एवं आयुर्वेद का संबन्ध जैसे संसार में भाई-भाई का सम्बन्ध है। आयुर्वेद में दैव एवं दैवज्ञ दोनों का महत्त्व प्रतिपादित किया गया है। इन दोनों की उत्तमता का योग हो तो निश्चित रूप से सुखपूर्वक दीर्घायुकी प्राप्ति होती है। इसके विपरीत हीन संयोग दुःख एवम अल्पायु के कारण बनते हैं। इन्हींके आधार पर आयुका मान नियत किया जाता है-<blockquote>दैवेदचेतरत् कर्म विशिष्टेनोपहन्यते। दृष्ट्वा यदेके मन्यन्ते नियतं मानमायुषः॥( चरक विमा० ३। ३४)</blockquote>आयुर्वेद के अनुसार सृष्टिके शक्तिपुञ्ज अदृश्य होते हुये भी गर्भाधान क्रिया, कोशीय संरचना एवं विकसित होते भ्रूणपर बहुत गहरा प्रभाव डालते हैं। गर्भाधानके समय आकाशीय शक्तियॉं भ्रूणके गुण-संगठन एवं जीन्स-संगठनपर पूर्ण प्रभाव डालती है। इसीलिये भारतीय परम्परा में गर्भाधान आदि [[Solah samskar ( सोलह संस्कार )|सोलह संस्कार]] विहित हैं जो कि ज्योतिष के मध्यम से एक निहित शुभ काल में किये जाते हैं जिससे आकशीय शक्तिपुञ्जों का दुष्प्रभाव पतित न हो। |
| + | |
| + | जन्मलग्न के द्वारा यह ज्ञात हो सकता है कि बच्चेमें किन आधारभूत तत्त्वों की कमी रह गई है। ज्योतिषशास्त्र के ज्ञान के आधार पर ज्योतिषी पहले ही सूचित कर देते हैं शिशु को इस अवस्था में ये रोग होगा। ग्रहदोषके अनुसार ही विभिन्न वनौषधियां ग्रह बाधा का निवारण करती हैं। शरीरमें वात,पित्त एवं कफ की मात्राका समन्वय रहनेपर ही शरीर साधारणतया स्वस्थ बना रहता है अतः स्वस्थ शरीर के लिये व्याधियों के ज्ञान पूर्वक उपचार हेतु ज्योतिष एवं आयुर्वेद शास्त्र का ज्ञान होना आवश्यक है। |
| + | |
| + | == षण्णवति श्राद्ध == |
| {| class="wikitable" | | {| class="wikitable" |
− | |+नक्षत्र वन | + | |+(२०२३ में षण्णवति श्राद्ध सूची) |
− | !क्रम सं० | + | !क्रम संख्या |
− | !नक्षत्र | + | ! |
− | !वृक्ष का हिन्दी नाम | + | !दिनाँक |
− | !वृक्ष का वैज्ञानिक नाम | + | !मास/पक्ष/तिथि |
| + | !पर्व |
| + | !पुण्यकाल |
| + | !श्राद्ध |
| + | !दानादि विधान |
| + | !ग्रन्थ |
| + | |- |
| + | |१ |
| + | |मन्व० |
| + | |२/०१/२०२३ |
| + | |पौष,शुक्ल,एकादशी |
| + | |धर्मसावर्णी मन्वादि |
| + | | |
| + | | |
| + | | |
| + | | |
| + | |- |
| + | |२ |
| + | |वैधृति |
| + | |०७/०१/२०२३ |
| + | | |
| + | |वैधृति योग |
| + | | |
| + | | |
| + | | |
| + | | |
| + | |- |
| + | |३ |
| + | |अष्टका |
| + | |१४/०१/२०२३ |
| + | |पौष, कृष्ण, सप्तमी |
| + | |पूर्वेद्युः |
| + | | |
| + | | |
| + | | |
| + | | |
| + | |- |
| + | |४ |
| + | |अष्टका |
| + | |१५/०१/२०२३ |
| + | |पौष, कृष्ण, अष्टमी |
| + | |अन्वष्टका |
| + | | |
| + | | |
| + | | |
| + | | |
| + | |- |
| + | |५ |
| + | |संक्रा० |
| + | |१५/०१/२०२३ |
| + | | |
| + | |मकर संक्रान्ति |
| + | | |
| + | | |
| + | | |
| + | | |
| + | |- |
| + | |६ |
| + | |अमा० |
| + | |२१/०१/२०२३ |
| + | |माघ,कृष्ण, अमावस्या |
| + | |दर्श |
| + | | |
| + | | |
| + | | |
| + | | |
| + | |- |
| + | |७ |
| + | |पात |
| + | |२२/०१/२०२३ |
| + | | |
| + | |व्यतीपात |
| + | | |
| + | | |
| + | | |
| + | | |
| + | |- |
| + | |८ |
| + | |मन्व० |
| + | |२७/०१/२०२३ |
| + | |माघ,शुक्ल,सप्तमी |
| + | |ब्रह्मसावर्णी मन्वादि |
| + | | |
| + | | |
| + | | |
| + | | |
| + | |- |
| + | |९ |
| + | |वैधृति |
| + | |०१/०२/२०२३ |
| + | | |
| + | |वैधृति |
| + | | |
| + | | |
| + | | |
| + | | |
| + | |- |
| + | |१० |
| + | |अष्टका |
| + | |१२/०२/२०२३ |
| + | |माघ, कृष्ण, सप्तमी |
| + | |पूर्वेद्युः |
| + | | |
| + | | |
| + | | |
| + | | |
| + | |- |
| + | |११ |
| + | |अष्टका |
| + | |१३/०२/२०२३ |
| + | |माघ, कृष्ण, अष्टमी |
| + | |अन्वष्टका |
| + | | |
| + | | |
| + | | |
| + | | |
| + | |- |
| + | |१२ |
| + | |संक्रा० |
| + | |१३/०२/२०२३ |
| + | | |
| + | |कुम्भ संक्रान्ति |
| + | | |
| + | | |
| + | | |
| + | | |
| + | |- |
| + | |१३ |
| + | |पात |
| + | |१७/०२/२०२३ |
| + | | |
| + | |व्यतीपात योग |
| + | | |
| + | | |
| + | | |
| + | | |
| + | |- |
| + | |१४ |
| + | |अमा० |
| + | |१९/०२/२०२३ |
| + | |फाल्गुन, कृष्ण, अमावस्या |
| + | |दर्श |
| + | | |
| + | | |
| + | | |
| + | | |
| + | |- |
| + | |१५ |
| + | |युगादि |
| + | |१९/०२/२०२३ |
| + | | |
| + | |द्वापर युगादि |
| + | | |
| + | | |
| + | | |
| + | | |
| + | |- |
| + | |१६ |
| + | |वैधृति |
| + | |२६/०२/२०२३ |
| + | | |
| + | |वैधृति योग |
| + | | |
| + | | |
| + | | |
| + | | |
| + | |- |
| + | |१७ |
| + | |मन्व० |
| + | |०७/०३/२०२३ |
| + | |फाल्गुन,शुक्ल,पूर्णिमा |
| + | |सावर्णी मन्वादि |
| + | | |
| + | | |
| + | | |
| + | | |
| + | |- |
| + | |१८ |
| + | |अष्टका |
| + | |१४/०३/२०२३ |
| + | |फाल्गुन,कृष्ण, सप्तमी |
| + | |अष्टका पूर्वेद्युः |
| + | | |
| + | | |
| + | | |
| + | | |
| + | |- |
| + | |१९ |
| + | |अष्टका |
| + | |१५/०३/२०२३ |
| + | |फाल्गुन, कृष्ण, अष्टमी |
| + | |अन्वष्टका |
| + | | |
| + | | |
| + | | |
| + | | |
| + | |- |
| + | |२० |
| + | |पात |
| + | |१५/०३/२०२३ |
| + | | |
| + | |व्यतीपात योग |
| + | | |
| + | | |
| + | | |
| + | | |
| + | |- |
| + | |२१ |
| + | |संक्रा० |
| + | |१५/०३/२०२३ |
| + | | |
| + | |मीन संक्रान्ति |
| + | | |
| + | | |
| + | | |
| + | | |
| + | |- |
| + | |२२ |
| + | |अमा० |
| + | |२१/०३/२०२३ |
| + | |चैत्र, कृष्ण पक्ष, अमावस्या |
| + | |दर्श |
| + | | |
| + | | |
| + | | |
| + | | |
| + | |- |
| + | |२३ |
| + | |वैधृति |
| + | |२३/०३/२०२३ |
| + | | |
| + | |वैधृति योग |
| + | | |
| + | | |
| + | | |
| + | | |
| + | |- |
| + | |२४ |
| + | |मन्व० |
| + | |२४/०३/२०२३ |
| + | |चैत्र शुक्लपक्ष तृतीया |
| + | |स्वायम्भुव मन्वादि |
| + | | |
| + | | |
| + | | |
| + | | |
| + | |- |
| + | |२५ |
| + | |मन्व० |
| + | |०६/०४/२०२३ |
| + | |चैत्र शुक्लपक्ष पूर्णिमा |
| + | |स्वारोचिष मन्वादि |
| + | | |
| + | | |
| + | | |
| + | | |
| + | |- |
| + | |२६ |
| + | |पात |
| + | |०९/०४/२०२३ |
| + | | |
| + | |व्यतीपात योग |
| + | | |
| + | | |
| + | | |
| + | | |
| + | |- |
| + | |२७ |
| + | |संक्रा० |
| + | |१४/०४/२०२३ |
| + | | |
| + | |मेष संक्रान्ति |
| + | | |
| + | | |
| + | | |
| + | | |
| + | |- |
| + | |२८ |
| + | |वैधृति योग |
| + | |१८/०४/२०२३ |
| + | | |
| + | |वैधृति योग |
| + | | |
| + | | |
| + | | |
| + | | |
| + | |- |
| + | |२९ |
| + | |अमा० |
| + | |१९/०४/२०२३ |
| + | |वैशाख, कृष्ण पक्ष, अमावस्या |
| + | |दर्श |
| + | | |
| + | | |
| + | | |
| + | | |
| + | |- |
| + | |३० |
| + | |युगादि |
| + | |२२/०४/२०२३ |
| + | | |
| + | |त्रेता युगादि |
| + | | |
| + | | |
| + | | |
| + | | |
| + | |- |
| + | |३१ |
| + | |पात |
| + | |०५/०५/२०२३ |
| + | | |
| + | |व्यतीपात योग |
| + | | |
| + | | |
| + | | |
| + | | |
| |- | | |- |
− | |1 | + | |३२ |
− | |अश्विनी | + | |वैधृति |
− | |आंवला | + | |१४/०५/२०२३ |
− | |Emblica officinalis | + | | |
| + | |वैधृति योग |
| + | | |
| + | | |
| + | | |
| + | | |
| |- | | |- |
− | |2 | + | |३३ |
− | |भरणी | + | |संक्रा० |
− | |यमक(युग्म वृक्ष) | + | |१५/०५/२०२३ |
− | |Ficus spp. | + | | |
| + | |वृषभ संक्रान्ति |
| + | | |
| + | | |
| + | | |
| + | | |
| |- | | |- |
− | |3 | + | |३४ |
− | |कृत्तिका | + | |अमा० |
− | |उदुम्बर(गूलर) | + | |१९/०५/२०२३ |
− | |Ficus glomerata | + | |ज्येष्ठ,कृष्ण पक्ष, अमावस्या |
| + | |दर्श |
| + | | |
| + | | |
| + | | |
| + | | |
| |- | | |- |
− | |4 | + | |३५ |
− | |रोहिणी | + | |पात |
− | |जम्बु(जामुन) | + | |३०/०५/२०२३ |
− | |Syzygium cumini | + | | |
| + | |व्यतीपात योग |
| + | | |
| + | | |
| + | | |
| + | | |
| |- | | |- |
− | |5 | + | |३६ |
− | |मृगशिरा | + | |मन्व० |
− | |खदिर(खैर) | + | |०४/०६/२०२३ |
− | |Acacia catechu | + | |ज्येष्ठ,शुक्ल पूर्णिमा |
| + | |वैवस्वत मन्वादि |
| + | | |
| + | | |
| + | | |
| + | | |
| |- | | |- |
− | |6 | + | |३७ |
− | |आर्द्रा | + | |वैधृति |
− | |कृष्णप्लक्ष(पाकड) | + | |०८/०६/२०२३ |
− | |Ficus infectoria | + | | |
| + | |वैधृति योग |
| + | | |
| + | | |
| + | | |
| + | | |
| |- | | |- |
− | |7 | + | |३८ |
− | |पुनर्वसु | + | |संक्रा० |
− | |वंश(बांस) | + | |१५/०६/२०२३ |
− | |Dendrocalamus/Bambusa spp | + | | |
| + | |मिथुन संक्रान्ति |
| + | | |
| + | | |
| + | | |
| + | | |
| |- | | |- |
− | |8 | + | |३९ |
− | |पुष्य | + | |अमा० |
− | |पिप्पल(पीपल) | + | |१७/०६/२०२३ |
− | |Ficus religiosa | + | |आषाढ, कृष्ण पक्ष, अमावस्या |
| + | |दर्श |
| + | | |
| + | | |
| + | | |
| + | | |
| |- | | |- |
− | |9 | + | |४० |
− | |आश्लेषा | + | |पात |
− | |नाग(नागकेसर) | + | |२५/०६/२०२३ |
− | |Mesua ferrea | + | | |
| + | |व्यतीपात योग |
| + | | |
| + | | |
| + | | |
| + | | |
| |- | | |- |
− | |10 | + | |४१ |
− | |मघा | + | |मन्व० |
− | |वट(बरगद) | + | |२८/०६/२०२३ |
− | |Ficus bengalensis | + | |आषाढ, शुक्ल दशमी |
| + | |रैवत मन्वादि |
| + | | |
| + | | |
| + | | |
| + | | |
| |- | | |- |
− | |11 | + | |४२ |
− | |पूर्वाफाल्गुनी | + | |मन्व० |
− | |पलाश | + | |०३/०७/२०२३ |
− | |Butea monosperma | + | |आषाढ, शुक्ल, पूर्णिमा |
| + | |चाक्षुष मन्वादि |
| + | | |
| + | | |
| + | | |
| + | | |
| |- | | |- |
− | |12 | + | |४३ |
− | |उत्तराफाल्गुनी | + | |वैधृति |
− | |अक्ष(रुद्राक्ष) | + | |०४/०७/२०२३ |
− | |Elaeocarpus gantirus | + | | |
| + | |वैधृति योग |
| + | | |
| + | | |
| + | | |
| + | | |
| |- | | |- |
− | |13 | + | |४४ |
− | |हस्त | + | |अमा० |
− | |अरिष्ट(रीठा) | + | |१७/०७/२०२३ |
− | |Sapindus mukorrossi | + | |श्रावण, कृष्ण पक्ष, अमावस्या |
| + | |दर्श |
| + | | |
| + | | |
| + | | |
| + | | |
| |- | | |- |
− | |14 | + | |४५ |
− | |चित्रा | + | |संक्रा० |
− | |श्रीवृक्ष(बेल) | + | |१७/०७/२०२३ |
− | |Aegle marmelos | + | | |
| + | |कर्क संक्रान्ति |
| + | | |
| + | | |
| + | | |
| + | | |
| |- | | |- |
− | |15 | + | |४६ |
− | |स्वाती | + | |पात |
− | |अर्जुन | + | |२०/०७/२०२३ |
− | |Terminelia arjuna | + | | |
| + | |व्यतीपात योग |
| + | | |
| + | | |
| + | | |
| + | | |
| |- | | |- |
− | |16 | + | |४७ |
− | |विशाखा | + | |वैधृति |
− | |विकंकत | + | |३०/०७/२०२३ |
− | |Flacourtia indica | + | | |
| + | |वैधृति योग |
| + | | |
| + | | |
| + | | |
| + | | |
| |- | | |- |
− | |17 | + | |४८ |
− | |अनुराधा | + | |पात |
− | |बकुल(मॉल श्री) | + | |१४/०८/२०२३ |
− | |Mimusops elengi | + | | |
| + | |व्य्तीपात योग |
| + | | |
| + | | |
| + | | |
| + | | |
| |- | | |- |
− | |18 | + | |४९ |
− | |ज्येष्ठा | + | |अमा० |
− | |विष्टि(चीड) | + | |१५/०८/२०२३ |
− | |Pinus roxburghii | + | |श्रावण, कृष्ण पक्ष(अधिक मास) अमावस्या |
| + | |दर्श |
| + | | |
| + | | |
| + | | |
| + | | |
| |- | | |- |
− | |19 | + | |५० |
− | |मूल | + | |संक्रा० |
− | |सर्ज्ज(साल) | + | |१७/०८/२०२३ |
− | |Shorea robusta | + | | |
| + | |सिंह संक्रान्ति |
| + | | |
| + | | |
| + | | |
| + | | |
| |- | | |- |
− | |20 | + | |५१ |
− | |पूर्वाषाढा | + | |वैधृति |
− | |वंजुल(अशोक) | + | |२४/०८/२०२३ |
− | |Saraca indica | + | | |
| + | |वैधृति योग |
| + | | |
| + | | |
| + | | |
| + | | |
| |- | | |- |
− | |21 | + | |५२ |
− | |उत्तराषाढा | + | |मन्व० |
− | |पनस(कटहल) | + | |०७/०९/२०२३ |
− | |Artocarpus heterophyllus | + | |भाद्रपद,कृष्ण, अष्टमी |
| + | |इन्द्रसावर्णि मन्वादि |
| + | | |
| + | | |
| + | | |
| + | | |
| |- | | |- |
− | |22 | + | |५३ |
− | |श्रवण | + | |पात |
− | |अर्क(अकवन) | + | |०८/०९/२०२३ |
− | |Calotropis procera | + | | |
| + | |व्यतीपात योग |
| + | | |
| + | | |
| + | | |
| + | | |
| |- | | |- |
− | |23 | + | |५४ |
− | |धनिष्ठा | + | |मन्व० |
− | |शमी | + | |१४/०९/२०२३ |
− | |Prosopis spicigera | + | |भाद्रपद, कृष्ण, अमावस्या |
| + | |दैवसावर्णि मन्वादि |
| + | | |
| + | | |
| + | | |
| + | | |
| |- | | |- |
− | |24 | + | |५५ |
− | |शतभिषा | + | |अमा० |
− | |कदम्ब | + | |१४/०९/२०२३ |
− | |Anthocephlus cadamba | + | |भाद्रपद, कृष्ण, अमावस्या |
| + | |दर्श |
| + | | |
| + | | |
| + | | |
| + | | |
| |- | | |- |
− | |25 | + | |५६ |
− | |पूर्वाभाद्रपदा | + | |संक्रा० |
− | |आम | + | |१७/०९/२०२३ |
− | |Magnifera indica | + | | |
| + | |कन्या संक्रान्ति |
| + | | |
| + | | |
| + | | |
| + | | |
| |- | | |- |
− | |26 | + | |५७ |
− | |उत्तराभाद्रपदा | + | |मन्व० |
− | |पिचुमन्द(नीम) | + | |१८/०९/२०२३ |
− | |Azadirachta indica | + | |भाद्रपद,शुक्ल,तृतीया |
| + | |रुद्रसावर्णि मन्वादि |
| + | | |
| + | | |
| + | | |
| + | | |
| |- | | |- |
− | |27 | + | |५८ |
− | |रेवती | + | |वैधृति |
− | |मधु(महुआ) | + | |१८/०९/२०२३ |
− | |Madhuca indica | + | | |
− | |} | + | |वैधृति योग |
− | | + | | |
− | == नवग्रह और वृक्ष ==
| + | | |
− | पृथ्वी से आकाश की ओर देखने पर आसमान में स्थिर दिखने वाले पिण्डों/छायाओं को, नक्षत्र और स्थिति बदलते रहने वाले पिण्डों/छायाओं को ग्रह कहते हैं। ग्रह का अर्थ है पकडना। सम्भवतः अन्तरिक्ष से आने वाले प्रवाहों को पृथ्वी पर पहुँचने से पहले ये पिण्ड और छायायें उन्हैं टी०वी० के अन्टीना की तरह आकर्षित कर पकड लेती हैं और पृथ्वी के जीवधारियों के जीवन को प्रभावित करती हैं।
| + | | |
− | {| class="wikitable"
| + | | |
− | |+नवग्रह वन | + | |- |
− | !क्रम सं०
| + | |५९ |
− | !ग्रह नाम
| + | |पितृ पक्ष |
− | !वृक्ष का हिन्दी नाम
| + | |२९/०९/२०२३ |
− | !वृक्ष का वैज्ञानिक नाम
| + | |भाद्रपद, शुक्ल, पूर्णिमा |
| + | |पूर्णिमा श्राद्ध |
| + | | |
| + | | |
| + | | |
| + | | |
| + | |- |
| + | |६० |
| + | |पितृ पक्ष |
| + | |२९/०९/२०२३ |
| + | |आश्विन, कृष्ण, प्रतिपदा |
| + | |प्रतिपदा श्राद्ध |
| + | | |
| + | | |
| + | | |
| + | | |
| + | |- |
| + | |६१ |
| + | |पितृ पक्ष |
| + | |३०/ |
| + | |आश्विन, कृष्ण,द्वितीया |
| + | |द्वितीया |
| + | | |
| + | | |
| + | | |
| + | | |
| + | |- |
| + | |६२ |
| + | |पितृ पक्ष |
| + | |०१/१०/२०२३ |
| + | |आश्विन, कृष्ण,तृतीया |
| + | |तृतीया |
| + | | |
| + | | |
| + | | |
| + | | |
| + | |- |
| + | |६३ |
| + | |पितृ पक्ष |
| + | |०२/१०/२०२३ |
| + | |आश्विन, कृष्ण, चतुर्थी |
| + | |चतुर्थी |
| + | | |
| + | | |
| + | | |
| + | | |
| + | |- |
| + | |६४ |
| + | |पितृ पक्ष |
| + | |०२/१०/२०२३ |
| + | |आश्विन, कृष्ण, चतुर्थी(भरणी) |
| + | |महाभरणी |
| + | | |
| + | | |
| + | | |
| + | | |
| + | |- |
| + | |६५ |
| + | |पितृ पक्ष |
| + | |०३/ |
| + | |आश्विन, कृष्ण,पञ्चमी |
| + | |पञ्चमी |
| + | | |
| + | | |
| + | | |
| + | | |
| + | |- |
| + | |६६ |
| + | |पितृ पक्ष |
| + | |०४/ |
| + | |आश्विन, कृष्ण, षष्ठी |
| + | |षष्ठी |
| + | | |
| + | | |
| + | | |
| + | | |
| + | |- |
| + | |६७ |
| + | |पितृ पक्ष |
| + | |०५/ |
| + | |आश्विन, कृष्ण, सप्तमी |
| + | |सप्तमी |
| + | | |
| + | | |
| + | | |
| + | | |
| + | |- |
| + | |६८ |
| + | |पितृ पक्ष |
| + | |०६/ |
| + | |आश्विन, कृष्ण, अष्टमी |
| + | |अष्टमी |
| + | | |
| + | | |
| + | | |
| + | | |
| + | |- |
| + | |६९ |
| + | |पितृ पक्ष |
| + | |०७/ |
| + | |आश्विन, कृष्ण, नवमी |
| + | |नवमी |
| + | | |
| + | | |
| + | | |
| + | | |
| + | |- |
| + | |७० |
| + | |पितृ पक्ष |
| + | |०८/ |
| + | |आश्विन, कृष्ण, दशमी |
| + | |दशमी |
| + | | |
| + | | |
| + | | |
| + | | |
| + | |- |
| + | |७१ |
| + | |पितृ पक्ष |
| + | |०९/ |
| + | |आश्विन, कृष्ण, एकादशी |
| + | |एकादशी |
| + | | |
| + | | |
| + | | |
| + | | |
| + | |- |
| + | |७२ |
| + | |पितृ पक्ष |
| + | |१०/ |
| + | |आश्विन, कृष्ण, मघा श्राद्ध |
| + | |मघा श्राद्ध |
| + | | |
| + | | |
| + | | |
| + | | |
| + | |- |
| + | |७३ |
| + | |पितृ पक्ष |
| + | |११/ |
| + | |आश्विन, कृष्ण, द्वादशी |
| + | |द्वादशी |
| + | | |
| + | | |
| + | | |
| + | | |
| + | |- |
| + | |७४ |
| + | |पितृ पक्ष |
| + | |१२/ |
| + | |आश्विन, कृष्ण, त्रयोदशी |
| + | |त्रयोदशी |
| + | | |
| + | | |
| + | | |
| + | | |
| + | |- |
| + | |७५ |
| + | |पितृ पक्ष |
| + | |१३/ |
| + | |आश्विन, कृष्ण, चतुर्दशी |
| + | |चतुर्दशी |
| + | | |
| + | | |
| + | | |
| + | | |
| + | |- |
| + | |७६ |
| + | |पितृ पक्ष |
| + | |१४ |
| + | |आश्विन, कृष्ण, सर्वपितृ अमावस्या |
| + | |अमावस्या |
| + | | |
| + | | |
| + | | |
| + | | |
| + | |- |
| + | |७७ |
| + | |वैधृति |
| + | |१४/१०/२०२३ |
| + | | |
| + | |वैधृति योग |
| + | | |
| + | | |
| + | | |
| + | | |
| |- | | |- |
− | |1 | + | |७८ |
− | |सूर्य | + | |पात |
− | |श्वेत अर्क(सफेद मदार) | + | |०४/१०/२०२३ |
− | |Calotropis | + | | |
| + | |व्यतीपात योग |
| + | | |
| + | | |
| + | | |
| + | | |
| |- | | |- |
− | |2 | + | |7९ |
− | |चन्द्रमा | + | |युगादि |
− | |पलाश(ढाक) | + | |१२/१०/२०२३ |
− | |Butea monosperma | + | | |
| + | |कलियुग |
| + | | |
| + | | |
| + | | |
| + | | |
| |- | | |- |
− | |3 | + | |८० |
− | |मंगल | + | |अमा० |
− | |खदिर(खैर) | + | |१४/१०/२०२३ |
− | |Acacia catechu | + | |आश्विन, कृष्ण पक्ष, अमावस्या |
| + | |दर्श |
| + | | |
| + | | |
| + | | |
| + | | |
| |- | | |- |
− | |4 | + | |८१ |
− | |बुध | + | |संक्रा० |
− | |अपामार्ग(चिचिडा) | + | |१८/१०/२०२३ |
− | |Achyranthus Aspera | + | | |
| + | |तुला संक्रान्ति |
| + | | |
| + | | |
| + | | |
| + | | |
| |- | | |- |
− | |5 | + | |८२ |
− | |बृहस्पति | + | |मन्व० |
− | |अश्वत्थ(पीपल) | + | |२३/१०/२०२३ |
− | |Ficus Religiosa | + | |आश्विन,शुक्ल,नवमी |
| + | |दक्षसावर्णि मन्वादि |
| + | | |
| + | | |
| + | | |
| + | | |
| |- | | |- |
− | |6 | + | |८३ |
− | |शुक्र | + | |पात |
− | |उदुम्बर(गूलर) | + | |२९/१०/२०२३ |
− | |Ficus Racemosa | + | | |
| + | |व्यतीपात योग |
| + | | |
| + | | |
| + | | |
| + | | |
| |- | | |- |
− | |7 | + | |८४ |
− | |शनि | + | |वैधृति |
− | |शमी(छ्योकर) | + | |०८/११/२०२३ |
− | |Prosopis Cenneraria | + | | |
| + | |वैधृति योग |
| + | | |
| + | | |
| + | | |
| + | | |
| |- | | |- |
− | |8 | + | |८५ |
− | |राहु | + | |अमा० |
− | |दूर्बा(दूब) | + | |१३/११/२०२३ |
− | |Cynodon Dactylon | + | |कार्तिक, कृष्ण पक्ष, अमावस्या |
| + | |दर्श |
| + | | |
| + | | |
| + | | |
| + | | |
| |- | | |- |
− | |9 | + | |८६ |
− | |केतु | + | |संक्रा० |
− | |कुशा(दर्भ) | + | |१७/११/२०२३ |
− | |Imperata cylindrica | + | | |
− | |} | + | |वृश्चिक संक्रान्ति |
− | '''आक(मदार)- ढाक(पलास)-खदिर(खैर)-अपामार्ग(चिचिडा)-पिप्पल(पीपल)-औडम्बर(गूलर)-शमी(छ्योकर)-दूर्वा(दूब)-कुशा(दर्भ)।'''
| + | | |
− | | + | | |
− | == राशि एवं वृक्ष ==
| + | | |
− | {| class="wikitable"
| + | | |
− | |+राशि वृक्ष | |
− | !क्रम सं०
| |
− | !राशि का नाम
| |
− | !वृक्ष का हिन्दी नाम
| |
− | !वृक्ष का वैज्ञानिक नाम
| |
| |- | | |- |
− | |1 | + | |८७ |
− | |मेष(Arise) | + | |युगादि |
− | |रक्तचंदन | + | |२१/११/२०२३ |
− | |Peterocarpus santalinus | + | | |
| + | |सत युगादि |
| + | | |
| + | | |
| + | | |
| + | | |
| |- | | |- |
− | |2 | + | |८८ |
− | |वृष(Taurus) | + | |मन्व० |
− | |धतवन् | + | |२४/११/२०२३ |
− | |Alstonia scholaris | + | |कार्तिक,शुक्ल द्वादशी |
| + | |तामस मन्वादि |
| + | | |
| + | | |
| + | | |
| + | | |
| |- | | |- |
− | |3 | + | |८९ |
− | |मिथुन(Gemini) | + | |पात |
− | |कटहल | + | |२४/११/२०२३ |
− | |Artocarpus heterophyllus | + | | |
| + | |व्यतीपात योग |
| + | | |
| + | | |
| + | | |
| + | | |
| |- | | |- |
− | |4 | + | |९० |
− | |कर्क(Cancer) | + | |मन्व० |
− | |पलास | + | |२७/११/२०२३ |
− | |Butea manosperma | + | |कार्तिक, शुक्ल पूर्णिमा |
| + | |उत्तम मन्वादि |
| + | | |
| + | | |
| + | | |
| + | | |
| |- | | |- |
− | |5 | + | |९१ |
− | |सिंह(Leo) | + | |वैधृति |
− | |वादल | + | |०३/१२/२०२३ |
− | |Stereospermum chelenoides | + | | |
| + | |वैधृति योग |
| + | | |
| + | | |
| + | | |
| + | | |
| |- | | |- |
− | |6 | + | |९२ |
− | |कन्या(Virgo) | + | |अष्टका पूर्वेद्युः |
− | |आम | + | |०४/१२/२०२३ |
− | |Mangifera indica | + | |मार्गशीर्ष, कृष्ण, सप्तमी |
| + | |अष्टका पूर्वेद्युः |
| + | | |
| + | | |
| + | | |
| + | | |
| |- | | |- |
− | |7 | + | |९३ |
− | |तुला(Libra) | + | |अन्वष्टका |
− | |मॉलश्री | + | |०५/१२/२०२३ |
− | |Mimusops elengi | + | |मार्गशीर्ष, कृष्ण, अष्टमी |
| + | |अन्वष्टका |
| + | | |
| + | | |
| + | | |
| + | | |
| |- | | |- |
− | |8 | + | |९४ |
− | |वृश्चिक(Scorpio) | + | |अमा |
− | |खैर | + | |१२/१२/२०२३ |
− | |Acacia catechu | + | |मार्गशीर्ष, कृष्णपक्ष, अमावस्या |
| + | |दर्श |
| + | | |
| + | | |
| + | | |
| + | | |
| |- | | |- |
− | |9 | + | |९५ |
− | |धनु(Sagittarius) | + | |संक्रा० |
− | |पीपल | + | |१६/१२/२०२३ |
− | |Ficus religiosa | + | | |
| + | |धनु |
| + | | |
| + | | |
| + | | |
| + | | |
| |- | | |- |
− | |10 | + | |९६ |
− | |मकर(Capricornus) | + | |पात |
− | |कालाशीसम | + | |१९/१२/२०२३ |
− | |Dalbergia latifolia | + | | |
| + | |व्यतीपात योग |
| + | | |
| + | | |
| + | | |
| + | | |
| |- | | |- |
− | |11 | + | |९७ |
− | |कुम्भ(Aquarius) | + | |वैधृति |
− | |शमी | + | |२८/१२/२०२३ |
− | |Prosopis spicigera | + | | |
| + | |वैधृति योग |
| + | | |
| + | | |
| + | | |
| + | | |
| |- | | |- |
− | |12 | + | | |
− | |मीन(Pisces) | + | | |
− | |बरगद | + | | |
− | |Ficus bengalensis | + | | |
| + | | |
| + | | |
| + | | |
| + | | |
| + | | |
| |} | | |} |
| | | |
− | == औषधि वन ==
| |
− | प्रायः नक्षत्र, ग्रह या राशि वन तो यहाँ-वहाँ प्रयत्न करने पर उपलब्ध हो जाते हैं किन्तु औषधि वन नहीं देखे जाते हैं। वर्तमान समय में सामान्य जनमानस को औषधि संबंधि जानकारी नहीं रहने के कारण अपने आस-पास उपलब्ध जडी-बूटियों के संबर्द्धन की भावना भी नहीं हो पाती है। जन मानस को औषधीय पौधों के संबंध में अपेक्षित जानकारी उपलब्ध कराने तथा उनकी पहचान के उद्देश्य से औषधिवन की स्थापना करनी चाहिये। इन्हैं वृक्ष प्रकृति के अनुरूप स्थलीय एवं जलीय भागों में विभक्त कर लगाना चाहिये। वृक्ष स्थापना के अनन्तर पौधे का नाम, वानस्पतिक नाम एवं किन-किन बीमारियों में उनका उपयोग होता है, ये उद्धरित होने से यहां से जानकारी प्राप्त कर अधिकाधिक लोग इसका लाभ उठा पायेंगे। वर्तमान के अतिवैज्ञानिक युग में भी अतिगम्भीर बीमारियों के उपचार हेतु औषधि युक्त पौधों की प्रासंगिकता एलोपैथी की तुलना में कुछ कम नहीं हैं। यदि आवश्यकता है तो सिर्फ एक जानकार व्यक्ति की जिन्हैं इन पौधों के द्वारा होने वाअले उपचार की अच्छी जानकारी हो।
| |
| | | |
− | === वास्तु शास्त्र में वृक्षों का महत्व === | + | == अनन्तपुण्य संपादकं पञ्चाङ्गम् == |
− | वास्तु शास्त्र के अनुसार प्रतिकूल वृक्षों को यदि ग्रह अनुकूलता हेतु अज्ञानतावश लगा देते हैं तो उन वृक्षों के द्वारा उत्पन्न होने वाला नकारात्मक प्रभाव
| + | मास, तिथि, वार नक्षत्र और योग के संयोग से जो-जो प्रत्येक अलभ्य योग उत्पन्न होते हैं उनके आचरण के प्रभाव से अर्थ और धर्म पुरुषार्थ प्रद होते हैं। जैसे जिस किसी का भी धन अर्जन के लिये पुण्य आवश्यक होता है। प्रत्येक व्यक्ति का संकल्पपूर्ति के लिये पुण्य संपादन बहुत आवश्यक है। जिस प्रकार संसार में किसी भी कार्य की सिद्धि के लिये धन की आवश्यकता होती है। |
− | | + | {| class="wikitable" |
− | == पर्यावरणीय महत्व ==
| + | |+(अलभ्य योग) |
− | प्रत्येक वृक्ष के अपने अलग-अलग सूक्ष्म पर्यावरणीय प्रभाव होते हैं।किन्तु अकेले में ये एकांगी व अधूरे होते हैं। सभी नक्षत्र वन, नवग्रह वन या राशि वनों के वृक्षों को एक साथ लगाने से इनके सूक्ष्म प्रभावों में संतुलन स्थापित रहता है, जो कि हर किसी के लिये लाभकारी होता है। अतः पर्यावरण में कल्याणकारी सन्तुलन स्थापित करने के लिये समस्त ग्रह, राशि एवं नक्षत्र संबन्धित वृक्षों को एक साथ स्थापित करना चाहिये।
| + | !क्रम संख्या |
− | | + | !दिनाँक |
− | === वृक्षों से लाभ ===
| + | !मास/पक्ष |
− | | + | !तिथि |
− | ==== वृक्षायुर्वेद ====
| + | !व्रत |
− | | + | !व्रत विधान |
− | ==== वृक्षारोपण का महत्व ====
| + | !फल |
− | | + | !तिथि निर्णय |
− | ==== प्रदूषण रोधक वृक्ष और औषधियाँ ====
| + | !ग्रन्थ |
− | | + | |- |
− | == सन्दर्भ ==
| + | | |
− | | + | |०१/०२/२०२२ |
− | == वेदाङ्गज्योतिष॥ Vedanga Jyotisha ==
| + | |माघ/शुक्ल |
− | {{Main|Vedanga Jyotish (वेदाङ्गज्योतिष)}}
| + | |एकादशी |
− | ज्योतिष वेदका एक अङ्ग हैं। अङ्ग शब्दका अर्थ सहायक होता है अर्थात् वेदोंके वास्तविक अर्थका बोध करानेवाला। तात्पर्य यह है कि वेदोंके यथार्थ ज्ञानमें और उनमें वर्णित विषयोंके प्रतिपादनमें सहयोग प्रदान करनेवाले शास्त्रका नाम वेदांङ्ग है। वेद संसारके प्राचीनतम धर्मग्रन्थ हैं, जो ज्ञान-विज्ञानमय एवं अत्यन्त गंभीर हैं। अतः वेदकी वेदताको जानने के लिये शिक्षा आदि छः अङ्गोंकी प्रवृत्ति हुई है। नेत्राङ्ग होनेके कारण ज्योतिष का स्थान सर्वोपरि माना गया है। वेदाङ्गज्योतिष ग्रन्थ में यज्ञ उपयोगी कालका विधान किया गया है। वेदाङ्गज्योतिष के रचयिता महात्मा लगध हैं। उन्होंने ज्योतिषको सर्वोत्कृष्ट मानते हुये कहा है कि-<blockquote>यथा शिखा मयूराणां नागानां मणयो यथा। तद्वद्वेदाङ्ग शास्त्राणां ज्योतिषं मूर्ध्नि संस्थितम् ॥( वेदाङ्ग ज्योतिष)</blockquote>अर्थ- जिस प्रकार मयूर की शिखा उसके सिरपर ही रहती है, सर्पों की मणि उनके मस्तकपर ही निवास करती है, उसी प्रकार षडङ्गोंमें ज्योतिषको सर्वश्रेष्ठ स्थान प्राप्त है। भास्कराचार्यजी ने सिद्धान्तशिरोमणि ग्रन्थमें कहा है कि-<blockquote>वेदास्तावत् यज्ञकर्मप्रवृत्ता यज्ञाः प्रोक्ताः ते तु कालाश्रेण। शास्त्राद्यस्मात् कालबोधो यतः स्यात्वेदाङ्गत्वं ज्योतिषस्योक्तमस्मात् ॥(सिद्धान्त शोरोमणि)</blockquote>वेद यज्ञ कर्म में प्रयुक्त होते हैं और यज्ञ कालके आश्रित होते हैं तथा ज्योतिष शास्त्र से कालकाज्ञान होता है, इससे ज्योतिष का वेदाङ्गत्व सिद्ध होता है।
| + | |भीम एकादशी/भीष्म एकादशी/ जय एकादशी/भीष्म पञ्चक व्रत आरंभ/ तिल पद्म व्रत |
− | | + | | |
− | == ज्योतिषशास्त्र के भेद ==
| + | |संतति अभिवृध्दि भीष्म/ भीम एका० २४ एकादशी व्रत फल प्राप्ति/ |
− | | + | | |
− | ज्योतिषशास्त्र को सर्वप्रथम गणित एवं फलितके रूप मे स्वीकार किया गया है। गणित एवं फलितको त्रिस्कन्ध के रूप में जाना जाता है, जो सिद्धान्त, संहिता व होरा इन तीन भागोंमें विभाजित हैं। संहिता एवं होरा फलितज्योतिष के अन्तर्गत ही आते हैं। इस प्रकार ज्योतिष शास्त्र के मुख्यतः दो ही स्कन्ध हैं- गणित एवं फलित।
| + | |(काञ्ची कामकोटी पीठ पञ्चाग) |
− | | + | |- |
− | '''गणितशास्त्र''' – गणितशास्त्र गणना शब्द से बना है। जिसका अर्थ गिनना है। परन्तु गणना के बिना कोई भी क्रिया आसानी से सम्पन्न नहीं हो सकती। गणितशास्त्र का हमारे भारतीय आचार्यों ने दो भेद किया है-
| + | | |
− | | + | |०२/०२/२०२२ |
− | # '''व्यक्त गणित'''- अंक गणित, रेखागणित (ज्यामिति), त्रिकोणमिति, चलन कलनादि माने जा सकते हैं।
| + | | |
− | # '''अव्यक्त गणित-''' में बीजगणित (अलज़ेबरा) कहा जाता है।
| + | |द्वादशी |
− | | + | |भीष्म/भीम/वराह/षट्तिल द्वादशी/तिलपद्म व्रत/ प्रदोष/ |
− | व्यक्त गणित में अंकों द्वारा गणित क्रिया करके जोड़, घटाव, गुणा, भाग, वर्ग, वर्गमूल, घन, घनमूल, गुणन खण्ड तथा अन्य आवश्यक गणितीय क्रियाएँ की जाती हैं। आजकल आधुनिक जगत् में गणित का विस्तार अनेक रूपों में किया गया है । हमारे वेदों में भी वैदिक गणित बताया गया है । वैदिक मैथमेटिक्स की पुस्तकें भी प्रकाशित हैं ।<ref>श्रीरामचन्द्र पाठक, बृहज्जातकम् , ज्योति हिन्दी टीका, वाराणसीः चौखम्बा प्रकाशन (पृ०११-१३)।</ref>
| + | |उपवास/तिल स्नान/ तिल विष्णु पूजन/ तिल नैवेद्य/ तिल तेल दीपदान/ तिल से होम/तिअ दान/तिल भक्षण |
− | | + | |द्रष्टव्य |
− | '''फलित ज्योतिष-''' फलादेश कथन की विद्या का नाम फलित ज्योतिष है। शुभाशुभ फलोंको बताना ही इस शास्त्र का परम लक्ष्य रहा है। इसकी भी अनेक विधाएँ आज प्रचलित हैं। जैसे चिकित्सा शास्त्र का मूल आयुर्वेद है परन्तु आज होमोपैथ तथा एलोपैथ भी प्रचलित हैं और इन विधाओं के द्वार भी रोगमुक्ति मिलती है। उसी तरह फलित ज्योतिष की भी कई विधाएँ जिनके द्वारा शुभाशुभ फल कहे जाते हैं। ये विधाएँ मुख्यतः निम्नलिखित हैं-
| + | | |
− | #'''जातकशास्त्र''' – मानव के आजन्म मृत्युपर्यन्त समग्र जीवन का भविष् ज्ञान प्रतिपादक फलित ज्योतिष का नाम जातक ज्योतिष है । वाराह नारचन्द्र, सिद्धसेन, ढुण्ढिराज, केशव, श्रीपति, श्रीधर आदि होरा ज्योतिष आचार्य हैं ।
| + | | |
− | #'''संहिता ज्योतिष''' - संहिता ज्योतिष में सूर्य, चन्द्र, राहु, बुध, गुरु शुक्र, शनि, केतु, सप्तर्षिचार, कूर्म नक्षत्र, ग्रहयुद्ध, ग्रहवर्ष, गर्भ लक्षण गर्भधारण, सन्ध्या लक्षण, भूकम्प, उल्का, परिवेश, इन्द्रायुध् रजोलक्षण, उत्पाताध्याय, अंगविद्या, वास्तुविद्या, वृक्षायुर्वेद, प्रसादलक्षण वज्रलेप (छत बनाने का मसाला), गो, महिष, कुत्ता, अज, हरि काकशकुन, श्वान, शृगाल, अश्व, हाथी प्रभृति जीवों की चेष्टाएं आदि भवि ज्ञान के साथ सुन्दर भोजन, निर्माण के विविध प्रकार (पाकशास्त्र) आ विषयों का जिस शास्त्र से ज्ञान किया जाता है वह फलित ज्योतिष का संहि ज्योतिष कहा गया है।
| + | |- |
− | #'''मुहूर्त्तशास्त्र''' – मुहूर्त्त शास्त्र फलित ज्योतिष का वह अंग है जिस द्वारा जातक के कथित संस्कारों के मुहूर्त्त, नामकरण, भूमि उपवेशन, कटि बन्धन, अन्नप्राशन, मुण्डन, उपनयन, समावर्त्तन आदि संस्कारों के समय ज्ञान किया जाता है।
| + | | |
− | #'''ताजिकशास्त्र''' – मानव के आयु में प्रत्येक नवीन वर्ष प्रवेश का समय का ज्ञानकर तदनुसार कुण्डली द्वारा वर्ष पर्यन्त प्रत्येक दिन, मास का फल ज्ञान प्रतिपादन फलित ज्योतिष का ताजिकशास्त्र कहलाता है।
| + | | |
− | #'''रमलशास्त्र''' – इस शास्त्र के अन्तर्गत पाशा डालने की प्रक्रिया होती है । इसके द्वारा फल कथन की विधि का नाम रमलशास्त्र है।
| + | | |
− | #'''स्वरशास्त्र''' – स्वस्थ मनुष्य के स्वांस निःसरण के द्वारा दक्षिण या वाम स्वांस गति की जानकारी कर फलादेश किया जाता है । इसे फलितशास्त्र में स्वरशास्त्र नाम से कहा जाता है ।
| + | | |
− | #'''अंग विद्या''' – शरीर के अवयवों को देखकर जैसे ललाट, मस्तक, बाहु तथा वक्ष को देखकर फलादेश किया जाता है । साथ ही हाथ या पैर की रेखाएँ भी देख कर फलादेश कहने की विधि को अंग विद्या (पामेस्ट्री) के नाम से कहा जाता है।
| + | |माघ शुक्ल द्वादशी पुनर्वसु योग |
− | #'''प्रश्नशास्त्र''' – आकस्मिक किसी समय की ग्रहस्थितिवश भविष्यफल ज्ञापक शास्त्र का नाम प्रश्न ज्योतिष है । इसका सम्बन्ध मनोविज्ञान से भी है । इसी का सहयोगी केरल ज्योतिष भी है।
| + | |स्नान, दान, जप, होम |
− | इस प्रकार हमारे फलित ज्योतिष के अनेकों विभाग हैं जिसके द्वारा फल कथन किया जाता है। इन सभी शाखाओं का मूलस्त्रोत ग्रहगणित है। इस ग्रहगणित स्कन्ध को सिद्धान्त स्कन्ध भी कहा जाता है। ज्योतिष कल्पवृक्ष का मूल ग्रहगणित है जो खगोल विद्या से जाना जाता है। अंकगणित, बीजगणित, रेखागणित, त्रिकोणमिति गणित, गोलीय रेखागणित इस स्कन्ध के अन्तर्गत आते हैं। किसी भी अभीष्ट समय के क्षितिज, क्रान्तवृत्त सम्पात रूप लग्न बिन्दु के ज्ञान से विश्व के चराचर जीवों का, मानव सृष्टि में उत्पन्न जातक को शुभाशुभ ज्ञान की भूमिका होती है । इस प्रकार ज्योतिष की महिमा वेद, वेदाङ्ग तथा पुराण एवं धर्मशास्त्रों में सर्वत्र उपलब्ध है।
| + | |विषेश फल |
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− | == त्रिस्कन्ध ज्योतिष ॥Triskandha Jyotisha ==
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− | ज्योतिषशास्त्र वेद एवं वेदांग काल में त्रिस्कन्ध के रूपमें विभक्त नहीं था, जैसा कि पूर्व में वेदाङ्गज्योतिष के विषयमें कह ही दिया गया है, लगधमुनि प्रणीत वेदाङ्गज्योतिषको ज्योतिषशास्त्रका प्रथम ग्रन्थ कहा गया है, वेदाङ्गज्योतिषमें सामूहिकज्योतिषशास्त्र की ही चर्चा की गई है। आचार्यों ने ज्योतिष शास्त्र को तीन स्कन्धों में विभक्त किया है- सिद्धान्त, संहिता और होरा। महर्षिनारद जी कहते हैं- <blockquote>सिद्धान्त संहिता होरा रूपस्कन्ध त्रयात्मकम् । वेदस्य निर्मलं चक्षुः ज्योतिषशास्त्रमकल्मषम् ॥
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− | विनैतदखिलं श्रौतंस्मार्तं कर्म न सिद्ध्यति। तस्माज्जगध्दितायेदं ब्रह्मणा निर्मितं पुरा॥(नारद पुराण) </blockquote>अर्थात सिद्धान्त, संहिता और होरा तीन स्कन्ध रूप ज्योतिषशास्त्र वेदका निर्मल और दोषरहित नेत्र कहा गया है। इस ज्योतिषशास्त्र के विना कोई भी श्रौत और स्मार्त कर्म सिद्ध नहीं हो सकता। अतः ब्रह्माने संसारके कल्याणार्थ सर्वप्रथम ज्योतिषशास्त्रका निर्माण किया।
| + | |०३/०२/२०२२ |
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− | === सिद्धान्त स्कन्ध ===
| + | |त्रयोदशी |
− | यह स्कन्ध गणित नाम से भी जाना जाता है। इसके अन्तर्गत त्रुटि(कालकी लघुत्तम इकाई) से लेकर कल्पकाल तक की कालगणना, पर्व आनयन, अब्द विचार, ग्रहगतिनिरूपण, मासगणना, ग्रहों का उदयास्त, वक्रमार्ग, सूर्य वा चन्द्रमा के ग्रहण प्रारंभ एवं अस्त ग्रहण की दिशा, ग्रहयुति, ग्रहों की कक्ष स्थिति, उसका परिमाण, देश भेद, देशान्तर, पृथ्वी का भ्रमण, पृथ्वी की दैनिक गति, वार्षिक गति, ध्रुव प्रदेश आदि, अक्षांश, लम्बांश, गुरुत्वाकर्षण, नक्षत्र, संस्थान, अन्यग्रहों की स्थिति, भगण, चरखण्ड, द्युज्या, चापांश, लग्न, पृथ्वी की छाया, पलभा, नाडी, आदि विषय सिद्धान्त स्कन्ध के अन्तर्गत आते हैं।
| + | |वराह कल्पादि/ प्रदोष |
− | | + | |स्नान, दान, जप, होम,श्रद्ध |
− | सिद्धान्तके क्षेत्रमें पितामह, वसिष्ठ, रोमक, पौलिश तथा सूर्य-इनके नामसे गणितकी पॉंचसिद्धान्त पद्धतियॉं प्रमुख हैं, जिनका विवचन आचार्यवराहमिहिरने अपने पंचसिद्धान्तिका नामक ग्रन्थमें किया है।
| + | |अक्षय/कोटी गुणित |
− | | + | |षण्णवति |
− | * आर्यभट्टका आर्यभट्टीयम् महत्त्वपूर्ण गणितसिद्धान्त है। इन्होंने पृथ्वीको स्थिर न मानकर चल बताया। आर्यभट्ट प्रथमगणितज्ञ हुये और आर्यभट्टीयम् प्रथम पौरुष ग्रन्थ है।
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− | * आचार्य ब्रह्मगुप्तका ब्रह्मस्फुटसिद्धान्त भी अत्यन्त प्रसिद्ध है।
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− | प्रायः आर्यभट्ट एवं ब्रह्मगुप्तके सिद्धान्तोंको आधार बनाकर सिद्धान्त ज्योतिषके क्षेत्रमें पर्याप्त ग्रन्थ रचना हुई। पाटी(अंक) गणितमें लीलावती(भास्कराचार्य) एवं बीजगणितमें चापीयत्रिकोणगणितम् (नीलाम्बरदैवज्ञ) प्रमुख हैं।
| + | |०३/०२/२०२२ |
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− | === संहिता होरा ===
| + | |त्रयोदशी |
− | ज्योतिष शास्त्र के दूसरे स्कन्ध संहिता का भी विशेष महत्त्व है। इन ग्रन्थों में मुख्यतः फलादेश संबंधी विषयों का बाहुल्य होता है। आचार्य वराहमिहिरने बृहत्संहिता में कहा है कि जो व्यक्ति संहिता के समस्त विषयों को जानता है, वही दैवज्ञ होता है।
| + | |दिनत्रय व्रत |
− | | + | |माघ शुक्ल (त्रयोदशी,चतुर्दशी,पूर्णिमा) को स्नान,दान,पूजादि |
− | संहिता ग्रन्थों में भूशोधन, दिक् शोधन, मेलापक, जलाशय निर्माण, मांगलिक कार्यों के मुहूर्त, वृक्षायुर्वेद, दर्कागल, सूर्यादि ग्रहों के संचार, ग्रहों के स्वभाव, विकार, प्रमाण, गृहों का नक्षत्रों की युति से फल, परिवेष, परिघ, वायु लक्षण, भूकम्प, उल्कापात, वृष्टि वर्षण, अंगविद्या, पशु-पक्षियों तथा मनुष्यों के लक्षण पर विचार, रत्नपरीक्षा, दीपलक्षण नक्षत्राचार, ग्रहों का देश एवं प्राणियों पर आधिपत्य, दन्तकाष्ठ के द्वारा शुभ अशुभ फल का कथन आदि विषय वर्णित किये जाते हैं। संहिता ग्रन्थों में उपरोक्त विषयों के अतिरिक्त एक अन्य विशेषता होती है कि इन ग्रन्थों में व्यक्ति विषयक फलादेश के स्थान पर राष्ट्र विषयक फलादेश किया जाता है।
| + | |आयु,आरोग्य,सम्पत्ति,रूप, मनोरथ सफलता, माघगंगा स्नान वषत् (प्रतिदिन सुवर्ण दान फल प्राप्ति) |
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− | === होरा स्कन्ध ===
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− | यह ज्योतिषशास्त्र का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण स्कन्ध है। व्यवहार की दृष्टिसे यह जनसामान्यमें सर्वाधिक लोकप्रिय है। इसे जातक शास्त्र भी कहते हैं। होरा शब्द की उत्पत्ति अहोरात्र शब्द से हुई है। अहोरात्र शब्द के प्रथम तथा अन्तिम शब्द का लोप होने से होरा शब्द की उत्पत्ति हुई है। इस शास्त्र के अन्तर्गत मनुष्य की जन्मकालीन गृहस्थिति या तिथि नक्षत्रादि के द्वारा उसके जीवन के सुख-दुःख आदि का निर्णय किया जाता है। आचार्य वराहमिहिर के अनुसार होराशास्त्र में राशि, होरा, द्रेष्काण, नवांश, द्वादशांश, त्रिंशांश, ग्रहों का बलाबल, ग्रहों की दिक्काल, चेष्टादि अनेक प्रकार का बल, ग्रहों की प्रकृति, धातु, द्रव्य, जाति चेष्टा, अरिष्ट, आयुर्दाय, दशान्तर्दशा, अष्टकवर्ग, राजयोग, चान्द्रयोग, नाभसयोग, आश्रययोग, तात्कालिक प्रश्न, शुभाशुभ निमित्त वा चेष्टाएं, विवाह आदि विषयों का उल्लेख एवं इनका सागोंपाग विवेचन किया जाता है।
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− | कालान्तर में त्रिस्कन्ध पञ्चस्कन्ध में विभक्त हो गया और उपरोक्त के अतिरिक्त इसमें प्रश्न और शकुन नामक दो स्कन्ध और सम्मिलित हो गये हैं-
| + | |०४/०२/२०२२ |
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− | === प्रश्नस्कन्ध ===
| + | |पूर्णिमा |
− | | + | |माघ पूर्णिमा |
− | === शकुनस्कन्ध ===
| + | |समुद्र स्नान,तीर्थ स्नान, तिलपात्र,कम्बल अजिन रक्तवस्त्र आदि दानम(स्नान,दान, जप पूजा होमादिक ) प्रयाग में विशेष |
| + | |अधिक पुण्यप्रद |
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| + | |चन्द्रार्क योग(भानुवार पूर्णिमा तिथि वशात) |
| + | |स्नान,दान,जप होमादि |
| + | |विशेष पुण्यप्रद |
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| + | |०६/०२/२०२२ |
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− | == ज्योतिष एवं आयुर्वेद॥ Jyotisha And Ayurveda ==
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− | {{Main|Jyotisha And Ayurveda (ज्योतिष एवं आयुर्वेद)}}
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− | ज्योतिष एवं आयुर्वेद का संबन्ध जैसे संसार में भाई-भाई का सम्बन्ध है। आयुर्वेद में दैव एवं दैवज्ञ दोनों का महत्त्व प्रतिपादित किया गया है। इन दोनों की उत्तमता का योग हो तो निश्चित रूप से सुखपूर्वक दीर्घायुकी प्राप्ति होती है। इसके विपरीत हीन संयोग दुःख एवम अल्पायु के कारण बनते हैं। इन्हींके आधार पर आयुका मान नियत किया जाता है-<blockquote>दैवेदचेतरत् कर्म विशिष्टेनोपहन्यते। दृष्ट्वा यदेके मन्यन्ते नियतं मानमायुषः॥( चरक विमा० ३। ३४)</blockquote>आयुर्वेद के अनुसार सृष्टिके शक्तिपुञ्ज अदृश्य होते हुये भी गर्भाधान क्रिया, कोशीय संरचना एवं विकसित होते भ्रूणपर बहुत गहरा प्रभाव डालते हैं। गर्भाधानके समय आकाशीय शक्तियॉं भ्रूणके गुण-संगठन एवं जीन्स-संगठनपर पूर्ण प्रभाव डालती है। इसीलिये भारतीय परम्परा में गर्भाधान आदि [[Solah samskar ( सोलह संस्कार )|सोलह संस्कार]] विहित हैं जो कि ज्योतिष के मध्यम से एक निहित शुभ काल में किये जाते हैं जिससे आकशीय शक्तिपुञ्जों का दुष्प्रभाव पतित न हो।
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− | जन्मलग्न के द्वारा यह ज्ञात हो सकता है कि बच्चेमें किन आधारभूत तत्त्वों की कमी रह गई है। ज्योतिषशास्त्र के ज्ञान के आधार पर ज्योतिषी पहले ही सूचित कर देते हैं शिशु को इस अवस्था में ये रोग होगा। ग्रहदोषके अनुसार ही विभिन्न वनौषधियां ग्रह बाधा का निवारण करती हैं। शरीरमें वात,पित्त एवं कफ की मात्राका समन्वय रहनेपर ही शरीर साधारणतया स्वस्थ बना रहता है अतः स्वस्थ शरीर के लिये व्याधियों के ज्ञान पूर्वक उपचार हेतु ज्योतिष एवं आयुर्वेद शास्त्र का ज्ञान होना आवश्यक है।
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