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==== धर्माचार्यों के लिये तप ====
 
==== धर्माचार्यों के लिये तप ====
धर्माचार्यों का दायित्व शेष समाज से अधिक है क्योंकि उन्हें समाज का मार्गदर्शन करना है । समाज भी उनका सम्मान करता है । समाजव्यवस्था की जो श्रेणियों बनी हैं उनमें धर्माचार्य सबसे ऊपर हैं क्योंकि
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धर्माचार्यों का दायित्व शेष समाज से अधिक है क्योंकि उन्हें समाज का मार्गदर्शन करना है । समाज भी उनका सम्मान करता है । समाजव्यवस्था की जो श्रेणियों बनी हैं उनमें धर्माचार्य सबसे ऊपर हैं क्योंकि भारतीय समाज धर्मनिष्ठ है । भारत में जो बडा है उसे ही अपने साथ अधिक कठोर बनना है। बड़ों को कर्तव्य का विचार प्रथम करना है, भोग और सुविधा के बारे में अपने आपको अन्त में रखना है। इस तथ्य का स्वीकार करना तप का प्रथम चरण है।
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तप त्याग की अपेक्षा करता है । वर्तमान स्थिति को देखते हुए प्रथम त्याग सम्मान और प्रतिष्ठा का करना होगा। आज अनुयायिओं की ओर से जो सम्मान मिलता है और उसके कारण जो प्रतिष्ठा मिलती है वह हमें तप नहीं करने देती। इन दो बातों के लिये सिद्धता करेंगे तो आगे के तप के लिये भी सिद्धता होगी।
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धर्माचार्यों को आज बौद्धिक तप की बहुत आवश्यकता है । इस तप के मुख्य आयाम इस प्रकार हैं...
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पर्व ४ : विद्यालय की भौतिक एवं आर्थिक व्यवस्थाएँ
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अनुयायिओं की ओर से सम्मान क्यों मिल रहा है, कौन से तत्त्व उन्हें हमारे पास आने के लिये प्रेरित कर रहे हैं, उनकी दुर्बलतायें कौन सी हैं, आकांक्षायें कैसी हैं और अपेक्षायें क्या होती हैं इन्हें समझना और उसके बाद उनका मार्गदर्शन करना।
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धर्म को आज विवाद का विषय बना दिया गया है। इस विवाद से धर्म को मुक्त करने हेतु तप की आवश्यकता है। इस विवाद को समझना, उसके पीछे जो निहित स्वार्थ है उन्हें समझना, उन स्वार्थों को कैसे परास्त करना इसका विचार करना, उसकी योजना करना और योजनाओं का क्रियान्वयन करना यह तप है। विवाद में न पडना पडे इसके लिये धर्म के नाम पर संस्कृति, अध्यात्म, योग आदि के नाम स्वीकार कर धर्म संज्ञा का ही त्याग करना युद्धक्षेत्र से पलायन करना होता है। बौद्धिक तप का यह दूसरा आयाम है।
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भारतीय समाज धर्मनिष्ठ है । भारत में जो बडा है उसे agit = की... आर्थिक,
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सम्प्रदाय को धर्म के रूप में प्रस्तुत करना धर्म को ही संकुचित बना देना है। सम्प्रदाय को व्यापक धर्म का एक अंग मानकर उसकी प्रतिष्ठा के लिये सम्प्रदाय की शक्ति का उपयोग करना तप ही है क्योंकि तब अनुयायिओं की आर्थिक, राजकीय, सामाजिक, व्यक्तिगत गतिविधियों पर नियन्त्रण करना पडता है।
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अर्थनिष्ठ समाज को धर्मनिष्ठ समाज बनाने हेतु क्या करना पड़ेगा इसका आकलन करना यह बौद्धिक तप है। इस आधार पर नई रचनायें बनाना यह बौद्धिक तप है। इन रचनाओं को ही भारतीय परम्परा में स्मृति कहा गया है। स्मृति की रचना करना धर्माचार्यों के लिये बौद्धिक तप है। ऐसा तप करनेवाले ऋषि हैं।
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दूसरा है मानसिक तप । मानसिक तप करने पर ही बौद्धिक तप करने की क्षमता प्राप्त होती है। मानसिक तप के कुछ आयाम इस प्रकार हैं...
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१. सम्मान और प्रतिष्ठा का त्याग करना, उसकी अपेक्षा नहीं करना यह प्रथम चरण है। इसका उल्लेख पूर्व में भी हुआ है।
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२. सामाजिक स्वीकृति के लिये आसान तरीके, लुभावने रास्ते अपनाने का मोह टालना यह जरा कठिन मानसिक तप है।
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३. सही बातें कहने पर अनेक अवरोध निर्माण हो सकते हैं, प्रतिरोध भी हो सकता है। इन प्रतिरोधों और अवरोधों को सहना और डटे रहना भी मानसिक तप है
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४. आर्थिक और राजनीतिक लालचों में न फंसना बहुत बडा मानसिक तप है।
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५. निहित स्वार्थों का पोषण कर लाभ प्राप्त करने के लिये प्रवृत्त नहीं होना मानसिक तप है ।
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६. धर्माचार्यों को भोग विलास के साधन बहत सुलभ हो जाते हैं। इनसे प्रभावित नहीं होना भी मानसिक तप है.
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* धर्माचार्यों के लिये तप का तीसरा आयाम है शारीरिक तप का । इसके कुछ आयाम इस प्रकार हैं...
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१. धर्माचार्य गृहस्थ हो, वानप्रस्थ हो या संन्यासी उसे धर्म के विरोधी किसी भी प्रकार का आचरण नहीं करना चाहिये।
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कर्तव्य का विचार प्रथम करना है, भोग और सुविधा के बारे में अपने आपको अन्त में रखना है। इस तथ्य का स्वीकार करना तप का प्रथम चरण है। तप त्याग की अपेक्षा करता है । वर्तमान स्थिति को देखते हुए प्रथम त्याग सम्मान और प्रतिष्ठा का करना होगा । आज अनुयायिओं की ओर से जो सम्मान मिलता है और उसके कारण जो प्रतिष्ठा मिलती है वह हमें तप नहीं करने देती। इन दो बातों के लिये सिद्धता करेंगे तो आगे के तप के लिये भी सिद्धता होगी। धर्माचार्यों को आज बौद्धिक तप की बहुत आवश्यकता है। इस तप के मुख्य आयाम इस प्रकार
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अनुयायिओं की ओर से सम्मान क्यों मिल रहा है, कौन से तत्त्व उन्हें हमारे पास आने के लिये प्रेरित कर रहे हैं, उनकी दुर्बलतायें कौन सी हैं, आकांक्षायें कैसी हैं और अपेक्षायें क्या होती हैं इन्हें समझना
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और उसके बाद उनका मार्गदर्शन करना । २. धर्म को आज विवाद का विषय बना दिया गया है।
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इस विवाद से धर्म को मुक्त करने हेतु तप की आवश्यकता है। इस विवाद को समझना, उसके पीछे जो निहित स्वार्थ है उन्हें समझना, उन स्वार्थों को कैसे परास्त करना इसका विचार करना, उसकी योजना करना और योजनाओं का क्रियान्वयन करना यह तप है । विवाद में न पडना पडे इसके लिये धर्म के नाम पर संस्कृति, अध्यात्म, योग आदि के नाम स्वीकार कर धर्म संज्ञा का ही त्याग करना युद्धक्षेत्र से पलायन करना होता है। बौद्धिक तप का यह दूसरा आयाम है। सम्प्रदाय को धर्म के रूप में प्रस्तुत करना धर्म को ही संकुचित बना देना है । सम्प्रदाय को व्यापक धर्म का एक अंग मानकर उसकी प्रतिष्ठा के लिये सम्प्रदाय की शक्ति का उपयोग करना तप ही है क्योंकि तब
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भारतीय समाज धर्मनिष्ठ है । भारत में जो बडा है उसे ही अपने साथ अधिक कठोर बनना है। बड़ों को
    
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ही अपने साथ अधिक कठोर बनना है । बडों को राजकीय, सामाजिक, व्यक्तिगत गतिविधियों पर
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